जानकी पुल पिछले करीब एक सप्ताह से अधिक समय से तकनीकी कारणों से बंद था। कल रात में हमारे साथियों ने इसको वापस हासिल कर लिया। इसी खुशी में पढ़िए प्रमोद द्विवेदी की यह कहानी। प्रमोद द्विवेदी जनसत्ता में फ़ीचर संपादक रहे और कहानियों में विट और हयुमर के लिए जाने जाते हैं। यह कहानी पढ़िए-
===================
यह दुनिया की शायद सबसे लोमहर्षक फेसबुक पोस्ट थी। अपने मित्रों-अमित्रों के बीच देवानंद के नाम से प्रख्यात इस हताश कलमकार ने यह पोस्ट अपनी मौत के बीस मिनट पहले लिखी।
उन्होंने लिखाः “ मैंने जीवन की अर्थवत्ता और महानता पर कविताएं लिखीं, लेख लिखे। आशा के सरस गीत रचे। पर जब सारे रास्ते बंद हो जाएं तो जीना बहुत मुश्किल हो जाता है।… तो अब मेरा जीना मुश्किल है। इस संसार में कोई मुझे नहीं चाहता। ऐसे अवांछित आदमी के जीने का कोई अर्थ नहीं…पर आप मुझे कायर, पलायनवादी ना समझें। सचमुच अपनी जान देने के लिए बड़ी हिम्मत की जरूरत होती है…।”
तो पोस्ट लिखने के बाद देवानंद ने जहर खाकर जान दे दी, क्योंकि यह सबसे आसान मौत थी। पिस्तौल उनके पास थी नहीं। सब्जी काटने वाली चाकू से गला काटने की हिम्मत ही नहीं थी। पंखे से लटककर जान देना भी भयानक लगता था। जहर ही सबसे सहज, गांधीवादी तरीका लगता था।
उनकी मौत के बाद फेसबुकिया जीवों के कमेंट बरस पड़े। लाइक करने वाले धर्मसंकट में थे। दुख के इमोजी या प्रतीक चिन्ह उमड़ रहे थे। विचारधाराओं में बंटे लोगों ने तरह-तरह के कमेंट किए। बहुतों ने लगे हाथ सरकार की नीतियों की भी आलोचना कर डाली। पर किसी ने यह नहीं लिखा कि वक्त पर सारे टिप्पणीकारों, कमेंटगीरों ने माली इमदाद की होती तो उन्हें जान देने की जरूरत नहीं पड़ती। इसी बहाने एक भाईसाहब ने शानदार सुझाव दे डाला, “सरकार बेरोजगार कलाकारों-लेखकों को कम से कम दस हजार मासिक भत्ता दे।”
तो क्या कलमकार ने मित्रों से मदद ना मिलने की वजह से जान दी… ?
यह हो सकता है, क्योंकि दो माह पहले ही उन्होंने एक फेसबुक पोस्ट में मदद की गुहार की थी।
उन्होंने धूमिल स्टाइल में छोटी कविता लिखते हुए अपने चार हजार फेसबुक मीतों से मर्मांतक अपील की थी- “बंधुओ, मैं ज्यादा चल-फिर नहीं सकता। फक्कड़ई में मेरी सारी पूंजी उड़ गई। बेटे ने भी नाता तोड़कर नार्वे में अपनी दुनिया बसा ली है। उसकी पत्नी स्वीडिश है। वह हिंदुस्तान नहीं आना चाहती। उनके दोनों बच्चे भी दादा से दूर रहना चाहते हैं। मेरी पत्नी वंदना भी कोरोना की दूसरी लहर में गुजर गई। मैं अकेला, बेसहारा हूं। मेरे पीएनबी बैंक एकाउंट 203…….. में या पेटीएम 9993…… में पैसा डाल दीजिए।”
तब उनकी अपील सारे मीतों ने पढ़ ली थी। कुछ ने लिखा- “हौसला बनाए रखिए। आप कविताएं, हाइकू, शेर लिखते रहिए। संकट टल जाएगा।” एक सुझाव था, “थोड़ा कामरेडी नशा छोड़ दीजिए। सरकार से मदद का जुगाड़ हो सकता है।”
लेकिन पैसा सिर्फ दो-चार ने ही भेजा। शगुन की तरह-1100, 2100…। सिर्फ एक झारखंडी फैन और युवा कवयित्री सविता कुमारी सांबे ने तीन हजार रुपए भेजे, क्योंकि उसका पति ओएनजीसी का बड़ा अधिकारी था।
हताश होकर उन्हें लिखना पड़ा-“यारों, उपदेशों से पेट थोड़ो ही भरता है। पइसा भेजो तो गाड़ी आगे बढ़े।”
पर पइसा नहीं आया। दाता पसीजे नहीं। उनकी हरकतें ही ऐसी रहीं कि दाता भी जी कर्रा करके तय कर बैठे कि इस बार उन्हें पइसा देकर दान की तौहीन नहीं करनी।
ऐसी नौबत यों ही नहीं आई।
दरअसल सदाबहार दाता भी अब उन्हें दान नहीं देना चाहते थे। वे भी नहीं जिनके भरोसे उन्होंने भरी जवानी में उधार जगत में पहला कदम रखा था।
अंततः वही हुआ। वे विलायती हो चुके बेटे विशेष प्रसाद के दिए टू बेड रूम फ्लैट में अकेले रह गए। पैसा नहीं मिलने की वजह से दस साल पुराना जौनपुरिया सहायक बद्री सिंह भाग कर नोटरी वाले बंसल जी के पास चला गया। दिवंगत पत्नी की व्हील चेयर नामक विरासत में सवार होकर देवानंद शौकिया एक कमरे से दूसरे कमरे का सफर तय करते। इस बहाने उसे याद करते हुए विचार करते कि कैसे उसने इस कुर्सी पर पांच साल निकाल दिए।
