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टैगोर: ‘वह कवि जब तक जिया, उसने प्रेम किया’

आज रबीन्द्रनाथ टैगोर की जयंती पर सुपरिचित कवयित्री, प्रतिभाशाली लेखिका रश्मि भारद्वाज का लेख पढ़िए। पहले यह लेख ‘दैनिक भास्कर’ में प्रकाशित हो चुका है। वहाँ से साभार पढ़िए- मॉडरेटर

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 ‘मैंने अपने जीवन में चाहे और जो कुछ भी किया हो, एक लंबी ज़िंदगी जी लेने के बाद आज मैं निश्चित तौर पर कह सकता हूँ कि मैं सिर्फ़ एक कवि ही हूँ, इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं’।

रवींद्रनाथ टैगोर ने 1861 के जिस बंगाल में अपनी आँखें खोलीं वह उस समय राजा राम मोहन राय और बंकिम चंद्र जैसे दिगज्जों के नेतृत्व में एक व्यापक सामाजिक, धार्मिक, साहित्यिक और राजनैतिक चेतना के दौर से गुज़र रहा था और इसका गहरा असर उनके जीवन और व्यक्तित्व पर पड़ा और ताउम्र बना रहा।

बंगाल के एक सम्पन्न, सुसंस्कृत परिवार में जन्में रवींद्र का बचपन बहुत अकेलेपन और नौकरों की कड़ी देखरेख के बीच गुजरा। बालक रवींद्र को नौकर एक घेरे के अंदर खड़ा कर देते और वह भय से उसके अंदर ही घंटों खड़े रहते, और पास की खिड़की से दिखती बाहर की दुनिया की आधी अधूरी झलक लेकर अपना कल्पना लोक बुनते। पारंपरिक जमींदार परिवार के नियमों में बंधी माँ को भी वह कभी कभार ही देख पाते, आध्यात्मिक रुचि रखने वाले पिता महर्षि देवेन्द्रनाथ अक्सर हिमालय प्रवास पर ही रहते। अपने भाई-बहनों में सबसे छोटे रवींद्र के लिए स्कूली शिक्षा भी एक सजा की तरह ही थी। अपने कटु अनुभवों को याद करते हुए उन्होंने बाद में लिखा ‘जब मैं स्कूल भेजा गया तो, मैने महसूस किया कि मेरी अपनी दुनिया मेरे सामने से हटा दी गर्इ है। उसकी जगह लकड़ी के बेंच तथा सीधी दीवारें मुझे अपनी अंधी आँखों से घूर रही है।’ शिक्षा को सख्त और पारंपरिक नियमों के दायरे से निकालने के लिए उन्होंने 1901 में बोलपुर के पास ब्रह्मचर्य आश्रम के नाम से एक विद्यालय की स्थापना की, जिसे बाद में शान्तिनिकेतन के नाम से पुकारा गया। एक ऐसा स्कूल जहां साहित्य, कला, विज्ञान, संगीत हर विषय पढ़ाया जाता था लेकिन जहां पेड़ की छाया में भी कक्षाएं लग जातीं थीं और अनुशासन के नाम पर विधार्थियों को पिंजड़े में क़ैद नहीं किया जाता था।

 रवींद्रनाथ ने बहुत जल्दी औपचारिक स्कूली शिक्षा से नाता तोड़ लिया और घर में ही कला, संगीत, विज्ञान आदि की शिक्षा निजी अध्यापकों से लेनी शुरू की। उन्हीं दिनों एक अध्याय रटते वह एक पंक्ति पर अटक गए। यह पंक्ति उन्हें सूचनाओं के बोझिल संसार से बाहर निकालकर अपनी उन्हीं कल्पनाओं की दुनिया में ले गयी जहां विचरना उन्हें सबसे प्रिय था। वह पंक्ति थी- ‘बारिश में कांपते पत्ते।‘ यह उनके लिए साहित्य की दुनिया का दरवाज़ा खुलने जैसा था । बाद में पिता देवेन्द्र्नाथ और अपने से बारह वर्ष बड़े भाई ज्योतिरिंद्रनाथ के सानिध्य में उन्होंने कला और साहित्य की दुनिया को बहुत करीब से जाना और ख़ुद भी कविताएँ लिखने लगे। ज्योतिरिंद्रनाथ की पत्नी कादंबरी देवी किशोर रवीन्द्रनाथ के एकाकी जीवन की पहली सखा के रूप में आई जो उनकी कविताएं सुनती और उसकी आलोचना भी करतीं। वह ख़ुद भी साहित्य रसिक थीं। माँ को छोटी उम्र में खो चुके रवींद्र को हमउम्र कादंबरी ने स्त्री के सुंदर, स्नेहिल संसार से परिचित कराया जो उनके लिए अब तक अबूझ था।

