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काहे के भारत देश में आये कोरोनवा रे/ मार-मार के तोहके भगईहें पबलिकिया रे

आजकल कोरोना को लेकर गीत लिखे जा रहे हैं, दीये जलाए जा रहे हैं। युवा लेखक और इलाहाबाद में प्राध्यापक सुजीत कुमार सिंह ने अपने इस लेख में 1893 में लखनऊ के मुंशी नवल किशोर प्रेस से प्रकाशित ‘महारामायण को याद कर रहे हैं, जिसमें महिलाएँ गीत गा गाकर हैज़ा को दूर भगाने की बात कर रही हैं। पढ़ने लायक़ लेख है- मॉडरेटर

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यह साल 2020 का अप्रैल माह है. आज चैत्र रामनवमी की अष्टमी है. गाँव-देहात में घर-घर ‘नौमी’ की तैयारी चल रही है. घर साफ़ किये जा रहे हैं. गोबर से घर लिपे जा रहे हैं. गेहूँ पछोरा जा रहा है और उसे धोकर सुखाया जा रहा है. माटी के चूल्हे पर आज खाना बनाना मना है. अतः खाना बाहर बनेगा.

               देहातों में यह तैयारी काफ़ी पहले से ही शुरू हो जाती है. नवरात्र आरम्भ होने से पूर्व ही  रात्रि में महिलाएँ स्थानीय देवी (सम्मे माई आदि) की प्रतिमा के आगे बैठकर देवी गीत गाती हैं. चैत्र माह अबोध बच्चों के मन में एक अदृश्य भय पैदा करता है. धुप-अगरबत्ती, फूल-बताशा, सिन्दूर-कपूर वगैरह का वातावरण. तरह-तरह के पूजा-पाठ. तरह-तरह की बातें. तरह-तरह की नसीहतें कि ‘फलाँ के घर मत जाना. उसकी माँ जादू-टोना करती है’ आदि.

                 हिन्दू घरों का संचालन पितृसत्ता के हाथ में होता है. ऐसे ही घरों में रूढ़िवादी हिन्दू औरतें सदियों से रहती चली आ रही हैं. इन घरों में इन्हें परम्परागत पूजा-पाठ, कर्म-काण्ड, व्रत-उपवास आदि मिलते हैं. और मज़ेदार बात यह कि इन घरों में सती-पतिव्रता औरतों के लिए कोई स्थान नहीं है अपितु दरवाज़े पर हाथ में लाठी लिए, मूंछों पर ताव देता हुआ एक उद्दंड क़िस्म का मर्द बैठा हुआ है. पितृसत्ता के नियामकों का मानना है कि एक सच्ची, सती, पतिव्रता, संयमशीला, गृहकार्य में दक्ष और तत्पर स्त्री ही ‘देवी’ कहलाने की अधिकारी है. यहाँ यह जानना चाहिए कि ‘पतिव्रता देवी’ की निर्मिति में उन्नीसवीं – बीसवीं सदी में लिखित स्त्री सम्बन्धी तमाम पुस्तिकाओं, पत्रिकाओं, पाठ्यपुस्तकों, गुटकों आदि का अहम योगदान रहा है. नवजागरण सुधारकाल में दो तरह के स्कूल थे, दो तरह की पाठ्यपुस्तकें थीं. लड़के गणित-विज्ञान पढ़ते थे तो लड़कियां पाकशास्त्र, सीना-पिरोना, गृहविज्ञान वगैरह. कन्या पाठशालाओं में धार्मिक शिक्षा अनिवार्य थी : गोद में ईश्वर हमें बिठा / सच्ची पुत्री हमें बना.