बहरहाल, आजकल खाने के लिए चौहान ढाबे से काम बन जाता था। लेकिन एक दिन वह भी बेसब्र हो गया। एक दिन खाने के आखिरी डिब्बे के साथ ढाबे के दूत ने कह दिया-“चच्चू , ठाकुर साहब ने कह दिया है कि एमाउंट हैवी हो गया है। पहले चुका दो, फिर आर्डर लेंगे…।”
उनके प्राण सूख गए। दौलत के नाम पर एक लैपटाप, एलजी वाला टीवी और स्मार्ट फोन ही था। डबल बेड किसी काम का नहीं था। सोचने लगे, किसे बेचकर पैसा मिल सकता है। आखिरी बार बेटे के ई मेल पर मैसेज भेजा- “कम से कम बीस हजार रुपए चाहिए।”
पहले की तरह कोई जवाब नहीं आया। वे समझ गए, बेटे ने हमेशा के लिए उन्हें छोड़ दिया है। उसने बाप का फोन नंबर ब्लाक करके संकेत पहले ही दे दिया था।
उन्होंने रसोई के सारे खाली डिब्बों का मुआयना करके देखा तो नाउम्मीदी ही हाथ लगी। सोच-सोचकर डरे जा रहे थे कि कल से चौहान ढाबे का खाना नहीं आएगा तो क्या करेंगे। फटाफट सूचना विभाग से रिटायर हुए अपने कांग्रेसी कवि मित्र महेश सक्सेना बेफिक्र को फोन करके बोले, “यार भीख मांगने की नौबत आ जाएगी। कुछ मदद करो।” महेश ने हूं हूं करके उनकी व्यथा तो सुन ली, पर मदद करने के बजाय सुझाव दे दिया कि “मकनवा बेच दो…। बढ़िया वन रूम सेट दिलवा देंगे, यहीं गंगा जी के पास। बाकी पैसा बैंक डालकर मौज करो राजा…। हां, कहो तो राशन पहुंचा दें…।”
सक्सेना की काइयां तजवीज में उन्हें उम्मीद तो नजर आई। पर समस्या यह थी कि फ्लैट बेटे के नाम था। कलमकार ने उन्हें निराश किया और एक दर्शन भी दे दिया कि ये कवि-लेखक घंटा भावुक होते हैं।
इस दौरान उनके साथ अजीबोगरीब घटनाएं हो गईं। बीस साल पुराने एक मित्र ने उन्हें फोन करके कहा, “मैं अमित शाह जी के दफ्तर से रणछोड़ सिंघल बोल रहा हूं। आपकी फेसबुक पोस्ट पढ़ने के बाद सरकार ने आपको पांच लाख की मदद देने का एलान किया है। पर आपको प्रगतिशील लेखक संघ को गरियाना होगा। सरकार और राममंदिर के समर्थन में कुछ लिखना पड़ेगा…।”
एकबारगी तो वे ललचा गए, पर आदतन अंदर का निकम्मा बागीपन भड़क गया-अरे ऐसी कम तैसी सरकार की…। भूखे मर जाएंगे, पर इस ससुरी जनविरोधी सरकार की मदद नही लेंगे…। कहकर उन्होंने फोन काट दिया।
दस मिनट बाद ही पंचलखिया प्रस्ताव उन्हें मेनका और रंभा की तरह लुभाने लगा। देवानंद को लगा, यह पांच लाख तो सारी दलिद्दरी दूर कर देगा। मन ही मन एक सूची बना ली कि क्या-क्या खरीदना है। धड़कते दिल से उन्होंने कथित सिंघल को फोन कर दिया। लरजते हुए बोले, “जी सिंघल साहब मैं सीनियर राइटर अनुनय प्रसाद उर्फ देवानंद बोल रहा हूं….अभी मिनिस्टरी से फोन आया था, पांच लाख की मदद का…मैं वैसे तो ऐंटी एस्टेबिल्सिमेंट रचनाकार हूं। पर सरकार इमदाद दे रही है तो मुझे कोई परहेज नहीं…मुझे अभी जिंदा रहकर बहुत कुछ लिखना है। समाज को कुछ देकर जाना है….।”
उनकी बात अभी पूरी ही नहीं हुई थी, उधर वाला व्यक्ति खिखिया कर हंस पड़ा, “गुरु पहिचाने नहीं। गोरखपुर , बेतियाहाता, जुबिली टाकीज याद है…. सिंघल फिंघल नहीं, हम रामेंदर अचल उर्फ नोनी बोल रहे हैं। आजकल हम पांडिचेरी में हैं…आपकी फेसबुक पोस्ट पढ़े थे, सोचा बतियाया जाए…।”
इतना सुनते ही वे गरज गए, “अबे लड़बहेरवे ऐसा मजाक काहे किए…अभी फ्राड का केस लिखवाते हैं। तुम्हारा फोन रिकार्ड कर लिया है। अभी मंत्रालय में कंप्लेन करते हैं…।”
उनकी झटकेदार धमकी रंग लाई। रामेंदर भाई ने तुरंत हजार रुपए पेटीएम में डालकर उन्हें शांत कर दिया। साथ ही वादा कर दिया कि चावड़ी बाजार, दिल्ली के एक प्रकाशक को बोलकर उन्हें अनुवाद का काम दिलवाए देते हैं….। इस तरह यह प्रकरण शांत हो गया।
एक मुरीद और भी आगे निकले। फेसबुक में उन्हें लाइक करते हुए बड़ा दुनियादार कमेंट अवधी में किया, “कखरी लरिका गांव गुहारे…प्रभु एकदम्मे लुल्ल बटे सन्नाटा हो…तुम्हारे बाहर वाले कमरे में रज़ा साहब की ओरिजनल पेंटिंग लगी है, उसे बेच डालो…मोटा पइसा मिल जाएगा।”
इस कमेंट में जान तो थी। पर हकीकत में यह ओरिजनल पेंटिंग थी ही नहीं। पर उन्होंने अपनी हवा बनाने के लिए सुर्रा फेंक दिया था कि एक बार भोपाल में रज़ा ने उनकी कविताओं से खुश होकर वहीं स्केचपेन से एक कथित पेंटिंग बनाई और उन्हें भेंट की।
