सुशील कुमार भारद्वाज ने बहुत कम समय में पटना के साहित्यिक परिदृश्य पर अपनी उल्लेखनीय उपस्थिति दर्ज की है. पेशे से अध्यापक हैं और उनकी कहानियों में बिहार के सामाजिक जीवन के ‘स्लाइसेज‘ होते हैं. उनको पढ़ते हुए बिहार का समकालीन समाज समझ में आता है. जानकीपुल पर आज है उनकी कहानी “जाति बदल लीजिए”.
सच कहूँ तो पटना से मुझे बहुत प्यार है. इसे मैं अपना मानता हूँ. भले ही मेरा जन्म यहां की मिट्टी में नहीं हुआ है लेकिन जीवन की शुरुआत तो यहीं से हुई है. बचपन के वो दिन जिन्हें याद कर के लोग आह्लादित होते उसे मैंने यहीं के गलियों, मैदानों में महसूसा है. महावीर मंदिर हो या चिड़ियाँखाना या विधानमंडल का वो प्रांगण या सिचाई भवन का वह फिल्ड जहां आज अधिवेशन भवन खड़ा है, या स्कूल–कॉलेज, कुछ भी हमारी पहुँच से दूर नहीं था. तब ना तो सचिवालय के इर्द–गिर्द इतनी सुरक्षा व्यवस्था थी न ही पुल–पुलियों का जंजाल. जब कभी स्कूल से छूटने के बाद लिफ्ट में चढ़ने और सस्ते रसगुल्ले खाने की इच्छा होती थी सिंचाई भवन के कैंटीन में बेधड़क पहुँच जाता था. लौटने से पहले सचिवालय की टेढ़ी–मेढ़ी शानदार सड़कों पर साईकिल यूँ चलाता जैसे मोटरसाइकिल का आनंद ले रहा हूँ. वहां के पेड़ों पर चढ़ना, झूला–झूलने को आखिर कैसे भूल सकता हूँ? लेकिन ये सब चीजें अब अतीत की बातें हो चुकी हैं. पटना दो दशक में बदल भी बहुत गया है. आवोहवा और संस्कृति में तो कभी–कभी दिल्ली जैसे मेट्रो शहर को भी मात देने को आमदा. गंधाते बड़े से नाले को जहां इको–पार्क बना दिया गया है तो जिस हार्डिंग पार्क में कभी सर्कस लगता था, बस अड्डा हुआ करता था वह अब वीर कुंवर सिंह पार्क बन गया है. सरकार के राजस्व का अड्डा बन गया है तो युवाओं और बुजुर्गों के लिए सैरगाह. पटना तो अब इतना बदल गया है कि आस–पास में होने वाली खेतों की बात कौन कहे? सड़क किनारे और आस–पास में लगे हजारों पेड़ों को काटकर सड़कों, पुलों और भव्य भवनों का ऐसा जाल बिछा दिया गया है कि इसका वास्तविक अतीत महज कल्पना बन के रह गया है. कभी–कभी तो सोचने को मजबूर हो जाता हूँ कि मेरे बचपन का पटना ऐसा ही था क्या?
खैर, समय के साथ–साथ मैं भी बढ़ा. शिक्षा–दीक्षा ही नहीं जीवन के अनुभव भी बढ़े. इस बीच आदर्श के कई प्रतिमान बने और कई बने–बनाए प्रतिमान टूट कर बिखर गए. कभी जिद्दी की तरह अपने प्रतिमानों और विचारों से जोंक की तरह चिपका रहा तो कभी यूँ ही त्याग दिया. पता ही नहीं चला कि जीवन में क्या अच्छा हुआ और क्या बुरा? बस जिंदगी को जीता चला गया. खुशी और गम के बीच कभी रोया तो कभी खिलखिलाया, कभी डर–डर कर जिया तो कभी दबी भावनाओं ने आक्रोश में भरकर ऐसा साहसी बना दिया जिसकी परिकल्पना भी कभी नहीं की थी. लेकिन सबकुछ जीवन के अभिन्न हिस्से के रूप में यूँ आते रहा कि कभी समझ में ही नहीं आया कि जिंदगी इतनी जल्दी बदलती कहां की कहां पहुँच गई?
उस दिन भी मैं गांधी संग्रहालय के बगल में नवनिर्मित अशोक कन्वेंशन केंद्र में पहली बार आयोजित पुस्तक मेला का आनंद ले रहा था. इस बार पुस्तक मेला गांधी मैदान के खुले माहौल से मॉलनुमा माहौल में आयोजित हुआ था तो लोग अपना–अपना अलग अनुभव बयां कर रहे थे. किसी को गांधी मैदान का खुलापन, उठने–बैठने और जहां–तहां खाने–पीने और गप्पें लड़ाने का मेले का देसीपन पसंद आ रहा था तो किसी को धूलकण और गंदगी से मुक्त एवं व्यवस्थित व अनुशासित मॉल का अहसास कराता यह नया मेला. सबसे मजेदार बात तो ये थी कि कोई भी इंसान अपने बीतते हुए इन पलों को ऐतिहासिक बनाने के लिए अलग–अलग एंगल से अपनी फोटो खींच कर अपने मोबाइल में रखने या सोशल मीडिया पर डालने से भी चूकना नहीं चाह रहा था. और जब मैं मुख्य प्रवेश द्वार की ओर से गुजर रहा था तो एक लड़की को सेल्फी लेते देखकर मेरे पैर अचानक से ठिठक गए. दिमाग एक लम्बी छलांग लगाते हुए अतीत के पन्नों में उसकी तस्वीर और नाम तलाशने लगा. और जब उन पन्नों में उस लड़की का नाम–पता मिल गया तो अजीब–सी खुशी हुई. लगा जैसे कि दौड़ कर उससे मिल लूँ. दो पल बातें कर लूँ. लेकिन कोई भी फैसला अंत–अंत तक कर न सका. दिल और दिमाग दोनों ही आपस में उलझे हुए थे – एक तरफ भावनाएँ हिलोरें ले रही थीं कि वर्षों बाद की इस मुलाकात को यादगार बना लूँ तो व्यवहारिकता कह रही थी कि उसे भूल जाओ. वो तुम्हारी जिंदगी से वर्षों पहले जा चुकी है. बिना मतलब के आज कोई किसी को तो पूछता ही नहीं है वर्षों पुराने रिश्ते को कौन पूछता है? मैं यूँ ही मूरत बना उसे दूर से देखता रहा और वो किसी के बांहों में बांह डालकर मुस्कुराते हुए वहाँ से चली गई.
