कल रामनवमी का पावन पर्व था. लेकिन कल रात में एक ऐसा त्यौहार शुरू हुआ है जो दो महीने तक अपना रंग जमायेगा- आईपीएल. मेरा एक छोटा सा व्यंग्य इसी त्यौहार पर- दिव्या विजय
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कल से भारत का एक नया पर्व शुरू हो गया, नाम है आई पी एल। पर्व इतना लंबा चलता है कि मैं तो क्या क्रिकेट लवर्स भी न उकता जाते होंगे तो मुझे अचरज होगा। सोचा नहीं था कभी आई पी एल के बारे में भी लिखूँगी क्योंकि मैं इस टूर्नामेंट की तो क्या, क्रिकेट खेल की फ़ैन भी नहीं। हाँ वोडाफ़ोन के क्यूट ज़ू ज़ू ज़रूर लुभाते हैं, जो इसके साथ ही चले आते हैं।
अब हर घर में सीरियल्स की वैम्प की बजाय “ओ गुरू! ठोको ताली” की आवाज़ सुनाई देगी। उम्मीद है नवजोत सिंह सिद्धू को इसके लिए भी पंजाब सरकार से इजाज़त मिल ही जाएगी। आई पी एल तो बाद में, पहले इतनी अधिक क्रिकेट क्या ख़ुद क्रिकेट के लिए घातक नहीं है। इतने तो वर्ल्ड कप हैं, टी-20 का अलग, फिर ओ डी आई का अलग। इनसे चुको तो चैंपियन्स ट्रॉफ़ी भी सब क्रिकेट नेशन्स के बीच ही होती है, तो ऐसे में विश्व विजेता देश है कौन?
मुझे इस खेल में ज़्यादा रुचि नहीं इसका कोई जेंडर ईशू नहीं है, बल्कि लड़कियाँ भी क्रिकेट एंथूज़ियास्ट होती हैं पर कोई मुझे समझाए कि इस टूर्नामेंट में हर टीम के आपस में इतने मैच रखने का कमर्शल पर्पस होने के अलावा औचित्य ही क्या है। अच्छे-अच्छे खेल प्रेमी भी उन्हीं टीमों को हर तीसरे दिन भिड़ते देख क्या उकता नहीं जाते? सिर्फ़ पैसे ही की करामात है कि अन्य देशों के खिलाड़ी भी अपने क्रिकेट बोर्ड्स से आई पी एल विंडो की माँग कर उस दौरान उन्हें फ़्री रखने की इल्तजा करते दीखते हैं।
और फिर लॉयलिटी का क्या? मतलब हमारा पसंदीदा खिलाड़ी हमारे शहर/राज्य से विरुद्ध टीम में हो तो किसे चिअर करूँ? और अपनी राष्ट्रीय टीम के खिलाड़ियों को विरोधी टीमों के खिलाड़ियों के तौर आपस में स्लेजिंग करते देख दुःख नहीं होता क्या? विराट और गौतम गंभीर का कुछ सीज़न पहले का झगड़ा आज भी याद है। जो खिलाड़ी पिछले बरस मुंबई से खेला वही इस बरस किसी और टीम से खेलेगा। कितना कन्फ़्यूज़न है।
विराट ने हाल ही में कहा कि ऑसीज़ से अब कोई दोस्ती नहीं पर ये तो अब एक ही टीम में हैं, तब आपसी सौहार्द के बिना खेलेंगे कैसे? पैसा जो न कराये सो थोड़ा। आई पी एल की ही वजह से विराट की निष्ठा पर संदेह किया गया और धर्मशाला टेस्ट न खेलने पर आरोप लगा दिया गया। ख़ैर दिन-रात अंग्रेज़ी फाँकने वाले इंडियन कमेंटेटर्स को अब इस प्रतियोगिता में हिन्दी बोलते देखना तथा विदेशी कमेंटेटर्स को भारतीय एथनिक परिधान पहने देखना ख़ुशआमदीद बदलाव है। इंडियन्स विदेशियों को रोज़ी-रोटी देने की ठसक पाल लेते हैं। जॉंटी रोड्स ने तो आई पी एल कोच रहते हुए अपनी बेटी का नाम ही इंडिया रख दिया।
डेली सीरियल्स को अझेल बताने वाले कैसे इतने लंबे पीरियड के टूर्नामेंट को झेलते हैं, कोई बताए। जानती हूँ कि इस खेल की फ़ैन न होने की वजह से क्रिकेट फ़ीवर में आउटकास्टेड भी फ़ील करती हूँ पर फिर भी मुझे कोई गिला नहीं। इंडिया मैच खेले तो ज़रूर पूरा मैच बॉल बाय बॉल न देखते हुए भी मैच परिणाम की चिंता रहती है, जीत की दुआयें भी करती हूँ। पर आई पी एल तो बस डेली सोप्स जैसा लगता है जिसको झेलना भी एक सीमा के बाद असंभव हो जाता है। घरों में रिमोट का झगड़ा शुरू हो जाता है। फ़ेसबुक, ट्विटर सब जगह बस रनिंग कमेंट्री के स्टेटस तथा ट्वीट, जैसे हमारे पास तो टीवी है ही नहीं। ये न होंगे तो हम अभागे जाने क्या करेंगे। एक नॉन क्रिकेट फ़ैन का तो बस जीना ही मुहाल हो जाता है।
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