उन्होंने मुरीद के कमेंट का जवाब नहीं दिया। उसी दिन चुपचाप पेंटिंग उतार कर कोने में सरका दिया। एक डर भी लगा कि कहीं कोई पेंटिंग की जांच कर उन्हें फांस ना दे…।
असल में ऐसी पेंटिंगों-चित्रों का महत्व दीन कलमकारों ने तब जाना, जब साहित्य-कला जगत में यह बात फैली कि एक कवि-समीक्षक सुंदर उनियाल ने अपने पेंटर मित्र की कुछ कृतियां बेचकर गुड़गांव यानी गुरुग्राम में अपनी तीस साला बेटी की शाही शादी की और पत्नी को लेकर सिंगापुर, मकाओ तक घूम आए। इतना ही नहीं बचे हुए धन से सीतापुर रोड पर एक प्लाट खरीद लिया। खैर, यह कोई कदाचार की बात नहीं कि क्योंकि पेंटर चंद्रकुमार साल्वान ने बाकायदा उन्हें इजाजत दे दी थी। इस घटना के बाद यह जरूर हुआ कि चालाक कलमकार अपने पेंटर मित्रों की कृतियां संभाल कर रखने लगे। वैसे तमाम लेखकों को यह बात समझ ही नहीं आ रही थी कि इन पेंटिंगों में कौन-सा हीरा जड़ा होता है कि बावले, दीवाने लाखों लुटा देते हैं।
बहरहाल वे अब संभल गए थे। उन्हें लग गया कि लोग मदद की बजाय तफरीबाजी ज्यादा करेंगे। उन्होंने सुन भी रखा था-गरीब की लुगाई से सब ठिठोलियाते हैं। खैर, रामेंदर अचल उर्फ नोनी से अचानक हजार रुपए मिलने से वे उत्साहित हो गए। पहला काम किया, ब्लैक फारेस्ट नामक किसी विस्की का सबसे सस्ता पउवा लाए। दो अंडे की भुर्जी बनाई। लैपटाप के सामने रखकर फोटो खींची और फेसबुक में डालकर ग़ालिब साहब का शेर चिपकाया- “मारा जमाने ने असदुल्ला खां तुम्हें, वो वलवले कहां वो जवानी किधर गई।”
फेसबुक पर मदद की गुहार करने के बाद उन्हें पछतावा जरूर हुआ। पर पोस्ट डिलिट करने की इच्छा भी नहीं हो रही थी। भागते भूत की लंगोटी वाली चिंतन धारा में आ गए थे । इन संकट के दिनों में एक यूट्यूब चलाने वाला चेला मोहित राजहंस भी दिल्ली से आया। उनके जीवन में उम्मीदों के रंग भरने के लिए महंगी स्काच और बटर चिकन लेकर आया था। आते ही कह भी दिया, “गुरुवर पैसे की बात नहीं करना। दारू पियो, चिकन खाओ और फरीदा खानम को सुन ल्यो हमसे…पैसवा नहीं…।”
उन्होंने इतने से ही संतोष कर लिया। मोहित से “आज जाने की जिद ना करो…” सुनकर एकदम तबीयत हरिया गई।
सचमुच वे संतोषी जीव हो गए थे। पहली बार उन्हें लगा कि दान के बाजार में अब उनकी साख चौपट हो गई है। कितनी बार उन्होंने बीवी की बीमारी, दवा, बेटे की फीस के नाम पर जमकर धनार्जन कर लिया था। पर अब तो कोई सांस ही नहीं ले रहा। दानवीर कर्ण और दधीचि का नाम लेने वाले वाले भी अभूतपूर्व चिपड़ई दिखा रहे थे। मन ही मन वे सबको गरियाते-साले मंदिर के नाम पर चेक काट रहे हैं। एक गरीब लेखक को देने में फट रही है। असल में उन्हीं दिनों हिंदी के एक प्रख्यात जनवादी कथाकार ने राम मंदिर के लिए ग्यारह हजार का चेक काटकर, उसकी फोटो फेसबुक पर डाली था। इस विवाद में शामिल होते हुए उन्होंने एक टिप्पणी लिख डाली कि कवि-लेखकों के पास मजबूर इंसान को देने के लिए पैसे नहीं हैं। मंदिर के नाम लुटा रहे हैं…। इस पर रामभक्त दानी लेखक ने भी जवाब दे दिया, “ दारू के लिए दान देने से बेहतर है मंदिर के लिए देना।” इस विवाद में दो गुट बन बन गए। कुछ उनके साथ थे, कुछ दानी लेखक के साथ। पर उनके समर्थन में लिखने वालों ने भी एक धेला नहीं दिया।
जो भी हो, फेसबुक पर उनकी पुकार मामूली घटना नही थी। उनकी फेसबुक पोस्ट पढ़कर मेरठ के एक प्रकाशक ने उनसे संपर्क साधा और फोन करके कहा, “आपकी पीड़ा जानकर दुख हुआ। हमारा प्रस्ताव हो सकता है, आपको अच्छा ना लगे। पर इस पर काम करेंगे तो आपको फेसबुक पर इस तरह हाथ फैलाने की जरूरत नहीं पड़ेगी।”
आशंकित होकर देवानंद ने प्रकाशक का नाम और प्रयोजन पूछा। प्रकाशक ने हंसते हुए कहा, “आपको नाम चाहिए कि दाम। आपका जो छपेगा, वह भी फर्जी नाम से होगा। पर लिखेंगे वही जो हम कहेंगे। पैसा फौरन। प्रकाशन के पहले ही। कांट्रेक्ट मेल कर देते हैं…। अपना ई-मेल वाट्सऐप कर दीजिए…।”
उनकी खोपड़ी घूम गई। वे समझ गए कि मस्तराम टाइप के लेखन की बात कहेगा यह। उन्होंने कहा, यह अनैतिक है। एक जनवादी कवि और अश्लील लेखन, वह भी धन के लिए…।