वो चली गई मेले से और मैं मेले में रहकर भी चला गया अतीत के पन्नों में. उन पन्नों में जहां हम दोनों की कुछ खट्टी–मीठी यादें थीं. वे यादें जिनका अब कोई भविष्य नहीं है जबकि अतीत में इससे एक भविष्य की तलाश की जा रही थी. एक रिश्ते को सजाने–संवारने की कोशिश की जा रही थी.
बेरोजगारी का वो आलम था जब हम दोनों मिले थे. उन दिनों जंगलराज की कहानी राज्य के एक छोड़ से दूसरे छोड़ तक ही सुनाई नहीं देती थी बल्कि चारा घोटाला, अलकतरा घोटाला, अराजकता और भ्रष्टाचार की अनुगूँज भी दिल्ली समेत दूसरे राज्यों में भी सुनाई पड़ रही थी. लोगों में निराशा घर कर रही थी तो डॉक्टर और व्यापारी रंगदारी के डर से राज्य छोड़ रहे थे. सामर्थवान लोग दिल्ली की राह पकड़ रहे थे तो बिहारियों को राज्य के बाहर हेय दृष्टि से देखा जा रहा था. एक तरफ दिल्ली से “शाइनिंग इण्डिया” का अभियान शुरू हो रहा था तो दूसरे तरफ उद्योग–धंधों और खान–खादान से भरापूरा क्षेत्र झारखण्ड के रूप में अलग हो चुका था. सरकारी नौकरी की आसा क्षीण होती जा रही थी तो प्राइवेट सेक्टर ही एक मात्र आसरा था.
हालांकि उन दिनों मैं कॉलेज में ही पढ़ता था लेकिन बेरोजगारों की बढ़ती कतार और उनमें बढ़ती निराशाओं और परेशानियों को देखकर सचेत हो गया था. पिताजी ने बचपन से ही मुझे अपनी परेशानियों के बीच भी पटना में साथ रखा तो सिर्फ इसीलिए ताकि मैं ढंग से पढ़ लिखकर एक अच्छी–सी नौकरी कर लूँ. और मैंने कोशिश भी की कि उन्हें कभी शिकायत का मौका न दूँ. पिताजी पटना में कभी सिनेमा देखने सिनेमा हाल नहीं गए तो मैंने भी ठान लिया था कि जो पिताजी नहीं किए, वह काम मैं भी नहीं करूँगा. बस जरूरत के हिसाब से स्कूल–कॉलेज में समय बिताया – न कभी किसी से ज्यादे दोस्ती की न ही फालतू गप्प–शप्प. जो समय बचता अपने बंद कमरे में किताबों के साथ बिताता. लेकिन जब कॉलेज का अंतिम वर्ष आने लगा तो नौकरी की याद सताने लगी. अंत में सोच लिया कि लिखने–पढ़ने का ही कोई काम पार्ट–टाइम में कर लूँगा ताकि कल को कॉपी–किताब के लिए पिताजी के आगे हाथ ना फैलाना पड़े या कुछ सुनना ना पड़ जाए. सोच ही रहा था कि ट्यूशन पढ़ाना शुरू करूँ या कुछ और कि एक दिन अखबार में एक इश्तिहार दिखा. शहर में एक सांध्य दैनिक की शुरूआत हो रही थी जिसमें विभिन्न पदों के लिए आदमी की जरूरत थी. यह वह समय था जब पटना में पत्रकारिता की संस्थाएं ही धड़ल्ले से न सिर्फ खुल रही थी बल्कि कई अख़बारों के संस्करण भी शुरू हो रहे थे. चैनलों की बाढ़ आ रही थी. लेकिन साल–दो–साल में ही ये सारे अखबार और चैनल कहां गायब हो गए पता ही नहीं चला.
खैर, मैंने भी कोशिश की और जीवन की पहली नौकरी लग गई. अब कुछ समय पढ़ाई में लगाता तो कुछ समय पत्रकारिता के नाम पर रिपोर्टिंग और आलेख लिखने में. सबकुछ ठीक–ठाक ही चल रहा था कि एक दिन अचानक पता चला कि अखबार बंद होने वाला है सो अपनी–अपनी व्यवस्था कर लें. अब आज तक ये तो नहीं समझ पाया कि दिल्ली में ‘इण्डिया शाइनिंग’ का नारा लगाने वाली भाजपा सरकार के सत्ता से बेदखल होने से पत्रकारिता की दुकानें तेजी से बंद हुई या कोई और बात थी, लेकिन अखबार बंद हो गई और मैं बेरोजगार हो गया.