उच्च शिक्षा प्राप्त करने के उद्देश्य से वह 1878 में इंग्लैंड गये। वहाँ भी कुछ ही दिन तक बाइटन स्कूल में रह पाए और अंतत: भारत लौट आये। 1881 में फिर कानून की पढ़ार्इ के विचार से इंग्लैंड गए पर उनका जहाज मद्रास ही पहुंचा था कि किन्ही अज्ञात कारणों से अचानक उन्होंने अपना विचार बदल लिया और सीधा मसूरी पहुँच गए। उन दिनों उनके पिता वहीं रह रहे थे। उन्होंने पिता से भारत में ही रहने की इच्छा प्रकट की जो उनके उदार पिता ने सहर्ष दे भी दी। बक़ौल रवींद्रनाथ, पंद्रह से तेईस की उम्र उन्होंने बहुत ही अव्यवस्थित और दिशाहीन ढंग से बिताई। विदेश में उन्होंने कोई डिग्री तो प्राप्त नही की, पर उन्हें पूर्व और पश्चिम की संस्कृतियों का प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त करने का अवसर मिला। दोनों ही संस्कृतियों का सर्वश्रेष्ठ तत्व उनके व्यक्तित्व का हिस्सा बन गया। इंग्लैंड से लौटकर उन्होंने ख़ुद को पूरी तरह से लेखन के लिए समर्पित कर दिया। उन्हें अपने जीवन की दिशा मिल चुकी थी। विदेश में ही उन्होंने अपनी पहली काव्य नाटिका ‘भग्न हृदय’ लिखना शुरू किया था जिसे भारत आकर पूरा किया।

1883 में भवतरिणी राय चौधरी से विवाह के समय वह ‘नलिनी’ लिख रहे थे और उसी के तर्ज़ पर उन्होंने बालिका वधू भवतारिणी का नाम बदल कर मृणालिनी रख दिया। यह नाटक परिवार के सदस्य ही मिलकर प्रस्तुत करने वाले थे लेकिन इससे पहले कि यह नाटक पूरा हो पाता, पूरे परिवार को एक गहर सदमा पहुंचा। कादंबरी देवी की आत्महत्या ने रवीन्द्रनाथ को बहुत मानसिक आघात और पीड़ा पहुंचाई। माँ की मौत के बाद किसी अपने की मौत से यह उनका पहला परिचय था। बांग्ला लेखक अमिय चक्रवर्ती को लिखे अपने पत्र में उन्होंने अपनी उस अवस्था का ज़िक्र किया है, ‘उसकी मृत्यु के बाद मुझे ऐसा लगा कि मेरे पैरों के नीचे ज़मीन नहीं बची और आकाश की रोशनी बुझ चुकी है। मेरी दुनिया वीरान और गयी और जीवन बोझिल। मैं नहीं जानता था कि मैं कभी भी इस खालीपन से उबर पाऊँगा या नहीं। लेकिन इस असीम दुख ने पहली बार मुझे सही अर्थों में मुक्त भी किया। मुझे समझ आया कि जीवन का सच जान पाने के लिए उसे मौत की खिड़की से देखना होगा’।

रवीन्द्रनाथ को परिवार का सुख भी बहुत कम दिनों के लिए मिला और और उनकी पत्नी मृणालिनी और तीन बच्चों को भी मौत ने उनसे दूर कर दिया। एक पुत्र रथिंद्रनाथ और पुत्री मीरा ही परिवार के नाम पर बचे रह गए। मीरा की नगेन्द्रनाथ गांगुली से हुई शादी टिक नहीं पायी। रवीन्द्रनाथ ने मीरा को कभी भी अपने पति के पास वापस लौटने का दबाव नहीं दिया और शांतिनिकेतन में रहकर अपनी शिक्षा पूरी करने का सुझाव दिया। मीरा को लिखा उनका ख़त स्त्री के लिए उनकी उदार और समान सोच को दिखाता है। वह लिखते हैं, ‘तुम्हें अपने सही और गलत का निर्णय ख़ुद करना होगा। मुझे विश्वास है कि तुम दूसरों के कहने की परवाह किए बिना अपने आदर्शों के साथ आगे बढ़ती रहोगी’।