प्रकाशक ने उनका सात्विक भ्रम दूर करते हुए कहा, “हिंदी के एक दर्जन लेखक-लेखिकाओं का गुजारा हमसे चल रहा है। कौन उनके नाम से जाता है। दिनेश सक्सेना को दयाराम कर देते हैं। अब आपका नाम अनुनय प्रसाद है तो इसे टीकालाल कर देंगे। कौन पहचानेगा। कौन आपकी फोटो जा रही है। महिला लेखकों को हम सरिता देवी और कामिनी देवी बना देते हैं। हमारी सेल जबरदस्त है। एक महीने में ही वारे-न्यारे हो जाते हैं। प्रकाशक ने एक बिंदास बिहारी लेखिका का नाम लेकर बताया कि हाल में मिसेज चंपो की हसीन शामें नामक जो सिरीज गुड्डी प्रकाशन से आई हैं, उसके लिए पचास फीसद पेशगी उन्हें दी गई थी। इसलिए महाराज लेखन में नैतिकता की लंगड़ी मत लगाइए….। भूखे कलम ना चले गोपाला…।”
देवानंद को प्रस्ताव आकर्षक तो लगा पर नैतिकता आड़े आ गई। वे सोच रहे थे कि इस तरह का लेखन भी शीलभंग जैसा है। मन को कितना विकृत करना पड़ता होगा। हालांकि आम देशवासी की तरह वे भी जवानी में मस्तराम पढ़कर विकसित हुए। पर क्रांतिकारी रुझान के कारण जल्द ही मास्को के प्रगति प्रकाशन से सस्ते में आए ‘दास कैपिटल’ पर आ टिके। हालांकि यह उनके समझ में कभी नहीं आया। मस्तराम के दृश्य संस्करणों यानी पोर्न जगत में भी उनकी रुचि नहीं रही। आज अचानक मेरठिया प्रकाशक की बात से वे थोड़ा डगमगा गए। उन्होंने उसे दुत्कारने के बजाय इतना ही कहा, “थोड़ा वक्त दीजिए। सोचकर बताएंगे।”
प्रकाशक ने कहा, “श्योर। कभी भी आप कॉल कर सकते हैं।”
अनुनय प्रसाद यानी देवानंद के जीवन में इतना बड़ा धर्मसंकट तो कभी नहीं आया।
यहां एक बात यह साफ करना जरूरी है कि कई कारणों से अनुनय भाई जीवन भर देवानंद के नाम से ही मशहूर रहे। असल में उन्होंने फिल्म वाले देवानंद पर एक कविता भी लिखी थी। पर देवानंद नाम इसलिए पड़ा कि वे जब साठ साल के हो गए, तब भी फिल्म जानी मेरा नाम के देवानंद जैसे दिखते थे। छोटे कद , काले बाल, तिरछी चाल ने उनकी वास्तविक उम्र से छल कर रखा था। फ्री की दारू पार्टी में वे गाइड और गैमलर वाले देवानंद के डॉयलाग सुनाते थे। विख्यात फिल्म समीक्षक राम खरे ने एक बार देवानंद का मजाक उड़ाया तो उन्होंने हमेशा के लिए कुट्टी कर ली। वे अपनी बीवी की बुराई सुन सकते थे, पर देवानंद की नहीं। दोस्त भी मजाक- मजाक में कहते कि “अनुनय भाई आप एकदम से देवानंद जैसे हो।”
बस, इसी चक्कर में वे देवानंद कहे जाने लगे। देवानंद की तरह ही वे कमीज का सबसे ऊपरी बटन लगाते थे, ताकि गले की झुर्री उम्र बयां ना कर दे। देवानंद का असली यानी कुंडली और दसवीं की सनद वाला नाम कागज में ही चलता रहा। फेसबुक में भी अनुनय प्रसाद ही रहे।
कमाल की बात यह कि जिस तरह संसार में बहुत लोंगों को दान देने का नशा होता है, उसी तरह देवानंद यानी प्रसाद साहब को मांगने का नशा था। वे चुनही भी मांग कर खाते थे। मयपरस्ती भी दान के धन से करते थे। ऐसा भी नहीं कि देवानंद धन से विहीन रहे हों। बड़े भाई विनय प्रसाद मीडिया जगत में धमाल मचाए रहे। पर वे मुख्यधारा के मीडिया में थे और सरकार की लल्लो-चप्पो वाली खबर में ज्यादा यकीन रखते थे। इसी बात पर देवानंद ने उनसे नाता तोड़ लिया और बाकायदा लिखकर दे दिया कि उनसे किसी तरह का नाता नहीं है। कामचलाऊ जीविका के लिए देवानंद ने एक महान जनवादी पत्र पकड़ा और इस मत पर चले कि सत्यशोधियों को पैसे के पीछे भागने के बजाय जनता के लिए काम करना चाहिए। यह तो बैरी गिरस्ती के जंजाल ने उन्हें आभास करा दिया कि पैसे के बिना जीवन की गाड़ी डगमगाती चलेगी। उन्हें आत्मबोध हुआ कि धनिक, बुर्जुआ टाइप के मित्रों के धन को ग्रहण करने में कोई बुराई नहीं। उधार तो लिया ही जा सकता है। भविष्य में कभी माया बरसी तो उधार वापस भी किया जा सकता है।
इस तरह उनका अनंत मंगता जीवन चलता ही रहा। जैसे चना जोर गरम वालों के पास खैंचू लोकगान होते थे, उसी तरह मांगने के लिए उनके पास कई अचूक बहाने होते थे-“वाइफ को गायने वाली डाक्टर को दिखाना है। बेटे की फीस जमा नहीं हुई तो नाम कट जाएगा…।”
कई बार तो असमय किसी रिश्तेदार को मार कर देवरिया, पटना जाने का किराया ले लेते थे। घर के आसपास पकड़े जाने पर कोई ना कोई मासूम बहाना होता।
