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मान्यता है दशमी के दिन गंगा धरती पर आई थीं इसीलिए गंगा दशहरा

आज गंगा दशहरा है. आज के दिन इतना अच्छा पढने को मिल गया. वरिष्ठ पत्रकार राजीव कटारा ने लिखा है. आप भी पढ़िए- मॉडरेटर

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कुछ साल पहले की बात है। ऋषिकेश में रिवर राफ्टिंग कर रहे थे।एक अलग अनुभव है। गंगा के साथ-साथ बहने का आनंद। फिर मैं अपने से पूछता हूं, क्या यह गंगा की गोद में बहने का आनंद नहीं है? गंगा की गोद कौन नहीं चाहता! और मां की! हम तमाम नदियों को मां कहते हैं। मां और बहने का कोई रिश्ता तो जरूर है? नदी तो बहती है। झील कहीं रुक सकती है। तालाब कहीं रुक सकता है। लेकिन नदी नहीं। झील या तालाब से हम मां जैसा कोई रिश्ता नहीं बनाते। लेकिन नदी से बनाते हैं। फिर गंगा की तो बात ही क्या!

आज गंगा दशहरा है। जेठ के शुक्ल पक्ष में पहले दस दिन गंगा को ही समर्पित होते हैं। माना जाता है कि दशमी के दिन ही गंगा धरती पर आई थीं। इसीलिए यह समाज उनकी कृतज्ञता में पूरे दस दिन उत्सव मनाता है। हम गंगा के साथ-साथ जीना चाहते हैं। शायद मरना भी। अपने जीवन की अंतिम बूंद भी हम गंगाजल की लेना चाहते हैं। अगर हमारा जीना-मरना नहीं हो पाता, तो अपने यहां एक मंदिर ही बना डालते हैं। वह भी नहीं होता, तो हम गंगाजल अपने घर ले आते हैं। अलवर और भरतपुर में मैंने ऐसे मंदिर देखे हैं। स्वामी विवेकानंद अपने साथ हमेशा गंगाजल रखते थे। वह मानते थे कि गीता और गंगा जल हिंदुओं का हिंदुत्व है। विदेश में जब भी वह बेचैनी महसूस करते थे, तो गंगाजल पी लेते थे। उनका मानना था कि पश्चिमी सभ्यता के पेरिस, लंदन, न्यूयॉर्क, बर्लिन, रोम सब मिट सकते हैं, लेकिन गंगा का अस्तित्व नहीं।

पिछले साल जब ऋषिकेश गया तो हरिद्वार की ओर आते हुए मुख्य सड़क को छोड़ दिया। बैराज का रास्ता लिया। ताकि कार में अपनी मां के साथ-साथ गंगा मां के सफर का भी आनंद उठा सकूं।माँ और गंगा अपनी अपनी तरह से बहते हुए नज़र आ रही थीं।बेटा अपनी माँ के साथ आगे था और मैं अपनी माँ के साथ पीछे।और हो सकता है कि बेटा भी कुछ ऐसा ही सोच रहा हो। लेकिन जैसे ही हरिद्वार के घाट पर आए, तो मन बुरी तरह उदास हो गया। अपने हरि के द्वार आते-आते कैसी हो जाती है मां गंगे? क्या हाल बना डालते हैं हम अपनी मां का? इस सबके बावजूद क्या आस्था है, जो इतने लोगों को यहां तक ले आती है? हमारा वह मन क्या है, जो पूजता भी है और मैला भी करता है? हर बार गंगा दशहरा पर मैं समझने की कोशिश करता हूं। समझ पाता हूं या नहीं? कह नहीं सकता? इतना जरूर है कि बेहद उदास मन से प्रार्थना करता हूँ-

हे मां! तुम्हें लेकर यह आस्था हमेशा बनी रहे।
हे मां! जिंदगी की तपती दोपहरी में हमें अपनी शीतल गोद देती रहो।
हे मां! अपने प्रवाह की तरह हमारी जिंदगी को भी प्रवाहित करती रहो।
हे मां! हमें थोड़ी सी अक्ल दो, ताकि हम तुम्हें गंदा न करें।
हे मां! तुम हमें पवित्र करती रहो, लेकिन हम कम से कम तुम्हारी साफ-सफाई का तो ख्याल करें।

राजीव कटारा जी के फेसबुक वाल से साभार 

 
      

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