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वाम दिशा में ढलता सूरज

आज ‘दैनिक हिन्दुस्तान’ में  वरिष्ठ पत्रकार, कवि कार्टूनिस्ट राजेन्द्र धोड़पकर का यह लेख प्रकाशित हुआ है. जिन्होंने न पढ़ा हो उनके लिए- जानकी पुल.
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किसी विचार या युग के अंत की घोषणा करना काफी नाटकीय और रोचक होता है, लेकिन यह खतरे से खाली नहीं है। खासकर भारत में, जहां हर चीज के बने रहने की पूरी संभावना है। फिर भी इन आम चुनावों के बाद भारतीय राजनीति में वाम के लगभग अप्रासंगिक होने की इबारत साफ पढ़ी जा सकती है। या यूं कहें कि अब भारतीय राजनीति में वाम का प्रभाव उतना ही रहेगा, जितना दाल में नमक। इन चुनावों में वाम दलों को सबसे कम सीटें मिली हैं और माकपा को उसके सबसे बड़े गढ़ पश्चिम बंगाल में कुल दो सीटें मिली हैं, जहां कुछ ही वक्त पहले उसने 30 साल तक लगातार राज किया था। केरल में उसका प्रदर्शन ठीक-ठाक ही रहा है, वैसे भी केरल वाम का वैसा गढ़ नहीं है, जैसा पश्चिम बंगाल रहा है। त्रिपुरा में उसका मजबूत होना देश पर प्रभाव डालने के लिहाज से खास महत्वपूर्ण नहीं है।
वाम के इस पतन के क्या कारण हैं? एक उदाहरण देखें- गैस के दामों की बढ़ोतरी पर सबसे पहले वाम पार्टियों ने आपत्ति जताई थी। सन 2013 के मध्य में भाकपा सांसद गुरुदास दासगुप्ता ने इस मुद्दे को उठाया था और इसके खिलाफ मुहिम छेड़ी थी, जिसका कोई खास असर नहीं हुआ। इस साल अरविंद केजरीवाल ने उन्हीं तथ्यों के सहारे इस मुद्दे को उठाया और देखते-देखते इसे आम चुनावों में एक महत्वपूर्ण मुद्दा बना दिया। अरविंद केजरीवाल ने इस मुद्दे को इस तरह से पेश किया कि आम नागरिकों को वह बात जम गई। वाम पार्टियां यह नहीं कर पाईं। जनता की भाषा में जनता से संवाद का हुनर वाम ताकतें खो चुकी हैं, यह इसका उदाहरण है। वैसे हिंदी साहित्य के पाठकों को यह बात अलग से बताने की जरूरत नहीं है।
भाषा और मुहावरे के स्तर पर आम जनता से अलगाव सिर्फ भाषिक समस्या नहीं है। अलगाव तब होता है, जब समाज से आपका अलगाव हो जाता है। वाम पार्टियां या इस विचारधारा के लोग कुछ रूढ़ मुहावरों और जुमलों में सोचने के आदी हो गए हैं। वे मुहावरे और जुमले मौजूदा वास्तविक परिस्थितियों में अप्रासंगिक हो गए हैं। जो शब्दावली वे इस्तेमाल करते हैं, वह न तो समाज का प्रतिनिधित्व करती है, और न आर्थिक-सामाजिक हालात का। देश की 65 प्रतिशत युवा आबादी से तो उनका संवाद हो ही नहीं सकता। अब भारत में वामपंथ, सार्थक विचार से ज्यादा एक किस्म की शब्दावली या शैली है, जिसके अर्थ घिस चुके हैं।
दूसरा कारण ज्यादा बड़ा, भौतिक और जमीनी है। चीन में अर्थव्यवस्था के उदारीकरण और सोवियत साम्राज्य के पतन की अनेक व्याख्याएं वामपंथी करते हैं, हालांकि आखिरकार वे विचारधारात्मक विचलन’, ‘अमेरिकी षड्यंत्रऔर  कुछ गलतियोंतक सिमट जाती हैं। लेकिन चीन और सोवियत साम्राज्य के पतन का सबसे बड़ा कारण आर्थिक था। अगर चीन की अर्थव्यवस्था कथित बड़ी छलांग और सांस्कृतिक क्रांति की वजह से दिवालिया नहीं होती, तो माओ की चांडाल चौकड़ी मजे में राज कर सकती थी। लेकिन चीन में आर्थिक सुधार करने वाले लोगों का वर्चस्व इसीलिए हुआ कि चीन की अर्थव्यवस्था गर्त में पहुंच गई थी और उसे उबारना जरूरी था। इसी तरह, मिखाइल गोर्बाच्येव के दौर की दस्तावेजों  को देखें, तो पता चलता है कि सोवियत सरकार के पास जरूरी काम करने लायक पैसा भी नहीं बचा था। सोवियत अर्थव्यवस्था पहले ही घाटे में चल रही थी, अफगानिस्तान के युद्ध ने उसे पूरी तरह चौपट कर दिया। यह सही है कि समाजवादी सत्ताओं ने अच्छे काम किए। उनके राज में शिक्षा, स्वास्थ्य आदि की स्थिति बेहतर हुई। लेकिन फिर इन सब पर खर्च करने लायक पैसा भी उनके पास नहीं बचा, क्योंकि वे शुरू से अंत तक घाटे में चलती रहीं और घाटा बढ़ता ही चला गया।
इसका ही प्रतिरूप भारत में देखने में आया। एक जमाने में शिक्षित नौकरी-पेशा बंगाली ही आमतौर पर बंगाल से बाहर निकलते थे। बंगाली बाबूइसलिए उस दौर में एकदम सटीक मुहावरा था। कोलकाता देश में आधुनिकीकरण, उद्योग और व्यापार का शुरुआती केंद्र था, इसलिए लोकगीतों से लेकर त्रिलोचन की चंपाके बलम कलकत्ता जाते थे, यानी बंगाल न सिर्फ बंगालियों को, बल्कि बाहरियों को भी रोजगार दे सकता था। वाम मोर्चा के 30 साल के राज में यह हुआ कि उन पढ़े-लिखे बंगालियों की तादाद कई गुना हो गई, जो रोजगार की तलाश में बाहर आए, बल्कि लाखों की संख्या में गरीब बंगाली छोटे-मोटे काम और मजदूरी करने देश के अन्य हिस्सों में पहुंच गए। ये प्रवासी बंगाली वाम के खिलाफ सबसे प्रभावशाली प्रचारक साबित हुए। दिल्ली में बंगाली रिक्शा चालक या मजदूर वाम सरकार के खिलाफ चलते-फिरते विज्ञापन साबित हुए। कोलकाता में नए उद्योग नहीं लगे, जो पुराने थे, वे बंद हो गए। हर हफ्ते बंद होने लगे। खेती पर निर्भर लोगों की तादाद बढ़ती गई, जबकि खेती की उत्पादकता बढ़ाने की कोशिश नहीं हुई। हर स्तर पर भ्रष्टाचार और काहिली ने पश्चिम बंगाल को देश के सबसे गरीब राज्यों में ला दिया। केरल में जरूर मानव विकास के पैमाने पर तरक्की हुई है, लेकिन रोजगार की हालत वहां भी बंगाल जैसी है। यदि खाड़ी के देशों में गए मजदूरों का पैसा न हो, तो केरल भी अच्छी स्थिति में नहीं है।
मोदी के गुजरात मॉडलकी बहुत आलोचनाएं हुई हैं, उसमें से बहुत-सी जायज भी हैं। गुजरात मोदी के पहले भी विकसित राज्य था और मोदी बहुत-सी जिन बातों का श्रेय लेते हैं, वे उनके पूर्ववर्तियों की बनाई हुई हैं। लेकिन यह भी सच है कि गुजरात में बेहतर सड़कें हैं, वह अतिरिक्त बिजली उत्पादन करने वाला राज्य है और आम प्रशासन चुस्त है। मोदी के दावों को हम अतिरंजित कह सकते हैं, लेकिन लोग इसलिए भी उन पर भरोसा करते हैं कि कोई गुजराती दिल्ली में रिक्शा चलाता नहीं दिखता। देश के बाहर शायद ही कोई गरीब गुजराती दिखता हो। गुजरात में गरीब जरूर हैं, लेकिन उनके सामने राज्य छोड़कर भागने की मजबूरी नहीं है। अगर गुजरात मॉडलकी तरह वाम पार्टियां पश्चिम बंगाल मॉडलका विज्ञापन कर सकतीं, तो लोग जरूर उनकी ओर आकर्षित होते। अगर अपना ही सिक्का खोटा हो, तो सिर्फ पूंजीवाद और उदारीकरण को कोसने से कितनी विश्वसनीयता बनेगी?

