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प्रमोद द्विवेदी की कहानी ‘वन वे प्रेम कथा’

प्रमोद द्विवेदी पत्रकार हैं और ‘जनसत्ता’ अख़बार में फ़ीचर संपादक रहे हैं। उन्होंने कहानियाँ कम लिखी हैं लेकिन बहुत रसदार कहानियाँ लिखते हैं। भाषा, कहन, विषय सब आपको कहानी के साथ ले जाता है। मसलन यह कहानी पढ़िए- मॉडरेटर

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सागर जिले से सैकड़ों किलोमीटर दूर इस आनंदनगरी में वन वे प्रेमकथा लिखी जा रही थी। हुआ यों कि भारत के सुदूर मध्य देश से आए प्रेमानंद तरसौलिया नामक हमारे छड़े पात्र एक अदद कमरे की खोज करते-करते एक ऐसे मकान के सामने जा खड़े हुए, जहां मोटी दफ्ती पर काले रंग से मोटा-मोटा लिखा था- टू लेट, ओनली फार सिंगल।

 माजरा उनके समझ में नहीं आया। धड़कता दिल लेकर वे गृहस्वामी से मिलने चले गए। घर की घंटी बजाई। दरवाजा खुला तो एक नयनाभिराम लड़की निकली। एक दुबली-सी याचक छवि देखते ही उसका पहला और पूर्व नियोजित सवाल था-आप सिंगल हो, रूम चाहते हो। प्रेम जी बेसुरे से हो गए- जी, अभी अकेलई हैं, रूम कित्ते का है। ऐसी बावली दरियाफ्त पर वह बरमूडाधारी लड़की मुस्का दी- वॉव, सो क्यूट…। आप अंदर आकर मम्मा से बात कर लीजिए…।

सरकारी फ्लैट से दो मंजिला घर में बदले इस गृह की मालकिन एक मिसेज खरबंदा थीं। बाहर लिखा थाः गगन विशाल। वे गगन थीं और विशाल उनके पति। दस साल पहले कमाते-धमाते पति के कहीं जाने के बाद जब घर चलाना दुश्वार हुआ तो उन्होंने एक मंजिल किराए पर उठानी शुरू कर दी थी। आजकल उसका कमरा खाली था जिसे यहां बरसाती की संज्ञा दी जाती थी और अमूमन यह कुंआरों या तनहा जीवों को दी जाती थी। पर बड़ी पड़ताल के बाद। क्योंकि एक बार अमृतसर से कोई पंजाबी सिंगर आया था। पर वह चरसी निकला। चरस का धंधा भी करने लगा था। एक दिन मोहाली पुलिस आई और उसे उठा ले गई। तब से यह कमरा खाली पड़ा था। और मिसेज खरबंदा अंदर ही अंदर ठान चुकी थीं कि किसी अमृतसरिये मुंडे को कमरा नहीं देना।

नए तलबगार को एकाकी जान उनकी पात्रता मां-बेटी ने फौरन पास कर दी। शर्तें बताई गईं–आधार कार्ड की कापी जमा कर दो। 11 महीने का एग्रींमेट। पुलिस वैरीफिकेशन वाला फार्म जमा कर दो। कमरे में लड़की-वड़की नहीं आएगी। लुंगी पहनने की छूट कतई नहीं। नानवेज की परमीशन नहीं, क्यों कि यह घर राधा स्वामियों का है।

प्रेम जी थोड़ा कचक गए। असल में लुंगी तो वे किशोरावस्था से पहन रह थे। अचानक यह अभारतीय किस्म की बंदिश से वे व्यथित हो गए। सकुचाए से बोले- “मेडम लुंगी से केसी प्राब्लम।”

 लड़की फिर मुस्काई। भाव वही था-सो क्यूट..। मिसेज खरबंदा की आवाज दूरदर्शन की अंग्रेजी समाचार वाचिका रिनी साइमन जैसी थी। वे सख्त मिजाज मकान मालिकन और सुंदर लड़की की चौकन्नी मां की तरह बोलीं-बेटे एक तो आप मुझे आंटी बोलेंगे। दूसरे, लुंगी बहुत बैकवर्ड ड्रेस है। आप बरमूडा पहनिए, पैजामा पहनिए। नो प्रॉब्लम…।

 फिर एक फैसलाकुन अंदाज में उनकी सुंदर बेटी बोली- भइया, अदरवाइज मत लीजिए। लखनऊ के एक लुंगी वाले भइया की वजह से हमें आसपास बहुत सुनना पड़ता था। फिर उनसे कमरा खाली करवाना पड़ा। यहां जिरह की गुंजाइश ही नहीं थी। एक ही राह चुननी थी। उन्हें अपनी छींटदार लुंगी बिछड़ती दिखी।

फैसला कई बिंदुओं पर था-ऐसा दुर्लभ कमरा कैसे छोड़ दें, जहां सुंदर  कन्या का वास हो। छड़े बंदे को वैसे भी इस शहर में घर जल्दी नहीं मिलता। सबसे बड़ी बात थी-कमरे में आने जाने के वक्त को लेकर कोई निषेधाज्ञा नहीं। रास्ता भी अलग से था। फैसला फौरन हो गया। एक माह के एडवांस पर रजामंदी हुई। आधार तो वे जेब में रखकर चलते थे। झट से फोटोकॉपी करवा कर जमा करवा दी। लड़की वाली शर्त पर उन्होंने इतना-सा पूछ लिया कि हमाई सिस्टर तो आ सकती है। मिसेज खरबंदा शायद सिस्टर और कजिन वाली आजकल की बहानेदार परिपाटी से पीड़ित थीं। वे बोलीं-बेटा पता नहीं होता सिस्टर असली है कि नकली। कोई नहीं। आपको भी परखना पड़ेगा।