                 आज वाट्सप पर एक विडियो आया जिसमें एक गाँव की कुछ औरतें एक घेरे में बैठकर महावर लगे अपने दोनों पैरों को आगे कर कोरोना सम्बन्धी एक भोजपुरी गीत गा रही हैं. इस गीत में कोरोना एक काल्पनिक और अदृश्य मनुष्य के रूप में चित्रित है. इस अदृश्य मनुष्य ने उनके जीवन में भूचाल-सा ला दिया है. इन ग़रीब औरतों के बच्चे और मर्द रोजी-रोटी के लिए परदेश गए हुए हैं. कोरोना ने देश में ‘लॉकडाउन’ करा दिया है जिसके चलते इनके परिवार के कमाऊ लोग जहाँ-तहाँ फंसे हुए हैं. ससुराल और नैहर के लोग परेशान हैं. औरतें कोरोना के प्रति बहुत ही गुस्से में हैं. अपना दुःख व्यक्त करते हुए वे कोरोना से कहती हैं –

                    काहे के भारत देश में आये कोरोनवा रे !

                    मार-मार के तोहके भगईहें पबलिकिया रे

                    काहें के सबके छोड़ाए नैहर ससुरवा रे

                    गोदिया के लइका हवें देस परदेसवा में

                    हमरे लड़िकवन से ज़बर नाहीं बाटे कोरोनवा रे

                    अईसन मार मरिहें की देखबे ना भारत देसवा में

                    रोई-रोई बितावें दिनवां अऊर रतिया रे

                    काहे के दुनिया हदसावे कोरोनवा रे

                    सखिया सहेली रोवें, रोवें बाबा महतरिया रे

                    रोवें हमरे नैहर के छोटका बिरनवा रे !

                    काहें के भारत देस में …

             इस वाट्सप विडियो को देखते हुए मुझे उन्नीसवीं सदी में लिखी गई तीस पृष्ठ की एक पुस्तिका महारामायण (विशूचिका आख्यान) की याद आ गई. लखनऊ के मुंशी नवलकिशोर के छापेखाने से छपी इस पुस्तिका का तीसरा संस्करण (जुलाई 1893)  मेरे पास है. इसका प्रथम संस्करण कब निकला था – इसका ज़िक्र इस तीसरे संस्करण में नहीं है. जहाँ उल्लिखित भोजपुरी गीत में अदृश्य कोरोना को पब्लिक और पुत्रों द्वारा मारने की बात औरतें करती हैं, वहीं इस आख्यान में मंत्र द्वारा हैजे को खत्म करने की बात की गई है. महारामायण के मुखपृष्ठ पर लिखा है –

              “सर्वोपकारार्थ कर्कटीराक्षसी का आख्यान मन्त्रादि विधि सहित है जिसके पठन

               पाठन श्रवण इत्यादि से विशूचिका अर्थात् हैज़े इत्यादि का भय नहीं होता.”

यह ‘श्री पटिनी मल्ल की आज्ञानुसार भट्ट श्री कृष्ण बल्लभ पंडित महाराज की संग्रह की हुई’ है. इस महारामायण की शुरुआत यों होती है –

                                 श्रीगणेशायनम:

                                    अथ महारामायण

                                       श्लोक

                         गुरंगिरीशंगणपंगोपतिंगिरि धारिणंAA            प्रणम्यबालबोधायलिखामिसुखभाषिकम्AAAA

               भट्टश्रीयुतकृष्णबल्लभसुधीधुर्य्येणसंलिख्यतेराजश्रीजितराजराजपटिनीमल्लार्य्यवर्यज्ञयाAA

               भाषाबालविशेषबोधजननीवाशिष्ठरामायणप्रोक्तानल्पबिशूचिकाभिधमहोपाख्यानसंबंधिनीAAAA   

ब्रज भाषा में लिखित इस लघु आख्यान को वशिष्ठ मुनि भगवान् राम को सुनाते हैं. वशिष्ठ जी ब्रह्मतत्त्व की बात करते हुए कहते हैं कि ‘हे राम ! ब्रह्मतत्त्व एक ही है किन्तु अज्ञानी लोगों को यह अनेक रूप में दिखाई देता है. ब्रह्म तत्त्व की बात कर्कटी नामक राक्षसी ने भी कही है.’ आगे कर्कटी का परिचय वे देते हैं –