जब तक अखबार में रहा किसी से कोई खास मतलब नहीं रखता था लेकिन बेरोजगारी के दर्द में कई एक–दूसरे के करीब होते चले गए. किसी एक जगह आवेदन की माँग हुई नहीं कि सभी एक–दूसरे को खबर कर देते थे. इसी मदद और हमदर्दी के बीच मैं कब सोफिया के करीब पहुँच गया? पता ही नहीं चला जबकि उसे शुरू में उसके व्यवहार की वजह से मैं बिल्कुल ही पसंद नहीं करता था. धीरे–धीरे ये जान–पहचान दोस्ती में बदल गई और मुलाकातों का दौर बढ़ता ही चला गया. तब तक कॉलेज में भी परीक्षा खत्म हो गई थी तो अधिकांश समय पुस्तकालय में ही व्यतीत करता था. और पुस्तकालय से लौटते वक़्त उसके दफ्तर में मिलते ही आता था. शुरू–शुरू में तो मिलता था कि कहीं से कोई ऑफर आए तो पता चले लेकिन बाद में ये आदत में शामिल हो गई. शायद मैं अपने दिल को काबू में ना रख सका. और जब तक विश्वविद्यालय में रिजल्ट निकलता तब तक हमदोनों की भावनाएँ काफी हद तक जुड़ चुकी थी. मन ख्वाबों की दुनिया में बहुत ही तेजी से सैर करने लगा था. जिंदगी के गणित इतनी जल्दी उलझते चले गए कि कुछ भी पता न चला कि कब क्या से क्या हो गया?
और एक दिन उमड़ते हुए सारी भावनाएँ कुछ इस तरह उलझीं कि लगा भयंकर विस्फोट हो गया. पहली बार महसूस हुआ कि आईने के दो टुकड़े हो गए हैं. दोनों की तस्वीर भी आईने में स्पष्ट है लेकिन दोनों दो भागों में बंट चुके हैं. उसमें गलती मेरी थी या उसकी? – कह नहीं सकता. शायद गलती हम दोनों में से किसी की नहीं थी. शायद समय की गलती थी.
उस दिन को मैं बिल्कुल ही नहीं भूल सकता. उस दिन रात भर सोया नहीं था. मन खींचा–खींचा – सा था और उलझन में ही सुबह–सुबह उठा तो सोचा कि उसे फोन कर दूँ कि डायरी लेने के लिए अब मैं एक और दिन का इंतज़ार नहीं कर सकता. अब मैं इस मिलने के सिलसिले को खत्म करना चाह रहा था. अब मैं उसके पास एक पल के लिए भी रुकना नहीं चाह रहा था. मन का गुस्सा मुझ पर ही भारी पड़ता जा रहा था. दिल और दिमाग के जंग में दिमाग हावी होता जा रहा था. और वह मुझे आदर्श को पीछे धकेल व्यावहारिक होने के लिए प्रेरित कर रहा था. मायामोह के उलझनों से निकलकर आगे बढ़ने के लिए उकसा रहा था. दिमाग बार–बार अपने घर–परिवार और समाज के प्रति कर्तव्यों का बोध करा रहा था. समय का महत्व और जीवन अनुशासन का बोध बार–बार हो रहा था.
लेकिन दिल की सच्चाई होठों पर नाच जाती और मन से एक ही आवाज आती कि क्या वाकई में डायरी लेना जरूरी है? या डायरी मुलाकात का एक जरिया है जिसके बहाने एक–दूसरे से मिलते हैं? डायरी लेने की तारीक मुकरर है तो उससे पहले ही ले लेने के उतावलेपन का क्या मतलब है? उस डायरी के अभाव में क्या है जो अच्छा या बुरा हो जाएगा?
इस उधेड़बुन के बीच ही मैं लगभग एक बजकर बीस मिनट पर चिलचिलाती दोपहरिया में उसके दफ्तर पहुँच गया. वह दरवाजे के सामने वाले टेबल के पास वाली कुर्सी पर सुस्ती के आलम में बैठी थी जैसे कि गर्मी ने सबको आलसी बनने को मजबूर कर दिया हो. हल्की मुस्कुराहट से दुआ–सलाम करने के बाद मैं भी सामने के सोफा पर धम्म से बैठ गया. थोड़ी देर बाद मैंने ही शांति को भंग करते हुए पूछा– “डायरी लाई हैं?”
छूटते गोली की तरह सफाई देते हुए – “आज पांच तारीक तो है नहीं? फिर मैं आज डायरी लाती ही क्यों?”
झेंपते हुए –“नहीं! नहीं! कभी कभी आपको तारीक याद रहती नहीं है सो मैंने सोचा कि यदि जो लाई हों?” फिर थोड़ा उसके मन को टटोलते हुए – “यूँ भी आप एक फालतू डायरी का बोझ अपने पास क्यों रखेंगी? कचरा को लोग जल्दी से जल्दी घर से बाहर फेंकनें में ही विश्वास करते हैं?”
