विवेक मिश्र समकालीन साहित्य का जाना-माना नाम हैं। उनकी नई कहानी पढ़िए- मॉडरेटर
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बाहर फैले स्याह रंग में हल्की-सी रोशनी घुलने लगी थी। अंधेरा फीका हो चला था। माया ने कुर्सी से उठकर खिड़की का पर्दा एक ओर सरका दिया। सारी रात अस्पताल में कटी थी। प्रशान्त पर अभी भी नींद के इन्जेक्शन का गहरा असर जान पड़ता था। चौदह घण्टे बीत जाने पर भी आँखें नहीं खुल रही थीं पर पुतलियाँ पलकों के नीचे हरकत करती मालूम होती थीं। दिमाग़ में अभी भी कुछ चल रहा था। वह कुछ सोच रहे थे।
बीमारी- बेनाम। कारण- नामालूम। इलाज़- कुछ नहीं। आगे क्या होगा- पता नहीं। बस एक ही बात- ‘यह सोचते बहुत हैं, कहिए कि ‘सोचना बन्द करें’। एक ही जवाब- ‘यह उनके बस में नहीं’। जीवन भर लिखते-पढ़ते, सोचते रहे हैं। जो है, वो भी। जो नहीं है, वो भी। दिन-रात, सुबह-शाम सोचते ही तो रहते हैं। दुनिया भरके सुख-दुख जीते, विचारों के विराट अरण्य में भटकते, परकाया प्रवेश करते, कभी पूरे, कभी आधे वापस लौटते, पर हर बार अपने को खंडित और छिन्न करके ही आते। इस आवा-जाही में कोई और उनकी अपनी काया में आकर बैठ गया है। भीषण उत्तेजना भरी रहती है, नस-नस में। सोते-जागते चलता ही रहता है, दिमाग़। एक ज़िरह है, जो थमती ही नहीं।
शुरुआत में बहुत तेज़ी से बाल झड़ने लगे। फिर एक दिन हाथ की उँगलियों के नाखूनों का रंग बदलकर हरा होने लगा। सुबह उठे तो आवाज़ भर्राने लगी। अब तो हाथों की त्वचा का रंग भी बदल गया है। कई रातों से सोए नहीं, फिर भी पढ़ते हुए पलक नहीं झपकती! न जाने आँखों की नींद कहाँ रख दी! ख़ून, मल-मूत्र आदि की बीसियों जाँचें हुईं- किसी में कुछ नहीं! ई.सी.जी., रक्तचाप-सब नॉर्मल! डॉक्टर कहते हैं- कोई ऑटो इम्यून डिसीज़ है। शरीर की सुरक्षा प्रणाली, किसी खास चीज़ से प्रतिक्रिया कर रही है, पर क्या है वो चीज़? वो बात? जिसने प्रशान्त के देह-दिल-दिमाग़, सब में एक आक्रोश, एक अशान्ति भर दी है। माया नहीं जानती। बस उसे इतना पता है कि प्रशान्त का शरीर और मन हर पल किसी चीज से लगातार लड़ रहे हैं।
सुबह के सात बज गए। नर्स ने सूचना दी, ‘डॉक्टर ने बुलाया है’। माया ने ख़ुद को व्यवस्थित करते हुए कोने में लगे शीशे पर नज़र डाली, लगा किसी अदृश्य परछाँई ने चेहरे को मलीन कर दिया है, आँखों के नीचे कालिख फैल गई है। उन्होंने कमरे से निकलने से पहले फिर प्रशान्त कि ओर देखा वह अभी भी दवा के असर से बेहोशी की झोंक में थे पर सोए नहीं थे। शायद अभी भी कुछ सोच रहे थे।
सच ही था। प्रशान्त के दिमाग़ में दृश्यों की एक श्रंखला बहुत तेज़ी से घूम रही थी। स्मृति बीते दिनों को ताश के पत्तों-सा फेंट रही थी। इस समय उनके सामने अतीत का जो पत्ता खुल रहा था- उसमें शायद आधी रात का समय था। स्कॉच की बोतल खाली होकर, फर्श पर पड़ी दरवाज़े से आती हवा से आगे-पीछे लुड़कती हुई, एक विचित्र-सी किरकिराहट पैदा कर रही थी जिससे प्रशान्त के शरीर में एक झुरझुरी दौड़ रही थी और उनके दाँत किसकिसाने लगे थे पर वह अपने दाँतों को भींचे, किसी गहरी सोच में डूबे, खिड़की से फैलती मद्धिम रोशनी के सहारे बाहर देख रहे थे। बारिश रुक गई थी पर अभी भी पेड़ों के पत्तों पर रुकी बूँदें रह रहके तेज़ होते हवा के झोंकों से फिसल कर गिर रही थीं।
कमरे में अकेले खड़े प्रशान्त अपनी ही तलब से खीज रहे थे। सचमुच ही तलब बुरी चीज है, फिर चाहे वह किसी चीज की हो। उस रात वहाँ तीन लोग थे- प्रशान्त, तपन और उन दोनो से लगभग छ: साल छोटा, सत्ताईस साल का विकल, और तीनों की अपनी तलब थी। प्रशान्त तपन से दक्षिण अफ्रीका के उस टापू पर बनी जेल के बारे में सब कुछ जान लेना चाहते थे जिसकी पड़ताल के लिए वह अनायास ही अपना सब कुछ छोड़कर चले गए थे। बात जिस उठान पर थी वहाँ उसे छोड़ना मुश्किल था पर तपन का बिना सिगरेट के आगे कुछ भी कह पाना उससे भी ज्यादा कठिन था। तपन की सिगरेट की हुड़क ने विकल को भी अपनी चपेट में ले लिया। उसने कहा ‘जब सिगरेट लेने जा ही रहे हैं, तो दारू भी ले आते हैं’। प्रशान्त ने खिड़की से बारिश का जायज़ा लेते हुए टोका भी था, ‘इतनी रात में शराब कहाँ मिलेगी’ पर तपन और विकल उनकी बात को अनसुना कर, गाड़ी स्टार्ट कर, गेस्ट हॉउस से नीचे जाती सड़क पर निकल गए, प्रशान्त गाड़ी की तेज़ रोशनी में सड़क पर पड़ती तिरछी बूँदों को चुपचाप देखते रहे।
वह अब तपन की कहानी से ज्यादा, उनकी झक के बारे में सोच रहे थे- यह भी अजीब आदमी हैं! एक सिगरेट के लिए आधी रात को, इतनी बारिश में, पहाड़ से उतरकर कर चल दिए, एक दिन अचानक हज़ारों मील दूर दक्षिण अफ़्रीका के किसी गुमनाम से टापू पर सालों पहले दफ़न की जा चुकी कहानियों की पर्तें उघाड़ने पहुँच गए। कहते हैं ‘माया की याद आई तो वापस चले आए’, अभी माया से मिले भी नहीं कि विकल और उसे लेकर, अपनी जाँच-पड़ताल के बारे में बताने, यहाँ इस पहाड़ी पर आ गए। क्या कहेगा तपन से अपने और माया के बारे में? क्या अभी आते ही उन्हें बता दे कि उनके जाने के बाद माया और वह एक साथ रहते हैं? प्रेम करते हैं एक-दूसरे से। क्या उसके यह बताने के बाद भी तपन उस टापू पर घटने वाली भीषण दमन की अराजक कहानी, इस गेस्ट हॉउस में बैठे सुनाते रहेंगे? या सिगरेट लाने के बहाने अकेले ही अंधेरे में इस पहाड़ी से उतरेगें और फिर कभी नहीं लौटेंगे।
प्रशान्त ने तपन के साथ यहाँ आने की बात माया को भी नहीं बताई थी। आखिर तपन माया से मिले क्यूँ नहीं? क्या है उनके मन में? कई बातें थीं जो प्रशान्त और तपन के बीच की जानी बाकी थीं पर न जाने क्यूँ वे हमेशा से ही स्थगित होती आई थीं पर आज ऐसा नहीं होगा। आज सब कुछ कह देना होगा, पर वह टापू! उस पर बनी वह जेल! तपन और प्रशान्त के बीच खड़ी थी। क्या उसके जैसी कोई जगह सच में दक्षिण अफ्रिका में कहीं थी? तपन ने अभी तक जो भी बताया था वह प्रशान्त को खींच रहा था पर वह उसे वर्तमान से जोड़कर नहीं देख पा रहे थे। उन्हें लगता दूसरे विश्वयुद्ध के समय घटी घटनाओं की पड़ताल का आज के समय से क्या वास्ता? शायद तपन अतीत के एक ऐसे पन्ने पर लिखी इबारत को पढ़ने की कोशिश कर रहे हैं जिसे इतिहास ने भी ग़ैर जरूरी जानकर किनारे कर दिया, पर फिर लगता कि यह भी तो एक बड़ा सच है कि इतिहास के नाम पर अतीत की जो भी कहानियाँ हमारे दिल-दिमाग़ पर चस्पा कर दी गईं उनमें अधिसंख्य झूठी और पक्षपातपूर्ण ढ़ंग से लिखी गईं हैं। जिन सरोकारों को विकास के नारों और झंडों के साथ मानवता के उत्थान की दुहाई देकर बड़े-बड़े हुज़ुमों ने उठाया। उन्हीं के सामने गरीब किसान, मज़दूर, कलाकार, लेखक अपने हक़ से, अपने अधिकार से दूर धकेले जाते रहे, तथाकथित नई दुनिया के निर्माण के लिए बली चढ़ते रहे। प्रशान्त भूत और वर्तमान के धुंधलके में साफ़-साफ़ कुछ देख पाते कि उससे पहले ही…
.…गाड़ी का हॉर्न बजा। तपन और विकल वापस आ गए थे। विकल गाड़ी से उतरते ही बच्चों की तरह चीखते हुए बोला, ‘ये देखो हम सिगरेट के साथ क्या लाए हैं?,…ये है पहाड़ की जेन्विन देसी दारू! और इससे भी जेन्विन और इन्टरेस्टिंग था वो आदमी। बता रहा था कि अंग्रेजों के समय में ये पहाड़ के हर आदमी की पहली पसन्द थी। गोरी मेमें तो विलायती स्कॉच के बदले में इसे खरीदती थीं। वह तो अपने दादा, जो अंग्रेज़ी गीतों को लोक गीतों की धुनों में ढालकर गाया करते थे, के एक अंग्रेज़ी मेम के साथ प्रेम के किस्से सुनाने लगा। वो तो हम ही जल्दी में थे इसलिए चले आए। कह रहा था उसके दादा अंग्रेज़ी में लिखे ख़त उस समय पढ़ लिया करते थे जब इस इलाक़े के लोग अपनी बोली के अलावा भारत की भी कोई भाषा बोल-समझ नहीं पाते थे पर एक दिन वह अचानक ग़ायब हो गए। बड़ा मसाला है, उसके पास, है न तपन दा?’
