रुचि भल्ला की रचनाएँ हँस, तद्भव, पहल, नया ज्ञानोदय, वागर्थ, कादम्बिनी, कथादेश सहित अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने के साथ इनकी कविताओं का प्रसारण आकाशवाणी के इलाहाबाद, सातारा तथा पुणे केन्द्रों से हुआ। शब्दों से प्रकृति को बांधना-छानना इनकी लेखनी में सहजता से आता है। अपनी भीमाशंकर यात्रा संस्मरण को वे जानकीपुल पर साझा कर रही हैं।
भीमाशंकर का नाम आप सबने भी सुना होगा ….। नाम मैंने भी सुन रखा था …. बस देखा नहीं था उसे 9 जुलाई 2017 से पहले तक। यह शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। भीमाशंकर मंदिर को ज्योतिर्लिंग दर्शन की खास दृष्टि से तो नहीं बस यूँ ही ख्याल चला आया कि महाराष्ट्र में रह कर महाराष्ट्र को देखा जाए। महाराष्ट्र बारिशों के मौसम में अपने पूरे रंग में आ जाता है ….पूरे शबाब पर ….। हरे–भरे पठार अपनी रंगत पर खुद ही फ़िदा होने लगते हैं।
केसरी रंग से इसे चाहे जितना भी लगाव क्यों न हो ….महाराष्ट्र दिखता हरा ही है। हरे रंग में हिमाचल प्रदेश से होड़ लेने की टक्कर रखता है मानसून के दिनों में। हरे रंग की इस रस्साकशी के खेल को देखने के ख्याल से ही भीमाशंकर मंदिर जाने का मेरा मन हो आया। वैसे तो मेरा मन उस मंदिर में भी जाने का खूब करता है जिसकी सीढ़ियों के बाहर राजेश खन्ना और मुमताज़ आखिरी कसम फिल्म में पूरी टोली और गाजे–बाजे के संग झूमते गाते हैं यह गीत –
जय –जय शिव शंकर काँटा लगे न कंकड़।
कि प्याला तेरे नाम का पीया।।
शिव के प्रेम में कौन नहीं नीलकंठ हो जाना चाहता है। नीलकंठ से याद आया …. शनिवार की दोपहर किसी काम से घर के पीछे आँगन में मेरा जाना हुआ। वहाँ जाती हूँ तो निगाह बरबस पेड़ों पर भी चली जाती है …वैसे तो आँगन में दिन भर पंछी चहचहाते रहते हैं। बैक ग्राउंड म्यूज़िक की तरह पंछियों की चहचहाहट का आॅर्केस्ट्रा बजता रहता है सूरज की विदा की बेला तक। कोयल तो भोर के पहले से ही चली आती है रात के अंतिम पहर में ….और आकर कुहुकने लगती है प्री माॅर्निंग अलार्म की तरह।
फलटन के दिन मैंने इन पंछियों की संगत में ही बिताए हैं। अब तो इनकी बोली भी पहचानने लगी हूँ और इनकी मौन की भाषा भी …. तो मैं बात कर रही थी बीते शनिवार की। आँगन में जब गई तो अचानक ही निगाह पड़ गई प्रियंका के घर में लगे सहजन के पेड़ पर। उसकी डालियों पर झूलते हुए सहजन के फूल सुच्चे मोतियों की माला लग रहे थे। मैं गुलाब, गेंदा ,रजनीगंधा, सूरजमुखी, चमेली को प्यार करने वाली देखते–देखते सहजन के फूलों के प्रेम में पड़ती जा रही हूँ। तमाम जाने–अनजाने पंछियों –भँवरों को मैंने सहजन के फूल के पास उड़ते आते देखा है।
मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं था जब मैंने फूलों के एक गुच्छे के पास नीलकंठ को बैठे हुए देखा। चुपचाप टहनी पर ऐसे बैठा हुया था जैसे समाधिस्थ शिव हों। नीलकंठ पंछी के पास वही रंग था जिस भस्म– भूत और भंग के रंग में शिव लीन रहते हैं। साक्षात नीलकंठ मेरी आँखों के आगे विराजमान थे …. जैसे हाथ थाम कर ले जाने आए हों भीमाशंकर के रास्ते के लिए ….फिर पता नहीं कब कैसे आनन–फानन रविवार की सुबह हम सब भीमाशंकर के लिए रवाना हो लिए।