इस बात पर प्रेम जी लजा से गए। वे अंग्रेजी में बोलना चाहते थे, पर अंतरात्मा सटीक अनुवाद नहीं कर पाई। इतना ही कहा-यू डोंट गैट एनी प्राबलम फ्राम मी..। सुंदर लड़की ने इस बार मुस्काती झंकार मारी- भइया एक बात बोलूं, आप कैसे भी हो, आपकी लैंग्वेज बड़ी स्वीट है। आप कहां के हो,  बिहार के हो…।

पहली बार एक चमकीले शहर में पधारे प्रेमानंद इतने सरस संवाद के आदी नहीं थे। उनकी कनपटी में एक गरमाहट आ रही थी। वे सत्य वचन पर उतर आए और जैसे इंटरव्यू में नंबर मांगने के लिए आए हों— जी, हम एमपी के सागर जिले के हैं। पिता जी हमारे राशनिंग डिपार्टमेंट में हैं। हम चार भाई बहन हैं। हम सबसे बड़े हैं।

खैर, चाय-नमकीन के आते- आते उनकी विश्वसनीयता स्थापित हो चुकी थी। कुछ मॉर्डन बनकर वे लड़की का नाम पूछना चाहते थे। उन्होंने सांस लेकर आवाज को बेहद मृदुल बनाते हुए पूछ लिया-आपका गुडनेम क्या है।

 बिना किसी भूमिका के लड़की ने मां की तरफ देखकर कहा-मैं सुगंधा…। इसके बाद मां ने जोड़ा-यह सिविल सर्विस की तैयारी कर रही है।

  सिविल सर्विस के नाम से उन्हें सागर जिले की सुगंधा घाणेकर नाम की मराठिन एसडीम की याद आ गई जिसकी रोज एक फोटो अखबार में छपती थी। उनकी कल्पना में सुगंधा खरबंदा नाम की भावी अफसर सवार होने लगी। थूक गटक कर तारीफ करने लगे- वैरी गुड हमने भी एक बार पीसीएस का एक्जाम दिया था। हम भी एसडीएम बनना चाहते थे। पर वक्त ने घुमा दिया।

असल में उनके एक चाचा संतोष विजयवर्गीय भाजपा के नेता थे। एक दिन आके सनका गए कि -अबे सिर्री हो क्या। बनना है तो वकील बनो, पत्रकार बनो, अफसर तो मंत्री के टायलेट साफ करते हैं। उन्होंने मायावती से लेकर चंद्रबाबू नायडू तक के उदाहरण दे डाले। इनकी   मति मारी गई और और एक लोकल अखबार सनद टाइम्स के अपराध संवाददाता बन गए। ये शुरू से दीपक चौरसिया के फैन थे, सो भोपाल के लोकल टीवी में आ गए। एक दिन दिग्विजय सिंह के करीबी मालिक को इनकी फेसबुक पोस्ट की खबर लग गई। कहने लगे-तुम तो आरएसएस के हो यार। घिनपट फैलाओगे। बस उसी दिन छुट्टी हो गई। फिर चाचा ने बताया कि पार्टी के आईटी सेल में उनका बचपन का दोस्त है। कहो तो बात करूं। उसने हां कर दी और कुछ दिन नोएडा में रहने के बाद अटैची में सामान लेकर यहां आ गए। अब पार्टी के पत्रकार बन कर काम कर रहे हैं।

 मिसेज खरबंदा डीएवी कॉलेज की टीचर रह चुकी थीं और काफी दुनियादार थीं। वे अब भी शोख रंगों वाले कपड़े पहनती थीं, क्यों कि कहने को पतिविहीन थीं। पर दरअसल विशाल जी एक गुजराती बाबा के चक्कर में पड़कर मथुरा चले गए। तकिए के नीचे एक चिट्ठी छोड़कर गए थे। लिखा थाः जीवन के सबसे बड़े ध्येय की प्रापति के लिए, घर-बार छोड़ना पड़ता है। महात्मा बुध ने यही किया था। मुझे माफी देना गगन जी। इसी पत्र में उन्होंने लेनदेन के ब्योरे, बैंक खातों और एफडी के बारे में लिख दिया था। मिसेज खरबंदा ने अखबारों में विज्ञापन दिए। उनके कपड़ों में हल्दी की गांठ रखकर सिल के नीचे दबाए। ज्वाला जी तक जाकर मनौती मानी। पर कहीं कोई सुराग नहीं। मोबाइल-लैपटाप सब घर में छोड़ कर गए थे। एक साल इंतजार किया। दुखी होकर एक दिन उन्होंने विशाल के सारे कपड़े-सूट वगैरह साईं मंदिर में जाकर दान कर दिए। सोलन नंबर वन और ओल्ड मोंक की सारी बोतलें उन्होंने पड़ोस के मुफलिस गायक संधू साहब को दे दी, जिन्होंने मुल्तानी काफी की थाती बचा कर रखी थी और दो पैग गटकते ही आवाज सितमगर बन जाती थी। असल में विशाल जी भी कभी-कभी एक पौव्वा और कैप्सटन का पैकेट लेकर उनके पास जाते थे।

 खैर, पति के गृह त्याग के बाद वे राधास्वामी बन गईं। मान लिया कि एक बेटी की निशानी देकर वे आजीवन उनके साथ रह रहे हैं। उन्होंने पति को तलाशने का प्रयास भी नहीं किया। ड्राइंग रूम में उनकी बस एक तस्वीर लगी थी, जिसमें वे सुखना के पास पत्नी और बेटी के साथ खड़े हैं।

  खैर, अब लौटते हैं प्रेमानंद की दशा की ओर। बिधना के खेल पर वे अक्सर भरोसा करते थे। खरबंदा परिवार तक उनका मधुर प्रवेश जैसे नियति ने तय कर रखा था। साइत विचार कर वे सामान ले आए और तयशुदा शर्तों के साथ जीवन ज्ञापन करने लगे। उस मकान में दो किराएदार और थे। पर सब आत्मरत जीव।