तपन बिना विकल की बातों पर कान दिए कोने में बैठे सिगरेट पी रहे थे। फेफड़ों में जैसे धुआँ नहीं, आखिरी साँस लेते मरीज़ के भीतर ऑक्सीजन जा रही थी। साँसें सम पर आ रही थीं, प्राण लौट रहे थे। विकल ने भी खाली गिलास भर दिए। विकल को शराब और तपन को सिगरेट मिल गई थी पर प्रशान्त की तलब थी-कहानी, सो वह चाहते थे कि तपन उसे आगे बढ़ाएं।
उनके चेहरे की बेचैनी को पढ़ते हुए तपन ने बोलना शुरू किया, ‘अभी तक जो भी जाना है, बहुत दर्दनाक है। दुनिया भर के कारीगरों, कलाकारों, लेखकों, कवियों का वो दर्द- उनकी घुटन और कुंठा से जन्मी- वह भयावह बीमारी। उससे हुई-मौतें- किसी देश के इतिहास में दर्ज़ नहीं। वे सारी कहनियाँ या तो उस टापू पर बनी जेल के आस-पास दफ़न हैं या दूसरा विश्वयुद्ध देख चुकी कुछ बूढ़ी आँखों में एक डर की तरह कभी-कभी अनायास चमकती हैं। जब धरती-आसमान पर होते धमाकों से कई साम्राज्य ढह रहे थे। ठीक उसी समय उस धुंधलके की आढ़ में पूँजी और नए बाज़ार की ताक़तें खड़ी हो रही थीं। तभी दुनिया के कई हुनरमंद लोग जो अपनी अलग सोच-समझ रखते थे, कुछ बना सकते थे, कुछ नया खड़ाकर सकते थे, की शिनाख़्त की गई, उनपर नज़र रखी गई और बिना किसी अपराध के जबरन उन्हें उनकी ज़मीन से उठा लिया गया। वे अपने हाथ के हुनर और अपनी ज़मीन से ही नहीं, बल्कि सूरज की रोशनी तक से मेहरूम कर दिए गए थे और उधर उनके अपने लोगों ने उन्हें मरा हुआ मानकर भुला दिया। वे दुनिया के अलग-अलग हिस्सों से पकड़कर उस जेल में लाए गए थे। उनसे अपेक्षा की जा रही थी कि वे जो कुछ भी जानते हैं, सब अपने बयानों में दर्ज़ कराकर, उसे सदा के लिए अपनी स्मृति से मिटा दें।’
‘पर उन सबकी भाषा तो अलग रही होगी?’ प्रशान्त ने बीच में टोका।
‘हाँ, इसीलिए सबसे पहले उन्हें अंग्रेजी सीखनी होती थी। उसके बाद हर मन-मस्तिष्क को निचोड़कर उसके हर विचार को, उससे जुड़ी हर जाकारी को निकाल लिया जाता। …उनके मस्तिष्क विकृत स्मृतियों के खण्डहर भर रह जाते और फिर एक दिन उन्हें हमेशा के लिए ख़ामोश कर दिया जाता।’
तपन की बात सुनकर प्रशान्त को फिर दातों के बीच कुछ किसकिसाता हुआ लगा।
तपन ने बोलना ज़ारी रखा, ‘वहाँ जो भी घट रहा था- अमानवीय था। आज हम सिर्फ़ उसकी कल्पना ही कर सकते हैं। यह इंसानी दिमाग़ों से तमाम ज़रूरी और अनोखे विचारों को जबरन निकाल कर भविष्य की किसी अज्ञात शक्ति के लिए एक विचारों का बैंक बनाने की योजना जान पड़ती थी। उनके बयान दर्ज़ हो जाने के बाद उन्हें ऐसे इन्जेक्शन दे दिए जाते, जिससे उनका दिमाग़ जड़ हो जाता। बयान न देने पर, या उसमें अपेक्षित जानकारी न होने पर, उन्हें भीषण यातनाएं झेलनी पड़तीं। ये सिलसिला कई दिनों, हफ़्तों या फिर कई बार महीनों तक भी चलता। मस्तिष्क बार-बार सक्रिय और निष्क्रिय किया जाता। विचार और अभिव्यक्ति में मुखर रहे आए लोग सुन्न पड़ जाते। अलग-अलग काल कोठरियों में बन्द लोग बेबसी में दीवारों को खुरचते, रोते, चीखते, छटपटाते। कुछ अपना दर्द दीवारों पर उकेरते पर उसे देखने, पढ़ने या समझने वाला वहाँ कोई न होता। धीरे-धीरे आँखें सूखकर पथराने लगतीं।
उस जेल में तैनात गार्डों के लिए उनका अस्तित्व तालाब की उन पालतू मछलियों से ज्यादा कुछ नहीं था जिन्हें हल्के से इशारे पर बिजली के एक झटके से मारा जा सकता था पर उससे पहले उन्हें अपनी मौत मरने की भी मनाही थी। वे एक-एक कोठरी में जाकर हर क़ैदी के पूरे कपड़े उतरवा कर उनकी जाँच करते थे। शायद अन्दाज़ा लगाते थे कि वह कितने दिन और इस यन्त्रणा को झेल सकता है। ऐसी ही जाँच के बाद एक दिन गार्डों ने अपने आकाओं को बताया था कि जेल के कुछ क़ैदियों के नाखूनों का रंग हरा हो रहा है, उनकी आवाज़ भर्राकर किसी मशीन की तरह हो गई है।’
विकल ने अपना गिलास खत्म करते हुए बीच में कुछ पूछना चाहा पर तपन ने उसकी बात पर ध्यान न देते हुए बोलना जारी रखा, ‘ठीक-ठीक किसी को नहीं पता कि उस जगह पर इन विशेष क़ैदियों के लिए बनाई गई, वह जेल किस संस्था या देश के अधीन थी और उसका अन्तिम उद्देश्य क्या था, शायद भविष्य का बाज़ार, शायद आने वाले समय में किसी नए साम्राज्य की स्थापना’।
प्रशान्त ने एक गहरी साँस भरते हुए कहा, ‘पता नहीं क्यूँ मुझे तो हमेशा से लगता है कि हम जो भी सोचते-समझते हैं, उसका लेखा-जोखा पहले ही इस विश्व बाज़ार को संचालित करने वाली ताक़तों के पास है। लगता है वे हमारे मष्तिस्क में आने वाले विचारों को कई साल पहले ही पढ़ चुके हैं। हम जैसे किसी दूसरे की बुद्धि से संचालित होने वाले रोबोट बन कर रह गए हैं।’
तपन ने बोलने से पहले थोड़ा रुककर बहुत ध्यान से प्रशान्त की ओर देखा। उनकी आँखों में इस कहानी से अलग भी कई बातें थीं, जो वह शायद प्रशान्त से पूछना चाहते थे पर उन सबको स्थगित करते हुए उन्होंने आगे बोलना शुरू किया, ‘कहा नहीं जा सकता कि उस जेल में हासिल की गई भाषा, संगीत, कला, विज्ञान आदि की जानकारियों का क्या उपयोग हुआ, क्या सचमुच वे शक्तियाँ भविष्य के बाज़ार के लिए ही काम कर रही थीं, या उन्ही विचारों के संवर्धन से आज बाज़ार के पास हर वो विचार है जिसकी मानव मस्तिष्क में आज, या फिर भविष्य में कभी आने की संभावना भी हो सकती है?’