फलटन से 215 किलोमीटर का रास्ता है मंदिर तक पहुँचने में ….पश्चिमी घाट के सहयाद्रि पर्वत पर 3,215 फीट की ऊँचाई पर बना हुया यह प्राचीन मंदिर है। कहते हैं ….शिवाजी महाराज ने इस मंदिर की पूजा के लिए कई तरह की सुविधाएँ प्रदान की थीं। भीमाशंकर मोटेश्वर महादेव के नाम से भी खूब चर्चित हैं।
रविवार का यह दिन गुरु पूर्णिमा का था और महीना सावन का। धूप –छाँव के साये में कार चलती रही। कहीं–कहीं बारिश की रिमझिम फुहारों से भी सामना होता रहा। हरे–भरे पठारों के बीच काली सर्पीली सड़कें जैसे शेषनाग की सवारी कराती हुईं ले जा रही थीं शिव के मंदिर की ओर। बीच रास्ते में जेजुरी भी आता है जहाँ ऊँचे पठार पर स्थित खंडोबा का प्रसिद्ध मंदिर है। इससे आगे सासवड़ की ओर हम बढ़ते गए। सासवड़ के बाद पुणे आता है। पुणे से लगभग 110 किलोमीटर की दूरी पर पड़ता है भीमाशंकर ….पर पुणे जाने से पहले जब सासवड़ आता है, उस रास्ते में अस्मिता नाम की एक दुकान है जहाँ का वड़ा पाव खासा मशहूर है।आते–जाते यात्री अस्मिता पर रुकते ज़रूर हैं , कच्चे आम के मौसम में वड़ा पाव के बीच लगाई चटनी में कैरी के छोटे स्लाइस भी रख कर देता है दुकानदार। वह खट्टा स्वाद फिर अगले बरस तक ज़ुबान पर चढ़ा रहता है कैरी के लौटने तक।
सासवड़ वैसे भी बहुत हरा –भरा रहता है।गन्ने और बाजरे के खेत ही खेत हैं और यहाँ के किसान बहुत कर्मठ। पठारी ज़मीन पर फूल खिलाना जानते हैं ….गेंदा अभी से लहलहाने लगा है उनके खेतों में। एक–दो नहीं गेंदे के अनगिनत सूरज उगा देते हैं ये खेत में। सेवंती के फूल भी उजली दंतपक्ति से खिलखिला उठते हैं गेंदें के संग। भूरी गाय भी अक्सर दिख जाती है नीली मोतियों का हार पहने सासवड़ रेलवे स्टेश्न के पहले। बड़ी–बड़ी तरल आँखों से ऐसे देखती है जैसे तलाशती है कोई बरसों पुराना नाता …जबकि जानती है गाय से तो माँ जैसा रिश्ता होता है।
खेत–खलिहान से गुज़रते रास्ते के दोनों किनारों पर गुलमोहर के पेड़ लगे हुए हैं। तन कर खड़े ये छतनार पेड़ ऐसे लगते हैं जैसे लाल फूलों वाली प्रिन्टेड छतरियाँ खोले खड़े हों धूप और बारिश से राहगीरों को बचाव देने के लिए। उदारमना प्रकृति को देखती हूँ तो आँखें भर आती हैं। दोनों हाथों से स्नेह और ममता लुटाती जाती है सब पर।
ममता भरे हाथ की छाँव में मैंने देखा ….आसमान में काले मेघ उड़े चले आ रहे थे, पठारों की दीवार को लाँघते हुए ….तभी मैंने देखा … बादल का एक बड़ा सा टुकड़ा आसमान के सीने से आ लगा। वह एकदम पठार के आकार का लग रहा था। बादल आगे और वैसा ही पठार उसके पीछे था जैसे आसमान एक आइना हो और पठार अपना प्रतिबिम्ब देख रहा हो आइने में झाँकते हुए।
रेलवे लाइन साथ–साथ चल रही थी रास्तों के संग। पठारी घुमावदार रास्तों के बीच गोल घूमता रेलवे ट्रैक ऐसा लग रहा था जैसे ईश्वर बाल रूप में बैठा ईंजन और रेलगाड़ी का चाभी वाला खिलौना खेल रहा हो ट्रैक बिछा कर। अब अगल–बगल सिर्फ और सिर्फ पठार थे ,घास के मखमली पंखों का मुकुट शीश पर धारण किए हुए।
