युवा कवि रवित यादव की कविताओं का मुझे इंतजार रहता है। आज उनकी दो गद्य कविताएँ पढ़िए-
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1- दुविधाओं का दोगला भूत।
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मैंने जिस-जिस ये कहा कि “मैं एक दिन यूँ भी जाऊँगा की फिर वापस न आऊँगा”, वो सब एक एक करके मेरे मेरे जीवन से जाते रहे, बस मैं ही किसी के जीवन से नही निकल पाया। उस दिन मेरा तुमसे बातों बातों में पूछना की क्या वह मुलाकात हमारे संबंधों की आख़िरी मुलाक़ात होगी तुमने कुछ नही कहा था। शायद जवाब हाँ था। संबंधो की माला बिखरने से पहले एक बार अपना एक मोती जरूर गिराती है ताकि हम समय रहते उसे फिर से जोड़ सकें लेकिन हम कहाँ सुन पाते हैं। अपने ही शोर में आने वाली सारी आहटों को अनसुना कर देते हैं। ऐसी तमाम आहटें थी जिन्हें हमने सुना था लेकिन ध्यान नही दिया। मैं दूसरों से तुम्हारी शिकायत भी करता रहा लेकिन कभी तुमसे नही कह पाया। कोशिश की थी कई बार। तुमने सुना भी। पर शायद समझा नही। फिर वही हुआ जो होना था। सफर में रहे लेकिन साथ नही चले। चल सकते थे। और भी बहुत कुछ हो सकता था लेकिन हुआ नही। क्योंकि जो हुआ वह तुम्हारी उम्मीद से बढ़कर था।
बहुत से सच्चे लोग, दूसरों का एक भी सच बर्दाश्त नही कर पाते। करना भी नही चाहिए लेकिन अगर आप उनकी अच्छाइयों से भी मुँह मोड़ लें तो खलता जरूर है। कितनी मूवीज हमने साथ देखी। उन्हें देखकर लगता है कि ये सब बस दूसरों के साथ ही हो सकता है। हमारे जीवन से ये सब बहुत दूर की बातें है। मैंने लाइफ ऑफ पाई देखी थी तुम्हारे साथ। नही अकेले। तुम कभी कोई मूवी पूरी खत्म नही कर पाई। हमेशा सो गई। मैंने सोने भी दिया। खुश रहा। अकेले ही देखा। इरफ़ान को अलविदा कहने का मौका नही मिला। नही मैं इरफ़ान नही। मैं तो वो आइलैंड हूँ जो दिन में रुकने का सहारा देते लेकिन रात में आपको खा भी सकते हैं। ये रात मेरी असुरक्षा का रूपक है। मैं चाहता नही था कि मैं अपने रिश्ते को ही निगल जाऊँ लेकिन जंगल की आग ने मुझे जद में ले लिया। मैं बच सकता था लेकिन मैं रुका रहा। ऎसा लगा जैसे जीवन ख़त्म होने को है लेकिन वो आख़िरी आसमानी परी को कुछ कहना है मुझसे। नही वो परी नही। मैं उसे चुड़ैल भी नही कह सकता। कुछ नही कह सकता मैं उसे। दुविधाओं का दोगला भूत शायद। हाँ, शायद यही।
मैं जैसे ही किनारे लगा तो मैं तुम तक भगा भी लेकिन गिर गया। सो गया। जब जगा तो देर चुकी थी। मैं जो कहता उसे समझने के लिए हम एक दूसरे को जानते तो थे पर शायद समझते नही थे। तभी तो तुम भी मुझसे अलग होते ही वहीं गयी जहाँ न जाने के लिए हम बराबर लड़ते रहे।
अब बस सवाल रह गए हैं। हवा मैं तैरते रहते हैं। कटी पतंग की तरह। जिस पर मेरा कोई नियंत्रण नही। मेरे अंदर का बच्चा तेज भागता है। उसे पता है कि किसी और कि छत पर गिरने से पहले वह उस तक पहुँच सकता है पर वो जाएगा नही। उसे दायरे मालूम है। वह भले ही एक झूठा बच्चा है लेकिन उसके भी अपने कुछ सच है। सच जिन्हें कोई नही सुनता। क्योंकि वह किसी से कहता नही। ऐसे ही हर त्रासदी के बाद वह अलग थलग पड़ गया था। इस बार भी। इस बार उसने बचाने के लिए आवाज़ भी दी। तुमने सुनी! पर जैसा तुमने समझा बात उससे अलग थी। हँसो तुम। हर उस बात पर जिस पर रोया जा सकता है। तुम्हारा हँसना और मुझे न रोने देना ही हमारे होने के अंतिम पड़ाव है। कुछ दिन में मैं भी हँसने लगूँगा। सबको लगेगा सब आगे बढ़ गए। लेकिन जिसकी जड़ें तुम्हारी मिट्टी में हों वो कहीं और लगेगा?