प्रशान्त ने बीच में टोका, ‘पर विश्व के इतिहास में युद्धों के दौरान सैनिकों को, युद्ध बंदियों को यातनाएं देने की तमाम कहानियाँ हैं, पर उनमें कहीं इन लोगों का कोई जिक़्र नहीं!’
तपन ने छत की ओर ताक़ते हुए कहा, ‘दरसल हमेशा से ही अवाम वही देख पाता है जो उस समय को नियन्त्रित करने वाली शक्तियाँ उसे दिखाती हैं। फिर 1939-41 के बीच हुए उस युद्ध में दक्षिण अफ्रीका सीधे-सीधे शामिल भी नहीं था। उस युद्ध में वहाँ के कुछ लोग ब्रिटेन का साथ दे रहे थे, तो कुछ लोग इसे ब्रिटेन की हुकुमत को अपनी ज़मीन से उखाड़ फेकने के अवसर के रूप में देख रहे थे और वे चुपचाप जर्मनी का साथ दे रहे थे बल्कि दूसरी तरफ़ उत्तरी अफ्रीका, इथियोपिया, मेडागास्कर जैसे इलाके सीधे युद्ध से प्रभावित थे। जब विश्वभर में घमासान मची थी, इस जगह पर किसी की नज़र नहीं थी और इसीलिए इस जगह को इस गुप्त काम के लिए चुना गया।’
‘वहाँ स्थानीय लोगों को कुछ तो पता होगा, इसके बारे में’-प्रशान्त ने पूछा।
तपन ने लगभग बुझती हुई सिगरेट को झटकते हुए कहा, ‘हाँ, वहीं के एक छोटे से बर्ड नाम के टापू पर मिली एक तेरानवे साल की औरत, जो अभी भी आठ घण्टे अपने खेत में काम करती थी, ने बताया था कि उसके पिता ने कई प्राकृतिक औषधियों की खोज़ की थी, वह अपने मुँह में हवा भरके अपनी हथेलियों से अपने गाल बजाते थे और सुनने वालों को लगता कि यह कोंगो या किसी छोटे ड्रम की आवाज़ है। उन्होंने एक बिना डोरी का दूर तक मार करने वाला तीर-कमान भी बनाया था। वे बहुत हुनरमन्द थे, पर वे एक दिन शिकार पर निकले तो वापस नहीं लौटे’।
विकल तपाक से बोला, ‘यानी एक दम देसी दारू बेचने वाले उस पहाड़ी आदमी के दादा जी की तरह!’
तपन ने इस बार विकल की बात पर हाँ में सिर हिलाते हुए कहा, ‘बिलकुल हो सकता है, उस समय दुनिया भर से ऐसे ही कई लोग अनायस गायब हो गए थे। उसमें कई भारतीय भी थे।’ तपन ने एक लम्बी साँस भरकर, दूसरी सिगरेट सुलगाते हुए आगे बोलना शुरु किया, ‘…वहाँ उस टापू पर उस औरत को शक था कि उसके पिता को कुछ जर्मन लोग उठाकर, किसी गुप्त जगह पर ले गए थे क्योंकि उसने आखिरी बार उन्हें अपना तीर-कमान किसी जर्मन आदमी को चलाकर दिखाते हुए, देखा था, पर उसी की छोटी बहिन का मानना था कि अंग्रेजों के शासन में वहाँ जर्मनों का आना असंभव था। जरूर उनके पिता को अंग्रेज ही ले गए होंगे।’
तपन ने थोड़ा रुककर प्रशान्त की ओर बहुत ध्यान से देखा जैसे बिना पूछे ही किसी प्रश्न का उत्तर उसके चेहरे पर पढ़ लेना चाहते हों, फिर धीरे से कहा, ‘अभी मुझे इस बारे में बहुत कुछ पता करना है पर इससे पहले कुछ और भी है, जो मैं जानना चाहता हूँ…और उसका संबंध तुमसे और मुझसे है। मैं कुछ पूछना चाहता हूँ और उम्मीद करता हूँ, तुम सच बोलेगे’।
प्रशान्त का गला सूखने लगा, वह गिलास से घूँट भर पाते, उससे पहले ही तपन ने गहरे धुँए के साथ सवाल छोड़ा, ‘तुम माया से प्रेम करते हो?’
प्रशान्त का मुँह खुला रह गया। विकल अपना गिलास ज़मीन पर रखकर प्रशान्त को देखने लगा। प्रशान्त के मुँह से सिर्फ़ एक ही शब्द निकला, ‘हाँ’
जिसके सुनते ही तपन ने सिगरेट बुझा दी।
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प्रशान्त अतीत से लौटने की कोशिश में अस्पताल के बिस्तर पर पड़े ज़ोर-ज़ोर से बड़बड़ा रहे थे।
माया डॉक्टर के कमरे में पहुँचकर चुपचाप खड़ी हो गई। डॉक्टर ने बहुत दूर से आती हुई आवाज़ में कहा, ‘देखिए कई विशेषज्ञों की राय लेने के बाद भी, हम किसी निषकर्ष पर नहीं पहुँच पाए हैं। हमें लक्षणों के आधार पर ही इलाज़ करना होगा।’ उसने विषय से ख़ुद को बिलग करते हुए कहा, ‘वैसे भी मिस्टर प्रशान्त बहुत एन्गसियस रहते हैं। कुछ दिन के लिए कहीं घूम आईए, कहिए अपने काम से अलग रहें। अगर इस कन्डिशन में इतना स्ट्रेस लेते रहे तो हेमेरेज हो सकता है। दिमाग की नसें फट सकती हैं’।
एक सिरे से चेहरे पर उतरती हुई निराशा को समेटते हुए माया ने कहा, ‘तो क्या यह पहले ऐसे आदमी हैं, जिसे यह बीमारी हुई है?’
डॉक्टर ने माया को लक्ष्य न करते हुए, शब्दों को चबाते हुए कहा, ‘देखिए अभी तक मेरी जानकारी में ऐसी कोई बीमारी नहीं है, जिसमें रिपोर्ट्स नॉर्मल होने पर भी, ऐसे लक्षण दिखाई दें। किसी प्रकार का कोई संक्रमण भी नहीं है, वॉयरल, बैक्टीरियल, फंगल कुछ भी तो नहीं है’।
माया को लगा कि वह डॉक्टर की बात सुनते हुए किसी गहरे कुँए में डूब रही हैं। शब्द बुलबुलों की तरह सतह पर तैर रहे हैं। बुलबुलों के सहारे डूबने से नहीं बचा जा सकता। पूरी तरह डूबने से पहले उसने आखिरी बार मदद के लिए हाथ उठाया, ‘दुनिया में कहीं, किसी को तो ऐसा कुछ हुआ होगा?’