उन्हें देखते–देखते दीवे घाट तक पहुँच आए थे हम। दिन हो या रात पुणे से आते–जाते लोग सड़क के किनारे खड़े होकर इस घाट से प्रकृति का नज़ारा ज़रूर देखते हैं … जबकि खास जगह नहीं है वहाँ खड़े होने की पर कदम सबके ठहर जाते हैं। पठार की ममतामयी गोद में पुणे इत्मीनान की साँस लेता हुया दिखता है इस घाट से …. और अगर रात का वक्त हो …देखने वाला एकबारगी सोच में पड़ जाए कि आसमाँ ऊपर है या नीचे। सुनहरी –रुपहली बत्तियों से चमचमाती यह नगरी तारों की टिमटिमाती बस्ती लगती है…जैसे दीपक में जगमगाती लौ हो। शायद यही वजह रही हो इसे दीवे घाट पुकारने की।
रास्ता आगे बढ़ता जा रहा था। पुणे आते–आते ट्रैफिक भी बढ़ आया था …. जहाँ तक निगाह जाती लोगों की भीड़ ही भीड़ और वाहनों का फैला समन्दर दिखता था। उस समन्दर के बीच राह बनाते हुए हम आगे बढ़ते गए। पठारी रास्तों की वजह से सड़कें भी सी –साॅ का झूला झुलाती जाती हैं। हमारे सामने अब चल रही थी एक ओपन जीप, उसमें महिलाएँ खचाखच भर कर बैठी हुई थीं …आपस में हँसती –बतियाती हुईं। उन्हें देख कर लगा ….सुख –दुख के कितने किस्से होते हैं हम स्त्रियों के पास कि रास्ता कट जाए पर बात खत्म नहीं होती। मन के सारे भेद खोल जाती हैं आपस में और जी हल्का कर लेती हैं। पुरुष इस एहसास से वंचित ही रह गए हैं …अपने सुख–दुख मन में समेटे हुए ,इतना कह ही नहीं पाते वे एक–दूसरे से। उनके मन की बात मन में ही रह जाती है।
यही देखते –सोचते सफ़र कटता रहा। पुणे शहर पीछे छूट चुका था। गाँव और कस्बों के बीच से राह निकलती जाती थी कि तभी पारगाँव दिखा ….वहीं दोराहे के मोड़ पर टूटी हुई एक हवेली थी ….चार सौ साल पुरानी। अब भी गर्व से खड़ी थी ….जैसे बूढ़ा शेर हो जो जब तक रहे, रहेगा शेर ही। कार से उतर कर मैंने उसकी तस्वीरें ले लीं। उसके पास ही मोड़ पर चाय की एक दुकान भी थी। दुकानदार से उस हवेली के बारे में पूछा तो मालूम हुया कि पारगाँव के राजा धैर्यसिंह उदयराजे ने बनवायी थी यह हवेली। यह जगह हवेली के अतिरिक्त असंख्य मोरों से मुलाकात के लिए भी जानी जाती है।
पक्की सड़क से रास्ता अब कच्ची सड़क पर उतर आया था। पचास किलोमीटर की ड्राइविंग मैंने भी की ….और फिर जाकर कार रोकी ऊर्जा मिल्क बार ,चौफुला के पास। मिल्क बार की लाल छत पर गौरेया का जोड़ा बैठा हुया था। एक की चोंच में घोंसले के लिए कुछ तिनके भरे हुए थे। इस कोडक मोमेन्ट को मैंने कैमरे में कैद कर लिया। ऊर्जा मिल्क बार का बादाम फ्लेवर्ड मिल्क खासा स्वादिष्ट था …ज़रूरी नहीं कि टाॅप ब्रान्ड ही अच्छे होते हैं ….जहाँ जो मिले, हम उसी के हो लेते हैं। ऊर्जा ब्रान्ड से थकावट दूर हो आयी थी।
रास्ता अब भी शेष था सौ किलोमीटर का। गाँव के गाँव आकर गले मिलते और बिछड़ते रहे। रंग सबका एक ही था हरा। निगाह जहाँ तक जाती हरा रंग ही बिखरा दिखता था। कहा भी तो जाता है कि सावन के अंधे को हरा ही हरा दिखाई देता है। यह सावन का असर है कि भीमाशंकर का प्रेम कि सब हरा …सब नीला ही नज़र आ रहा था। हरा ही नीला ….नीला ही हरा। वैसे भी प्रकृति के दो हाथों में यही दो रंग होते हैं, धरती का हरा और आकाश का नीला।