प्रसंगवश बता दें, उनके जीवन में संपन्नता का दौर तीस साल पहले बस एक बार तब आया, जब दैनिक फ्रंटमैन के बंद होने पर उन्हें दो लाख रुपए देकर सड़क पर ला दिया गया। इस मौके का फायदा कुछ पत्रकारों ने उठाया और सरकारी कृपा से बने पत्रकार एंक्लेव में जगह ले ली। पर देवानंद ने कहा कि मकान-जगह के बारे में बुढ़ौती में सोचना चाहिए। अभी उम्र पड़ी है। नहीं जगह मिली तो वापस पडरौना चले जाएंगे। इस चक्कर में वे मकान विहीन रहे और उनके सारे चेले पत्रकार एंक्लेव में मकान मालिक बन गए। एक-दो ने प्लाट बेचकर ऋषिकेश के पास ठिकाना बना लिया।
देवानंद ने उथल-पुथल भरे जीवन में एक ही विचारशील काम किया कि एक बेटे के जन्म के बाद माओ वाले चीन से प्रेरणा लेते हुए दूसरे बच्चे को रोकने का इंतजाम कर दिया। पत्नी ने कुछ दिनों उनका हाथ बंटाने के लिए एक पंजाबिन की क्रेच में काम किया। लेकिन छोटे बच्चों की जिम्मेदारी संभालना उसके वश में नहीं था। अपनी हार स्वीकार करते हुए पति से कह दिया, आप ही काम करिए। हम अपने विशेषवा का भविष्य बनाएंगे। शायद इसी का नतीजा रहा कि देवानंद की आवारा जीवन-शैली से बचाते हुए पत्नी ने बेटे विशेष प्रसाद को इस लायक बना दिया कि वह आगे चलकर आईआईएम हैदराबाद होते हुए विलायत पहुंच गया।
विशेष प्रसाद भी प्रतिभा का धनी युवक था। पिताजी को कर्जभार से उतारने के लिए उसने एक दिन सारे दाताओं की सूची मांगी और सबके पैसे लौटाए। सबसे बड़ा कर्जा एक बुक सेंटर वाले भार्गव जी का था। भार्गव जी ने देवानंद को कर्जा इस शर्त पर दिया था कि लड़के का ब्याह करना तो एक बार हमसे कंसल्ट जरूर करना। दर हकीकत भार्गव जी अपनी चार नटुल्ली सालियों में से किसी को हिल्ले लगाना चाहते थे। उन्हें पता था कि विशेष लाखों में खेलने वाला है। भोला है। विपन्नता में जिंदगी गुजारने के कारण शायद लिहाजदारी में मान जाएगा। पर मामला उल्टा निकला। विशेष ने सबसे पहले अपने पिताश्री को टाइट किया और भारी आवाज वाले हीरो राजकुमार के अंदाज में कह डाला- “मिस्टर फादर, किसी की लाइफ में ज्यादा मत घुसिए। हम अपनी जिंदगी के मालिक हैं। हम ही तकदीर लिखेंगे। अपना हमराह हम ही ढूंढेंगे।”
और जब भार्गव साहब आत्मविश्वास लेकर आए तो विशेष बाबू ने तड़केदार ज्ञान दिया, “अंकलश्री ये मैरिज ब्यूरो का धंधा बंद कर दीजिए। कितना पैसा दिए थे हमारे बापू को… ब्याज सहित चुकाते हैं।” भार्गव साहब की सारी इज्जत उतर गई। कहके चले गए, “पैसे को गोली मारो बच्चा… जबान कोई चीज होती है।”
विशेष ने विदाई वाक्य बोला, “चलिए फूट लीजिए…। आपकी साली के लिए बस्ती, गोंडा में बहुत लड़के मिल जाएंगे…। हमारा लेवल थोड़ा अलग है…।”
इसके बात शामत आई बापू की। विशेष ने उनका सारा बापत्व धुंआ कर दिया। मां के सामने ऐलान कर दिया कि “अब हम इंडिया में नहीं रहने वाले। विदेश में रहकर पैसा कमाकर लौटेंगे। और इनसे कह दो कि दारूबाजी, उधारगिरी छोड़कर जेंटलमैन बन जाएं…हमारी भी कोई पोजीशन है।”
खैर, जाते-जाते विशेष ने सारी किश्तें भरकर अपना फ्लैट माता-पिता के हवाले किया। मां के नाम दो लाख की एफडी की। पिता जी को नसीहत दे दी, “अब इज्जत की जिंदगी गुजारिए। आपके एकाउंट में इतना पैसा है कि एक साल कुछ नहीं करना। घर में बैठकर अनुवाद कीजिए। पेंटिग बनाइए। धनार्जन कीजिए। मांगने की आदत छोड़ दीजिए।”
पहली बार अनुनय प्रसाद उर्फ देवानंद को लगा कि यह उनका बेटा नहीं बाप बोल रहा है। हूं-हूं करके सुनते रहे। पत्नी की ओर देखकर मियू-मियू करके बोले, “ससुरा हाइट में ही नहीं, जबान में भी बड़का आदमी बन गया है….हाथ से निकल गया।”
पत्नी ने बेटे का पक्ष लिया, “गलत कहां है वो…उसे आपका दल्लिदरपना नहीं अच्छा लगता। बड़ा आदमी है ही। नई पीढ़ी हमसे ज्यादा समझदार है।”
और इस तरह भारत छोड़ो आंदोलन में शराफत से शामिल होते हुए विशेष बाबू लंदन, फिनलैंड होते हुए नार्वे पहुंच गए। उनतीस साल की सरहद पार करते ही उनकी स्वीडिश सखी विम्जी ने अल्टीमेटम दे दिया, घर बसाना है तो हां करो, नहीं तो दूसरा आसरा देखा जाए…।