प्रेमानंद के चित्त में तो मिसेज खरबंदा की वाहिद बेटी यानी भावी आइएएस सुगंधा सवार होने जा रही थी। उनके जीवन में पहली बार इतनी सरपट और नशेदार अंग्रेजी बोलने वाली कन्या आने वाली थी।

अंग्रेजी तो वे भी जानते थे। पर हिंदी माध्यम की लड़कियों का ही साथ मिल पाया, इसलिए ऐसी अंग्रेजी नहीं सीख पाए जो काल सेंटर में काम आती है।

हम यह बताना भूल गए कि जिस कालक्रम में यह प्रेमिल तारीख दर्ज हो रही थी, तब वाट्स ऐप नामक जगव्यापी शक्ति अवतरित नहीं हुई थी। उच्च तकनीक वाले मोबाइल आ चुके थे। पर कुछ लोगों का जीवन नोकिया के सींकिया और सहजधारी मोबाइल पर निर्भर था। प्रेमानंद ने एक दिन देखा-सुगंधा के पास भी बटनदार नोकिया वाला मोबाइल है। वह किसी से बात कर रही थी। बात अंग्रेजी प्रधान थी। पर उसके भाव बता रहे थे कि ये बातें खास उम्र वाली थीं और जिन्हें कहते-कहते अक्सर नैन भी जबानदार हो जाते हैं।… नो आई कांट, नो आई कांट…इतना ही सुन पाए थे वे और सौतिया डाह से भुन गए और इतना कि वसंत से चार दिन पहले की खुनकी में हल्का पसीना सांवली पेशानी छोड़ गए। शायद यह वन वे प्रेम की पहली चिन्हारी होती है। मन तो हुआ कि एक बार जोर से पुकार कर कहें कि आप आइएएस की तैयारी कर रही हो, या कुछ और..। पर हिम्मत नहीं हो पाई। पर साहस जुटा कर पूछ लिया-आपके यहां हिंदू आता है।

यहां दालभात में मूसरचंद जैसी दशा थी। उसने प्रेम वार्ता रोककर उधर कहा- ओए शांतनु रुक, फिर फोन लगाती हूं। फिर इनका खून जल गया। नामुराद प्रेमी का नाम भी सरेआम कर दिया। प्रेमानंद क्या कहते। सॉरी बोले, फिर कहे-एक्चुअली कंपटीशन के लिए हिंदू पढ़ना चाहिए। भोपाल में हमारे सर्वटे सर सदैव कहते थे कि हिंदू पढ़ना चाहिए।

 वह बोली- हमारी कोचिंग में कहा गया है कि इंडियन एक्सप्रेस पढ़ो। अब बताओ भइया क्या करूं।

यह भइया शब्द बरछे की तरह उनके जियरा पर चलता था। पर आपत्ति कैसे करते। इतना ही कह पाए-सुंगधा जी माइंड मत करना। हमें नाम लेकर बुलाया करिए।

 वही गुंजायमान हंसी–क्या बोलें प्रेम बाबू या प्रेम सर।

 हमारा सागरिया दिलफिगार थकी आवाज में बोला- प्रेम ही सफीसिएंट है।

चंचल आवाज निकली- डन डना डन डन…। यह नए जमाने की पुरशोख अदा थी, जो शायद उसके छोटे शहर तक नहीं पहुंची थीं।

अब वे प्रेम थे और वह सुगंधा जी। नायिका के नख-शिख वर्णन की पंरपरा रही है। सो, मुख्तसर में बताए देते हैं कि सुंगधा पांच फीट चार इंच की, तीस इंची कमर की जींस पहनने वाली, आम पंजाबियों जैसी चिट्टी और सुआ-सी नासिका वाली लड़की थी। वजन मात्र अटठावन किलो। आधुनिक सौंदर्य की सारी कसौटियों पर उतरने वाली दोशीजा।

  और प्रेम के सौंदर्य में ऐसा कोई अध्याय नहीं था, जो टीमटाम पर लट्टू होने वाली किसी लड़की को भा जाए। पर उन्होंने उस मकड़ी की कहानी सुन रखी थी, जो बार-बार कर गिरकर भी ऊपर पहुंच गई। उन्होंने कई अखबारों के साथ हिंदू अखबार लगा रखा था। दोपहर को जाते तो सुंगधा को आवाज देकर जाते और अखबार हाथ में देखकर ऐसे निर्विकार भाव से निकल जाते, जैसे वे संसार में जन कल्याण के लिए जन्में हों।

हिंदू अखबार ने इतना भला कर रखा था कि इसी बहाने वे सुबह दस बजे तक एक चितहरणी छवि देख लेते। दरअसल मिसेज खरबंदा का सत्संग प्रेम उनके लिए बड़ा लाभकारी थी। अकसर सुंगधा घर में अकेली होती थी। पर इनकी हिम्मत ही नहीं होती कि एक बार अंदर आकर बतिया लें। ना उधर से कोई ऐसा आमंत्रण। आखिर नाकाम नायक भी तो गैरतमंद हो सकता है।

लेकिन आज तो जैसे कमाल हो गया। प्रेम ने सुगंधा को आवाज लगाई तो अंदर से आवाज आई- आ जाओ बेटा प्रेम। जनाबे-आली सकुचातते हुए अंदर गए। अखबार मिसेज खरबंदा को देकर खड़े रहे।

 अरे बैठो- कहकर वे अंदर चली गईं। लौटकर आईं तो चाय थी और किसी शादी से आई मिठाई और नमकपारे-मट्ठी-लड्डू वगैरह। आज प्रेम का आत्मविश्वास कुलबुला रहा था। घरेलू ढंग से पूछा-आंटी सुगंधाजी नहीं दिख रहीं….।

आंटी ने बिना उनकी तड़पन समझे कहा- बेटे वह मोगा गई है। फैमिली फंक्शन है। एक हफ्ते बाद आएगी। प्रेम भाई दिल से कहना चाहते थे कि- अरे हमें बता तो जाती निर्मोहिन। पर हिम्मत नहीं हुई। प्रयोजन बताते हुए इतना बोले-आंटी यह अखबार तो उनके लिए था।