बात खत्म करते–करते मेरी नज़रें उसकी नज़रों से टकरा गईं लगा जैसे कि वो मेरी बोले एक एक शब्द को तौल रही हो. अर्थ समझने की कोशिश कर रही हो? चुप्पी के बाबजूद दोनों की नज़रें आपस में बात कर रही थी. फिर होठों को थिरकाते और भौंहों को नचाते हुए बोली– “ और सब सुनाइए.”
मैं सोचते रह गया कि आखिर ये चाहती क्या है? खुलकर कुछ कहती नहीं और इशारों में बहुत कुछ कहती है. मैं गलत हूँ या सही पता नहीं लेकिन उसकी शारीरिक भाषा कहती है कि कहीं न कहीं हमारी सोच मिलती है. हम दोनों को एक दूसरे के पास होने की वजहें हैं. लेकिन कभी–कभी ये सब कुछ सिर्फ सपनों का ताजमहल नज़र आता है जहां विचारों की एक हल्की–सी हवा भी सबको धराशायी करके चल जाती है और मैं लुटा–पिटा–सा वहीं खड़ा नज़र आता हूँ जैसे आंधी–तूफान में सबकुछ उड़ जाने के बाद सिर्फ ठूँठे बची रह जाती हैं.
विचारों की लड़ी टूटी जब उसकी चौंकाने वाली आवाज कान से टकराई– “अच्छा आप अंडा खाते हैं?” और वो मेरी ओर देखे जा रही थी जैसे वो मेरे चेहरे के भावों को पढ़ने की कोशिश कर रही हो. और उसके इस अप्रत्याशित सवाल से मैं न सिर्फ चकरा कर घूम गया था बल्कि वर्तमान और भविष्य दिखने लगा. सोचने लगा खाने–पीने की चर्चा अचानक कहां से आ गई?- वह भी सावन के महीने में?- जिस महीने में अधिकांश हिंदू मांस–मछली तो दूर लहसुन–प्याज खाने से भी परहेज करते हैं. फिर एक विचार कौंधा कि शायद वो सिर्फ शांति को भंग कर संवाद को आगे बढ़ाने के लिहाज पूछ रही हो? इसलिए सहमति में सिर हिला दिया कि खाता हूँ. मुस्कुराते हुए बोली– “आज नाश्ता में अंडा का ही आइटम लाई हूँ इसलिए पूछ रही थी.”
बगल के टेबल पर बैठे अपने सहकर्मी संजयजी को वह उठते हुए बोली– “चलिए नाश्ता करते हैं.” सहमति में सिर हिलाते हुए संजयजी अपनी कुर्सी से उठ गए और बेसिन में हाथ धोने पहुँच गए जहां वो पहले से ही हाथ धोने के बाद अपने चेहरे को धो रही थी. जबकि मैं वहीं सोफा पर बैठा सोच रहा था कि ‘मैं क्या करूँ?….. ये लोग नाश्ता करेंगें तो मैं बैठकर क्या करूँगा?… मुझे भी यहां से उठकर अपने घर चल देना चाहिए. डायरी जब आज मिलनी ही नहीं है तो यहां अब बैठने की जरूरत ही क्या है?’ एक तरफ इच्छा हो रही थी कि यहां से निकल लूँ लेकिन सोचने में ही इतना मशगूल हो गया कि पता ही नहीं चला कि सोफिया कब अपने कुर्सी में जम गई और अपना नाश्ता टेबल पर सजा कर मेरी ओर देखना शुरू कर दी? और ज्योंहिं दोनों की नज़रें आपस में टकराई लरजते हुए बोली– “किस दुनिया में खोए हैं जनाब? उठकर हाथ धोइए और एक कुर्सी टेबल के करीब खींचिए.”
मैं यूँ बैठा रहा जैसे कि मैंने कुछ सुना ही नहीं. और बगल में पड़े अखबार को उठाकर उलटने–पलटने लगा. तभी उसकी आवाज गूंजी– “हां समझ रहे हैं कि सुबह से आप अखबार नहीं पढ़े हैं लेकिन उसे अब थोड़ी देर बाद भी पढ़ा जा सकता है. आइए नाश्ता कीजिए. मैं आपके इंतज़ार में बैठी हूँ.”
मैं बोला कुछ नहीं लेकिन क्योंकर तो उसकी नज़रों में ही उलझकर रह गया. लगा जैसे कि नज़रें एक दूसरे से सवाल–जबाब कर रही हों. अपने गिले–शिकवे कर रहें हों. एक दूसरे की इच्छा और मज़बूरी को बयां कर रही हों. उसके चेहरे का भाव आपस में इतना उलझा हुआ था कि कुछ भी स्पष्ट नहीं था या कि अपनी जिद्द की वजह से उसके भावों पर रीझना नहीं चाह रहा था. जबर्दस्ती एक दूरी बनाना चाह रहा था. शायद मैं ही निर्मम बनने की कोशिश कर रहा था. और उसी निर्ममता में मुंह से निकल गया– “आपलोग खाइए. मेरी इच्छा नहीं है.”