सक्रिय राजनीति में कभी भी विशेष रुचि नहीं होने के बाद भी बंगाल विभाजन का अन्याय वह झेल नहीं सके और कोलकाता की गलियों में एकता, स्वतन्त्रता और बंधुत्व का गीत गाते घूमने लगे। विभाजन के विरुद्ध चल रहे स्वदेशी आंदोलन का नेतृत्व किया और अंग्रेजों को यह विभाजन रद्द करना पड़ा।

1913 में अपने द्वारा अंग्रेज़ी में अनुदित गीतांजलि के लिए साहित्य का विश्वप्रसिद्ध नोबेल पुरस्कार पाने वाले वह एशिया के प्रथम कवि बने। वह अपने अंग्रेज़ी कवि-मित्र यीट्स से उसका पाठ सुनते और उनकी अंग्रेज़ी पर मुग्ध होते । उन्हें हमेशा अपने अंग्रेज़ी ज्ञान पर संशय रहा जबकि यीट्स उसे बेहतरीन मानते रहे।

जालियाँवाला बाग में अंग्रेजी सरकार द्वारा की गयी निर्ममता से आहत कवि ने अपनी  ‘नाइटहुड’ की उपाधि लौटा दी। वैचारिक असहमतियों के बाद भी गांधी उन्हें बहुत प्रिय थे। टैगोर मानवतावादी थे जबकि महात्मा गांधी के लिए राष्ट्र सर्वोपरि था। टैगोर के लिए गांधी ’महात्मा’ थे तो गांधी जी ने उन्हें ‘गुरुदेव’ बुलाया करते।

1941 में अपनी मृत्यु से पहले रवीन्द्रनाथ एक साहित्यकार, शिक्षाविद, समाजसेवी, और संगीतकार के रूप में दुनिया भर में प्रसिद्ध हो चुके थे लेकिन उनके हृदय में एक ही इच्छा आख़िरी दम तक बनी रही जिसे उन्होंने अपनी इस कविता में अभिव्यक्त किया है –‘ जब मैं इस धरती पर ना रहूँ, मेरे पेड़, तुम अपनी बसंत की ताज़ा उगी पत्तियों से कहना कि वह यहाँ से गुजरते हर यात्री के कानों में हौले से कहे, वह कवि जब तक जिया उसने प्रेम किया’।

*पूरी दुनिया को अपना घर मानने वाले कवि रवीन्द्रनाथ एकमात्र ऐसे लेखक हैं जिनका लिखे गीत दो देशों के राष्ट्रगान है। भारत का जन गण मन और बांग्लादेश का आमार सोनार बांग्ला।

*जीवन के साठवें दशक में उनका रुझान चित्रकला की ओर हुआ जो उनके लेखन का ही विस्तार था। अपने अर्जेंटीना प्रवास के दौरान वह प्रसिद्ध लेखिका विक्टोरिया ओकैंपो के संपर्क में आए। विक्टोरिया ने गीतांजलि पढ़ रखी थी और उनसे बहुत प्रभावित थी। विक्टोरिया ने टैगोर के स्केचेज को देखकर उन्हें चित्रकला की ओर प्रेरित किया।  माना जाता है कि टैगोर के पेंटिंग की प्रेरणा दरअसल विक्टोरिया ओकैंपो ही थीं और उनकी दो दर्जन से अधिक कविताओं की ‘बिजया’ भी।

*गीतांजलि की भूमिका लिखने वाले कवि यीट्स लिखते हैं कि मैं कई दिनों तक इन कविताओं का अनुवाद लिए रेलों, बसों और रेस्तराओं में घूमा और मुझे बार-बार इन कविताओं को इस भय से पढ़ना बंद करना पड़ा कि कहीं कोई मुझे रोते-सिसकते हुए न देख ले। अपनी भूमिका में यीट्स ने लिखा कि हम लोग लंबी-लंबी किताबें लिखते हैं जिनमें शायद एक भी पन्ना लिखने का ऐसा आनंद नहीं देता है। बाद में गीतांजलि का जर्मन, फ्रैंच, जापानी, रूसी आदि विश्व की सभी प्रमुख भाषाओं में अनुवाद हुआ।

 
      

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