ऐसा नहीं है कि वाम विचारों या संगठनों की देश में जरूरत नहीं है। भारत जैसे असमानताओं से भरे देश में तो वंचित, शोषित लोगों की आवाज उठाने वाले लोग होने ही चाहिए। पूंजीवादी और दक्षिणपंथी अतियों का विरोध करने और उसे नियंत्रित करने वाली ताकतें भी जरूरी हैं, लेकिन उनकी जगह भी सीमित ही होनी चाहिए। गाड़ी में ब्रेक जरूर होना चाहिए, लेकिन अगर ब्रेक ही गाड़ी का सबसे महत्वपूर्ण और नियंत्रक पुर्जा बन जाए, तो गाड़ी कितना चलेगी? इस मायने में अब वाम को जितनी जगह मिली है, शायद वहीं सबसे मुफीद है। अगर इससे ज्यादा सार्थक जगह वाम को चाहिए, तो उसे अपने बौद्धिक अहंकार और घिसे-पिटे मुहावरे को छोड़कर जमीनी यथार्थ का सामना करना पड़ेगा, वरना हो सकता है कि उनकी जगह इतनी भी न बचे। इनके सुधरने और संभलने की उम्मीद कुछ कम ही है। ऐतिहासिक भौतिकवाद में भरोसा करने वाले शायद ही अपने इतिहास से हटकर कुछ कर पाएं।
 
      

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5 comments

  1. urveillez votre téléphone de n’importe où et voyez ce qui se passe sur le téléphone cible. Vous serez en mesure de surveiller et de stocker des journaux d’appels, des messages, des activités sociales, des images, des vidéos, WhatsApp et plus. Surveillance en temps réel des téléphones, aucune connaissance technique n’est requise, aucune racine n’est requise.

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