‘कोई ऑथेन्टिक मेडिकल रिपोर्ट नहीं है, पर सुना है कि सॉउथ अफ्रीका के एक टापू पर बनाई गई, एक गुप्त जेल में कुछ क़ैदियों में ऐसे लक्षण देखे गए थे’ डॉक्टर ने यह बात इतने धीमे से कही, मानो अपने ही कहे शब्दों पर उसे गहरा संदेह हो।
डॉक्टर की बात काटते हुए माया लगभग चीख पड़ी, ‘मैं जानती थी, इनकी इस बीमारी का दक्षिण अफ्रीका से और इनकी उस किताब से-जरूर कोई संबंध है’। डॉक्टर के चेहरे पर एक प्रश्न आकार ले ही रहा था कि तभी नर्स ने आकर बताया ‘पेसेन्ट नींद में कुछ बड़बड़ा रहा है’।
प्रशान्त बुरी तरह तड़प रहे थे, मानो स्वयं को किसी कारा से छुड़ाने के लिए दीवारों पर सिर पटक रहे हों। वह अतीत के किसी ऐसे खण्डहर में भटक रहे थे जहाँ से बाहर निकलने का रस्ता वह बिलकुल अभी-अभी भूल गए थे। डॉक्टर ने उन्हें फिर नींद का इन्जेक्शन दे दिया। शरीर धीरे-धीरे शिथिल पड़ता चला गया।
बाहर उजाला हो गया था, कमरे के फर्श पर सुबह की धूप का एक चौखाना बन रहा था, जिसका एक कोना कुर्सी पर बैठी माया के पैरों पर पड़ रहा था। खिड़की से फर्श तक आती रोशनी में वक़्त रेशा-रेशा तिर रहा था। हँसते-मुस्कराते प्रशान्त के अस्पताल के बिस्तर पर पड़ी इस जीर्ण काया में बदलने के बीच बीता समय, परत दर परत खुल रहा था।
माया को तपन ने ही प्रशान्त से मिलवाया था। कितने किस्से थे प्रशान्त के पास। एक खत्म नहीं होता कि दूसरा शुरू। दुनिया-जहान की चीज़ें मालूम थीं, उसे। तपन और प्रशान्त की खूब बनती थी। उन दिनो माया तपन के साथ ही थी। तपन, प्रशान्त के आते ही, जैसे जी उठते थे। दोनो कितनी बातें शेयर करते। उन दोनो की अलग ही दुनिया थी। माया कई बार खाना-पीना सब भूलकर उनकी बातें सुनती ही रह जाती। तपन को जैसे जानकारियाँ इक्ट्ठी करने का जुनून था, जहाँ भी किसी के अधिकारों के हनन का कोई मामला हो, तपन उसे सामने लाए बिना नहीं रह सकते थे। जैसे दमन और शोषण की हर कहानी को उजागर करने की सनक थी। तपन जैसा जानकारी जुटाने वाला पत्रकार और प्रशान्त जैसा सुनने और उसमें अपने अनुभव जोड़कर, किस्से गढ़ने वाला लेखक। अद्भुत जोड़ी थी।
उन्हीं दिनों तपन को दक्षिण अफ्रीका के उस टापू के बारे में कुछ पता चला था। बस उसके बाद तो जैसे उन्हें उसके बारे में जानने की झक सवार हो गई थी। वह वहाँ जाकर ख़ुद पड़ताल करना चाहते थे। वह जानते थे कि माया इसके लिए तैयार नहीं होगी।…और शायद इसीलिए एक दिन वह बिना किसी को बताए ही चले गए। कई दिन बाद, बस एक ख़त आया था। तपन की यह ज़िद माया के लिए नई नहीं थी पर लगता था कभी इससे निकलकर वह अपने जीवन के बारे में भी सोचेंग पर हुआ इसका उल्टा। उन्हें हमेशा से ही लगता था- माया सब संभाल लेगी। अक्सर कहते भी थे ‘तुम सब मेनेज कर लोगी और फिर कोई बात हो तो प्रशान्त तो है ही न।’ शायद प्रशान्त और माया के बीच जुड़ाव का एक हल्का सा धागा तपन की उपस्थिति में ही खिच चुका था पर तपन के यूँ अचानक चले जाने के बाद ही दोनो ने इसे प्रकट रूप में मेहसूस किया था। उसके बाद तपन और प्रशान्त के बीच क्या बातें होती रहीं, माया नहीं जानती थी।
पर कुछ दिनों से उसे लगने लगा था जैसे प्रशान्त और उसके बीच कोई पर्दा पड़ गया है। कुछ है जो साफ़-साफ़ दिखाई नहीं दे रहा है और एक दिन जब अचानक ही ये पर्दा उठा…
उस रात विकल बदहावास-सा आया था, प्रशान्त से मिलने।
‘तपन दा का एक्सीडेन्ट हो गया’
‘कहाँ,…कब?’
‘वहीं, साउथ अफ्रीका में, दो दिन पहले, किसी दूर-दराज़ के गाँव के किसी फार्म से शहर लौटते समय’
‘पर दो दिन पहले ही तो मेरी उनसे बात हुई’
विकल और प्रशान्त की बातें सुनकर माया जो अब तक हैरानी से यह जानने की कोशिश कर रही थी कि यह हो क्या रहा है, ने झल्लाते हुए पूछा, ‘तुम्हारी तपन से बात हुई थी, वह तुम्हें फोन करते थे, तुमने कभी बताया नहीं?’
‘हाँ, बात भी होती थी और कुछ महीने पहले वह दिल्ली आए भी थे और अभी दो दिन पहले ही तो एक पार्सल भेजने वाले थे, बहुत ज़रूरी जानकारी थी उसमें’ प्रशान्त ने ऐसे जवाब दिया, जैसे उस समय माया की बात के कोई मायने न हों, वह किसी और ही दुनिया के बारे में बात कर रहे हों।
जहाँ माया अपने और तपन के अतीत में हिलगी थी, वहीं प्रशान्त ने भविष्य में किसी अनिष्ठ की आशंका को भांपते हुए विकल से पूछा, ‘अब कैसे हैं?’
‘कैसे हैं? कुछ नहीं बचा, ऑन स्पॉट डेथ हो गई…’
तीनो के पास तपन से कहने सुनने को बहुत कुछ था पर तमाम कही-अनकही बातें कहीं दूर डूबती चली गईं। प्रशान्त और माया के बीच कुछ शब्द तिरे तो पर एक-दूसरे तक पहुँचने से पहले ही जम गए। प्रशान्त भीतर आकर बिना किसी का सहारा लिए बैठते चले गए।
लगभग एक हफ़्ते बाद, तपन का भेजा हुआ पार्सल मिला। एक बड़ा गत्ते का डिब्बा था।
प्रशान्त के लिए जैसे उसमें क़ाग़ज़ नहीं, तपन की शेष रही आई देह थी, उनकी अस्थियाँ थीं। वह उसमें से एक-एक चीज़ तपन की कही बातों को याद करके ऐसे बाहर निकालते जैसे वह उनकी आँखों से देखकर किसी टीले की खुदाई कर रहे हों। धीरे-धीरे पर्तें उघड़ रही थीं। कहानियाँ ख़ुद ही उठकर सामने आती जा रही थीं। उसमें मिली तपन की डायरी में तमाम चीज़ें सिलसिलेवार लिखी गई थीं। उसके अलावा कुछ स्थानीय लोगों के बयान थे। कुछ एतिहासिक दस्तावेज़ों की ज़ेरोक्स कॉपियाँ थीं। कुछ स्कैच और भित्ति चित्रों के फोटोग्राफ थे जो क़ैदियों द्वारा दीवारों के पेन्ट और प्लास्टर को खरोंच कर बनाए गए थे। पर उन क़ाग़ज़ों में सबसे अहम थी- एक गूँगी लड़की की डायरी जिसे जेल के भीतर तक जाने और क़ैदियो से मिलने की इज़ाजत थी-
उसका नाम था- मैटी और वह स्थानीय जड़ी बूटियों के बारे में अच्छी जानकारी रखती थी। वह उस जेल में खाना बनाने का काम करती थी और उन क़ैदियों का ध्यान रखती थी जिनके बयान दर्ज़ किए जा चुके थे और उन्हें किसी भी समय ऊपर से आदेश मिलते ही मारा जा सकता था। उसका गूँगा होना, जेल के अधिकारियों को उसकी ओर से निश्चिन्त रखता था, पर शायद वह यह नहीं जानते थे कि वह नेटिव लड़की लिख-पढ़ भी सकती है और रोज़ घर जाकर अपनी डायरी लिखा करती है। तपन ने उसकी डायरी कैसे हासिल की प्रशान्त नहीं जानते थे, वह अब जीवित भी थी या नहीं यह भी उन्हें नहीं पता था पर उसमें उस डायरी के साथ एक पत्र था जो तपन के नाम लिखा गया था जिसमें तपन से उन तमाम बातों को दुनिया के सामने लाने की इल्तज़ा की गई थी। तपन ने उस डायरी को पढ़ कर ही वहाँ के इलाक़ों की छानबीन कर, अपने नोट्स बनाए थे।
