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रेंगने वाली हिंदी अब उड़ रही है!

हिंदी की स्थिति पर मेरा यह लेख ‘नवभारत टाइम्स’ मुम्बई के दीवाली अंक में प्रकाशित हुआ है- प्रभात रंजन

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मेरी बेटी नई किताबों को खरीदने के लिए सबसे पहले किंडल स्टोर देखती है, जहाँ अनेक भाषाओं में लाखों ईबुक मौजूद हैं जिनमें से वह अपनी पसंद की किताब खरीद लेती है. कई बार वह स्टोरीटेल के ऐप पर जाकर अपनी पसंद के उपन्यास या कहानी को सुनने का आनंद उठाती है. जिन कहानियों-उपन्यासों को आवाज की दुनिया के पेशेवर लोगों द्वारा पढ़ा गया होता है. साल में एक बार मेरे साथ पुस्तक मेले जाकर किताबें भी खरीदती है, लेकिन उसके लिए किताब खरीदना अक्सर पहला विकल्प नहीं होता. दरअसल, आज की पीढ़ी के पास एक ही किताब को पढने के कई विकल्प मौजूद हैं. वह अपनी सुविधा से विकल्पों का चुनाव कर लेती है. मैं भी आजकल ट्रेन या हवाई जहाज में सफ़र करते हुए शोर-शराबे से बचने के लिए कान में ईयर फोन लगाकर हिंदी के क्लासिक उपन्यास सुनने लगता हूँ. इन्टरनेट ने आज किताबों की, साहित्य की एक ऐसी दुनिया रच दी है पंद्रह साल पहले तक जिसकी कल्पना भी मुश्किल लग रही थी. आज सैकड़ों लोग यूट्यूब पर चैनल बनाकर कहानी-कविता पाठ कर रहे हैं, साहित्यकारों के बारे में बोल-सुन रहे हैं. लगता ही नहीं है हम उसी हिंदी के लेखक-पाठक हैं दस-पंद्रह साल पहले तक जिसके हाशिये पर चले जाने का रोना रोया जाता था, मातम मनाया जाता था.

मुझे एक युवा टिप्पणीकार की बात याद आती है- 90 के दशक में बाजारवाद के धक्के के कारण हिंदी रेंगने लगी थी अब इन्टरनेट के पंख पाकर उड़ने लगी है. गहराई से सोचने पर इस बात में दम दिखाई देता है. हिंदी की सबसे बड़ी मुश्किल थी कनेक्टिविटी का न होना. बीसवीं शताब्दी के 90 के दशक में एक के बाद एक राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाएं बंद होने लगीं. धर्मयुग, सारिका, साप्ताहिक हिन्दुस्तान आदि तमाम ऐसी राष्ट्रीय पत्रिकाएं बंद हो गई जो हिंदी साहित्य को महानगरों से लेकर गाँव-देहातों तक एक कर देती थीं. सीतामढ़ी के एक गाँव में अपने नजदीकी रिश्तेदार के यहाँ भाभी के मुंह से ‘भोगा हुआ यथार्थ’ मुहावरे को सुनकर चौंक गया था क्योंकि हिंदी की नई कहानी आन्दोलन का यह रूढ़ मुहावरा था. बाद में, पूछने पर पता चला कि भाभी के पास गुजरे दौर की प्रसिद्द साहित्यिक पत्रिका ‘सारिका’ के पुराने अंक मौजूद थे. उन्होंने वहीँ से सीखा यथा. इसलिए इन पत्रिकाओं के बंद होने के बाब कनेक्टिविटी का बड़ा संकट खड़ा हो गया. साहित्य लघु पत्रिकाओं में सिमट गया.

इन्टरनेट के आने के बाद धीरे-धीरे हिंदी में कनेक्टिविटी की यह समस्या दूर हो गई है. आज छोटे छोटे शहरों के पाठक भी ऑनलाइन साइट्स के माध्यम से अपनी पसंद की किताबें घर बैठे प्राप्त कर सकते हैं. छोटे शहरों के लेखकों की पीड़ा यह होती थी कि दिल्ली के प्रकाशक उनकी किताबें नहीं छापते. मेरे आरंभिक साहित्यिक गुरु रामचंद्र ‘चन्द्रभूषण’ नवगीतकार थे. नवगीत के सभी प्रमुख संचयनों में उनके गीत प्रकाशित हुए लेकिन उनकी यह साध पूरी नहीं हो पाई कि दिल्ली का कोई बड़ा प्रकाशक उनकी किताब प्रकाशित करे. आज इन्टरनेट ने लेखक होकर दुनिया भर में फैलने की पूरी आजादी मुहैया करवा दी है. मुफ्त इन्टरनेट डाटा के दौर में वह भी लगभग मुफ्त.