“खाने की इच्छा नहीं है या कोई और बात है?” करूण आवाज में जबरन मुस्कुराने की कोशिश करते हुए– “झूठ बोलने जब नहीं आता है तो झूठ बोलने की कोशिश क्यों करते हैं?” –मुझे देखती रही और थोड़ी देर की चुप्पी के बाद अपने कुर्सी पर से उठी और मेरे बाजू में सोफा पर बैठते हुए– “आज खासे नाराज हैं?…. नाराजगी मुझसे है तो मुझसे जी भर लड़ लीजिएगा लेकिन नाश्ता से कैसी नाराजगी? ….साथ में दो कौर खा लीजिएगा तो आपका कुछ नहीं बिगड़ेगा और मुझे खुशी जरूर मिलेगी. अब उठिए. चलिए. …आपको हाथ भी धोने की जरूरत नहीं है. आज मैं आपको अपने ही हाथ से खिला दूँगी.”
इतना सुनने के बाद भी मैं टस से मस न हुआ जैसे कि मुझे कुछ सुनाई ही नहीं पड़ रही हो. और उसकी आवाज मनाने की कोशिश में दयनीय होती जा रही थी. मेरी ओर देखते हुए बोली– “अच्छा! ऐसा करते है कि आज नाश्ता ही यहीं सोफा पर ले आते हैं. मान लेंगें कि आज हमलोग दफ्तर में बैठे हुए ही नहीं हैं.” लगा जैसी कि मैं उसके आग्रह के आगे झुक जाऊंगा. एक दफ्तर में इससे ज्यादे वो कर भी क्या सकती थी? लेकिन दूसरे ही पल दिमाग में एक विचार क्रौंधा-‘उस संकल्प का क्या मतलब जो एक अपील पर ही पिघल जाए. और मेरे अंदर की निर्ममता मुझ पर ही हावी हो गई. चेहरे के भाव को सख्त करते हुए गुस्सैल आवाज में कहा– “आपकी क्या इच्छा है? –मैं यहां से उठकर चला जाऊं?”
सोफिया मेरे सख्त व्यवहार से समझ गई कि उसकी आख़िरी कोशिश भी व्यर्थ हो गई है. शायद वह डर गई कि इससे ज्यादे की कोशिश कहीं कुछ अनर्थ न कर दे. और वह हारी हुई आवाज में सोफा पर से उठते हुए धीरे से बोली– “नहीं. नहीं. आप यहीं बैठिए. मैं अब कोई जिद्द नहीं करूँगी. मैं जाती हूँ.” उसके चेहरे पर उदासी ऐसी छाई कि लगा अब रोई कि तब रोई. वह अपने टेबल पर से नाश्ता उठाकर दफ्तर के दूसरे कमरे में चली गई. नज़रें उसकी बिल्कुल ही झुकी हुई थी. शायद अब तक के साथ में पहली बार मैंने उसके दिल को इतने जोरदार तरीके से दुखाया था. क्या कमी रह गई थी अच्छे खासे तमाशे में? संजय जी सबकुछ सामने में देख रहे थे तो दफ्तर का बॉस भी अपने केबिन के शीशे से सबकुछ तो देख ही रहा था. शायद ही कोई बेबकूफ होगा जिसको ये तमाशा समझ में नहीं आया होगा. और तकरार तो ऐसा हुआ कि हमदोनों के बीच दूरी बढ़ने की ही संभावना थी. नाश्ता समाप्त कर लौटी तो स्थिति बदली हुई लग रही थी. एक अजीब माहौल हवा में घुलती जा रही थी. लगा जैसे की नदी की धारा दो भागों में यहां से बंट चुकी है. उसके आँखों में आंसू तो न थे लेकिन उसका मन यकीनन रो रहा था. फिर भी अपने चतुर व्यहार कुशलता का परिचय देते हुए एक अजीब आवाज में बोली– “अब आपका भाव बहुत बढ़ गया है?”
पहली बार मजाकिए लहजे में मैंने उत्तर दिया– “हां हां, पांच रूपये से पचास रूपये हो गया है.” हँसने की कोशिश नाकाम होती चली गई. रस सूखता चला गया. न तो नम्रता थी न विनम्रता. थी तो सिर्फ आग. और गुस्सा!
शांति को भंग करते हुए संजयजी की आवाज कान से टकराई– “आप भी जाति –भेद मानते हैं न? सही बोलती थी. इसीलिए आप नहीं खाए न?”
“यदि जाति–विभेद करता तो इससे पहले भी कभी न खाता!” –मैंने सख्त जबाब दिया.
“आज क्यों नहीं खाए? दोनों में लड़ाई क्यों हो गया?” – संजय जी पूछ बैठे.
मैं कोई जबाब देता उससे पहले ही वो बोली– “क्या सबूत है कि आपने हमारे साथ पहले खाया है? कल खाए थे? परसों खाए थे?”
उसी के लहजे में कहा– “क्या सबूत है कि अभी मैंने आपके साथ नहीं खाया है?”
“है ना! आपका सूखा हुआ मुंह!” – फट से वो जबाब दे दी और मैं निरुत्तर हो सिर्फ अवाक् से उसे देखता रह गया.
“अब आपको डायरी नहीं मिलेगी.”- थोड़ी देर की शांति के बाद वो फिर बोली.
मैं भी तुरंत– “क्या फर्क पड़ जाएगा? घर में वैसी अनेक डायरी पड़ी हुई है. उस डायरी में यूँ भी अब कुछ ही पेज शेष हैं.”.
“क्या फर्क पड़ जाएगा? अरे आप उस डायरी के लिए रोने लगिएगा. उसमें आपके दिल के राज छिपे हैं जिन्हें आपने शब्दबद्ध किया है.”