विशेष को यह बेबाक अदा सुहा गई। बस घर में सूचना दे दी कि हम इस्कॉन मंदिर में शादी कर लिए हैं। साथ में एक फोटो भी मेल पर भेजी जिसमें विम्जी ने भारतीय परिधान में एक माला पहन रखी थी।
चोट खाए देवानंद ने ‘हाय’ कह डाला। इस विषय पर कोई कविता भी नहीं बन पा रही थी। हार कर पत्नी से इतना जरूर कहे, “वंदना जी सचमुच कहीं पढ़े थे- महत्त्वाकांक्षा का मोती निष्ठुरता की सीप में पैदा होता है। यह ससुरा अब इंडिया नहीं लौटने वाला…गयो रे हाथ से…। बचपन में कहता था, अम्मा हम श्रवणकुमार की तरह आपकी सेवा करेंगे। यह घुंइया सेवा करेगा….हमें तो लग रहा है कि अपने किरिया-करम के लिए भी हमें ही इंतजाम करना होगा।”
पत्नी ने देवानंद के मुंह पर हाथ रख दिया, “इतना एक्सट्रीम पर काहे जा रहे हैं…भगवान सब इंतजाम करता है। चूक हमसे ही कहां हुई है। औलादें हर तरह की होती हैं। वो याद है ना राजेश खन्ना वाली फिल्म अवतार हम देखे थे प्रभा टाकीज में…इन फिल्मों में हमारे जैसे लोगों की ही कहानी होती है।”
लेकिन ऐसा भी नहीं कि विशेष ने माता-पिता को एकदम ही बिसरा दिया हो। वह अब बस सूचना देता था- पहला बच्चा हुआ। दूसरा बच्चा हुआ। वह कंपनी में असिस्टेंट वाइस प्रेसीडेंट बन गया। उसने एक घर खरीद लिया। अनिवासी भारतीयों की एक हिंदी पत्रिका में स्तंभ लिखने लगा। वह धार्मिक तो नहीं था, पर इस्कॉन मंदिर जाता था।
अब देवानंद पत्नी की आड़ लेकर संदेश भेजते थे- “मम्मी बीमार है। उनको पीजाई में भर्ती कराना पड़ेगा। एक बार देख जाओ…हो सके तो अपने पास ले जाओ…।”
बेटे का खरा जवाब था-“बहुत मुश्किल है। भाषा की दिक्कत है। वहीं रहो। इंडिया में डाक्टर बहुत अच्छे हैं…।
इस जवाब के बाद देवानंद और सुपुत्र का संवाद लगभग समाप्त-सा हो गया।
बचा-खुचा पैसा जैसे रिसने लगा था। जरूरतें भले कम थी, पर कई सालों से एंक्वेलाइजिंग स्पांडलाइटिस की मारी पत्नी की बीमारी में सारा पैसा लग गया। गनीमत यही थी कि घर अपना था। वंदना जी की एफडी भी टूट गई। इसी बीमारी के बीच अप्रैल 2021 में कोराना की महामारी चिपट गई। आक्सीजन-कंस्ट्रेटर का जुगाड़ करते ही रह गए देवानंद।
वंदना जी ने अनंत यात्रा पर जाने से पहले, उन्हें राज की बात यही बताई कि- “प्रसाद जी हमें माफ कीजिएगा। हमने पांच-पांच सौ के नोट जमा करके, बहुत सा रुपया जोड़कर आपकी बुकसेल्फ में छिपा दिया था। नोटबंदी के समय आपको बताना भूल गए। अभी एक महीना पहले देखा। डर के मारे आपको बताने की हिम्मत ही नहीं हुई। संकट में कितना काम आता।”
देवानंद ने माथा पीट लिया। ‘अरे दइया’ बोलकर इतना ही कहा- “महारानी अब आप शांति से जाओ। अपने हिस्से का दुख हम खुद ही बटोरेंगे।”
बेटे को मेल पर सूचित कर दिया, “बाबू, तुम्हारी मां इस संसार में नहीं है। उसके अंतिम संस्कार में तुम्हें बुलाना भी फार्मेलिटी ही होती। मर तो वह पहले ही गई थी। बस, कोरोना ने यह पाप अपने माथे ले लिया।”
परदेस में रहे-रहे पूरे सासांरिक तत्वज्ञानी हो चुके बेटे ने दुख जताते हुए इतना ही कहा, “पापा, आना-जाना संसार का नियम है। मम्मी को ना देख पाने का दुख है। आप अपना ख्याल रखिए। मम्मी की एक लास्ट फोटो जरूर भेज दीजिए।”
यह पुत्र से उनका आखिरी संवाद था। इस मौके पर भी उसने फोन करके हाल नहीं लिया। इससे लग रहा था कि उनके रिश्ते नाम भर के थे।
देवानंद ने समझ लिया कि उन्हें अपनी मुक्ति का रास्ता खुद ही बनाना है।
अब उनके लिए अतीत-स्मृति ही जीने का सहारा था।
कुछ सालों से पत्नी वंदना उनकी निष्क्रिय जीवनसंगिनी थीं। बस, परास्त सांसें लेता एक सूखा पुतला। यादों की गली का दरवाजा इस कदर बंद हुआ कि पति को गाली देना भी भूल चुकी थीं। ज्यादा सुधहीनता में बस इतना कहकर चिल्लाती, “प्रेम मेरी आंखों के सामने से हट जाओ…तुम जालिम हो…गरीब का खून चूसते हो।”
असल में यह प्रेम, प्रेम चोपड़ा से आया था। देवानंद जानते थे कि फिल्मों वाले प्रेम चोपड़ा ने उन पर इतना असर डाला कि आज इस अवस्था में हर अत्याचारी आदमी उन्हें प्रेम लगता है। हालांकि देवानंद अत्याचारी तो नहीं थे, पर वंदना जी ने ना जाने क्यों उनके अंदर भी प्रेम तलाश लिया था। एक तरह उन्हें संसार का हर मर्द प्रेम चोपड़ा लगने लगा था। देवानंद ने अपने मनोचिकित्सकीय ज्ञान से यह जान लिया था कि पत्नी सीजोफ्रेनिया या भग्नमनस्कता की चपेट में आ गई हैं। डर के मारे वे माचिस भी पत्नी से दूर रखते थे।
