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युवा शायर #4 नकुल गौतम की ग़ज़लें

युवा शायर सीरीज में आज पेश है नकुल गौतम की ग़ज़लें – त्रिपुरारि

ग़ज़ल-1

अब मेरे दिल में नहीं है घर तेरा
ज़िक्र होता है मगर अक्सर तेरा

हाँ! ये माना है मुनासिब डर तेरा
आदतन नाम आ गया लब पर तेरा

भूल तो जाऊँ तुझे पर क्या करूँ
उँगलियों को याद है नम्बर तेरा

कर गया ज़ाहिर तेरी मजबूरियां
टाल देना बात यूँ हँस कर तेरा

शुक्र है! आया है पतझड़ लौट कर
बाग़ से दिखने लगा फिर घर तेरा

वो मुलाक़ात आख़िरी क्या खूब थी
भूल जाना लाश में खंजर तेरा

हैं कलम की भी तो कुछ मजबूरियाँ
थक गया हूँ नाम लिख लिख कर तेरा

बावरेपन की ‘नकुल’ अब हद हुई
इश्क़ उसको? वो भी मुझसे ? सर तेरा!

ग़ज़ल-2

मेज़ के नीचे फटे काग़ज़ पड़े हैं
लफ्ज़ मेरे रात भर मुझ से लड़े हैं

बाढ़ में कितने भी घर संसार डूबें
काग़ज़ी भाषा में ये बस आंकड़े हैं

रुख़ हवा का अब चराग़ों से ही पूछो
रात भर तूफ़ां से ये तनहा लड़े हैं

हम कभी जिस खेत में मिल कर थे खेले
मिलकियत पे उसकी अब झगड़े खड़े हैं

भीड़ हो जाते जो होते भीड़ में हम
मील का पत्थर हैं सो तनहा खड़े हैं

मुंतज़िर जिनके रहे हैं हम हमेशा
वो मनाएं हम अब इस ज़िद पे अड़े हैं

है फ़क़ीरी में भी उनकी बादशाहत
जिनके दिल में सब्र के हीरे जड़े हैं

बाग़बाँ से पूछियेगा हाल दिल का
देखिये फिर बाग़ में पत्ते झड़े हैं

खोदने होंगे ‘नकुल’ तुमको कुँए भी
है बड़ी ग़र प्यास रस्ते भी बड़े हैं

ग़ज़ल-3

इज़्तिराबी अज़ाब की सी है
उन से दूरी सराब की सी है

शायरी बिन तेरे तस्सव्वुर के
ख़ाली बोतल शराब की सी है

सादगी से सजी तेरी सूरत
इक ग़ज़ल की किताब की सी है

ज़िन्दगी में कमी है लम्हों की
डायरी घर-हिसाब की सी है

उस इमारत की नींव में पीपल
इब्तिदा इंक़लाब की सी है

लब झिझकते हैं उसको छूने में
“पंखुड़ी इक ग़ुलाब की सी है”

ग़ज़ल-4

मुक़ाबले में फिर से हार हो गयी पगार की
दिहाड़ियाँ ग़ुलाम हो के रह गयीं उधार की

जवान उस ग़रीब की हुई हैं जब से बेटियां
पड़ी है भारी ‘सौ लुहार की’ पे ‘इक सुनार की’

उस ऊंघती गली में दफ़अतन वो उनसे सामना
“ये दास्तान है नज़र पे रौशनी के वार की”

सज़ा में है मिली हमें ये बेवफ़ाई दोस्तो
ख़ता वफ़ा की आदतन जो हमने बार-बार की

दुआ-सलाम, हाल-चाल पूछना तो छोड़िये,
अब उनकी इक झलक भी बात है कभी-कभार की

पहाड़ छोड़ कर ज़ुबान शह्र की तो हो गयी,
है रूह में महक मगर अभी भी देवदार की

इमारतों के मौसमों में बाग़बाँ भी क्या करे?
लगा रहा है बेबसी में क़ीमतें बहार की

घड़ी भी थक के रुक चुकी है, राह भी है सो गयी
कटेगी कैसे अब ‘नकुल’ घड़ी ये इंतज़ार की

 
      

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Poet, lyricist & writer

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