            “हिमाचल पर्व्वत के पिछाड़ीदेश में कर्कटी नाम राक्षसी रहै. सो वह विशूचिका की कन्या रहै. बड़ी अन्याय को करन वाली. सो एक ही नग्न रहै. महा डरपावनी रहै. कुहर को वस्त्र पहिरे. श्याम वर्ण वाकी लम्बी बाहें. जाकी विन सों मानों सूर्य्य को पकर लेगी. ऐसी दिखे. अन्धकार में फिरो करे. बड़ो शरीर जाको क्षुधाहू वाको बड़ी रहै. काहू तरे पेट भरे ही नहीं. जीभ जाकी बड़वाग्नि की सी लहलहायो करै. सो वह एक दिन बिचार करत भई जो मैं जम्बू द्वीप में जाय के अनेक मनुष्यों को निगलों तो मेरी यह भूख कछु कसिराय. जैसे समुद्र अनेक जल जंतुन को अपने पेट में धरे है और मेघ कर के मृग तृष्णा सिराय है तैसे यह मेरी भूखहू बुझे.”

                  लेकिन जम्बू द्वीप वासी तपस्या, मंत्र, औषधि, दान, देवपूजा आदि से अपनी रक्षा करते हैं. अत: इनको खाना कर्कटी के लिए आसान नहीं था. वह तय करती है कि इनको खाने के लिए मुझे तपस्या करनी चाहिए. वह कठोर तप में लीन हो जाती है. हज़ार वर्ष की तपस्या के बाद प्रसन्न होकर ब्रह्मा प्रकट होते हैं. ब्रह्मा को देख राक्षसी सोचती है : “जो मैं गुप्तरूप सूची बनके सगरे जीवन के हृदय में पैठ के सब प्राणिन को ग्रसों तब क्रम सों मेरी यह भूख घटे.’’ और वह ब्रह्मा से यही वर मांगती है कि “बिना लोहे की सूई अथवा लोहे की सूई सी होय मैं सब जीवन के हृदय में बैठों.”

                  ब्रह्मा जी कहते हैं : “ऐसी ही होयगी और तू या सृष्टि में विशूचिका होय सूक्ष्म रूप करिके सब जीवन को मारेगी. जे प्राणी दुष्ट भोजन करेंगे, दुष्ट कार्य्य करें दुष्ट रहे हैं दुष्ट देश बास करेंगे विनको तू मारेगी. वाडुकी लकीर सरीको व्याधिरूप विशूचिका होयगी. भले बुरे सब प्राणिन को मारेगी और गुणी की चिकित्सा को यह मंत्र है सो मैं कहूंहूं – ॐ ह्रीं ह्रीं ह्रीं ऐं विष्णुशक्तयेनम:A भगवतिविष्णुशक्तेएनन्दहदह पचपचमथमथहनहन उत्सादयउत्सादयदूरे  कुरुकुरु स्वाहा विशूचिकेक्र:क्र:क्र: हिमवंतंगच्छगच्छजीवस:स:स: चंद्रमंडलगतेस्वाहाAA यह महामंत्र है. यासों बायें हाथ में न्यास करि मार्ज्जन करे फिर ध्यान करे.”

                  ब्रह्मा जी उपर्युक्त मन्त्र को जब बता रहे थे तो मन्त्र की शक्ति से कर्कटी भागने लगी थी. इस ‘क्रूर मन्त्र’ के प्रभाव से विशूचिका “मुद्गर सों पिसी जात है और रोगी मानो चन्द्ररसायन के दह में बैठो है. जरा मृत्यु सों दूर है. सब रोग व्याधि मुक्त हैं.”