“ऐसी कोई बात नहीं है. कोई यदि कुछ पढ़ भी लेगा तो कहानी मान भूल जाएगा. मुझे खोजते ना चलेगा.”
“हां, आपको कोई क्यों खोजेगा? पढ़ने के बाद तो लोग मुझसे ना पूछेंगें कि किसकी डायरी है? मेरे पास क्यों है? और इसमें किसके बारे में क्या लिखा है?”- बोलते –बोलते एक हंसी उसके चेहरे पर खींच गई. मुझे भी मौका मिल गया– “इसीलिए ना कहता हूँ कि आलतू–फालतू चीज अपने पास ना रखें. जिसकी डायरी है उसे दे दें. पर्सनल डायरी में तो लोग अपनी पर्सनल सुख–दुःख और भावनाएँ ही ना व्यक्त करेगा? अब आपकी जिद्द थी तो पढ़ ली.” – गंभीर होते हुए– “और किसी की भावना को पढ़कर भी उसका जबाब ना देना भी शायद निर्ममता ही है.”
मुस्कुराते हुए– “आपने जो लिखा है उसमें गलत क्या है?”
उसके इस जबाब से चिढ़ हो गई. मैं सही–गलत की बात तो नहीं पूछ रहा? मैं तो जानना चाह रहा हूँ कि जितनी आग मेरे मन में उसके लिए लगी है उतनी ही उसके मन में मेरे लिए भी? और सख्ती से बोल पड़ा– “साफ़ –साफ़ कहिए –डायरी देनी है कि नहीं?”
“मैं तो सिर्फ इतना कह रही थी कि पांच तारीख को आइए. मेरे साथ नाश्ता कीजिए और अपनी डायरी लीजिए.” – ये उसका जबाब था.
“नमस्कार! मुझे माफ कीजिए. मुझे आपकी ये शर्त मंजूर नहीं है. डायरी देनी है तो दीजिए वर्ना कोई फर्क नहीं पड़ेगा.”
थोड़ी देर की चुप्पी के बाद वह– “एक बात कहें?”
“जरूर. कहिए.”
“आप… अपनी…. जाति बदल लीजिए.” – एक संकोच के साथ वह कही. मैं सुन कर अवाक् रह गया. सोचने लगा कि क्या मेरे प्रश्न का उत्तर मिल गया. क्या वो भी मुझसे प्यार करती है? क्या वो मुझसे शादी करना चाहती है? आखिर वो जाति बदलने की बात क्यों कर रही है?
वो अपना सिर अखबार से ढकने की भरसक कोशिश कर रही थी. शायद उसे डर हो कि उसने गलत बात कह दी है? संभव है कि अपने शर्म को छिपाने की कोशिश कर रही हो? संभव है कि वो मन टटोल रही हो? फिर भी जबाब तो देनी ही थी. सो मैंने अपनी बात कह दी– “जाति बदलने की क्या जरूरत है? मैं तो सभी जाति को एक ही मानता हूँ.”
“मानना और होना दोनों दो बातें हैं.” – वो प्रतिकार की.
संजय जी बीच में ही बोले– “लाला जी बन जाइए.”
“नहीं, आप मुस्लिम बन जाइए.” –उसका यह जबाब मुझे चौंकाने के लिए काफी था. कुछ देर के लिए मैं सन्नाटे में रह गया. यह कोई मजाक नहीं था. वो पूरे होशोहवास में और पूरी तरह से सोच–विचार कर कह रही थी. शक की कोई गुंजाईश नहीं थी.
फिर मैं सोचने लगा. मुस्लिम ही क्यों? सिख या ईसाई क्यों नहीं? सिर्फ इसलिए कि वो मुस्लिम है? क्या यह सिर्फ एक मजाक हो सकता है? इस तरह के मजाक के लिए क्या यह उपयुक्त समय है? उसकी क्या मंशा है? क्या वह एक सोची–समझी साजिश के तहत मुझे मुस्लिम बनाना चाहती है? वह इस्लाम की कट्टर समर्थक है. पांचों वक्त का नमाज पढ़ती है. उर्दू पर अच्छी पकड़ ही है जबकि हिंदी बोलने–लिखने में अक्सरहां गड़बड़ा जाती है. उर्दू मदरसा बोर्ड से परीक्षा पास की है तो विश्वविद्यालय स्तर पर भी उसके पास आजिल–फाजिल की ही डिग्री है. वो सामान्य रूप से बीए – एमए की डिग्री क्यों नहीं ली? मुझे पहले भी कई बार उर्दू भाषा सीखने की नसीहत दे चुकी है.
लेकिन उसका एक अलग रूप भी दिखता है. उसके जीवन में थोड़ा बिंदासपन भी है. आज तक उसे कभी बुर्का में नहीं देखा. कपड़े के पहनावे में भी कोई वैसी बंदिस नहीं दिखती. लोगों से मेलजोल के मामले में तो बहुत खुली हुई और सहज रहती है. कभी–कभी तो उसके हंसी–मजाक को देखकर मैं दंग रह जाता हूँ. कभी –कभी तो मैं खुद को ही कोसने लगता कि बदलते ज़माने में मैं ही रूढ़िवादी बना बैठा हूँ. कभी–कभी तो पूर्णतः पाक–साफ़ नज़र आती है. इसको पूर्णतः पढ़–और समझ पाना बिल्कुल ही मुश्किल है. लेकिन साहसी भी बहुत है. कई बार उसके हिम्मत की दाद देनी पड़ी. सामाजिकता और दोस्ती निभाने में भी आगे रहती है. उसके व्यक्तित्त्व के आकर्षण में ही तो मैं उलझा हूँ वर्ना क्या मजाल कि मैं किसी के पास समय गंवाता? कई बार मुझे लगा कि उसके पास कुछ खास गुण हैं जो मुझे सीखना चाहिए. कहा जाता है ना कि बुरे–से–बुरे इंसान से भी अच्छी चीजे सीखने की कोशिश करनी चाहिए. उसी लालच में तो यहां तक खींचा चला आया. लेकिन अब अजीब उलझन में फंस गया हूँ.