  इस किरपा को कोई भाव दिए बिना मिसेज खरबंदा बड़े बेपीर अंदाज में बोलीं, बेटे इत्ते पैसे क्यों वेस्ट करते हो। वो नहीं पढ़ती। ऐसे ही पड़ा रहता है अखबार।

प्रेम जी का दिल बैठ गया।

-हम तो जी उनके लिए लाते थे।

-तो कल से मत लाना बेटे। घर से इत्ती दूर पड़े हो। कुछ सेविंग करो। कल को घर वाले तुम्हारी शादी-वादी करेंगे। पैसे होने चाहिए ना…।

इन बातों से प्रेम उदासी में डूब गए। इतना उदास कि बस स्टैंड तक पहुंचते ही 300 नंबर की तंबाकू वाला पान काफी दिन बाद खाया। हाथ में हिंदू थामे दफ्तर चले गए। उन्हें लगा कि यह हृदयहीनता पीछा नहीं छोड़ने वाली। हताशा के दिन उन्होंने नेवीकट का सहारा भी लिया और दफ्तर की छत पर जाकर तीन बार सुट्टे मारे गहरे-गहरे। झुरझुराहट ने थोड़ी राहत दी और कैलाश खेर का एक मर्मभेदी गीत गुनगुनाने लगा।

 ये सात दिन बड़े भारी थे। उकताहट के बीच उसने एक मित्र को चिट्ठी लिख मारी कि उसे भी लगन लग गई है। हालांकि मोबाइल के दौर में पत्र लेखन बंद हो चुका था। पर प्रेमजी ने उस कस्बाई पंरपरा को वापस लाकर मित्र सागर सोमवंशी को लिखाः हमें सच्ची-मुच्ची का प्यार हो गया है। वे तो अभी अनजान हैं। पर हमारे दिल की बात एक दिन उन तक पहुंचेगी और वे कदर करेंगी। प्यार की गोपनीयता का पालन करते हुए हम उनका नाम नहीं बता सकते, पर उनकी सतजुगी सुवास में हम पल-पल जीते हैं।

सात दिन बाद सुगंधा वापस गई। प्रेम जी अपनी बरसाती यानी कमरे से निकल कर रोज सुबह आते और एक बार झांककर देख लेते। आज इतवार था। उनकी छुट्टी का दिन। साईं बाबा का नाम लेकर वे लरजते दिल से आगे बढ़े और नीचे झांककर देखा- सुगंधा मेहंदी लगे गोरे हाथों में पाइप पकड़े पौधों को सींच रही थी। भूरियल लट कपोल को तंग करती तो उसे झटके से ऊपर कर दिया जाता। यह अदा कवित्त का विषय था। पर वे कवि नहीं थे। एक शेर जरूर वे सर्वटे सर की कृपा से अभी तक याद रखे थे- कह दो ये कोहकन से मरना नहीं कमाल, मर मर के इश्के यार में जीना कमाल है।

यह शेर सुनाकर कई कस्बाई आशिकों को वे मुतासिर कर चुके थे।

 लेकिन इस समय तो वे खुद को कोहकन यानी फरहाद समझ रहे थे। ऊपर खड़े-खड़े उन्होंने कृत्रिम और ध्यानाकर्षक खंखार मारी।

 सलोना मुखड़ा ऊपर हुआ- हैलो, प्रेम..कैसे हो…सब ठीक…।

प्रेम जी का जैसे इतवार ही सुफल हो गया। वे नेताओं की तरह नमस्कार करते हुए सात दशक पहले के मखनिया हीरो की तरह बोले-जी, आपके बिना तो सूना-सूना ही था…।

-ओ रियली… वही बेमुरव्वत पंजाबी अदा। और सुंदरी वैसे ही पौधों को सींचती रही। वे ढीठ दीवाने की तरह उसे देखते रहे। एक बार भी मुड़कर ऊपर नहीं देखा। कोई हाल नहीं पूछा। प्रेमजी सोचने लगे- घर में अम्मा तिरिया चरित जैसी जो बात करती थीं, कहीं उसी का रूप तो नहीं दिख रहा।

 और इस तरह एकतरफा नेह में उनके छह माह गुजर गए।

प्रेम जी ने हिसाब लगाया-इन दिनों में कितनी बार सुगंधा ने गर्मजोशी से हाथ मिलाया। उस छुअन की तासीर ऐसी होती कि रह-रहकर वह अपना हाथ सूंघ लेता। आंखें चुराकर कभी चूम लेता। हालांकि सोचता भी कहीं ऐसे स्वघोषित दीवाने पगलैट तो नहीं कहे जाते।

बहरहाल, मिसेज खरबंदा ने हिंदू लाने को क्या मना किया, सुगंधा से रोज एक बार मिलने का मौका जाता रहा। सुगंधा मिली जरूर, पर चर्चा नहीं कि अखबार क्यों बंद कर दिया। बस, एक बार इतना ही कहा-आप लिफ्ट नहीं मार रहे आजकल, सब चंगा तो है ना…

इस मदभरे उलाहने ने तो प्रेम का दिन ही बना ही दिया। बोले-कैसी बात कर रहीं हैं। आप याद ही नहीं करतीं….हम तो…

इसके बाद उनके बेअंदाज होने की संभावना ताड़ कर सुगंधा ने खंखार कर कहा- ओ, भाईसाहब किरपा रखियो। घर जाकर शाद्दी-वाद्दी कर लो….। एक उम्र होती है….।

प्रेम जी सकपका गए, बल्कि थोड़ा लजा गए। हिम्मत ही नहीं हुई कि एक बार कह दें कि आपने हमारे दिल में जगह बना ली है।