भारत में इन्टरनेट के सुलभ होने के बाद, यूनिकोड फोंट्स के प्रचलन में आने के बाद 2007 के आसपास से हिंदी में ब्लॉग लेखन का दौर शुरू हुआ जिसने हिंदी के जड़ हो चुके परिदृश्य को बदलना शुरू कर दिया. हल्द्वानी जैसे छोटे कस्बे से अशोक पांडे ने ‘कबाड़खाना’ ब्लॉग के माध्यम से राष्ट्रीय पहचान बनाई, रवि रतलामी(जिनको हिंदी का पहला ब्लॉगर भी कहा जाता है) ने रतलाम से ‘रचनाकार’ ब्लॉग के माध्यम से नई नई प्रतिभाओं की रचनाओं का प्रकाशन आरम्भ किया. इसी तरह, अजित वडनरेकर ने भोपाल से ‘शब्दों का सफ़र’ ब्लॉग शुरू किया और जिसने आम पाठकों, लेखकों को शब्दों और उनके अर्थों से जोड़ना शुरू कर दिया. इसी तरह अविनाश दास के ब्लॉग ‘मोहल्ला’ ने हिंदी पट्टी में ई-साक्षरता बढाने की दिशा में बड़ा काम किया. अब ब्लॉगिंग का वह दौर बीत चुका है लेकिन इस बात से शायद ही इनकार किया जा सकता है कि इन ब्लॉग्स के कारण हिंदी पट्टी के पाठक बड़े पैमाने पर इन्टरनेट और उसके माध्यमों से जुड़े. उस दौर की बहसों में अक्सर साहित्य बनाम ब्लॉग्स का मुद्दा आता रहा.

ब्लॉगिंग के बाद सोशल मीडिया का दौर आया. सोशल मीडिया के लोकप्रिय माध्यमों फेसबुक, ट्विटर का आगमन भारत में 2005-06 से ही आरम्भ हो गया था लेकिन हिंदी में 2010 के आसपास हिंदी वालों ने इसका बड़े पैमाने पर उपयोग आरम्भ किया. ब्लॉगिंग ने जो ज़मीन बनाई थी सोशल मीडिया के माध्यमों, खासकर फेसबुक ने हिंदी का आसमान रच दिया. हालाँकि, ट्विटर और लिंक्डइन जैसे सोशल मीडिया के माध्यमों पर भी हिंदी का प्रयोग बढ़ा है लेकिन आमतौर दोस्ती बढाने और चैट करने के माध्यम फेसबुक ने हिंदी के लेखकों-पाठकों को जोड़ने की दिशा में क्रांतिकारी काम किया. एक तो इस माध्यम ने लेखकों-प्रकाशकों को मुफ्त में किताब के विज्ञापन का अवसर प्रदान किया. इसके कारण आज हिंदी का हर छोटा-बड़ा प्रकाशक-लेखक फेसबुक पर अपनी किताब के बारे में लिखता हुआ मिल जायेगा. लेखकों-पाठकों के बीच कनेक्टिविटी की जो टूटी हुई कड़ी थी वह इसके माध्यम से न सिर्फ जुडी है बल्कि बेहद मजबूत हुई है.