                       ब्रह्मा के वर से सुई का रूप धारण कर जम्बू द्वीप को ग्रसने के लिए विशालकाय कर्कटी आगे बढ़ती है. वह दसों दिशाओं में भ्रमण करने लगती है. हाहाकार मच जाता है. अब वह आकाश में, धूल में, वस्त्र में, देह में, नदी-सरोवर में, सूखी घास में, अर्थहीन पुरुष में, अचेत जीव में अनेक रूप धारण करके रहने लगती है. यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि विशूचिका दुष्टों को पीड़ा देने में तृप्ति का अनुभव करती है. जैसे दुष्ट मनुष्य मामूली धन के लिए दूसरों को परेशान करता है, वैसे ही विशूचिका दुष्ट प्राणियों के प्राण हरने में आनंद पाती है.

                        वशिष्ठ जी राम से कहते हैं कि यह विशूचिका भी ब्रह्म की सत्ता है. उससे जो पीड़ा होती है उसे भी ब्रह्म की सत्ता ही समझना चाहिए. इतनी कथा सुनाने के बाद सूर्यास्त हो जाता है और सभा विसर्जित हो जाती है. इस महारामायण में छोटे-छोटे कुल सोलह सर्ग हैं – राक्षसी वर्णन सर्ग, विशूचिकोपाख्यान सर्ग, सूची व्यवहारवर्णन सर्ग, विशूचिका विलाप सर्ग, सूची उपाख्यान सर्ग, राक्षसी प्रश्न सर्ग आदि. यहाँ मैं विस्तार में न जाकर संक्षेप में ही कथा का सार बताना चाहूँगा.

                        चूँकि कर्कटी ने ब्रह्मा से सूक्ष्म शरीर माँगा था इसलिए पहले ही दिन मनुष्यों के मांस से वह तृप्त हो गई थी. कुछ वर्षों के बाद वह अपने लघु शरीर से असंतुष्ट होकर विलाप करने लगती है. अब वह पहले की तरह ‘पहाड़ सरीखो’ शरीर पाने के लिए सोचने लगती है ताकि वह ख़ूब रुधिर, मांस, मज्जा खा-पी सके. ‘पहाड़ सरीखो’ शरीर पाने के लिए वह पुनः तपस्या करती है. उसकी सात हज़ार वर्ष की अनवरत तपस्या से इंद्र बहुत विचलित होते हैं. वह नारद से पूछते हैं कि ब्रह्मांड में इतना उथल-पुथल क्यों है? नारद उसके अत्याचारों का वर्णन करते हैं और कहते हैं कि हे इंद्र ! अगर आप उसे वर नहीं देंगे तो वह अपनी “तपस्या के तेज़ सों जगत को जराई देगी.” तब इंद्र वायु को भेजते हैं. वायु सूची से पूछता है कि “तुम यह घनघोर तपस्या क्यों कर रही हो?” प्रश्न पूछते ही सूची के क्रोध का वायु शिकार होता है. वह भागकर इंद्र को सारी कहानी बताता है. इंद्र अन्य देवताओं के साथ ब्रह्मा के पास जाते हैं. ब्रह्मा सूची के पास जाते हैं और वर मांगने के लिए कहते हैं. लेकिन वह कोई वर नहीं मांगती. वह उनसे सुख-शांति मांगती है. लेकिन ब्रह्मा उसे वर देते हैं कि ‘तुम्हारा शरीर विशाल हो. जब तुम्हे भूख लगे तो पापियों को खाओ.’ अब वह विशाल शरीर वाली हो जाती है. छह माह बाद उसे भूख लगती है. अब वह मनुष्यों को नहीं खाना चाहती. राक्षसी प्रवृत्ति छोड़ने पर वायु प्रसन्न होकर उससे कहता है कि “तुम अब मूर्खों को उपदेश दो क्योंकि मूर्खों को उपदेश देने में बड़ा ही पुण्य है. जो मूर्ख तुम्हारी बात न समझे, तुम उसको खा जाना.” वायु की बात सुनकर वह पर्वत शिखर से उतर किरातों के देश में जाती है.

