मानव कौल की किताब ‘बहुत दूर कितना दूर होता है’ की समीक्षा प्रस्तुत है। हिंद युग्म से प्रकाशित इस पुस्तक की समीक्षा की है अविनाश कुमार चंचल ने- मॉडरेटर
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अभी जब मैं यह लिखने बैठा हूं सुबह के पांच बज रहे हैं। बालकनी से होते हुए कमरे तक सुबह की ठंडी हवा पसर गयी है। नींद अब तक नहीं आयी है। कुछ पानी की मोटर चलने की आवाज है। कुछ घड़ी की टिक-टिक। अभी ‘बहुत दूर कितना दूर होता है’ को खत्म किया है।
मानव कौल की किताब। जब पिछले पचास दिन से घर में बंद रहो। कहीं आना जाना ना हो। तब एक ट्रैवलॉग पढ़ना कैसा होता है जिसमें एक अकेला आदमी बहुत दूर चला गया हो और फिर वहां के किस्से सुना रहा हो। लेकिन इन किस्सों तक वो सीधा-सीधा नहीं पहुंचता। हवाई जहाज से यूरोप उतरने से पहले वो अपने गांव चला जाता है। वहां वो किसी कुएँ की मुंडेर पर बैठा अपने दोस्त सलीम से नदी के पार, हवाई जहाज से तय की गयी दूरियों के बारे में बात कर रहा होता है जहां एक पूछता हैः बहुत दूर कितना दूर होता है?
लेखक लंदन में है। बारिश ने उसे उदास कर दिया है। इस बात से बेखबर कि कल धूप होगी और वो उदासी भी वहीं रहेगी। किताब की यात्रा लंदन से शुरू होकर यूरोप के कई शहर या यूं कहें गांव की तरफ से होते हुए किसी एक शहर स्ट्रासबॉ्रग पर खत्म होती हुई मुंबई पहुंच जाती हैं। शायद फिर से शुरू होने के लिये।
इन दिनों ट्रैवलॉग बहुत सारे लिखे जा रहे हैं। हिन्दी में यात्रा साहित्य की कमी है वाली शिकायत भी काफी पुरानी पड़ गयी। कितनी ही नयी किताबें हैं, यूरोप से लेकर अपने देश के पहाड़ और गंगा तक। हर जगह के बारे में। ऐसा लगता है इन दिनों हर कोई ‘सोलो ट्रैवल’ कर रहा है और दुनिया को अपने सफर के बारे में, जिन शहरों से गुजरे, जिन टूरिस्ट स्पॉट को देखा उसको बताने की हड़बड़ी में है।
लेकिन अपनी पूरी यात्रा में यह किताब कहीं भी शहरों के बारे में नहीं है। यूरोप के बारे में नहीं है। यात्रा के ‘टूरिस्ट डिटेल्स’ के बारे में नहीं है। बल्कि खुद लिखने वाले के बारे में है। उसका मन। इस यात्रा में मिले दोस्त। कुछ पुराने दोस्त। और उनके आसपास नत्थी जिन्दगियों के बारे में जरुर है। इन जिन्दगीयों से गुजरते हुए लेखक का सफर ‘सोलो’ कम और ‘सोलफूल’ ज्यादा लगता है। तभी कई बार वह अविश्विसनीय जान पड़ता है। ऐसा लगता है कि आप नॉन फिक्शन की सड़क पर चल रहे थे और फिर किसी ने फिक्शन की गली की तरफ हाथ खिंच लिया हो।
लेखक ट्रेन से पेरिस पहुंचने को लेकर रोमांच में है। लेकिन वह पेरिस के उस रोमांच को ज्यादा देर तक नहीं बनाये रख पाता। और अपने दोस्त बेनुआ के बारे में बात करने लगता है। ढ़ेर सारी बातें। और खुद उन बातों से निकले अपने अतीत में चला जाता है और पेरिस की बारिश में वह इमली के दो पेड़ों को याद करता है। फिर भागकर फ्रांस के एक गांव chalon-sur-saone पहुंच जाता है। जहां एक अजीब बुढ़ी और अकेली महिला के घर रुकता है, साईकिल से पूरी शहर घूमता है, नदी के किनारे टहलते हुए भोपाल की रात याद करता है। लेखक बहुत जल्दी किसी चीज से ऊबता है, और फिर प्यार में भी पड़ जाता है। मैक़ॉन शहर में घूमते हुए पहला दिन वो उखड़ जाता है लेकिन जब उस शहर से विदा होने की बात आती है तो वो उदास भी हो जाता है।
किताब में ज्यादातर संवाद हैं। कई बार पब और कैफे में या चलते हुए बाहर मिले लोगों से। तो ज्यादातर बार खुद से। कई बार लेखक बुदबुदाने लगता है। जीवन के बारे में, प्रेम, रिश्तों और अकेलेपन की उदासियों के बारे में बड़बड़ाहट जैसा कुछ। शहरों को उसके लोगों से, चायखानों के टेबल पर बैठकर देखने की कोशिश लेखक करता दिखता है।
एक समय के बाद किताब के पन्नों की तरह जगह बदलते रहते हैं, लोग भी और उनसे जुड़े किस्से भी। लेकिन कुछ एक पुल है जो सबको जोड़ कर चलती रहती है पूरी किताब में। Chamonix, Annecy, starsbourg, Geneva बस शहरों के नाम बदलते हैं। कभी इन जगहों पर घूमते हुए लेखक अपने गांव पहुंचता है कभी कश्मीर, जो काफी पहले छूट गया है।
किसी पन्ने पर लेखक खुद लिखता हैः मुझे उन लोगों पर बहुत आश्चर्य होता है जो बस यात्रा करते हैं, बिना किसी आर्टिस्टिक संवाद के।
अब ये पूरी किताब दरअसल एक संवाद ही है। पता नहीं इस किताब को लिखने के लिये यूरोप जाना जरुरी था या फिर वो दुनिया के किसी भी शहर, गांव को घूमते हुए इन सारी जीवन, दुनिया और मन के डिटेल्स को लिखा जा सकता था।
किताब से गुजरते हुए हो सकता है यूरोप का बहुत जानने को, देखने को न मिले लेकिन लेखक की निजी जिन्दगी के बारे मेें थोड़ा और समझने को मिलेगा और वो निजी जिन्दगी क्या सिर्फ किसी एक की निजी जिन्दगी नहीं या हम सबकी?
क्योंकि लेखक आखिरी के पन्नों पर लिखता है, ‘मेरा सारा निजी किस तरह उन सबके निज से मेल खाता है। हम सब कितने एक जैसे हैं। बहुत निजी भी कतई निजी नहीं है।’
सुबह हो गयी है। बॉलकनी में भोर की रौशनी है। जो कमरे तक नहीं पहुंची है। मैं अब लिखना बंद कर रहा हूं। शायद नींद की उम्मीद में। लेकिन इस किताब को बीच बीच में पलटता रहूंगा कहीं दूर पहुंचने के लिये।
वैसे बहुत दूर कितना दूर होता है?
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रोचक टिप्पणी।