सोशल मीडिया, विशेषकर फेसबुक माध्यम का सकरात्मक उपयोग करते हुए हिंदी में कई प्रयोग किये गए जिनमें कुछ बेहद सफल रहे. उदहारण ‘हिन्द युग्म’ प्रकाशन का लिया जा सकता है. हिन्द युग्म प्रकाशन ने सोशल मीडिया के माध्यम से ‘नई वाली हिंदी’ का मुहावरा प्रचलित करना शुरू किया. नई वाली हिंदी के लेखकों के रूप में ऐसे लेखकों की पहचान की गई जो हिंदी की पृष्ठभूमि के लेखक नहीं थे लेकिन उन्होंने एक नई तरह की भाषा के साथ समकालीन युवा जीवन के प्रसंगों को कहानियों-उपन्यासों में ढालना शुरू किया. प्रकाशक और लेखकों ने सोशल मीडिया विशेषकर फेसबुक के माध्यम से हिंदी पट्टी के पाठकों के बीच अपनी कनेक्टिविटी बढानी शुरू की और चार-पांच सालों के दरम्यान नई वाली हिंदी के लेखक सत्य व्यास, दिव्य प्रकाश दुबे, नीलोत्पल मृणाल, अनु सिंह चौधरी आदि हिंदी के नए पोस्टर बॉय बन गए हैं. इनके साथ राजकमल प्रकाशन ने अपने नए प्रकाशकीय उपक्रम ‘सार्थक बुक्स’ के माध्यम ‘लप्रेक सीरीज’ का प्रकाशन किया और इस श्रृंखला की किताबों ने बिक्री के नए कीर्तिमान रचे. इन किताबों ने यह दिखा दिया कि असल में हिंदी का पाठक वर्ग बहुत बड़ा है और अगर उन पाठकों तक पहुँचने के प्रयास किये जाएँ, लोक रूचि की किताबों के प्रकाशन किये जाएँ तो उस सुप्त पड़े बाजार को फिर से जाग्रत किया जा सकता है. इसे जाग्रत करने में सोशल मीडिया की विशेष भूमिका को रेखांकित किया जाना चाहिए.

अभी यह कहने-लिखने का अवसर नहीं है कि स्तरीयता के पैमाने पर इन किताबों को किस रूप में देखा जा सकता है, इन किताबों में समाज का व्यापक सच अभिव्यक्त हो रहा है या नहीं. हिंदी पट्टी के आम आदमी के संघर्ष की झलक इनमें दिखाई दे रही है या नहीं. इससे पहले हमें उस नए बनते पाठक वर्ग और उनकी रुचियों को समझने की जरूरत है. बीसवीं शताब्दी के 90 के दशक तक कम से एक एक बात तो स्पष्ट थी कि हिंदी पट्टी के मध्यवर्गीय परिवार के बच्चे हिंदी माध्यम के स्कूलों में पढ़ते थे, जो बाद में तकनीकी शिक्षा या उच्च अध्ययन के लिए बड़े शहरों में जाते थे. लेकिन उनकी हिंदी की बुनियाद बची रहती थी. आज तो हिंदी पट्टी के गाँव-गाँव में पब्लिक स्कूल खुल चुके हैं. जिसके पास थोड़ा सा भी साधन है वह अपने बच्चे को पब्लिक स्कूल में पढ़ा रहा है. बचपन से अंग्रेजी की महत्ता को सीख रहे ये बच्चे बड़े होकर किस तरह हिंदी साहित्य से जुड़ें नई वाली हिंदी इसी की सुचिंतित कवायद है. देश में इस समय युवाओं की आबादी बहुत बड़ी है, उस आबादी में भी सबसे अधिक लोग हिंदी पट्टी में रहते हैं. लेकिन वे अब हिंदी के स्वाभाविक पाठक नहीं रह गए हैं. वे सोशल मीडिया की चर्चाओं से आकर्षित होकर हिंदी की किताबों के पाठक बनते हैं, कई लेखक भी बन जाते हैं.

इसी बात को ध्यान में रखते हुए हिंदी के प्रकाशक-लेखक आज सोशल मीडिया और किताबों की ऑनलाइन सेल पर ध्यान केन्द्रित रखते हैं. आज किताबों के बाजार में आने से पहले उनके वीडियो जारी किये जा रहे हैं, किताबों की ऑनलाइन प्री-बुकिंग की जा रही है. सोशल मीडिया तथा अन्य डिजिटल प्लेट्फ़ॉर्म पर किताब के बारे में सामग्री प्रकाशित करवाकर उसके बारे में जिज्ञासा पैदा की जाती है. इन माध्यमों के उपयोग के माध्यम से किसी किताब की चर्चा हजारों-लाखों के बीच होने लगती है. उन्हीं हजारों-लाखों लोगों में से कुछ किताब ऑनलाइन मंगवाते हैं, कुछ पुस्तक मेलों में जाकर किताब खरीदते हैं. पिछले कुछ सालों से अनेक विश्लेषक यह लिखने लगे हैं कि सोशल मीडिया के कारण हिंदी के बौद्धिक समाज में नई तरह की सरगर्मी दिखाई देने लगी है और इसका असर पुस्तक मेलों में किताब खरीदने वालों की बढती भीड़ के रूप में दिखाई देने लगा है. पिछले साल स्टोरीनोमिक्स नामक संस्था ने एक सर्वेक्षण किया था जिसमें यह पाया गया कि हिंदी सोशल मीडिया पर सबसे अधिक प्रयोग की जाने वाली भाषा है और बहुत जल्द यह अंग्रेजी को पीछे छोड़ देगी.

