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बचपन में अपने भविष्य के बारे में कुल जमा पचपन सपने देखे थे

आज मनोहर श्याम जोशी की पुण्यतिथि है. 2006 में आज के ही दिन उनका देहांत हो गया था. संयोग से उसी साल उनको साहित्य अकादेमी पुरस्कार भी मिला था. उस अवसर पर उन्होंने जो संक्षिप्त भाषण दिया था वह यहाँ अविकल रूप से प्रस्तुत है- मॉडरेटर

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हाल में एक दिन गिनने बैठा तो पाया कि बचपन में अपने भविष्य के बारे में कुल जमा पचपन सपने देखे थे. तब मशहूर खिलाड़ी बनने से लेकर मशहूर वैज्ञानिक बन जाने तक की कल्पनाओं का सुख मेरे मन ने लूटा लेकिन पुरस्कार विजेता बनने का नहीं. यह तब जबकि मेरा जन्म एक साहित्यानुरागी परिवार में हुआ था. मेरा ही साहित्य की ओर कोई रुझान नहीं था. स्कूल की वाद-विवाद प्रतियोगिता में मुझे हिंदी के विरुद्ध और हिन्दुस्तानी के पक्ष में बोलने पर किसी अज्ञेय की ‘शेखर: एक जीवनी’ नामक पुस्तक बतौर प्रथम पुरस्कार दी तो मैं रो पड़ा कि ये क्या बेकार सी किताब दे दी. मुझे तब ज्ञान-विज्ञान की किताबें पढना पसंद था. बहुत हद तक आज भी है. मैं शायद लेखक बनने के लिए पैदा हुआ ही न था और अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद अब तक बन भी नहीं पाया हूँ. लेकिन नियति के खेल निराले हैं. मुझे ने केवल लेखक बनना था बल्कि बावन साल पहले दिल्ली पहुंचकर उसी अज्ञेय से गण्डा बंधवाना था जिनका उपन्यास कुछ ही वर्ष पहले मैंने पहला पन्ना पढ़कर फेंक दिया था. बहरहाल, पैनी नजर वाले तब भी ताड़ सके थे कि मैं साहित्यकारों की पंगत में घुस आया कोई ठग हूँ. याद पड़ता है कि अज्ञेय जी ने अपनी रेडियो साहित्यिक पत्रिका में कवि के रूप में प्रस्तुत किया तो अंग्रेजी दैनिक ‘स्टेट्समैन’ के समीक्षक ने मुझे ‘शाल्टन’ यानी छद्म कवि ठहराया था. कविता करना तो मैंने शीघ्र ही छोड़ दिया था. गद्य लिखना भी छोड़ दिया होता तो आज बुढापे में ये दिन न देखना पड़ता.

बता चुका हूँ कि मुझे विज्ञान प्रिय था और मैंने बचपन में वैज्ञानिक बनने का सपना देखा था तो भौतिकशास्त्री बनने के इरादे से लखनऊ विश्वविद्यालय में पढने पहुंचा. वहां होस्टल में गरीब छात्र की हैसियत से रहते हुए इतना अकेलापन महसूस किया कि द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के पुजारियों की गोद में जा बैठा. उनमें से एक ने मुझे बताया कि तुम कहानी लेखक हो, जिस तरह से बातें सुनाते रहते हो उसी तरह से लिख डालो तो कहानियां बन जायेंगी. मैंने उस शुभचिंतक का नुस्खा आजमाया और लखनऊ लेखक संघ की बैठक में अपने को कहानी पढता पाया. तो मेरा लिखना किसी आंतरिक उद्वेलन के कारण नहीं, संयोगवश आरम्भ हुआ. आगे वह जारी रहा तो दुहरी मजबूरी के कारण. पहली थी आर्थिक जिसके चलते मैं कथाकार और पत्रकार दोनों एक साथ बना. बेरोजगारी के आलम में कलम घिसकर तो कमाया ही नौकरियां भी सब ऐसी मिलीं जिनमें अपनी रचनात्मकता को व्यावसायिक आवश्यकताओं पर न्योछावर करना पड़ा. दूसरी मजबूरी अस्तित्ववादी किस्म की थी. पढ़ाई चौपट कर डाली थी, भौतिकशास्त्री बन नहीं पाया था, नौकरी मिल नहीं रही थी. मुझे हर माने में बेकार बालक ठहराया जा चुका था. अपने कुछ होने और देश दुनिया को बदल सकने की खुशफहमी क्रांतिकारी लेखक की भूमिका अपनाकर ही पाली जा सकती थी. लिहाजा अपनी चार कहानियों और ढाई कविताओं के बूते मैं अपने आपको प्रयोगधर्मी और प्रगतिकामी साहित्यकारों की एक विश्वव्यापी बिरादरी का सदस्य मानने लगा.

अब मेरे इस स्वभाव को क्या कहिये कि इस भूमिका में आत्ममुग्ध रहने की जगह आत्मसंशय से पीड़ित हो उठा. मुझे लगा कि मेरी और मेरे मित्रों की प्रयोगधर्मिता पश्चिम से आयात की हुई है और क्रांति कामना बुर्जुआ आत्मदया से उपजी भावुकता भर है. मेरी बिरादरी पता नहीं किस आधार पर अपने को विशिष्ट समझती है और ऐसे फिकरे बोलती है जिनका अर्थ बस वही जानती है. वह जहाँ एक ओर भाषा और शिल्प की बात करना अपनी तौहीन समझती है वहां दूसरी ओर उसका चहेता फिकरा है- रचनाप्रक्रिया. जो प्रक्रिया मस्तिष्क के संश्लेषणधर्मी दायें गोलार्ध में चलती है और जिसके बारे में वैज्ञानिक तक अभी तक कुछ नहीं जान पाए हैं उसका हम साहित्यकार पूरे विश्वास से विश्लेषण करते  रहते हैं. वांग्मय भी गोया एक व्यंजन है हमारी रसोई का.

संक्षेप में यह कि साहित्यकार बन बैठने के बाद मुझे अपना साहित्य और अपनी क्रांतिकारी भूमिका दोनों ही व्यंग्य के पात्र प्रतीत होने लगे. इस मनःस्थिति में लिखना कठिन था और लिखे से संतुष्ट होना कठिनतर, तो रचनाएं अधूरा छोड़ता रहा और फाड़कर फेंकता रहा. लिखना स्वान्तः सुखाय किस्म की चीज बन चली मेरे लिए. साहित्यिक लेखन छोड़ ही दिया मगर मित्रों के लिखे में मीन मेख निकालता रहा. थोक के भाव व्यावसायिक लेखन करते हुए कभी खुदरा साहित्यिक कृति निकाल दी तो इस मजबूरी में कि कुछ तो लिखिए कि दोस्त कहते हैं कि अबे खुद भी तो कुछ लिखकर बता. शायद किसी लायक हों अंदाज में प्रस्तुत मेरी कृतियाँ आलोचकों को ही नहीं स्वयं मुझे भी बतौर दाद एक आधी-अधूरी ताली से ज्यादा की हकदार कभी नहीं लगी हैं. मैं साहित्य अकादेमी का आभारी हूँ कि उसने मेरी किसी रचना को पुरस्कृत करने लायक समझा. मुझे अपने मित्र स्वर्गीय सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की यह बात याद आ रही है कि जो लाख समझाने के बावजूद लिखता ही चला जाए तो उसे कभी-कभी इस ढिठाई के लिए भी पुरस्कृत कर दिया जाता है.

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