तपन ने लिखा था- ‘मैं एक ही समय में भूत, वर्तमान और भविष्य तीनो को देख रहा हूँ। अतीत में घटी इस अजीब-सी कहानी के पीछे भागते हुए, मेरा यहाँ तक आ जाना किसी को भी हैरानी में डाल सकता है पर मुझे लगता है कि यहाँ बीते समय में, जो कुछ भी घटा है, उसका हमारे वर्तमान से भी गहरा संबंध है।
…मैं आज शाम समुद्र के उसी तट पर टहलने गया था, जिसके बारे में मैटी ने अपनी डायरी में लिखा था। इस तट से टापू की एक निर्जन पहाड़ी पर बनी जेल की पिछली दीवार दिखती थी। शाम के समय क़ैदियों को, जेल के पिछले हिस्से में बने मैदान में ले जाया जाता था, जहाँ वे रात में अपनी काल कोठरियों में जाने से पहले खुली हवा में साँस लेते थे। यही वह जगह थी जहाँ जेल के अलग-अलग हिस्सों में बन्द क़ैदी एक दूसरे को देख पाते थे। किसी को एक दूसरे से बात करने या हाथ मिलाने की इजाज़त नहीं थी। कुछ क़ैदी मैदान में पहुँचते ही दीवार में बने छोटे-छोटे चौकोर खाँचों में जो समुद्र की तरफ़ खुलते थे, अपने मुँह फसा देते थे। वे ऐसा करके समुद्र तट पर चलती हवा में गहरी साँसे लेने की कोशिश करते थे, ऐसा पहरा देने वाले सैनिकों का मानना था पर गूँगी मैटी के अनुसार ठीक उसी समय कुछ स्थानीय महिलाएं अपने खेतों में काम करके लौटती थीं और दीवार में बने इन छोटे-छोटे तक्कों में से झाँकते क़ैदियों को देख कर खिलखिला कर हँसा करती थीं। उनकी हँसी देख कर क़ैदी भी मुस्कराते थे। यह सिलसिला लम्बे समय से चला आ रहा था।
एक अफ़गानी क़ैदी, जो बहुत अच्छी ढफ़ बजाता था और तोपें बनाने में माहिर था, मैदान में पहुँचते ही भाग कर समुद्र तट की ओर बनी दीवार के पूरब से पाँचवे खाँचे में अपना मुँह लगा देता था, उसे देखकर एक पतली लम्बी और अन्य महिलाओं से अपेक्षाकृत सुन्दर महिला बहुत हँसती थी। एक दिन उस अफ़गानी ने उस पाँचवे खाँचे में अपना मुँह लगाकर बाहर झाँकने के लिए, एक अन्य क़ैदी से झगड़ा कर लिया, जब लड़-झगड़ कर, उसने वह खाँचा ले लिया और उसमें मुँह लगाकर झाँकने लगा, तभी गार्ड्स ने पीछे से छुरा घोंप कर उसकी हत्या कर दी और उसे वहीं, वैसे ही खड़ा छोड़कर चले गए। उसका मुँह उसी खाँचे में फसा, तक्के से बाहर झाँकता हुआ, मुस्कराता रहा। उसने पीठ पर लगे घाव की पीड़ा अन्त तक अपने चेहरे पर नहीं आने दी।
उस रोज मैटी जब जेल में अपना काम निपटाकर घर लौट रही थी, तो उसकी सहेलियों ने समुद्र तट पर बैठी एक स्त्री की ओर इशारा करके बताया था कि यह औरत उस दीवार में बने चौकोर छेद में से झाँकने वाले एक अफ़गानी आदमी को चाहती है। वे कई महीनों से एक दूसरे को देखते आ रहे हैं। वे एक-दूसरे की भाषा नहीं समझते पर आँखों के इशारों से सूरज डूबने तक आपस में बातें किया करते हैं। आज उन्होंने शादी करने का निर्णय किया है। इसीलिए आज वह आदमी सूरज डूबने के बाद भी उस छेद में से हटा नहीं है।
मैटी ने शाम के झुटपुटे में अपनी सहेलियों को तमाम तरह के इशारे करके यह समझाने की बहुत कोशिश की थी कि जिसके मुस्कराते चेहरे को देखकर, दूर बैठी वह स्त्री हँस रही है, आज शाम सैनिकों ने उसकी हत्या कर दी है, दरसल वह मुस्कराता चेहरा एक मृत आदमी का है पर उसकी सहेलियाँ उसकी बातों पर ध्यान न देकर, हँसती हुईं कोई शादी के समय गाया जाने वाला गीत गुनगुनाती, एक दूसरे को धकेलतीं आगे बढ़ गई थीं। उस रात गोलाकार चाँद अपने माप से दोगुना बड़ा लग रहा था। समुद्र की लहरें हवा में सूखते किसी चाँदी के रंग के बड़े स्कार्फ़-सी हवा में उड़कर चाँद को चूमने की कोशिश कर रही थीं। वह स्त्री सारी रात वहीं बैठी उस चाँद और आसमान में उड़ते उस स्कार्फ़ को देखती रही थी।
…आज इस तट पर बार-बार मेरी नज़र उस दीवार के पूरब से पाँचवें नम्बर के झरोखे पर जा रही थी, हवा के वेग के साथ किसी की हँसी की खनक सुनाई दे रही थी। लग रहा था सब कुछ सामने है और मैं कुछ भी नहीं देख पा रहा हूँ।’
तपन की डायरी का हर पन्ना ऐसी दास्तानों से भरा था जिनका हर किरदार अपने दर्द और घुटन को बिना किसी से कहे इस दुनिया से कूच कर गया था। ये किरदार तपन की डायरी से निकल कर प्रशान्त से रुबरू हो रहे थे। अपनी अनकही-अनसुनी कहानियाँ सुना रहे थे। तपन ने एक जगह लिखा था- ‘आज भटकते हुए पूरा दिन बीत गया पर कुछ भी हाथ नहीं आया। हाँ, बार-बार ऐसा लगता रहा जैसे लगातार कोई मेरा पीछा कर रहा है। शाम होते-होते मैं थक गया था और थोड़ी देर सुस्ताने की गरज़ से एक बड़ी-सी चट्टान के नीचे पड़े एक छोटे-से पत्थर पर बैठ गया, उसके चारों तरफ़, कुछ लम्बी पत्तियोंवाली, गहरे हरे रंग की झाड़ियाँ उगी थीं, मुझे याद आया ये बिलकुल वैसी ही झाड़ियाँ थीं, जिनका जिक्र मैटी ने ढाका के उस मुस्लिम कारीगर के बारे में लिखते हुए किया था जो कालीनों के डिज़ाइन तैयार करता था, वह दुनिया का कोई भी कालीन एक बार देख ले तो उसकी डिज़ाइन की हूबहू नकल कर सकता था, कहीं एक सूत, या एक खाने का भी फ़र्क नहीं होता था, जेल में भी वह अपनी सैल की दीवार पर कालीनों के बेहतरीन डिज़ाइन बनाता रहता था। दीवार पर एक कोने में उसने एक नुकीले पत्थर से खुरच के पूरी दुनिया का नक्शा भी बनाया था, उसके हाथ के बने कई बेहतरीन कालीन जिन-जिन देशों में भेजे गए थे, उन स्थानों को उसने पत्थर से टीक दिया था, एक दिन उसने लम्बे-अंधेरे गलियारे से अपनी सैल में वापस आते हुए ज़मीन पर पड़े एक कोयले के टुकड़े को उठाकर अपनी मुट्ठी में भींच लिया था, ऐसा करते हुए मैटी ने उसे देखा था। दूसरे दिन जब मैटी उसकी सैल के पास से गुज़री थी, तो चीख पड़ी थी, वह आदमी जो एक बेहतरीन कारीगर था, अपनी सैल में औंधे मुँह मृत पड़ा था। मैटी को बाद में पता चला कि कल उसे गार्डस ने इसलिए पीट-पीट कर अधमरा कर दिया था क्योंकि उसने दीवार पर बनाए गए नक्शे में इंलैण्ड, अमेरिका और जर्मनी को कोयले से काला कर दिया था। मैटी यह भी जानती थी कि वह जेल की दीवारों के किनारों पर, उनके टूटे हुए हिस्सों पर, अपने आप ही उग आई, लम्बी पत्तियोंवाली झाड़ियोँ से पत्तियाँ तोड़कर, अपनी सैल में इक्ट्ठी करता रहता था। उस रात देर से हुए गस्त में जब गार्ड्स ने नक्शे में उन देशों को कोयले से काला किया हुआ देखा तो वे बहुत गुस्साए और उन्होंने उसे बुरी तरह पीटा। वे सुबह उसे दोबारा सबक सिखाने की बात कर रहे थे, पर रात में गार्ड्स के वहाँ से जाने के बाद उसने सैल में इक्ट्ठी की हुई पत्तियों को खा लिया था, वे बहुत ज़हरीली थीं, मरने से पहले उसने पूरी दुनिया के नक्शे पर कालिख पोत दी थी। मैं जिस पत्थर पर बैठा था उसके आस-पास उगी झाड़ियों की पत्तियाँ बिलकुल वैसी ही लम्बी थीं। हवा के चलने से वे मेरे पैरों को छू रही थीं, पता नहीं क्यों मैं उस शाम एक अन्जाने डर से काँपने लगा था।’