नीली छाँव में हरियाली देखते–देखते मंचर तक आ पहुँचे थे हम ….कि तभी निगाह पड़ी सामने चलते जाते एक ट्रक पर। ट्रक के पीछे अक्सर शेर–शायरी लिखी हुई मिल जाती है जिसे पढ़ना मुझे हमेशा पसंद रहा है। फलटन में आकर कभी ट्रक के पीछे हिंदी में लिखा कुछ पढ़ने को मिला नहीं। आज जब हिंदी में लिखा हुआ देखा –
मालिक की गाड़ी ड्राइवर का पसीना।
चलती है सड़क पर बन कर हसीना।।
तो निगाह नंबर प्लेट पर चली गई ….यह तो मध्यप्रदेश के ट्रक का नंबर है। ट्रक जैसे हिन्दी बोलने वाली मुझे बिछड़ी सहेली मिल गई हो।
उससे गले मिलते हुए घोड़गाँव तक चले आए थे हम। कार अब बाज़ार के बीचोंबीच चल रही थी। एक तरफ़ पक्की दुकानें और सड़क के दूसरी ओर इतवार बाज़ार लगा हुया था। काफी चहल–पहल और गहमा–गहमी थी वहाँ। लोग खरीददारी करने निकले हुए थे। घर की ज़रूरत का लगभग सब सामान सजा कर रखा हुया था इन दुकानों में। बच्चों के लिए प्लास्टिक के खिलौने ,गुड्डे–गुड़िया, मोटरकार, बंदर ,भालू, चिड़िया। कहीं एल्यूमिनियम के छोटे–बड़े बर्तन, रंग–बिरंगे कपड़े, दाल –मसाले, सब्जी –भाजी, टोकरी भर मछलियाँ भी रखी थीं बिक्री के लिए। ताजी मछलियाँ पास ही बहती नदी से लायी हुईं थीं। कार की भागती रफ्तार में बहती नदी को तो देखा था पर बोर्ड पर लिखा उसका नाम नहीं पढ़ सकी थी।
नदी किनारे बसा घोड़गाँव मेरी स्मृतियों में हमेशा रहेगा। यह पहली जगह मैंने ऐसी देखी कि सड़क के किनारे से थोड़ा पीछे की तरफ़ कब्रिस्तान नज़र आ रहा था।लोगों की भीड़ भी थी वहाँ….और उससे ही सटा हुया श्मशान घाट था।आज के समय में जहाँ बात –बात पर धर्म और मज़हब को लेकर झगड़े और फ़साद हो रहे हैं ….जहाँ इस बात पर मुद्दे उठते हैं कि मंदिर –मस्जिद साथ–साथ क्यों है ….वहाँ घोड़गाँव इस बात का जवाब लिए खड़ा है कि धर्म और मज़हब तोड़ते नहीं जोड़ते हैं जैसे जीवन के बाद भी जुड़ी हुई हैं यहाँ कब्रिस्तान और श्मशान की रूहें आपस में। यह मंज़र मेरी आँखों में सदा के लिए कैद हो आया।
पठारी सर्पीली सड़कों पर कार का पहिया आगे दौड़ता जा रहा था। साथ–साथ आसमान में रुई से बादल उड़ रहे थे। धूल का कहीं नामोनिशान नहीं था इन रास्तों पर। यही वजह थी कि बादल उजले ही मिलते रहे। सड़कें अब लगभग खाली थीं। हवा में बह रहा था उड़ते पंछियों का संगीत। दायें से बायें ….बायें से दायें वे कार के सामने ऊपर की ओर उड़ कर आते –जाते रहे। कभी कोई कौव्वा अपने काले परों की नुमाईश करता चला आता तो कभी बगुला टीनोपाल में भिगो कर चमकायी सफेद पोशाक पहने सामने आ जाता। सजी –सँवरी बुलबुल भी चली आती थी उड़ते हुए। गौरेया भी मिलती रही जोड़े में। इन पंछियों का पीछा तितलियाँ भी करती रहीं। रास्ते भर मिलती रहीं फ्लोरोसेंट तितलियाँ पठार के हरे रंग में रंगी हुईं।
