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जो दायरों में फँसा वह भीमसेन जोशी न बन सका

आज शास्त्रीय संगीत की महान विभूति पंडित भीमसेन जोशी की जयंती है. इस अवसर पर संगीत अध्येता प्रवीण झा का यह सुन्दर आलेख पढ़िए- मॉडरेटर

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धारवाड़ में उस दिन उस्ताद विलायत ख़ान सितार बजा रहे थे, और रात भर का कार्यक्रम था। तब तक बंबई का वह विक्रमादित्य सम्मेलन हो चुका था; जिसमें सितार को विलायत ख़ान ने वह ऊँचाई दिलाई थी कि अब उसे भी गायकी के बराबर इज्जत मिलने लगी। और धारवाड़ तो खैर गायकी का गढ़ था, जहाँ एक सितार-वादक को यूँ रात भर सुनना आम न था। विलायत ख़ान बजाते रहे, और उंगलियों से रक्त बहने लगा। उन्होंने पट्टी बाँध कर सितार बजाना जारी रखा। लोग बीच-बीच में आ-जा रहे थे, लेकिन एक युवक अगली पांत में बैठ उछल-उछल कर वाह-वाह कर रहे थे। रात बीत गयी, न सितार रुका, न वह उत्साही युवक रुके। यह श्रोता कोई भी संगीत-रसिक हो सकता था, लेकिन यह रसिक की सीढ़ी से कहीं ऊँचे पायदान पर बैठे व्यक्ति थे। या शायद एक सम्पूर्ण रसिक ही सम्पूर्ण कलाकार भी बन सकता है? धारणा यह है कि सुर पर विजय ‘वोकल-ट्रेनिंग’ या रियाज से पायी जा सकती है; लेकिन छुपा विज्ञान शायद यह है कि सुर पर विजय ‘ईयर-ट्रेनिंग’ या श्रवण से अधिक पक्की संभव है? साहित्यकार संभवत: इस तर्क से साम्य बिठाए कि साहित्य में आगे बढ़ने का तरीका लिखने के अभ्यास से पहले पढ़ने के अभ्यास से है? पं. भीमसेन जोशी की ‘वोकल-ट्रेनिंग’ वर्षों के ‘ईयर-ट्रेनिंग’ के बाद शुरु हुई। इस बात के मेरे पास कई तर्क हैं, लेकिन फिलहाल यह कह दूँ कि धारवाड़ के वह अगली पांत के युवक भीमसेन जोशी थे। 

अधिकतर ख़ानदानी घरानों में यह रिवाज रहा है कि छोटी उम्र से घंटो गवाया जाए। डागरों की परंपरा रही है कि ग्यारह सौ मनकों की माला लेकर बैठते, और एक हज़ार बार यह माला जपते हुए एक ही स्वर या स्वर-समूह गाते। इस कठिन ‘वोकल ट्रेनिंग’ से उनका अभ्यास पक्का होता जाता। इसे यूँ समझा जाए जैसे बच्चों को पहाड़े रटाना, और उसका गणित बाद में समझाना। कविता पहले रटाना और उसमें छुपा रस या भाव उम्र के साथ समझना। लेकिन यह अगर उल्टा किया जाए तो? अगर वर्षों तक बच्चा कविता सुनता रहे, भाव समझने का प्रयत्न करता रहे, और फिर जाकर छंद लिखने शुरु करे तो? यह रास्ता कठिन है, अपारंपरिक है, और कुछ हद तक अवैज्ञानिक भी। मेरा पहला कयास यह है कि पं. भीमसेन जोशी एक अवैज्ञानिक संगीतकार थे। यह सुनते ही संभवत: कई संगीत-अध्येता मुझे खारिज कर दें। लेकिन मैं बस यह कह रहा हूँ कि यह बस मेरा कयास है। 

अब यह किंवदंती तो कई लोगों ने अलग-अलग तरह से सुनी होगी कि पं. भीमसेन जोशी ने एक चाय की दुकान पर अब्दुल करीम ख़ान की रिकॉर्डिंग सुनी- ‘फगवा बृज देखन को चल दी’ और पंडित जी भी घर छोड़ कर चल दिए। किसी ने यह भी जोड़ दिया कि घर में कुछ मामूली झगड़ा छेड़ दिया और भाग गए। लेकिन भाग कर वह अब्दुल करीम ख़ान या उनके शिष्यों के पास क्यों नहीं गए? आखिर सवाई गंधर्व तो उनके गाँव के पड़ोसी ही थे। यह तो साधारण तर्क है कि व्यक्ति को अगर वही गुरु चाहिए और गुरु पास ही है, तो वहीं जाएगा। फिर वह मध्य भारत या उत्तर भारत क्यों निकल गए? वह उस गायकी के स्रोत का पीछा शायद नहीं कर रहे थे, वह तो इस संगीत-जगत के भाव की तलाश में था। और वह बस धारवाड़ तक सीमित नहीं था। या यूँ कहिए कि वह यूँ गुरु के शिष्यों की पांती में बैठ कर टेक्स्टबुक रियाज करते जीवन गुजारने में संतुष्ट न हों। मैं भीमसेन जोशी जी के कई साक्षात्कार पढ़ और देख चुका, लेकिन यह प्रश्न अनुत्तरित ही रह गया।

