जिन दिनों सीतामढ़ी में इंटर का विद्यार्थी था तो अपने मित्र श्रीप्रकाश की सलाह पर मैंने एक पत्र राजेंद्र यादव को लिखा था. ‘हंस’ पत्रिका हमारे गाँव तक भी पहुँचती थी. हम दोनों मित्र लेखक बनने के लिए बेचैन थे और जिससे भी मौका मिलता लेखक बनने की सलाह मांगते थे. राजेंद्र जी को भी मैंने लिखा था कि लेखक बनने के लिए क्या करना चाहिए? हफ्ते भर के अन्दर ही यादव जी का हाथ से लिखा जवाब आया था कि लेखक बनने का कोई फार्मूला नहीं होता, वह नैसर्गिक होता है. अभ्यास करते रहो अगर प्रतिभा होगी तो लेखक बन जाओगे. पत्र दिल तोड़ने वाला जरूर था लेकिन अप्रत्याशित भी था कि मेरे जैसे एक अनजान-गुमनाम आदमी के पत्र का जवाब देना भी उन्होंने जरुरी समझा. जबकि उनके लिए वे ‘हंस’ की घनघोर व्यस्तताओं के दिन थे.
वे हर बात का जवाब देते थे, सबको जवाब देते थे. इसीलिए सबको अपने लगते थे. हिंदी लेखकों की एक पूरी नई पीढ़ी तैयार करने वाले इस लेखक-संपादक को कभी मैंने गुरु-गंभीर होते नहीं देखा. कोई भी उनसे मिलने जा सकता था, कोई भी उनसे कुछ पूछ सकता था. इस मामले में वे दिल्ली के बाकी ‘महान’ लेखकों से एकदम भिन्न थे. उनसे मिलकर किसी के अन्दर भी आत्मविश्वास जग जाता था, किसी को भी लेखक होने का भ्रम हो जाता था. इतना सार्वजनिक दूसरा लेखक व्यक्तित्व मैंने नहीं देखा. शायद जिसका अपना कोई कोना नहीं था.
उनके जाने से वाद-विवाद-संवाद की एक विराट परम्परा का सहसा अंत हो गया. वे खुली बहसों में विश्वास रखते थे, असहमतियों का सम्मान करते थे और अवसर आने पर खुले दिल से अपनी गलतियों को स्वीकार भी कर लेते थे. वे हिंदी के आखिरी बड़े संपादक व्यक्तित्व थे, नई प्रतिभाओं के सबसे बड़े पुरस्कर्ता थे, अस्मितावादी विमर्श के प्रतीक थे, साहित्य के एक ऐसे संगम की तरह थे जिसमें हिंदी की सारी धाराएँ आकर मिल जाती थी.
लेकिन मेरे लिए तो वे एक ऐसे लेखक थे जिसने मेरे पत्र का जवाब दिया था. लिखा था प्रतिभा होगी तो लेखक बन जाओगे. अभ्यास करते रहो. न जाने कितनों की प्रतिभा का उन्होंने परिमार्जन किया, उनको लेखक बनाया.
लेकिन मेरे लिए तो वे एक ऐसे लेखक थे जिसने मेरे पत्र का जवाब दिया था. लिखा था प्रतिभा होगी तो लेखक बन जाओगे. अभ्यास करते रहो. न जाने कितनों की प्रतिभा का उन्होंने परिमार्जन किया, उनको लेखक बनाया.
वे साहित्य का सदा खुला रहने वाला दरवाजा थे जो हमेशा के लिए बंद हो गया.
उनकी स्मृति को अंतिम प्रणाम!
चित्र साभार: vaniprakashan.in
"इस तरह के निजी अनुभव-प्रसंग राजेन्द्रजी की बुनावट को समझने के लिए मददगार हैं।''
हंस मे सृंजय की कहानी कामरेड का कोट छपी थी ।उसपर लंबी बहस लगातार छप रही थी । मैंने राजेन्द्रजी को एक पत्र लिखा की इतने पन्नों मे पाठक बहस क्यों पढे ? हमें इन पन्नों पर नई कहानियाँ चाहिये। बहुत असहमति भरा पत्र था, पर हंस मे अगले ही अंक में छपा वह। बहुत से नए लेखकों को हमने हंस से ही पढ्ना आरंभ किया, जो बाद मे हमारी आदत बनते गए।
साहित्य में वैचारिक असहमतियों का स्पेस अनंत होता है.. कोई भी सच अंतिम नहीं होता है.. आपने जो भी जैसे भी कहा-लिखा सब इसी स्पेस का हिस्सा है…आपने किसी का खून तो नहीं किया…तो फिर? चाय पीओगे…अरे दुर्गा…। दूसरा कौन इस दर्शन को जीता दिखता है आज। प्रभातजी, इस तरह के निजी अनुभव-प्रसंग राजेन्द्रजी की बुनावट को समझने के लिए मददगार हैं।
उड़ जाएगा हंस अकेला …..
उड़ जाएगा हंस अकेला ….
ये दुनिया दर्शन का मेला ….उड़ जाएगा हंस अकेला …..कुमार गन्धर्व कि पंक्तियाँ
श्रद्धांजलि