                         किरात-भीलों का राजा और उसका मंत्री रात्रि में नगर निरीक्षण के लिए निकले हुए हैं. कर्कटी उन्हें देख प्रसन्न होती है कि आज भोजन के रूप में दो मूर्ख मिले हैं. लेकिन वह विचार करती है कि अगर ये दोनों गुणी और श्रेष्ठ पुरुष निकले तो इनके भक्षण से मुझे पाप लगेगा. अब वह उनकी परीक्षा लेने के लिए सोचती है. वह अपना भयंकर रूप उन्हें दिखलाती है पर दोनों डरते नहीं हैं. कर्कटी को आश्चर्य होता है. मंत्री राजा का परिचय देते हुए कहता है कि “यह भीलों के राजा हैं. राज्य, प्रजा और नगर की रक्षा के लिए हम दोनों रात्रि भ्रमण के लिए निकले हैं. राजा का यही धर्म है कि वह दुष्टों को दण्ड दे और धर्मात्मा की रक्षा करे.” राक्षसी कहती है कि ‘अगर तुम मेरे प्रश्नों का उत्तर दे दो तो मैं तुम दोनों को छोड़ दूँगी.”

                        प्रश्न है : “समुद्र जैसा वह कौन-सा वस्तु है जिसमें लाखों ब्रह्माण्ड रहते हैं? मैं कौन हूँ? तू कौन है? कौन चल और अचल है? चेतन और अचेतन कौन है? कौन सूर्य, चंद्रमा और अग्नि के बिना रहता है? सबका नाश कौन करता है? बिना आँख देखे, बिना सुने, बिना हाथ वस्तु को पकड़े कार्य करने वाला कौन है? जगत का रक्षक और नाश करने वाला कौन है?” इस तरह राक्षसी ने वेदान्त सम्बन्धी अनेक प्रश्न पूछे.

                        मंत्री ने विस्तार से राक्षसी के प्रश्नों का उत्तर दिया. उत्तर सुनकर राक्षसी अतीव प्रसन्न होती है. राजा भी उसे ब्रह्म सम्बन्धी कई बातें बताता है. राक्षसी कहती है कि तुम दोनों के उत्तर से मुझे भी बड़ा ज्ञान मिला. अगर यह ज्ञान मुझे पहले मिल गया होता तो मैं हिंसा न करती. वह राजा और मंत्री को ‘विशूचिका मंत्र’ बताती है. मंत्री और राजा भी राक्षसी की बात सुनकर प्रसन्न होते हैं. अचानक राजा कहता है कि ‘अरे देवी ! तू हमारी गुरु है. इसलिए हम विनती करते हैं कि कुछ दिन अपना यह रूप छिपाकर हमारे घर रहो.’ राक्षसी राजा से अपनी भुक्खड़ प्रवृत्ति बताती है. राजा कहता है कि इसकी चिंता मत करो. जो मेरे राज्य में छोटे बड़े चोर, पापी और अधर्मी वध के लायक होंगे, हम उसे तुम्हें सौंप देंगे. तुम आनंद से उन्हें खाना. राक्षसी एक सुन्दरी का वेश धारण कर छह रोज़ राजा के घर रहती है. उतने दिनों में राजा ने तीन हज़ार मनुष्यों को राक्षसी को खाने के लिए दिया. वह इन्हें खाकर हिमाचल पर्वत के शिखर पर विश्राम करने के लिए चली जाती है. छठें वर्ष वह फिर राजा के पास आती है. राजा इकट्ठे किये गए मनुष्यों को उसे सौंपता है. इस तरह राक्षसी का किरात-भील राज्य से मित्रता हो जाती है. भोजनोपरांत आराम करने के लिए वह पर्वत पर चली जाती है और जब भूख लगती है तब राजा के पास आ जाती है –

          “अबहूं वहां को राजा वैसे ही मारबे लायकन को पकर वा देवी के स्थान पै बलिदान करत है. वह देवी उस जगह                    कंदरादेवी मंगलादेवी नाम सों विख्यात हो रही है. वा राजा ने एक सुंदर मंदिर बनवाय वाही पर्वत की तरहटी में प्रतिष्ठा   कर देत भयो. वहां के सब प्राणी वाकी पूजा मानता करत भये.”