खैर, अब वंदना के जाने के बाद कोई उन्हें प्रेम कहने वाला भी नहीं रहा। देवानंद ने रोटरी क्लब से मिली उस दुर्बल व्हील चेयर को ही दिवंगत पत्नी की चिन्हारी मानकर अपना लिया। जब भी एकाकीपन उन्हें काटता, वे व्हील चेयर पर बैठकर घर में ही सफर कर लेते। व्हील चेयर शीर्षक से उन्होंने एक कविता भी लिखी जो अनागत नामक एक पत्रिका में प्रकाशित हुई थी।
अब लिखने का भी मन नहीं करता। डायमंड वालों ने एक दक्षिणपंथी महापुरुष की जीवनी के लिए उन्हें प्रस्ताव भेजा था। पर उनकी इच्छा ही नहीं हुई। वे जान रहे थे, उनकी तंगदस्ती खतरे के निशान से ऊपर जा रही है। पर क्या करते। मन चीज ही ऐसी है। देवानंद जीवन भर मन से ही चले थे।
अगर पापी पेट ना होता और हवा, सूरज की रोशनी से उनका पेट भर जाता तो वे जीने के लिए हाथ-पैर ही नहीं चलाते। जीवन में यह नैराश्य पहली बार सवार था। कहां, कभी महाराष्ट्र , पंजाब में किसानों की खुदकुशी की खबर पढ़कर वे सोचने लगते थे कि आदमी जरा से अभाव में जान क्यों दे देता है। आज उनकी समझ में आ रहा था कि जब सारे रास्ते बंद हो जाएं तो एक रास्ता मौत की तरफ जाता है, जहां पेट, भूख, सुख-दुख कुछ नहीं है।
————————————–
आज तारीख थी 22 नवंबर, 2021। असल में यह उनकी शादी की सालगिरह की तारीख थी। कई सालों से वे घर पर ही जश्न मनाते थे। व्हील चेयर में बैठी वंदना को सजाते। चाकलेट केक काटते। पत्नी की आज्ञा लेकर अपने लिए पैग बनाते। बद्री को रसोई के काम से आज छुट्टी देकर रूफ व्यू रेस्टोरेंट से खाना आता। मुकेश का ‘जिक्र होता है जब कयामत का’ गाकर देवानंद जीवन को सार्थक मान लेते।
पर आज तो वह भी नहीं थी। हताश देवानंद को लगा, मौत से गले लगकर भी तो शादी की सालगिरह मनाई जा सकती है। यह शादी की चालीसवीं सालगिरह थी। देवानंद 68 साल के हो गए थे। शादी के तीन साल बाद विशेष जन्मा था। यानी विलायत में रह रहा विशेष इस समय सैंतीस साल का हो चुका था। दो बच्चों का पिता।
देवानंद को समझ में नहीं आ रहा था कि अपनी मौत के पहले वे इतना हिसाब क्यों लगा रहे हैं। वे मौत के तरीके के बारे में भी सोच रहे थे। पंखा, चाकू, छत, गैस सिलेंडर, सब पर उनका ध्यान गया।
पर आसान मौत पर उनका ज्यादा भरोसा था। सल्फास, फिनैल, टिक ट्वेंटी…। अचानक उन्हें ध्यान आया, जहर की एक और खतरनाक शीशी उनके पास है। यह पेड़ों को बीमारी से बचाने वाला कीटनाशक था। इस पर डरावनी खोपड़ी की तस्वीर के साथ लिखा था-इसे सूंघने से भी बचे…बच्चों की पहुंच से दूर रखें। चंद बूंदें जानलेवा हो सकती हैं।
इस जहर ने उन्हें राह दिखा दी। दारू के एक पैग में एक पैग इस महाविष का मिलाया। जीने की हर संभावना खत्म करना चाहते थे, क्योंकि इतना उन्हें ज्ञान था कि विषग्रहण के बाद जीवित बचने से शरीर और कष्ट पाता है।
लैपटाप खोलने के पहले घर का एक दरवाजा उड़का कर छोड़ दिया, ताकि उनकी लाश तक पहुंचने में किसी को मशक्कत ना करनी पड़े।
फेसबुक खोलते ही उन्होंने दो महीने पहले की पोस्ट खोलकर चेक किया, जिसमें उन्होंने मित्रों से मदद की फरियाद की थी। इस पोस्ट पर तीन सौ लाइक थे। सत्तर कमेंट थे। पर पैसे देने की सूचना पांच लोगों ने दी थी।
देवानंद ने पहला काम यह किया कि उस पोस्ट को डिलिट किया, फिर जहर के गिलास को देखते हुए जीवन की आखिरी फेसबुक पोस्ट लिखने बैठ गए।
कमाल की बात यह कि लिखते हुए, यानी टाइप करते हुए एक बार भी उनकी अंगुलियां विचलित नहीं हुईं।
फेसबुक में अपनी मृत्यु-घोषणा के पब्लिक होते ही, उन्होंने मोबाइल को स्विचआफ कर दिया और इत्मीनान से जहर को जिस्म में उतारने लगे। दूसरा घूंट पीने तक पांच कमेंट आ गए थे। सबने कहा- मरिए मत, राह खोजिए…। चौथे घूंट के बाद उन्हें लगा आंखें धुंधला पढ़ पा रही हैं। वे समझ गए, जहर अपना काम करने लगा है। देवानंद ने लैपटाप भी बंद कर दिया और कहा-मेरे दोस्त लेनोवो अलविदा!