अब तो बस अपनी उड़ेधबुन का आसरा ढूंढता हूँ। इस सब को कुछ और कहना चाहता हूँ लेकिन वो शब्द को नही मिलते। वो किताब हाथ नही लगती जिसमें चीजों को कहने के तरीकों पर बात हो। जब तक कुछ नही मिलता लिखता रहूँगा इसी तरह। हर रात कुछ न कुछ। नसों से स्याही उधार लेकर। इस पूरी बहस में तुम्हे लग सकता है कि मैं अपना पक्ष कह रहा हूँ लेकिन अगर गौर करोगी तो मैं तुम्हारी ही तरफ हूँ। जो जानते ही वो इस बात को मानते भी हैं।
तुम मुझे कहानी बनते तो देखती हो लेकिन मेरे डाले गए चिट्ठे नही पढ़ती। आज फिर पूरे दिन के बाद यहाँ ऐसे लेटा हूँ और इस जलते लो-कॉस्ट झूमर की तरफ़ देखता हूँ तो एक पल को यह सुंदर लगता है लेकिन फिर इसकी रोशनी में खोते हुए ये मुझे डराने लगता है। अगियाबैताल की तरह। अब पता नही ये सब किसके कानों तक पहुँचेगा लेकिन तुम तक पहुँचता तो तुम क्या करती? शायद तुम वो नही करती जो मैं करता हूँ। बरामदे की तुलसी के नीचे किस्मत के उस दीये में, थोड़ी सी आशा का तेल अब भी बचा रहता है। धधक-धधक कर जलेगा और फिर बुझ ही जाएगा। बुझ जाएगा क्योंकि अब तुम्हारी बातों की सारी बातियाँ ख़त्म हो गयी हैं।
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2― यात्राएँ और यातनाएँ।
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मेरी यात्रा ही उसके लिए यातना है। मैं न चलूँ तो वो भी रुका रहे। अब जबकि मैं हिम्मत करके चलता हूँ तो उसको भी चलाना पड़ता है। बात यहाँ सिर्फ मेरे और ऑटोवाले की नही है लेकिन आप तस्वीर देखेंगे तो बात इससे बाहर भी नही है। हम दोनों में कई बातें कॉमन है। दोनों ही अपने अपने काम के प्रति उत्सुक नही है। दोनो के पास एक वाज़िब मजबूरी भी है। सो दोनो चलते रहते है।
कहता है कि कल आप नही आये तो मैं भी कहीं नही गया। एक आद सवारी आयी भी तो उन्हें लगा मैं सो रहा हूँ तो दया खा कर नही जगाया।
मैं कहता कि तो अगर मैं आऊँ ही न तो धंधा बन्द कर दोगे। सुनकर हँसने लगता है।
अरे! काहे का बंद। रात की मारामारी बंद हो जाएगी ज्यादा से ज्यादा। रात में लेकिन पैसा ज्यादा है। चाहे जितना मांग लो। आदमी बस रात में कैसे भी घर पहुँचना चाहता है। सो मुँहमाँगा दे भी देता है। अभी कल ही मैंने मज़ाक में जी.टी.बी. से मॉडल टाउन के तीन सौ माँग लिए, उन्होंने दे भी दिया। मैं तो चाहता हूँ दिन ही न हो। बढ़िया कमाई होगी।
दोनों इस बेतुकी बात पर हँसते है। मैं नही कहता कि मजबूरी का फ़ायदा नही उठाना चहिए। मन मे आया जरूर था लेकिन जाने दिया। थोड़ी थोड़ी असभ्यता भी जरूरी है। लगना चाहिए कि रात है वैसे भी सभ्यता के हमलों से तो दिन में हम दोनों घायल रहते ही हैं।
आज आप इतने दिन में पहली बार कुछ बोले। मुझे लगा कि पता नही कैसा आदमी है। न कभी मोलभाव करे न कभी जाम में फँसकर सरकार को गाली दे। बस कान में वो सफेद तीतर और अपने में मग्न। कभी उदास भी लगते तो पूँछता नही। हमारे लिए तो ये सामान्य बात है। ज्यादातर उदासी, कमतर खुशियाँ।
तुमने खूब ध्यान दिया मुझ पर।
और क्या! हम इस शीशे से सबको देखते। लड़का लड़की में कोई भेदभाव नही। सिर्फ देखते ही है। घूरते नही है। एकबार ऐसे ही देख रहे थे एक लड़की को, उसे लगा घूर रहे हैं, दिल्ली की ही थी, सिगरेट पीती थी, पूछा था जला लूँ, हम नही पीते, लेकिन रोकते भी नही। अपना पी रही थी हम उत्सुक हो गए। कभी देखे नही थे ऐसे। हमारे यहाँ तो गाँव मे लड़कियाँ फुकनी में ही मुँह दिए रहती है। वही जिससे चूल्हा में आग बढ़ाते।
मैं जानता हूँ। चिल्लम का बड़ा भाई जैसा। हहहहह!
तो वो लड़की पूँछती आप पियोगे? हम सकपका गए। अब हम मर्द और ऊपर से सिगरेट भी नही पीते। हमे उत्तर देते नही बना। हम यूँ यूँ मुंडी हिला दिए। न हाँ में, न ‘ना’ में।
मेरे चेहरे पे मुस्कान छा गयी।
हँस लीजिए। लेकिन अब जो था हम बात दिये आपको।तबसे हमसे कोई पूछता है सिगरेट पी लूँ ऑटो में हम मना कर देते हैं। लड़का लोग नही पूछता। अपना जलाएगा पियेगा और उतर जाएगा।
आप पीते हो?
हाँ, ऑटो में नही पीता।
क्यों?
फिर पूछना पड़ेगा न। फिर तुम बात भी करोगे। जैसे देखो आज एक बार शुरू हुए हो तो बस रिकॉर्डर की तरह बज रहे।
अरे! नही बोलते हम कुछ। डूब जाइये खिड़की में। खा लीजिए सारा हवा। नाक लाल कीजिए।।
मस्तिया रहा हूँ भई। गुस्सा मत हो।
आप गाँव रहे हैं?
हाँ,
कहाँ पड़ता है ये नही पूछेंगे।।
क्यों नही?
यहाँ शहर में सब लड़का शर्माता है। अपना गाँव हमेशा पास का कोई शहर बताता है। जब हम नया-नया यहाँ आये रहे तो हम भी कह देते है कि मम्मी मेरठ से है और पापा कानपुर से। ( वातावरण में ठहाके गूँज जाते )
घर आ गया। चलते हैं। यात्रा खत्म, यातना शुरू।
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