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आज हिंदी बनाम अंग्रेजी में अंग्रेजी के बरक्स हिंदी का पलड़ा मजबूत होता जा रहा है तो उसके पीछे बहुत बड़ी भूमिका सोशल मीडिया की है. मैं अपना ही उदाहरण देना चाहता हूँ. मैं फेसबुक पर नियमित रूप से नई किताबों पर संक्षिप्त टिप्पणियां लिखा करता हूँ. जिसे पढनेवालों की तादाद ठीकठाक है. इसका नतीजा यह हुआ है कि मुझसे अंग्रेजी के लेखक-प्रकाशक भी अपनी किताबें भिजवाकर लिखने का आग्रह करने लगे हैं. यह एक तथ्य है कि आज हिंदी साहित्य के मसलों को लेकर सोशल मीडिया पर जितनी बहसें होती हैं उतनी किसी अन्य भाषा में नहीं.

यही कारण है कि आज ब्लॉगिंग, सोशल मीडिया विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों में विषय के रूप में पढ़ाई जाने लगी है. अभी हाल में ही हिंदी की प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका ‘हंस’ ने सोशल मीडिया के ऊपर अंक प्रकाशित किया है. कहने का तात्पर्य यह है कि महज उपयोगकर्ता नहीं बढे हैं बल्कि इसकी स्वीकृति भी पहले से बढ़ी है. आज किसी साहित्यिक कार्यक्रम में लोगों की भौतिक उपस्थिति बेमानी हो गई है. हो सकता है किसी कार्यक्रम में सुनने वाले 50-100 लोग ही उपस्थित हों लेकिन यूट्यूब, फ़ेसबुक या अन्य माध्यमों से हो सकता है कि दुनिया भर में उस कार्यक्रम के वीडियो लाखों लोग देख लें और उस कार्यक्रम में उठाये गए मुद्दों को लेकर बहस भी करने लगें. सही मायने में सोशल मीडिया ने हिंदी को राष्ट्रभाषा बना दिया है.

ऐसा नहीं है कि सोशल मीडिया में हिंदी के लिए सब कुछ गुडी-गुडी ही है. जिन पहलुओं के कारण इसके माध्यम से हिंदी मजबूत होती दिखाई दे रही है उन्हीं कारणों से यह कमजोर भी हो रही है. उदहारण के लिए आजकल प्री-बुकिंग के माध्यम से किताब प्रकाशन से पहले हजारों की संख्या में बिक जाती है. ऐसे में उस किताब की स्तरीयता को लेकर चर्चा बेमानी हो जाती है, क्योंकि इसने बिक्री को सफलता का एकमात्र पैमाना बना दिया है. प्रचार-प्रसार ठीक है लेकिन केवल प्रचार-प्रसार ही पैमाना हो जाए तो साहित्यिक मूल्यों का क्या होगा? हिंदी साहित्य में दशकों तक मानवीय मूल्यों की प्रधानता रही है, आज मनोरंजन की प्रधानता हो गई है. चूँकि पुस्तक संस्कृति के केंद्र में बिक्री, प्रचार-प्रसार है तो आजकल सेलिब्रिटी लेखकों की तादाद बढ़ रही है. वह सेलिब्रिटी कोई भी हो सकता है. राजनेता, फिल्म लिखने वाला लेखक, टेलीविजन कलाकार, टीवी पत्रकार. जितना बड़ा नाम होता है किताब की बिक्री में उतनी सहूलियत होती है. हालांकि यह प्रवृत्ति केवल हिंदी में नहीं बल्कि अंग्रेजी में भी तेजी से बढ़ी है.