इस सफ़र के साथी पंछी और तितली ही नहीं सागवान के पेड़ भी थे। हम पठार पर चढ़ते रहे, सागवान के पेड़ स्वागत में खड़े भीमाशंकर के दर्शनार्थियों को सलामी देते रहे।सागवान से मिल कर जब बढ़े ….धान के खेत ही खेत थे आगे रास्ते में। बचपन से पढ़ती–सुनती आ रही हूँ कि भारत देश सत्तर प्रतिशत गाँवों में रहता है। इतनी हरियाली और खेत –खलिहान देख कर लगा महाराष्ट्र में ही सारे हिन्दोस्तान का वह सत्तर प्रतिशत हिस्सा आ बसा है ऐसे मौसम में।
धान रोपते स्त्री –पुरुष किसान पानी से भीगे खेतों में लगातार झुक कर काम कर रहे थे। हल्की बूँदाबाँदी शुरू हो आयी थी। वे मौसम से बेखबर मखमली धानी कालीन बुनते रहे। तैयार चौकोर –आयताकार कालीन धरती पर बिछे हुए ऐसे लग रहे थे जैसे महाराष्ट्र में भदोई शहर चला आया हो धानी कालीन का गट्ठर सर पर उठाए।
देखते–देखते मापोला गाँव आ गया था। ऊँचे पठार पर चढ़ कर जब घाट से उस गाँव को देखा तो लगा The solitary reaper वाली कविता का शीर्षक शायद ऐसे ही किसी गाँव को देख कर मिला होगा विलियम वर्ड्सवर्थ को। पंछी अब भी चले आ रहे थे कार के सामने ऊपर उड़ते हुए। हवा तीव्र वेग से बह रही थी। पठार की चढ़ाई ऐसी लगती रही जैसे आसमान को छूने में हाथ भर का फासला बचा हो। तभी सड़क के बायीं ओर लगे पोल पर मेरी निगाह ठहर गई – यह तो नीलकंठ बैठा हुया था, वही पंछी जो कल घर के आँगन में मिला था। इससे पहले कि मैं उससे पहचान करती वह पलक झपकते ही उड़ चला। मेरी निगाह पीछा करती रही पर वह तो पठार के पार था।
भीमाशंकर अब दूर नहीं था। सड़क के एक किनारे जाते हुए वाहनों का कारवां था और उसी सड़क के दूसरे किनारे पर दर्शन करके लौटते हुए लोग चले आ रहे थे। उनके माथे पर चंदन का टीका और हाथ में प्रसाद था। वे प्रसन्न मन से लौट रहे थे ….कोई भागम –भाग नहीं….कोई शोर नहीं। दर्शन का सुख–संतोष उनके चेहरों से झलक रहा था। आते–जाते लोग वाहनों से उतर कर पठार की नर्म हरियाली पर भी टहल रहे थे। बीच–बीच में बाइक, बस और कार से उतर कर यात्री पठार पर बिछे नर्म हरे कालीन पर बैठ कर साथ लाया भोजन करते हुए भी मिले।
तापमान बाहर पच्चीस डिग्री के आस –पास था। भीमाशंकर का रास्ता मानसून के मौसम में खास आकर्षण लिए होता है पर्यटकों के लिए। पठारों के बीच से ऐसे मौसम में दूधिया झरने भी बह आते हैं। पर्यटक वाहनों से उतर कर भीगने लगते हैं उस नैसर्गिक फव्वारे के नीचे जाकर। तन के साथ मन भी गीला हो आता है।गीले मन पर चढ़ने लगता है सावन का हरा रंग। इस हरे रंग में रंगने चले आते हैं देश के दूर–दूर के हिस्सों से पर्यटक और दर्शनार्थी। जहाँ तक निगाह जाती है हरा–हरा ही दिखता है ….और हरे कि इतने हरे रंग कि आँखें थक आयी थीं हरे रंग में हरी होकर। ऐसी हरियाली के बीचोंबीच यह मंदिर भीमा नदी के पास बना हुया है। पंछी, तितली, मछली, पेड़ –पौधे, जानवर से भरा भरपूर जीवन है यहाँ।
भीमाशंकर मंदिर का रास्ता अब पास आता जा रहा था। आसमान के प्याले से छलकने लगी थी अमृत वर्षा। धरती –आकाश दोनों भीग रहे थे उस बारिश में। सड़क के दोनों ओर लगे बरगद के पेड़ भी नहा उठे थे अमृत वर्षा में। जटाजूट धारी वे औघड़ शिव का रूप धरे हवा में झूम रहे थे प्रेम –प्याला पीते हुए। उनकी जटाओं में अटकी काँच की बूँदें जैसे शिव की जटाओं से बहती हुई गंगा की धारा हो। दोनों ओर लगे असंख्य बरगदों के बीच से गुज़रना जैसे बरगद की बनी गुफा के भीतर से होकर जाना था। घने जंगल में इस गुफा को देख कर मुझे याद आती रही जाॅन कीट्स की कविता La Belle Dame sans Merci वाली गुफा।