 प्रेम ने कुछ दिनों से फरीदा खानम को सुनना शुरू किया था। कहते हैं ना, संगीत जोड़ने का काम भी करता है। असल में एक दिन उन्होंने सुगंधा को पौध सेवा के दौरान गुनगुनाते सुना था-मोहब्बत करने वाले कम ना होंगे।

वे समझ गए, देवी जी सुंदर ही नहीं सुरीली भी हैं। बदले में इन्होंने गाना शुरू किया- आज जाने की जिद ना करो।

मुद्दतों बाद आज प्रेमजी का दिन शानदार गुजरा। कहते हैं कि इश्क की हर वेला मुअय्यन होती है। हुआ यह कि वे घर से बाहर निकले ही थे कि पीछे से सुगंधा की उत्साहित आवाज आई- प्रेम जी, प्रेम जी।

 दिल खिल उठा। अचानक इंसानियत पर भरोसा जाग गया। सहज होने का नाटक कर अविचल खड़े हो गए- जी, बताएं…।

-अरे आपके लिए मिठाई दे गई हैं मम्मा। पर पहले मुझे बधाई दीजिए। मैं प्रिलिम में पास हो गई हूं।

प्रेम का कस्बाई अपनापन फुदकने लगा। उसने फट से, बल्कि योजनाबद्ध ढंग से अपना हाथ बढ़ाया-कांग्रेचुलेशन..। सुगंधा ने उसका हाथ अपने हाथ में दस सेंकेड तक रखने के दौरान कहा-थैंक्स। साथ ही यह भी -क्या बात, आज तो आप…मतलब लुकिंग गुड।

प्रेम ने भी आभार व्यक्त किया और साथ ही उसके बदन पर कसी चेग्वारा वाली टी शर्ट को निहारा। ज्यादा देर तक निहारते तो यह बेअदबी मानी जाती। क्योंकि चे का चेहरा एकदम सीने पर था। पर यह मौका वे छोड़ना नहीं चाहते थे। उन्होंने महान विप्लवी ज्ञान बघारते हुए कहा-आप इन्हें जानती हो….।

सुंगधा ने थोड़ा अचकचा कर कहाः किसे?

-ये जो आपकी टी शर्ट पर हैं।

-नो, नहीं जानती।

-अरे कमाल करती हैं। इतने बड़े क्रांतिकारी को नहीं जानतीं…मैडम ये चे ग्वारा हैं। वोलविया के महान क्रांतिकारी….। एक्चुली हिस्ट्री आपका सबजेक्ट नहीं है ना। प्रेमानंद अपनी रौ में थे। उन्हें भान ही नहीं था कि चे ने उनकी नवजात मोहब्बत की सारी आस को मटिया दिया है।

सुंदर चेहरे पर एक वक्रता उभरी। लगा, सुंदरी की शान में कुछ तौहीन हो गई। मतलब साफ था कि जीके के इस इम्तहान में फेल होना उसे एकदम अच्छा नहीं लगा।

 आने वाले दिनो में प्रेम बाबू को सरस वार्ता के कुछ लम्हे और नसीब हो सकते थे। पर वोलविया के महान विप्लवी ने सारा गुड़ गोबर कर दिया।

 सुगंधा अंदर चली गई। प्रेमानंद आगे चले तो ऐसा लग रहा था कि पैर में दस किलो की सांकल बंधी हो। ऐस तनाव में वे सादी पत्ती के साथ 300 नंबर का पान जरूर खाते था, ताकि रगों में कुछ हरारत दौड़े। वे समझ नहीं पाए कि बात क्यों बिगड़ गई। याद आया कि बचपन में उनकी अम्मा के पास आने वाले ज्योतिषी ने उनकी कुंडली देखकर कह था कि बेटा किसी भी स्त्री से बात करने से पहले वाणी को तौल कर रखना।

प्रेम को लगा, ज्योतिषी लीला धर दुबे सही कहा था। उन्होंने कसम खा ली कि सुगंधा से कभी ऐसी बात नहीं करेंगे।

कहते हैं कि लड़कियां दिल को चुभने वाली बात को आसानी से नहीं भूलतीं। ऐसा ही हुआ। प्रेमानंद उसके दर्शन को तरस गए। ना वह पौधों को सींचती दिखती, ना स्कूटी से कहीं जाते।

इस विछोह के बीच उन्होंने अपने मित्र को इस बार पत्र लिखने के बजाय बताया कि-वे रूठ गई हैं। मित्र ने सच्चे गुरु की तरह उसे बताया कि अरे यह सब होता रहता है। पर बेटे एक बात समझ ले कि वह खेली खाई पंजाबी लड़की है। उसे कैरियर बनाना है। टैम खोटी मत कर। तू भी जल्दी आकर काम से दिल्लगी कर। वैसे भी आईटी सेल से कुछ नहीं बनने वाला। भोपाल में भास्कर वाले नई भर्ती कर रहे हैं। फटाफट एप्लाई कर दे।

प्रेमानंद को जीवन की राह दिखी जरूर। पर जीवन में पहली बार हुए अफलातूनी इश्क के अहसास ने कहा-इतनी प्यारी लड़की को छोड़कर कहां जाना है। चल कुछ दिन और आजमा के देख ले।

खैर, उसने भास्कर के लिए अर्जी भेज दी। सोचा, जगह अच्छी मिलेगी तो जाऊंगा। नहीं तो सुगंधा के दिल में जगह बनाने की कोशिश की जाएगी।

सुंगधा अब जैसे भूमिगत हो गई थी। पढ़ाई में ऐसी मगन हुई कि प्रेमानंद दर्शन को तरस गए। जब जब ऊपर से देखते तो उसकी मोहनी सूरत की बजाय मिसेज खरबंदा ही नजर आतीं। वे याद करने लगे-हाय, कितने प्रेमभाव से सुगंधा ने उस दिन उनका हाथ पकड़ा था। पर चे ग्वारा प्रकरण ने सब बिगाड़ दिया।