लेकिन दिमाग में एक दूसरी बात भी आती है कि आखिर वह क्यों चाहती है कि मैं मुस्लिम बन ही जाऊं? क्या वह मुझसे प्रेम करती है? शादी करना चाहती है? जाति एक होने पर शायद कुछ बाधाएं स्वतः समाप्त हो जाएंगी?
जहां तक, साथ में मेरे नहीं खाने की बात है तो मैं कोई जाति–धर्म के नाम पर भेदभाव नहीं करता. पहले भी उसके साथ खा चुका हूँ. अभी तो मैं खुद भावनात्मक रूप से उलझा हुआ हूँ. खुद को उससे दूर करने की कोशिश में लगा हूँ. किसी भी यादगार पल को बिताने से परहेज कर रहा हूँ. और कोई बात नहीं है…….. हां, एक गुस्सा है भी सिर्फ इसलिए कि शायद वो मेरी भावनाओं से खेल रही है. मैंने जब खुलकर उसे बता दिया कि किस कदर मैं उसके प्रेम में डूबा हुआ हूँ. फिर भी वह एक सवाल का जबाब नहीं दी कि –“वह मुझे चाहती भी है या नहीं?”
कभी–कभी तो खुद को कोसता हूँ कि शायद मैं उन बदनसीब दीवानों में से हूँ जो प्रेम में पागल हो जाते हैं और प्रेमिका उसे एक हामी मरते दम तक सुनने नहीं देती है. इठलाती रहती है. चिढ़ाते रहती है. और मासूमों की जान लेती रहती है. लेकिन मुझसे अब ये सब ना होगा. मेरे स्वाभिमान ने मेरी सोई हुई आत्मा को ललकार दिया है.
क्या है वो? वही तो अक्सर कहती रहती है– एक लड़की किसी को बना भी सकती है और किसी को बर्बाद भी कर सकती है. आखिर क्यों कहती रहती है? सचेत करती रहती है या कुछ और? कुछ महीने पहले तक उसका व्यवहार सहयोगात्मक लग रहा था. हमेशा मदद को तत्पर रहती थी. उसमें मेरे प्रति कोई बदलाव अब भी नहीं दिखता है. आज तक मुझे एक रूपया तक खर्च करने नहीं दी. जब भी मैं आगे बढ़कर भुगतान करने की कोशिश करता वो झट से रोकते हुए कहती– “आज मेरी बारी है. आप अगली बार दे दीजिएगा.” लेकिन आज तक मेरी बारी नहीं आई है. मैं मुस्कुराने के सिवाय कुछ नहीं कर पाता. और वो समझाते हुए कहती– “बेरोजगारी के दिनों में आदमी को खर्चीला नहीं बनना चाहिए, और साथ में लड़की है इसलिए खर्च का ठेका लड़के का ही है– इस मानसिकता को छोड़िए.” मैं उसकी मुस्कुराहट भरी सलाह पर सिर्फ मुस्कुराकर रह जाता. और सोचने लगता कि– कितनी तेज और समझदार है?
हमारी निकटता इतनी बढ़ गई कि आँखें ही बातें करने लगी. दोनों में निकटता इस हद तक बढती जा रही थी कि अनजाने लोग भी रिश्ते की आहट पहचानने लगे थे. कभी–कभी तो मन में विचार आता कि पूरी जिंदगी ही साथ–साथ गुजार दूँ. लेकिन फिर यहीं पर विचारों को विराम मिल जाता. पूरी जिंदगी बिना शादी के एक लड़का–लड़की कैसे साथ गुजार सकते हैं? शादी ही एक मात्र उपाय है. माना कि लिव–इन–रिलेशनशिप भी आजकल फैशन में है लेकिन हमारे शहर के लिए ये अब भी अजूबा चीज है. अलबत्ता अंतरजातीय विवाह कबूल हो जाएगा लेकिन लिव–इन–रिलेशनशिप वाली बात किसी को हजम नहीं होगी. अब शादी भी हो तो कैसे? वो मुस्लिम है मैं हिंदू. वो नमाज पढ़ती है तो मैं पूजा करता हूँ. दोनों सम्प्रदाय में शादी–विवाह के रस्मों–रिवाज भी अलग–अलग है. बाबजूद इसके कोर्ट –मैरिज भी एक आप्शन है लेकिन दोनों परिवारों की पृष्ठभूमि भी पारम्परिक और रूढ़िवादी है. अभी तक तो घर वालों को इस पनपते रिश्ते की भनक भी नहीं है वर्ना पता नहीं अब तक क्या हो गया होता?