22 तारीख का कांटा 23 नवंबर में पहुंचते ही उन्होंने जहर का आखिरी घूंट लिया और बाकायदा महानिद्रा के आसन में चले गए।
फेसबुक की दुनिया में यह अनोखा पोस्ट धमाका था। जब सारी दुनिया नींद के आलम में थी, उन्होंने अतल गहराई वाली निद्रा की शरण ले ली थी।
———————–
इस अनोखी खुदकुशी के दो दिन बाद टीवी चैनलों की वानरसेना देवानंद यानी अनुनय प्रसाद की कुंडली लेकर बैठ गई थी। एक विद्वान एंकर श्यामा सिंह बता रही थी कि किस महान कवि की तर्ज पर इन्होंने आत्महत्या की है। दो मनोवैज्ञानिक एमी जोजफ और सुनेत्रा लूथरा ऐसी मौत की वजह बता रही थीं। समाज के बदलते मूल्यों और एकाकीपन पर भी प्रकाश डाला जा रहा था। इसी बहाने उत्साही एंकर ने सुशांत सिंह, ड्रग की तिजारत और दाऊद की चर्चा भी कर डाली।
अखबार थोड़ा पीछे थे। बस अंदर के पेज पर छोटी सी खबर दी थी-तंगहाल कलमकार ने जहर खाकर जान दी। खबर में प्रगतिशील लेखक संघ की श्रद्धांजलि डालकर इसे महत्त्वपूर्ण बनाया गया था। इसी में राज्यपाल शंकरलाल घाणेकर की श्रद्धांजलि भी आटोमेटिक आ गई थी।
उधर मौत की इस पोस्ट पर फेसबुक की दुनिया हिल गई थी। सौ ने शेयर किया। धड़ाधड़ लाइक हुए। आरआईपी नामक संवेदना का तो ओवरफ्लो हो चुका था।
बस एक माओवादी विद्वान ने महान टिप्पणी की थी, “भाईसाहब अगर मरे ना हों तो कोई कनफर्म कर देना। इनके एकाउंट में पचास हजार डाल दूंगा…।” फेसबुक में इनकी बड़ी थू-थू हुई।
अब लबरहे सोशल मीडिया को भी तो कुछ करना था। हमेशा की तरह मुसलमानों को खुश करने वाली एक गंगाजमुनी कहानी यों बनाई गई- जहर खाकर जान देने वाले लेखक की लावारिस लाश का अंतिम संस्कार पड़ोस के मुसलिम आरिफ खान ने किया। कंधा देने के लिए हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई आगे आए। सांप्रदायिक तत्वों को आईना दिखाया…।
दूसरी कहानी यों बनी-बाप के अंतिम दर्शन के लिए विलायत से नहीं आया कलजुगी बेटा तो पड़ोसियों ने धर्म निभाया।
देखा जाए तो देवानंद उर्फ अनुनयप्रसाद जीवित रहते जितना चर्चित नहीं हुए, उससे ज्यादा चर्चा मौत यानी आत्महत्या के बाद मिली।
लेकिन इस तरह की चर्चाएं भी अल्पजीवी होती हैं।
बेचारे विशेष प्रसाद के पास फिलहाल भारत आने का टाइम नहीं था, क्योंकि उसकी कंपनी ने नए प्रोजेक्ट लांच करने के लिए उसे इंडोनेशिया भेज रखा था।
मगर फेसबुक से उसे सारी खबरें मिल रही थीं। स्वर्गीय देवानंद की आखिरी फेसबुक पोस्ट अब भी जिंदा थी। आरआईपी बढ़ते जा रहे थे। दूर बसे कुछ मित्र अब भी पूछ रहे थे कि आप अभी इस संसार में हैं…. ?
आखिरकार, विशेष ने गंभीर चिंतन के बाद गायत्री मंत्र पढ़ते हुए दिवंगत आत्मा का फेसबुक एकाउंट विसर्जित कर दिया।
सच भी है कि मनुष्य के शरीर के साथ उसका फेसबुक एकाउंट भी इस नश्वर जगत से चला जाना चाहिए।
प्रमोद द्विवेदी
मोबाइल नंबर- 9667310319
ह्यूमर भी है और व्यंग्य भी प्रमोद जी की किस्सागोई में। गल्प के साथ साथ संवेदना के स्तर पर भी बहुत मजबूत कहानी है यह।