और जिंदगी जब झंड हुई तो आईटी सेल के काम में ज्यादा मजा नहीं रह गया। उसके हेड थे एनएल सक्सेना सर। नाम तो था नथुनीलाल सक्सेना। पर पार्टी के राज्य के प्रभारी पाहूजा एक बार उनका पूरा नाम जानकर बिदक गए। बोले-अरे यार, बिहारियों जैसे नाम रखकर नाक कटवाओगे क्या। वे जैसे सफाई देते हुए बोले- नहीं सर हम कासगंज यूपी के हैं। अरे यार, एक ही बात है..। इसके बाद से ही उन्होंने नथुनी लाल नाम तज कर एनएल धारण कर लिया और सभ्य समाज में प्रतिष्ठा अर्जित करने लगे।

आज प्रेमानंद की मायूस सूरत देखकर उन्होंने कहा-क्या गुरु शकल में बारह काहे बज रहे हैं।

उन्हें लगा कि यह सही वक्त है बात करने का- सर, जे पत्थर के शहर में जी ऊब गया है।

सर बोले -अबे पगलैटी वाली बात कर रहो हो। इस शहर के लिए लोगों ने प्रमोशन छोड़ दिए, परदेस बसी प्रेमिकाएं छोड़ दीं। और तुम कह रहे हो कि लगता नहीं है जी इस शहर में।

-ऐसा नहीं है। हमने देखा कि लोगों में वैसा प्रेम भाव नहीं है जो हमारे एमपी में है।

-प्रेम भाव, यह क्या होता है बाबू..। एनएल सर हंसने लगे।

वे खिसिया गए। कैसे कहते कि मकान मालकिन की सुंदर मोड़ी ने चैन हर लिया है। इतना ही कहा- अम्मा बीमार रहती हैं। एक बहन की शादी करनी है और छोटा भाई दवाई कंपनी का एमआर बनकर इंदौर चला गया है। इस साल पापा भी रिटायर हो जाएंगे।

फिलहाल दो विकल्प रखे थे दुखियारे प्रेमानंद ने। भास्कर में चीफ सब या सिटी रिपोर्टर की पोस्ट मिली तो चला जाऊंगा, नहीं तो कुछ दिन और प्रेम-प्रतीक्षा में गुजार कर घर चला जाऊंगा और आर्गनिक खेती के क्षेत्र में काम करूंगा। असल में उनके कुछ तालीमयाफ्ता दोस्त सरकारी लोन लेकर सागर के आसपास खेती कर रहे थे और आजकल इनोवा से चल रहे थे।

  वैसे भी उनका 11 माह का एग्रीमेंट था।

आज आंटी को किराया देने का दिन था। उन्होनें विचार किया कि ऐसे समय जाएं, जब सुगंधा का साथ नसीब हो। दफ्तर की ओर से एक नई मनोरमा गाइड और महान पेंटरों के चित्रों से सजी डायरी उसे मिली थी।

उन्होंने बड़े त्याग भाव से इन्हें सुगंधा को देने का फैसला किया। पढ़े- लिखे प्रेमी का शायद यही धर्म होता है कि प्रेमिका को ज्ञान की रोशनी देकर प्रभावित किया जाए।

  किस्मत वाकई बड़ी अच्छी थी। शाम को मिसेज खरबंदा का ड्राइंग रूम गुलजार था। गुब्बारे लटके थे। गुलदान में सुंदर फूल। मेज पर सजा खानपान। कमरे के परदे लाइट से सुनहरे हो चुके थे। और सबसे खास बात यह थी कि सुगंधा के हमेशा सूने दिखने वाले कानो में एथनिक टच वाले बुंदे लटक रहे थे। वे लगातार हिले रहे थे- उसके हिलने पर, मुस्कराने पर, बतियाने पर।

 एक अतिरिक्त चीज थी- एक बेहद लाल गाल वाला लड़का, जिसके कसदार बाजू बता रहे थे कि वह जिम भी जाता है। मुखाकृति सुदर्शन जाट जैसी। आंखों में खामोश कड़की। उसने प्रेमानंद को ऐसी निगाह से देखा, जैसे सामने कोई अब्दुल्ला दीवाना आ टपका हो।

ऐसी असहजता के बीच मिसेज खरबंदा ने परिचय कराया- मिलो  प्रेम ये हैं शांतनु।

जवान ने उठकर हाथ मिलाया और अपनी प्रभुता स्थापित करते हुए कहा- शांतनु तेवतिया।

मतलब था- हैं मैं जाट हूं।

प्रेम ने गौर किया कि इस परिचय के दौरान सुगंधा के चेहरे पर ऐसे    भाव थे, जैसे कह रहे हों- ये लो जान लो, ये कौन हैंगे।

इसके बाद दोनों हिंदी को परे करके अंग्रेजी में बात करने लगे। प्रेम और मिसेज खरबंदा हिंदी में मौसम परिवर्तन पर राय रखते रहे।

अंदर ही अंदर प्रेमानंद जी शर्म में डूब रहे थे कि इस अंग्रेजी संवाद में उन्हें क्यों भागीदार नहीं बनाया जा रहा।

पूरी हिम्मत बटोरकर उन्होंने उन दोनों की बात काटी और कहा-सुगंधा जी, आपके लिए ये है। कहकर उन्होंने मनोरमा गाइड और डायरी उसे ऐसे सौंपी जैसे विदेश जाकर कोई राजनयिक परिचय पत्र देता है। और शानदार आभार-वचन की प्रतीक्षा करने लगा।

मधुर स्वर निकलाः वैरी यूजफूल, थैंक्यू प्रेम जी।

मगर इसके बाद की परिघटना तो दिल को धचकाने वाली थी।

सुंगधा ने किताब तो अपने पास रख ली और वह नायाब डायरी गबरू मेहमान को देते हुए कहा- थैंक्यू बोलो, भइया जी को।