……………………………………
सूरज चौथे माले की खिड़की तक चढ़ आया था। कमरे के फर्श पर बनने वाला छोटा-सा धूप का चौखाना दीवार पर एक रोशनी की चादर की तरह फैल गया था। माया अभी भी अपने ख्यालों में डूबी थी। किसी ने दरवाज़ा खटखटाया। विकल था। वह कमरे में आकर बैठ पाता कि बिना किसी भूमिका के माया बोल पड़ी, ‘मैं जानती हूँ उन दास्तानों ने ही प्रशान्त को बीमार कर दिया है। उन्हीं ने तपन की भी जान ली। मेरी मानो इनके होश में आने से पहले तुम तपन के भेजे उन सब क़ाग़ज़ों को, उनपर प्रशान्त के किए सारे काम को जला दो। उन्हें जाके बहा दो कहीं पानी में। बहुत मनहूस हैं वे दास्तानें।’
विकल चुपचाप बेड पर लेटे प्रशान्त को देख रहा था। वह शुरु में इन दास्तानों से दोस्ती और मसखरी में ही जुड़ा था। पर बाद में इन्होंने उसे पकड़ लिया था और तपन की मौत और प्रशान्त की बीमारी ने तो जैसे उसे इनका एक ऐसा पात्र बना दिया था जो अब चाह के भी इनसे अलग नहीं हो सकता था। कितनी ही बातें थीं जो वह माया से कहना चाहता था पर माया इस बारे में बात होते ही भड़क उठती थी। वह नहीं जानती थी कि तपन दक्षिण अफ्रीका से आखिरी बार उससे मिलने ही आए थे, शायद उन्हें उसी समय अंदेशा था कि जिन ताक़तों के ख़िलाफ़ वह काम कर रहे हैं वे उन्हें कभी भी मिटा सकती हैं पर यहाँ आकर जब उन्हें पता चला था कि माया प्रशान्त के साथ ख़ुश है तो वह उससे बिना मिले ही विकल और प्रशान्त को लेकर पहाड़ पर चले गए थे। विकल को तपन की उस पहाड़ी पर सुनाई पूरी कहानी याद थी पर अब जैसे वह उस जेल के क़ैदियों का दर्द प्रशान्त के बेचैन जिस्म में अपनी आँखों के सामने देख रहा था। वह लगातार प्रशान्त के इलाज़ के बारे में बहुत-सी जानकारियाँ इक्ट्ठी करता रहा था पर उनके बारे में अभी माया को कुछ भी बताना नहीं चाहता था लेकिन आज माया के चेहरे पर चिन्ता और थकन के साथ हार की हताशा और टूटन देखकर वह माया को एक नई दवा के बारे में बताने लगा।
वह पलंग पर लेटे प्रशान्त को देखते हुए किसी हाल ही में अविष्कृत दवा जो अभी तक कहीं प्रयोग में नहीं लाई गई थी के बारे में माया को बता रहा था। माया ने बड़े निरापद भाव से विकल को देखा। उस तक विकल की बातें पहुँचकर भी नहीं पहुँच रही थीं। उसने बहुत ज़ोर देकर खुद को वर्तमान में खींचते हुए कहा, ‘मैं कुछ भी करने को तैयार हूँ। इन्हें हर हाल में इस बीमारी से निजात मिलनी चाहिए।’ दोनो ने एक साथ प्रशान्त की ओर देखा।
प्रशान्त को उन दास्तानों ने, उनके तनाव ने और उस अजीब बीमारी ने इस तरह जकड़ लिया था कि वह वर्तमान में भी किसी अतीत की छाया की तरह रहे आते थे। दो दिन बाद उन्हें अस्पताल से छुट्टी मिल गई थी। उनकी काया और कमज़ोर हो गई थी पर घर पहुँचते ही वह एक अभेद्य चुप्पी साध कर काम में लग गए थे। घर में एक विचित्र से सन्नाटे ने कब्ज़ा कर लिया था। सब कुछ मूक और स्थिर था बस विकल की कही बात माया की आँखों में एक उम्मीद की तरह रह रह कर काँप जाती थी। उसने उस दवा के प्रयोग के बारे में विकल से कई बार फोन पर बात की थी। पर विकल जानता था कि जो भी वह सोच रहा है उसे कर पाना आसान नहीं होगा और अगर उसने सारा इन्तज़ाम कर भी लिया तो इस काम में सबसे बड़ी रुकावट प्रशान्त ख़ुद ही होंगे। क्योंकि उसे यह भी बताया गया था कि उस दवा के प्रयोग से प्रशान्त इस विचित्र बीमारी के लक्षणों से तो निजात पा लेंगे पर वह सारी बातें जिन्होंने उनके मन में यह उत्तेजना भरी है, उन्हें याद नहीं रहेगीं। वह आगे लिख-पढ़ नहीं सकेंगे, ज्यादा सोच नहीं सकेंगे। पढ़-लिखकर सीखी-समझी तमाम बातें या तो हमेशा के लिए स्मृति से मिट जाएंगी, या फिर बुरी तरह आपस में गड्ड-मड्ड होकर ऐसे उलझ जाएंगी जिससे वह उन्हें बिलगा नहीं सकेंगे। जीवित तो रहे आएंगे पर अपने ही शरीर में अपने अतीत से अपरिचित की तरह। उनकी उस टापू की वह अधूरी कहानी कभी पूरी नहीं हो सकेगी और इसके लिए वह कभी राजी नहीं होंगे।
उस शाम विकल ने माया को फोन करके बताया था कि दवा का इन्तज़ाम हो गया है और उसका एक दोस्त जो इस नए शोध के बारे में लम्बे समय से अध्यन कर रहा है, प्रशान्त पर इसका प्रयोग करने को तैयार भी है पर इसके लिए सबसे पहले उन्हें प्रशान्त को तैयार करना होगा।
माया जानती थी यह आसान नहीं। क्या कहे प्रशान्त को? कि पढ़ा-लिखा, जाना-समझा सब कुछ भूल जाओ, बस जीते रहो सिर्फ़ जीने के लिए।
वह अकेली बाहर के कमरे में बैठी प्रशान्त से बात शुरु करने का सिरा ढूँढते हुए सोचने लगी, ‘कैसे साथ-साथ जीते हुए हम एक दूसरे की छायाओं से ढक जाते हैं। प्रशान्त का हँसता चेहरा और जीवन से लबालब आँखें उसे हमेशा से अपनी ओर खींचती थीं। वह तपन के साथ रहते हुए भी अंजाने ही कब प्रशान्त से जुड़ने लगी थी वह ख़ुद भी नहीं जान पाई थी। तपन की ख़ोज की जिस सनक को देख वह एक समय हॉस्टल छोड़कर उसके साथ रहने चली आई थी, प्रशान्त से मिलने के बाद उसे वह उसकी बेरुखी लगने लगी थी। पर उस समय वह इस बात को तपन और प्रशान्त के सामने ज़ाहिर नहीं होने देती थी बल्कि हमेशा प्रशान्त को यही कहती कि तुम्हारे किस्से कितने भी अच्छे हों पर उसमें तपन की सच्ची रिपोर्टों जैसा ताप नहीं है पर भीतर ही भीतर प्रशान्त की कहानियाँ उसके मन में बैठती जा रही थीं। आज तपन नहीं थे पर उनके द्वारा भेजी उन अनसुलझी कहानियों के भीतर के सच ने प्रशान्त को ढक लिया था। इन कहानियों ने मानो प्रशान्त को तपन में बदल दिया था। सच, प्रशान्त की यह चुप्पी कुछ-कुछ तपन जैसी ही थी।
माया जैसे एक साथ दो लोगों से बात करने का मन बना रही थी। उसने धीरे से प्रशान्त के कमरे में जाकर उनकी एक मटमैले से नक्शे पर गड़ी आँखों को अपनी हथेलियों से ढक दिया। थकी हुई आँखें हथेलियों की ठंडक पाकर अपने आप ही मुँद गईं। माया ने प्रशान्त को उस दवा के बारे में बताना शुरू किया। वह अपनी बात पूरी करके प्रशान्त की हाँ या न पूँछ पातीं कि उससे पहले ही प्रशान्त ने माया की कलाइयाँ पकड़कर उनके हाथों को अपनी आँखों से हटा दिया। माया ने उन आँखों को बहुत ध्यान से देखा। वे ऊपर से कुएँ-सी गहरी और शान्त आँखें थीं पर उनके तले में किसी ज्वालामुखी का लावा उबल रहा था। वे जल रही थीं। उन आँखों की पलकों पे सदियों की नींद थी पर उनमें से उठते धुएँ के कारण वे जागने को अभिशप्त थीं। माया ने प्रशान्त के सिर पर हाथ फेरा और कमरे का दरवाज़ा भेड़कर बाहर आ गई। बहुत देर तक खड़ा नहीं रहा गया सो सोफ़े तक पहुँचने से पहले ही कोने में पड़ी तिपाई पर दीवार का सहारा लेकर ढह गई। कमरे में पहले से जमा सन्नाटा और गहरा हो गया। घड़ी की सुई लगातार टिकटिकाती उसे तोड़ने की कोशिश करती रही पर वह जब टूटा तो आधी रात बीत चुकी थी।