आज हिंदी का लगभग प्रत्येक प्रकाशक या तो सेलिब्रिटी लेखक की किताब छापना चाहता है या ऐसे विषयों पर किताबें प्रकाशित करना चाहता है जिनके बिकने की सम्भावना अधिक हो. जैसे फेसबुक के ऊपर या ट्विटर पर जिनके लिखे को लाइक अधिक मिलते हैं उनको संभावित बिकाऊ लेखक के रूप में देखा जाने लगा है. हाल के वर्षों में ऐसी कई पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं जिनकी शुरुआत फेसबुक स्टेटस के रूप में हुई. साहित्य को हिंदी में साधना माना जाता रहा है आज वह बिकना हो गया है.

इसका नतीजा यह हुआ है कि अनेक विधाओं में अच्छी पुस्तकों का लगभग अकाल सा दिखाई दे रहा है. जैसे पिछले कुछ वर्षों में आलोचना की कोई उल्लेखनीय पुस्तक हिंदी में आई हो ध्यान नहीं आता. सोशल मीडिया के प्रभावी होते जाने का सबसे अधिक नुक्सान आलोचना की विधा का ही हुआ है. आलोचना मूल्य निर्धारण की विधा रही है जबकि सोशल मीडिया में लोकप्रियता ही सबसे बड़ा मूल्य है. मीडिया हो या सोशल मीडिया एक सी प्रवृत्तियों को बढ़ावा देना उनका मूल स्वभाव होता है. हिंदी प्रकाशन जगत इस समय इस प्रवृत्ति से आच्छादित है. ऐसे में रचनाओं की सच्ची आलोचना लेखक-प्रकाशक बिलकुल ही सुनना नहीं चाहते और इस तंत्र का हिस्सा पाठक भी बनते जा रहे हैं. सब कुछ पाठकों के नाम पर हो रहा है हिंदी में दशकों तक जिनके न होने का रोना रोया जाता रहा है.

इन शंकाओं के बावजूद इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि इन्टरनेट के बाद के दौर में हिंदी की साहित्यिक दुनिया बहुत विस्तृत हो चुकी है, सबसे बड़ी बात यह है कि पेशेवर हो रही है, जनतांत्रिक हो रही है. इतने कम समय में इन्टरनेट ने इतना बड़ा बदलाव ला दिया है फ्री डाटा के इस दौर में इस बात से शायद ही कोई जानकार इंकार कर पाए कि हिंदी का बेहतर साहित्यिक भविष्य इन्टरनेट और उसके विभिन्न प्लेटफ़ॉर्म के माध्यम से लिखा जाना है. दुनिया हाथ-हाथ स्मार्ट फोन में सिमटती जा रही है इंटरनेट से हिंदी फैलती जा रही है.

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प्रभात रंजन

ए-39, इलाहाबाद बैंक सोसाइटी, मयूर कुञ्ज,

नोएडा चेकपोस्ट के पास, दिल्ली- 110096

 
      

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2 comments

  1. सटीक लेख है। जहाँ तक आलोचना की बात है उसके लिए भी वही अवसर मौजूद हैं जो दूसरों को हैं। मुझे लगता है पहले भी

    आलोचनाओं को बौद्धिक वर्ग को ध्यान में रखकर लिखा जाता था। आम पाठक से वो जुड़ाव उनका ध्येय नहीं था और आज भी ऐसा है। इसलिए आम पाठकों में आलोचना वो जगह नहीं बना पाई है। खैर, ये मेरे अपने विचार हैं।

    हाँ, हिन्दी में अब हलचल काफी होने लगी हैं। अब उम्मीद इसकी है कि हिन्दी में अलग-अलग विषयों के ऊपर किताबें भी आनी शुरू होंगी और ये किफायती होंगी। अभी अशोक कुमार पांडेय जी की कश्मीरनामा ने उत्सुक किया था लेकिन कीमत के चलते उसे खरीदना टालना पड़ा। अगर उसका सस्ता संस्करण उपलब्ध होता या पुस्तक दो भागों में उपलब्ध होती तो शायद पाठको के पास आसानी से पहुँचती। प्रकाशक को यह भी सोचना होगा कि किस तरह से ऐसी किताबों को आम पाठको के पास पहुँचाया जाये। यही चीज लता सुर गाथा के साथ भी है। किताब छः सौ से ऊपर की है। आम पाठकों के पहुँच से ऊपर। इधर भी ध्यान देने की जरूरत है।

  2. bahut achcha lekh ahin prabhat ranjan ji

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