युवा शायर सीरीज में आज पेश है प्रदीप ‘तरकश’ की ग़ज़लें – त्रिपुरारि ======================================================
ग़ज़ल-1
मैं अगर हूँ भी तो बाज़ार की सूरत में नहीं
सो मैं तुझ ऐसे ख़रीदार की क़िस्मत में नहीं
इतना कहना है मुझे प्यार बहुत है तुम से
और ये भी कि ये कहना मेरी आदत में नहीं
एक दुनिया के सब आज़ार यहाँ पाओगे
एक बस लफ़्ज़-ए-वफ़ा अपनी हिक़ायत में नहीं
उन से बेहतर न कोई है न कोई होगा ही
मानिए मेरी क़सम से मैं मुहब्बत में नहीं
मैं जो हैरत में हूँ इस बात में हैरत क्या है
एक भी शख़्स तेरे शह्र का हैरत में नहीं
ग़ज़ल-2
मैं जो कहता हूँ मैं नायाब हूँ माने कोई
ला अगर मेरे सरीखा है ज़माने कोई
यार कुछ ले के मेरा नाम हँसा करते हैं
क्या बुरा है जो हँसे मेरे बहाने कोई
इसको कह दो कि मैं घर में नहीं पाया जाता
आया है उसकी मुझे याद दिलाने कोई
मैं वही हूँ तो नगर भर में ढिंडोरा पीटो
मैं कोई और हूँ तो और न जाने कोई
अगले ही गाम पे वहशत का है डेरा ‘तरकश’
अगले ही गाम पे रुकने की न ठाने कोई
ग़ज़ल-3
मुसाफ़िर हैं जिधर को देखता हूँ
तो मैं राह ए दिगर को देखता हूँ
सर ए सहरा लगी थी आँख मेरी
मैं उठकर अपने घर को देखता हूँ
तुम्हारी दीद का हूँ मुन्तज़िर पर
मैं जब तब लफ़्ज़ ए पर को देखता हूँ
मैं कह देता हूँ कोई शेर और फिर
समाअत के हुनर को देखता हूँ
तुम्हें मिट्टी की सूरत जानता था
हसद से कूजागर को देखता हूँ
हमेशा नुक़्स ही मिलता है मुझको
मैं जब अपनी नज़र को देखता हूँ
ग़ज़ल-4
इतना ख़ामोश कब हुए थे हम
और अचानक उबल पड़े थे हम
वो मुलाक़ात पहली थी जिसमें
आख़िरी बार मिल रहे थे हम
तुम भली थीं तो क्या भली थीं तुम
हम बुरे थे तो क्या बुरे थे हम
क्या ग़ज़ब था कि अपने ही घर में
दश्त की ख़ाक छानते थे हम
अक्ल ने देर कर दी आने में
इश्क़ के काम आ चुके थे हम
ग़ज़ल-5
खेल सब रस्म का था रस्म निभाई न गई
ज़िन्दगी हमसे तेरे तौर बिताई न गई
एक दिन आप से मिल बैठने का मौक़ा लगा
और फिर अपनी कोई थाह भी पाई न गई
देखते देखते बदले जो मनाज़िर देखे
एक मंज़र पे कभी आँख टिकाई न गई
उस ने हर बात पे कमतर ही दिखाया हमको
हम से पर दिल से कोई बात लगाई न गई
हाय क्या लब हैं तेरे और ये रंगत इनकी
और क्या मैं हूँ जो रंगत ये चुराई न गई
एक चेहरा था जिसे हुस्न अता कर न सके
एक कूचा था जहाँ ख़ाक उड़ाई न गई
रंग कैसा ये चढ़ा है जो उतरता ही नहीं
तेरे लौट आने से भी तेरी जुदाई न गई
ग़ज़ल-6
तमाम अपनों में अपना शुमार भर हूँ मैं
है यूँ कि दोस्ती का इश्तिहार भर हूँ मैं
वो कोई रात है जिसके कई सितारे हैं
निगाह ए नाज़ है जिसका ख़ुमार भर हूँ मैं
मिलूँगा तुम को मुकम्मल मैं अपने हुजरे में
दयार ग़ैर में तो रोज़गार भर हूँ मैं
तो क्या बुरा है जो क़ुरबत नसीब है हमको
तो क्या बुरा है अगर ग़मगुसार भर हूँ मैं
वो जिसकी ताक़ में नींदें हराम करता हूँ
शिकारी आप है जिसका शिकार भर हूँ मैं
मुझे शदीद तवज्जोह मिली तो हैरत है
रह ए सुख़न में तो हूँ पर ग़ुबार भर हूँ मैं