गुस्ताख चेहरे पर एक स्वार्थी मुस्कान उभरीः थैक्यू सर।

प्रेम का कलेजा बैठ गया। इस बावली ने यह क्या कर दिया। मेरी भेंट कुपात्र के हवाले कर दी।

वे खिसिया कर रह गए। अंदर की चिढ़ को भटकाने कि लिए चार बादाम और चबा लिए। मन मसोस कर कहा- आज आपका हैप्पी बर्थ डे है। हमें मालूम होता तो एक और ले आते। दरअसल यह लिमिटेड छपती है और वीआईपीज को दी जाती हैं। मुख्यमंत्री के ओएसडी ने हमे दी है।

यह बताकर दरअसल वे दिल को तसल्ली दे रहे थे।

सुगंधा और दिल जलाए जा रही थी। उसने लड़के के कपोल पर यराना ढंग से हाथ फेरते हुए कहा- ओ भाईसाहब तुसी वीआइपी बन गए हो। इस बात पर एक और पार्टी बनती है।

प्रेम को यह संवाद कटखना लग रहा था। मोहब्बत की ऐसी बेकद्री कभी नहीं हुई। झूठमूठ की मुस्कान के साथ बोले -सुगंधा जी आपको भी वीआईपी बना देंगे। कहकर तेजी से ऐसे उठे, जैसे सदन से बहिर्गमन कर रहे हों।

सुगंधा छोड़ो, किसी बेमुरव्वत ने यह तक नहीं कहा कि थोड़ा और रुक जाओ भाईजान।

उन्हें लगा, शायद गलत वक्त पर आ गया था। आज की शाम गुजारना भारी था। बैगपाइपर का पऊवा और चार नेवीकट लेकर कमरे में लौट आए। जब वे सीढ़ियों से गुजर रहे थे,  ड्राइंगरूम से कई अट्टाहसी आवाजें गूंज रही थीं- हैप्पी बर्थ डे शांतनु का नाद तारी था । पंजाबी-हिंदी मिश्रित सुर बुलंद हो रहे थे। कुछ थिरकन भी शुरू हो गई थी।

ये महाशय आम तौर पर दो पैग में ही सन्न हो जाते थे। पर आज की ऊब और जिल्लत ने उनकी कैपसिटी बढ़ा दी। चारों सिगरेट पी डालीं। याद करने लगे-सर्वटे सर तो कहते थेः तासीरे इश्क तो दोनों तरफ होती है जनाब, मुमकिन नहीं कि दर्द यहां हो वहां ना हो..

नशे में वे बड़बड़ाए- घंटा उधर दर्द होता है। हमीं जी निछावर करके बैठे हैं। झूठा है यह शेर, सर्वटे सर। हटाओ, ससुरे को अपनी डायरी से। इस पीड़ा में बिना कुछ खाए सो गए विरही बाबू ।

सुबह नींद तब खुली, जब दरवाजे पर थापे पड़ रही थीं। पहले तो लगा कि वे सपने में हैं। पर अब आवाज भी सुनाई पड़ने लगी-अरे खोलो भई, मैं हूं….।

यह तो मिसेज खरबंदा की आवाज थी।

उन्होंने फौरन खाली पव्वा अलमारी में घुसेड़ा। सिगरेट के टोटे पैर से खिसका कर दरवाजे के पीछे किए। मुंह का भभका टैस्ट करने के लिए हथेली पर सांस मार कर सूंघी।

दरवाजा खोलते ही पहले सॉरी कहा और बहानेबाजीः एक्चुअली रात में तसलीमा नसरीन का नया नावेल पढ़ते-पढ़ते चार बज गए…।

– कोई नहीं, सॉरी तो हमें बोलना चाहिए। रात देर तक हमारे यहां भी पार्टी चलती रही। तुम्हें म्यूजिक की आवाज नहीं सुनाई पड़ी। एक्चुली हमने आपस के ही लोग बुलाए थे। कल शांतनु के बर्थ के बहाने उसके मम्मी-पापा गुड़गांव से आ गए थे। हमने इनकी इंगेजमेंट कर दी। अब शादी-वादी ये अपने मन से करते रहेंगे। ये भी आइएएस की कोचिंग के लिए दिल्ली जाकर रहेगी। शांतनु का एक घर वहां भी है।

 मिसेज खरबंदा ने सब कुछ बयां कर दिया।

प्रेमनंद बुत की तरह सुनते रहे। जिस्म हवा की तरह हल्का होता जा रहा था।

आंटी ने हल्दीराम की मिठाई वाला डिब्बा उनके हवाले किया।

उनकी पूछने की भी हिम्मत नहीं हुई कि सुगंधा अभी क्या कर रही है।

बस इतना कहा- शादी में तो आप बुलाओगी ना।

-देक्खो, क्या करते हैं दोनों। कहकर उन्होंने हाथ प्रभु की ओर उठा लिए।

उनके जाते ही ही प्रेमजी धम्म से ठंडी फर्श पर बैठ गए। पेशाब जोर से लगी थी। पर इस भावुक आपदा ने मुतास को भी दबा दिया। सिगरेट होती तो जरूर फूंकते। अचानक उम्मीद से भरकर दरवाजे के पीछे पड़े टोटे देखे। एक टोटे की सफेदी शेष थी। इससे ज्यादा कीमती चीज इस समय कोई नहीं थी। सुलगाकर टायलेट चले गए और धुएं से प्राणायाम कर डाला कि आंखें ललिया गई और कलाइयों में कंपन आ गया।

टायलेट से लौटकर वे फिर लेट गए और आंखें बंदकर बीते दस महीने के वे लम्हे याद करने लगे, जब सुगंधा को अपलक देखा। उसके विविध रूप याद किए। हाफ पैंट से लेकर जींस और सलवार सूट में सजी सुगंधा। आखिरी छवि कल शाम की थी जब वह सिल्क वाले राजसी सलवार-सूट में थी। कान के बुंदे कितने शोभित थे।