साँझ ढलने लगी थी। छाने लगा था आसमान पर शिव का गाढ़ा नीला रंग …. जैसे भीमाशंकर के आसमान को डमरू की तरह हाथ में उठाए खड़े हों शिव। आकाश नीलकंठ हो आया था। नीलकंठ का नाम लिया ही था कि फिर आँखों के आगे चला आया वह पंछी और आकर बैठ गया सामने बिजली की तार पर। मंदिर अब एक किलोमीटर की दूरी पर था। नीलकंठ पंछी शिव का दूत बन कर हमें रास्ता दिखलाता रहा।
दूर से ही अब दिख रहा था मंदिर का शिखर। इसके सुंदर शिखर को 1800 सदी में बनाया था नाना फड़नवीस ने। काले पत्थरों से बना नागरा शैली में यह मंदिर स्वागत की मुद्रा में अपने दोनों हाथों को खोले खड़ा था दर्शनार्थियों की प्रतीक्षा में। उससे मिलने के लिए कदम अब बढ़ते गए। 217 सीढ़ियों का फासला था बीच में। मंदिर के मुख्य कक्ष के बाहर हजारों की संख्या में भीड़ जुटी थी। ऊँ नम: शिवाय का जाप करते लोग कतार में खड़े थे। मुख्य कक्ष में ज्योतिर्लिंग दमक रहा था। सुच्चे चाँदी से जड़ित था उस पर शिव का चेहरा जैसे अपने शीश पर धरा चंद्रमा उतार कर उसे ही अपना चेहरा बना लिया हो शिव ने। घंटे–घड़ियाल लगातार बज रहे थे। रंग–बिरंगे फूलों की वर्षा हो रही थी ज्योतिर्लिंग पर। हर–हर महादेव के जाप से भीमाशंकर मंदिर की दीवारें गूँज उठी थीं। पल भर से ज्यादा ठहरना संभव कहाँ हो पाता है मंदिरों में। नज़र भर देख कर चाँदी की नक्काशीदार सीढ़ी पर पाँव धर कर उतर आयी थी मैं मुख्य कक्ष से बाहर।
217 सीढ़ियाँ इंतज़ार कर रही थीं मेरा लौटने के लिए। भीड़ अब भी खड़ी थी कतार में फूल –माला और प्रसाद लिए हाथों में। सीढ़ी के एक ओर अनगिनत दुकानें सजी थीं ….पूजा सामग्री, फूड स्टाॅल, खिलौनों और साज –सजावट के सामान की। चौड़ी–चौड़ी सीढ़ियों के किनारे लोहे की बैंच भी बनी हुई थी, लोग खाते–पीते आ–जा रहे थे वहाँ बैठ कर।कहीं इलायची डली चाय खौल रही थी, कहीं भुट्टे भूने जा रहे थे। मावा भी भूना जा रहा था ताजे पेड़ों के प्रसाद के लिए। एक बच्चा बाँसुरी खरीद रहा था स्टाॅल से। एक महिला काँसे के कँगन का भाव तय कर रही थी उसे उलट –पुलट कर देखते हुए। दुकानों के पीछे पठार पर लगे पेड़ों पर वानर सेना उछल –कूद मचा रही थी। लोग आते –जाते रुक कर उन्हें देख रहे थे … और तस्वीरें खींच रहे थे …. वे भी प्रसन्न चित्त थे पोज़ देते हुए।
आखिरी सीढ़ी पर पहुँच कर मैंने वापस मंदिर की ओर देखा …. मंदिर के काले पत्थरों का रंग आकाश पर चढ़ आया था। आसमान में निकल आया था गुरुपूर्णिमा का चाँद। बदली वाले आसमान में तारे आज नदारद थे …सिर्फ चाँद था वहाँ। रात के लहराते समन्दर में बादलों की खुली सीप के अंदर श्वेत मोती सा दमक रहा था चाँद। मैंने उसे गौर से देखा ….यह तो वही चाँद था जिससे मैं मिल कर आयी थी भीमाशंकर मंदिर में।
बहुत अच्छा है प्रवास वर्णन…