लेकिन कभी–कभी ख्वाब आता कि क्या मजा आए कि हमदोनों एक हो जाएं! एक ही पूजा स्थल पर एक तरफ उसकी कुरान रखी रहेगी और दूसरी तरफ गीता–रामायण. एक ही जगह नमाज और पूजा दोनों एक ही साथ जारी रहेंगें. अजीब नज़ारा होगा. फिर बच्चे? बच्चे किस जाति–धर्म के होंगें? जन्म से तो कोई हिंदू–मुस्लिम नहीं माना जा सकता. ऐसी स्थिति में, जब तक कि वो खुद किसी एक धर्म को ना अपना ले. वैसे तो पारंपरिक सामाजिक व्यवस्था के तहत जन्मते ही बच्चे का जाति–धर्म निर्धारित हो जाता है लेकिन बाद में कुछ लोग किसी कारण वश अपनी आस्था बदल भी लेते हैं.
एक वजह तो उम्र की भी है. वो मुझसे एक–दो वर्ष नहीं कोई दस वर्ष बड़ी है. अब समाज में किसने और कब नियम बनाई कि शादी में लड़के की उम्र अधिक और लड़की की कम होनी चाहिए पता नहीं. शायद उनलोगों ने लड़के के कंधे पर पूरे परिवार की जिम्मेवारी थोपने के नियत से ऐसा किया हो? लेकिन इस सामाजिक समस्या से भी तो इंकार नहीं किया जा सकता है न?
और सबसे बड़ी बात कि वह कुछ मुंह खोलकर बोले तब ना? उसकी चुप्पी को ही वही क्यों मान लूँ जो मैं सोचता हूँ? कहीं बाद में मालूम हुआ कि सब सिर्फ ख्वाबों की ही दुनिया थी जिसका कोई मतलब नहीं तो जो भत्स मेरी पिटेगी उसका तो खैर कुछ कहना ही नहीं है. ऐसी स्थिति में लगता है जैसे कि सबकुछ भहरा कर गिर गया.
दिमाग यही कहता है कि मैं क्यों बदलूँ? वो क्यों नहीं बदलेगी? किसे किसकी जरूरत है? एक ही तरफ से झुकाव क्यों हो? जब कभी कोई किसी चीज के लिए समझौता करता है तो दोनों ही पक्ष को थोड़ा –बहुत त्याग करना ही पड़ता है. फिर मैं ही सिर्फ क्यों बर्दास्त करूँ? और सबसे बड़ी बात कि जिस रिश्ते का आधार ही समानता की बजाय समझौता हो तो उस पर कितना विश्वास किया जा सकता है?
एक अंगराई के साथ विचारों के क्रम को तोड़ा और बगल में रखे बोतल से पानी पीने के बाद मैं चलते हुए बोला– “काफी समय हो गया है, अब मैं चलता हूँ.” वो भी बस इतना ही बोली– “फिर आइएगा.”
उस दिन की घटना के बाद फिर मैं कभी मिलने नहीं गया. कोई सातवें दिन फोन करके दफ्तर बुलाई कि अपनी डायरी ले जाइए. जब मैं दफ्तर पहुंचा तो उसके चेहरे पर एक मुस्कुराहट फ़ैल गई. मैंने महसूस किया कि लाल सलवार–सूट में वो आज खासी खूबसूरत लग रही थी. लेकिन उस खूबसूरती के बीच भी महसूस हुआ कि वो शारीरिक रूप से कमजोर ही नहीं हो गई है बल्कि अंदर से टूट भी गई है. थोड़ी देर बैठा नहीं कि वो डायरी अपनी बैग से निकाल कर मेरी ओर बढ़ा दी. कोई बातचीत नहीं हो रही थी. बस इतना ही जान सका कि आज के बाद वो यहां नौकरी करने नहीं आएगी. इच्छा हुई कि कारण पूंछू फिर कुछ सोचकर चुप्पी लगा गया.
ये गमगीन –सा माहौल मुझे अजीब लग रहा था. इसलिए शरारत करते हुए बोला– “अजीब दुनिया है! आज भूख लगी है तो कोई खाने को भी नहीं पूछ रहा है?”
वो अवाक् हो मेरी ओर देखती रही. फिर लंचबॉक्स लेकर बगल में बैठ गई. और एक ही साथ हमलोग खाने लगे. चुहल करते – “अब तो कोई शिकायत नहीं ना है कि मैं साथ में नहीं खाता?” वो शर्माकर मुस्कुराने लगी.
थोड़ी देर के बाद संजयजी कहीं से आ गए तो वो उनसे कुछ बात की और हमलोग एक ही साथ दफ्तर से बाहर निकल गए. रास्ते में भी हमलोगों के बीच कोई बातचीत नहीं हुई. जब चौराहे पर पहुंचे तो पूछी– “अब कब मुलाकात होगी?”
मुस्कुराते हुए– “खुदा जाने, जिंदगी के किस मोड़ पर हमदोनों फिर मिलेंगें?”
वो पूरब की ओर बढ़ गई और मैं पश्चिम की ओर. महीने–दो महीने के बाद मैं आगे की पढ़ाई करने पटना से बाहर चला गया. वर्षों बाद जब फिर पटना लौटा तो पटना बहुत बदल चुका था. सरकार भी बदल चुकी थी. और बदल चुकी थी मेरी जिंदगी.
आज वर्षों बाद जब उस पर नज़र पड़ी तो बहुत कुछ संभव था लेकिन शायद उसकी नज़र ही मुझ पर नहीं पड़ी.
आपका लेखन हमें बहुत पसंद आया.
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