अचानक जैसै कोई राज फाश हो गया – ओह, अच्छा तो इसलिए महारानी जी इतनी सजी थी। लाल मुंह वाले जाट लड़के के धौंसीले तेवर का राज भी समझ में आ गया।

अंदर ही अंदर वे रो पड़े  और मुकेश के दर्द भरे नग्मे याद आने लगे।

एक गाना उन्हें बड़ा अच्छा लगता था-जिंदा हूं इस तरह के गमे जिंदगी नहीं, जलता हुआ दिया हूं मगर रोशनी नहीं।

इस पीड़ा की इंतिहा में इतना जरूर हुआ कि वे तथागत की तरह जीवन के बारे में सोचने लगे।

तीस साल की उमर में एक सार मिला-अंग्रेजी बोलने वाली लड़की का दिल जीतने के लिए अच्छी सूरत ही नहीं अच्छी अंग्रेजी भी जरूरी होती है।

 बहरहाल, सुंगधा की मंगनी की खबर ने उन पर चढ़ा गुदगुदी उम्मीदों का सारा भार उतार फेंका। कह सकते हैं -आंखी फूटी पीर बुझाई। पर एक बार मिलकर कहना चाहते थे कि- देखो हम आपको किस तरह चाहे  बैठे थे। आप ने कदर ना जानी।

  पर इसका भी बहाना तो चाहिए था।

 वह आज मिल गया। तिथि के हिसाब से आज इनकी सालगिरह थी। अम्मा ने बताया था कि वसंत पंचमी के दिन उसका जन्म हुआ था। सुबह उठकर नहा धोकर पीली कमीज पहनी । साईं मंदिर जाकर दर्शन किए। लौटकर प्रसाद के रूप में लडडू लिए। एक डिब्बा काजू कतली का अलग से सुगंधा के लिए। एक बार उसने कहा था-यह उसकी फेवरेट मिठाई है। जान- बूझकर प्रेम जी ने इतना बड़ा टीका लगाया कि लोग पूछें कि आज क्या है।

 आज तो मिठाई के पीछे बाकायदा तर्क था। आज बिना ही घर की घंटी बजाय, प्रेम ने परदा उठाया। और पहली बार आंटी की बजाय सुगंधा जी  कहकर पुकार मारी।

आज उनकी छवि वांछनीय थी। मिसेज खरबंदा ने देखते ही टीका की-गुड, आज क्या बात है मंदिर वंदिर होके आ रहे हो।

 वे एक ही सांस में बोल गए- जी आज बसंत पंचमी है और साथ में हमारा बर्थ डे। जे प्रसाद है और जे काजू कतली सुगंधा के लिए…..

-ओ माई गॉड, तुम्हारी कितनी अच्छी फ्रेंडशिप है सुगंधा से…पर हार्ड लक वो तो दिल्ली चली गई। आइएएस की कोचिंग के लिए। शांतनु के घर वाले ही सारा खर्च उठाने वाले हैं, हमारे पास तो….।

मिसेज खरबंदा की पूरी बात सुने ही वे परास्त भाव से बोले -तो आप ही रख लो।

-नहीं बेटे, तुम तो जानते हो मेरा सुगर लेवल, थायरायड सब बढ़ा हुआ है। और कल ही हम ब्यास जा रहे हैं। इसे ऊपर वाले साउथ इंडियनों कि खिला दो। लड्डू का एक दाना में ले लेती हूं। बैठो ना,  मैं चाय बनाती हूं।

-नहीं, थैंक्स, कहकर वे बाहर निकल आए।

यह तो अति हो गई। सुंगधा को काजू कतली तक नहीं खिला पाए। धिक्कार है जीवन को…। लगा कि कुंडली में मुहब्बत का खाना गोल कर दिया गया है।

-जब सुगंधा ही नहीं, तो इस घर में क्या। उन्हें कभी-कभी सुन पड़ने वाला एक बेहद पुराना गाना याद आने लगा-जब तुम ही गए परदेस लगा के ठेस ओ प्रीतम प्यारा, दुनिया में कौन हमारा।

गम में डूबे प्रेमानंद आखिरी कसम के तौर पर रात को फिर बैगपाइपर का पव्वा ले आए। फरीदा खानम की दिलचीरू गजलें लगाईं और अम्मा को फोन कर जोर से बतियाया। साथ ही एलान कर दिया- इस उजड़े दयार में मन नहीं लग रहा। और भास्कर वालों का मैसेज आ गया है। मैं अगले माह भोपाल आ रहा हूं।

संयोग ही थी, एग्रीमेंट के ग्यारह माह भी पूरे हो रहे थे। आंटी ने बिना रहम किए इशारा भी कर दिया था कि इस बार बीस परसेंट किराया बढ़ाएंगे, क्योंकि उन्हें जरूरत है।

लेकिन वे जैसे सासांरिक विकारों से मुक्त होकर कमरा छोड़ने जा रहे थे।

   अब इस अफलातूनी प्रेमकथा के अंजाम की चर्चा कर लें। दूसरे प्रयास में भी आइएएस मेन्स में सुगंधा का नहीं हो पाया तो मजबूरन आइआरएस ले लिया।

दो साल हरियाणा में रहने के बाद आजकल उसकी पोस्टिंग उत्तर प्रदेश के कमाऊ शहर गाजियाबाद में है और उसका नाम हो गया है-सुगंधा तेवतिया खरबंदा।

और हमारे अनब्याहे प्रेमानंद जी भास्कर और नवभारत होते हुए राजस्थान के एक पत्रकारिता विश्वविद्यालय में पत्रकारों की नई पौद तैयार कर रहे हैं। वे बाकायदा वाट्स ऐप में हैं, पर हिम्मत नहीं होती कि सुगंधा का नंबर तलाशा जाए।

       प्रमोद द्विवेदी

संपर्क- pdwivedi.js@gmail.com

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