पंडित जी ग्वालियर में उस्ताद हाफ़िज अली ख़ान (अमजद अली ख़ान के पिता) के पास पहुँचे। यह बात उस्ताद अमजद अली ख़ान को भी तभी पता चला जब पंडित जी ने बताया। लेकिन सोचिए। एक संभावी गायक भला सरोद-सुरशृंगार वादक के पास क्यों गये? उनसे आखिर कैसे गायकी की सीख मिलेगी? यह दरअसल ‘इयर-ट्रेनिंग’ थी। ऐसे ही कभी पहाड़ी सान्याल जैसे फ़िल्मी व्यक्ति के घर नौकर बन कर रहना, तो कभी जलंधर के ध्रुपदिए से सीखना, या लाहाबाद के संन्यासी संगीतज्ञ भोलानाथ भट्ट को ढूँढ निकालना। यह सब अपारंपरिक है। इनमें कोई भी स्थापित खयाल गायक या गायकी घराने के उस्ताद नहीं थे। यह सब एक फक्कड़ जीवन का भटकाव कहिए, या अन्वेषण कहिए। लेकिन यह कहीं से भी पारंपरिक गंडा-बंधन कर गुरु-शिष्य परंपरा का निर्वाह तो नहीं ही थी। बिना किसी स्कूल में एडमिशन लिए ज्ञान-अर्जन करना कितना कठिन है? और उससे मिलेगा क्या? आप यह कड़ी जोड़ लें, उत्तर मिल जाएगा। उत्तर तो मिल ही जाएगा, दुनिया के सभी महान् व्यक्ति इसी कड़ी में मिल जाएँगे। अब तो खैर फ़िल्मी डायलॉग बन चुका- “सफलता के पीछे मत भागो….सफलता खुद-ब-खुद पीछे आ जाएगी।”

पुराने संस्मरणों को पढ़ कर यह भी स्पष्ट होता है कि पंडित जी के स्वर में शक्ति समय के साथ ही आई। पहाड़ी सान्याल ने जब बंबई में उनको सुना, उन्होंने पहचाना ही नहीं कि यह तो मेरे घर में कभी बेसुरा नौकर रह चुका है। यह परिवर्तन आखिर कैसे हो गया कि आज मैं इसकी गायकी पर झूम रहा हूँ। पंडित जी ने सुर पर ध्यान तभी देना प्रारंभ किया, जब उनकी भाव पर पकड़ हो गयी। और जब भाव पर पकड़ हो गयी, सुर खुद-ब-खुद पीछे चले आए। यह भाव गले से आए, तार से आए, मृदंग से आए, या अनाहत नाद से आए, सन्नाटे से आए। पंडित जी को मैंने करीब से देखा है, और उनके गायकी से पहले ही उनके चेहरे पर भाव आ जाते हैं। उनकी भृकुटी, उनकी आँखें, उनके होंठ, उनका गला सब भिन्न-भिन्न रसों के हिसाब से बदल जाते हैं। आप देख कर कह देंगे कि पंडित जी बसंत गाने वाले हैं या दीपक, बशर्तें कि हमें भी भाव की समझ हो। और जैसे-जैसे उनकी गायकी का भूमंडलाकरण होता जाएगा, स्वर खुल कर वातावरण में पसरते जाएँगे, उनकी भंगिमाएँ भी मुखर होती जाएगी। जैसे उस रस का एक इकोसिस्टम उस कमरे में तैयार हो गया हो। इसमें रागदारी ढूँढने वाले उनकी मीड से और गले की थरथराहट से कन्फ्यूज़ होते रहेंगे कि पंडित जी किस शैली में गा रहे हैं, बागेश्री का कौन सा अंग गा रहे हैं; रस ढूँढने वालों को पंडित जी स्पष्ट नजर आएँगे। मैं इस विवाद से ही यह लेख संपन्न करुँगा कि किराना घराना के इन विभूति को बस किराना से न बाँधिए। यह उन्हें एक दायरे और शैली में समेटना है; जबकि पंडितजी की गायकी ऐसे किसी पूर्व-स्थापित शैली में सीमित रही ही नहीं। न किसी परंपरा में, न किसी विज्ञान में। जो इन दायरों में फँसा, वह भीमसेन जोशी न बन सका।

 

 
      

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