प्रशान्त के कमरे से कई लोगों के बोलने की आवाज़ें आ रही थीं।
…
प्रशान्त जैसे जेल के क़ैदियों से साक्षात मिल रहे थे। उनसे बातें कर रहे थे। क़ैदियों के संवाद बोलती आवाज़ ज्यादा भर्राई हुई थी। दुनिया की सैकड़ों भाषाएं एक साथ कमरे की दीवारों से टकरा कर रो रही थीं। उनकी पीड़ा से कमरे की दीवारों पर जमा सन्नाटा तार-तार होकर नीचे झर रहा था।
एक वृद्ध और जरजर आवाज़ ने काँपते हुए कहा, ‘युद्ध की हार-जीत, इसमें हुई हज़ारों मौतें सब पहले से तय थीं, पूँजी की ताक़त केवल तमाशे-प्रतियोगिताएं ही प्रायोजित नहीं करती, वे युद्ध भी प्रायोजित करती हैं, अपने लाभ के लिए उन्हें विकराल बनाती हैं और तब तक चलाए रखती हैं जब तक अपना तय लक्ष्य नहीं पा लेतीं।’
‘उस समय भी ऐसी ही बड़ी-बड़ी ताक़तें मिलकर एक भयावह खेल खेल रही थीं’, एक पतली तीखी आक्रोश से भरी आवाज़ ने पहली आवाज़ की बात काटकर अपनी बात कही।
एक हारी हुई शान्त आवाज़ ने कहा, ‘यह युद्ध था ही नहीं, यह ज़मीन पर कब्ज़े और दुनिया भर के मनुष्यों पर अपने वर्चस्व के लिए चली गई एक ख़ूनी चाल थी, पूरी दुनिया से बटोर लाना था- धन, विचार, ज्ञान सब कुछ, एक जगह’
एक डरी-सहमी हुई, पर अपेक्षाकृत सुरीली आवाज़ ने कहा, ‘जब उपनिवेश टूट रहे थे, हम समझ रहे थे कि हम आज़ाद हो रहे हैं पर तभी बड़ी ताक़तों की मिली भगत से पूरे विश्व को गुलाम बनाने कि स्क्रिप्ट लिखी जा रही थी, ऐसी गुलामी जो इंसान के मन, उसकी आत्मा को ऐसी बेड़ियों से जकड़ ले जो किसी को दिखाई न दें, तुमने मैटी की डायरी पढ़ी है,…अधूरी डायरी। मैटी ने जो लिखा वह उससे ज्यादा जानती थी। उसने एक रात जेल में जर्मनों को, अंग्रेजों को और कुछ लम्बे चेहरे वाले गोरों को जो शायद अमेरिकन थे, एक साथ नाचते हुए देखा था। उस रात उन्होंने सारे काम खत्म होने के बाद भी उस गूँगी लड़की को घर नहीं जाने दिया। उसके बाद किसी ने मैटी को नहीं देखा।’
‘उनका कपड़ा, खाना, तक़नीक सब हमारा है, सब हमसे छीना हुआ’ एक सधी हुई, भारी मर्दाना आवाज़ ने कहा। माया दरवाज़े से सटी खड़ी थी। उसके भीतर कुछ था जो डर से धीरे-धीरे काँप रहा था।
तभी उस भारी आवाज़ के पीछे सारी आवाज़ें इक्ट्ठी हो गईं, भर्राए गले से वे एक साथ बोलने लगीं ‘बोलो, तुम्हें बोलना ही होगा, नहीं तो पूरी धरती पर सबके नाखून हरे हो जाएंगे, सबके गले रुंध जाएंगे’
ऐसा कहते हुए वे आवज़ें कराह रही थीं और उस कराह में केवल इंसाफ़ की पुकार ही नहीं थी, उसमें भविष्य को सावधान करने का स्वर भी मिला हुआ था। उन सभी ने प्रशान्त को घेर लिया। वे जैसे प्रशान्त के स्वर से फूटकर दुनिया भर में फैल जाना चाहती थीं। वे प्रशान्त की कलम के सहारे आज़ाद होकर अपना प्रतिशोध लेना चाहती थीं। वे कहना चाहती थीं कि हमें एक बार फिर अपनी ज़मीन पर लौटना है। हमें फिर से अपनी मिट्टी में मिलना है। हमें अपने तरीके से ज़मीन से फूटना है, खिलना है, बिखरना है। हमें अपनी जड़ों की तरफ़ लौटकर फिर से आज़ाद होना है।
माया ने धीरे से कमरे का दरवाज़ा खोल दिया।
लगा जैसे प्रशान्त हर आवाज़ से लिपट-लिपट कर रो रहे हैं। गला रुंध गया, हाथ-पांव काँपने लगे, आँखों से पानी बह निकला। उनके रुदन में आश्वस्ति थी। उन्हें कमरे के बीचों-बीच खड़े देखकर माया को लगा वह किसी बीमार को नहीं बल्कि किसी युद्ध में सच के लिए लड़कर घायल हुए सैनिक को देख रही है। अब वह प्रशान्त से डर नहीं रही थी बल्कि हज़ारों दिलों के दर्द से रो रही थीं। उसने आगे बढ़कर प्रशान्त के दोनो हाथ अपने हाथों में लिए और उन्हें गले लगा लिया।
प्रशान्त के गले से निकलती आवाज़ की ख़राशें कुछ कम हो चली थीं। वह कमरे की छत की ओर ताकते हुए बोले, ‘मेरे शरीर में सैकड़ों बूटों की कीलें एक साथ चुभती हैं। पीठ हज़ारों कोड़ों की फटकार से बिलबिलाती है। मेरा दिमाग़ हज़ारों लोगों के दर्द की क़ब्रगाह है। वे मरे नहीं हैं! वे अभी भी किसी अंधेरी काल कोठरी की दीवारों पर सर पटक रहे हैं। उन्हें उस कारा से मुक्त किए बिना, न मैं जी सकता हूँ, न मर सकता हूँ’
बोलते-बोलते उन्होंने अपना सिर माया के कन्धे पर रख दिया। लगा उस सिर पर दुनिया के तमाम कटे हुए सिरों का बोझ है। एक अकेले इंसान के कंधे उस सिर का बोझ नहीं उठा सकते। कोई भी अकेला उस सिर का बोझ नहीं उठा सकता। माया और प्रशान्त दोनो ने मिलकर उस सिर को अपने कंधों पर ले लिया।
कई शोकाकुल आवाज़ों के बीच दोनो एक दूसरे के गले लगे खड़े रहे, दोनो रो रहे थे, दोनो की हिचकियाँ एक-दूसरे को संभाल रही थीं। आँखों से गालों पर ढुलक आए आँसू अनगिनत सिर विहीन कवंधों का तर्पण कर रहे थे। माया ने दोनो हाथों से प्रशान्त के चेहरे को पकड़ कर उनके सूखे होंठ गीले कर दिए। उनकी आंखें मुँदने लगीं। न जाने कितने दिनों बाद उनमें नींद थी। माया ने उनके कान में फुसफुसाते हुए कहा, ‘आज उन दास्तानों जैसा एक टापू हम सबके भीतर भी है, हम सब के चारों तरफ़ अदृश्य दीवारें खड़ी हैं, वह कारा बहुत बड़ी हो गई है। हम सब उसमें क़ैद हैं। अभी कुछ देर के लिए सो जाते हैं, कल से आगे का काम हम साथ करेंगे।’
सुबह विकल आया तो घर के दरवाज़े पर ताला लगा था जिसमें एक चिट फसी थी- ‘हम कारा से मुक्त होने और तमाम क़ैद रही आई आवाज़ों को मुक्त करने जा रहे हैं।’
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परिचय–विवेक मिश्र
15 अगस्त 1970 को उत्तर प्रदेश के झांसी शहर में जन्म. विज्ञान में स्नातक, दन्त स्वास्थ विज्ञान में विशेष शिक्षा, पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नात्कोत्तर. तीन कहानी संग्रह– ‘हनियाँ तथा अन्य कहानियाँ’-शिल्पायन, ‘पार उतरना धीरे से’-सामायिक प्रकाशन एवं ‘ऐ गंगा तुम बहती हो क्यूँ?’- किताबघर प्रकाशन तथा उपन्यास ‘डॉमनिक की वापसी’ किताबघर प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित. ‘Light through a labyrinth’ शीर्षक से कविताओं का अंग्रेजी अनुवाद राईटर्स वर्कशाप, कोलकाता से तथा पहले संग्रह की कहानियों का बंगला अनुवाद डाना पब्लिकेशन, कोलकाता से तथा बाद के दो संग्रहों की चुनी हुई कहानियों का बंग्ला अनुवाद भाषालिपि, कोलकाता से प्रकाशित.
लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्र–पत्रिकाओं में कविताएं व कहानियाँ प्रकाशित. कुछ कहानियाँ संपादित संग्रहों व स्नातक स्तर के पाठ्यक्रमों में शामिल. साठ से अधिक वृत्तचित्रों की संकल्पना एवं पटकथा लेखन. चर्चित कहानी ‘थर्टी मिनट्स’ पर ‘30 मिनट्स’ के नाम से फीचर फिल्म बनी जो दिसंबर 2016 में रिलीज़ हुई. कहानी– ‘कारा’ ‘सुर्ननोस–कथादेश पुरुस्कार-2015’ के लिए चुनी गई. कहानी संग्रह ‘पार उतरना धीरे से’ के लिए उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा वर्ष 2015 का ‘यशपाल पुरस्कार’ मिला. पहले उपन्यास ‘डॉमानिक की वापसी’ को किताबघर प्रकाशन के ‘आर्य स्मृति सम्मान-2015’ के लिए चुना गया. हिमाचल प्रदेश की संस्था ‘शिखर’ द्वारा ‘शिखर साहित्य सम्मान-2016’ दिया गया तथा ‘हंस’ में प्रकाशित कहानी ‘और गिलहरियाँ बैठ गईं..’ के लिए ‘रमाकांत स्मृति कहानी पुरस्कार– 2016’ मिला.
संपर्क– 123-सी, पाकेट–सी, मयूर विहार फेज़-2, दिल्ली-91
मो-9810853128 ईमेल– vivek_space@yahoo.com
विवेक मिश्र जी की कलम से एक ओर बेहतरीन कहानी ।
प्रशांत की छटपटाहट देर तक मस्तिष्क में गूँजती रही ।
विवेक जी, बहुत ही जटिल, खूबसूरत और विस्तृत फ्लक की कहानी है कारा।
इंसान के दिमाग को कैद करने की कोशिशें सदियों पुरानी है, बेशक हर युग में उसके हथियार और तौर तरीके नए हो सकते हैं। पूंजीवाद ताकतें, राजनेता, तमाम तरह की सत्ताएं हमेशा से इंसान के दिमाग को गुलाम बना कर उसका शोषण करते हैं और जो प्रबुद्ध लोग, लेखक और कलाकार आदि ऐसा नहीं होने देना चाहते या उन्हें रोकने की कोशिश करते हैं उन्हें तरह-तरह की यातनाएं दी जाती है, जेलों में डाला जाता है। यहां तक की मौत के घाट भी उतार दिया जाता है। परंतु वे तमाम बन्दिशों के बावजूद भी उन शक्तियों से अपने समय और समाज को आगाह करते रहते हैं। प्रशांत और तपन को भी अपने अपने तरीके से उसकी कीमत चुकानी पड़ती है, परंतु वे अपने रास्ते से डगमगाते नहीं है। यह कीमतें हर युग में चुकाई ही जाती रहेंगी।
अंत में एक बहुत ही सार्थक और बेहतरीन कहानी के लिए बहुत-बहुत बधाई।
शुक्रिया। आपने पूरे मनोयोग से कहानी पढ़ी।
शूक्रिया नीलिमा जी।
विवेक जी को पढ़ना उनके साथ साथ सफर करना है।जैसे बरसों पहले पढ़ी हनियां आज भी पीछा कर रही है कारा में भी वहीं तासीर है।
एक कोतूहल है ।प्रशांत और माया का क्या हुआ?
विवेक जी को अशेष बधाई और अनंत शुभकामनाएं
शूक्रिया। सुरेंद्र जी।
कहानी पढ़कर मन में एक भय जागता हैं। इंसानी दिमाग को कैद करने की कवायद हर युग मे होती रही है, पर कुछ लोग जरूर होते हैं जो उनकी कोशिशें विफल करते रहते हैं और दुनिया आगे बढ़ती रहती है ।
बहुत अच्छी कहानी।
बिलकुल हर समय में कोई है जो पूरी शिद्दत से उस कारा से मुक्त होने के लिए लड़ रहा है। मुक्त होने के लिए छटपटा रहा है। यह कहानी उस गुमनाम सिपाही के साथ खड़े होने की एक कोशिश है। इसे आप सबके प्रयास से ही बल मिलेगा। यह बाज़ार में बाज़ार और व्यवस्था के खिलाफ खड़ी है इसलिए वे इसे अंधेरे में धकेलने की पूरी कोशिश करेंगे।
शानदार कहानी, पढ़ते वक्त लगने लगा था कि मैं भी इस कहानी हिस्सा हूँ । आतंकवाद इसी तरह भोले भाले लोगों का ब्रेनवाश करके दुनिया की तबाही के लिए परोसा जाता है ।
कहानी पढ़ते वक्त एक तनाव सा बना रहता है दिमाग मे।जैसे स्वयं का दिमाग ही किसी कारा मे बंद हो। जटिल संरचना की कहानी है ये और फलक विस्तृत है। संवेदनशील मन और मष्तिक एक अदृश्य कारा को लगातार भोगने के लिए अभिशप्त है। इससे बरी होना संभव नहीं
अभी अभी कहानी खत्म की। एक सन्नाटा भर गया है। कहानी देर तक बेआवाज़ भीतर बनी रहेगी। विवेक जी मेरे प्रिय कथाकार हैं। इनकी कई कहानियां जेहन में बसीं हैं।
शुक्रिया प्रज्ञा। आप सब से मिलकर ही हमारा कथा समय बनता है। आपने कहानी पढ़ी अच्छा लगा।
शूक्रिया सपना जी।
शुक्रिया राकेश जी। सच कहा हम सब इस कहानी के पात्र हैं।
बेचैन करने वाली कहानी है यह। पूंजी, विचार अथवा धर्म के नाम पर समय-समय पर लोगों पर भीषण अत्याचार हुए हैं। यह क्रम आज भी चल रहा है। यह उस अत्याचार के खिलाफ गहरी छटपटाहट की कहानी है। यह छटपटाहट पढ़ते हुए महसूस होती है, यह इस कहानी की कामयाबी है।
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