           इस आख्यान के अंत में वशिष्ठ मुनि भगवान् राम से कहते हैं –

           “अहो राम ऐसी वह सूची सब लोकन को मंगल की देवन वारी अनेक पापी जनन को भोजन करन वारी भिलवाड़े के सब लोकन को आनंद देत वह राक्षसी परम देवता रूप सों विराजमान हो रही है…अहो राम यह सूची को उपाख्यान हमने सम्पूर्ण तुमको सुनायो है याको जो पढ़ेगो वाको बिशूचिका की पीड़ा कबहूं न होयगी.”

                         

                                             (2)

नवजागरण काल में ही ज्वर स्तोत्र  नामक एक बारह पृष्ठ की पुस्तिका मिलती है जिसमें यह दावा किया गया है कि “रोगी के सामने पाठ करने ही से कैसा हू ज्वर हो छुट जाता है.” इसके कवर पृष्ठ पर लेखक और प्रकाशक की सूचना है : “जिसे पं. जगन्नाथ शर्म्मा राज वैद्य के लघु भ्राता ने अत्यंत शुद्ध कर धार्म्मिक यन्त्रालय प्रयाग में मुद्रित कराया.’’ पुस्तिका देखने से पता चलता है कि प्रथम संस्करण में इसकी पांच सौ प्रतियां छापी गयी थीं. इसमें सन् का उल्लेख नहीं है.

                   आयुर्वेदोक्त औषधालय प्रयाग के मैनेजर बैद्यनाथ शर्म्मा वैद्य ने ‘ज्वर’ शीर्षक से इसकी भूमिका लिखी है. वह लिखते हैं- “सब रोगों का राजा, प्राय: रोगों का साथी, शरीर को शीघ्र नष्ट भ्रष्ट करने वाला अनेक नामों से पूजित महा भयंकर रुद्र श्वास द्वारा निर्गत ऐसे ज्वर का नाम सुन कौन ऐसा बली है जिसके रोम न खड़े हो जाते हों, शरीर थर थर न कांपने लगती हो. इसी ज्वर से विमुक्ति होने के लिए पूर्व भूत वैद्य वरों ने अनेक प्रकार के क्वाथ, चूर्ण, बटी, अवलेह, तैलादि बनाया है. विज्ञान दर्शियों ने आध्यात्मिक शक्ति द्वारा ज्वराकर्षण का अनेक उपाय रचा है. तांत्रिक लोगों ने यंत्र, मंत्र, तंत्र, स्तोत्रादि अनेकश: उत्कट उत्कट यंत्र प्रकाश किये हैं और यथार्थ काम में लाने से इन सबों का प्रत्यक्ष फल देखने में भी आते हैं गो कि आज कल नवशिक्षित गण सिर्फ़ अँगरेज़ी के जानने वाले भारतीय महान् पुरुषों के रचे तंत्र मंत्रादि को तो मिथ्या और जाल समझते हैं किन्तु उसी के छाह में उछाह प्रगट करा कर्नेल आलकट के आधुनिक जालों में निस्संदेह कितने फंस चुटिया कटा बैठे हैं. सच कहा है दूर की ढोल सुहावन सबी को भली लगती है. यह नहीं समझते कि यह हमारे ही घर की विद्या है जिसे हम कई पुस्तों से भूल बैठे हैं. आज उसी को विदेशियों ने अपने अमल में ला तत् द्वारा अनेक चमत्कारी दिखा हमीं को बेवकूफ बना रहे हैं. तंत्र मंत्रादि करने से कोई भूत प्रेतादि आ के काम नहीं करते हैं. मंत्रादिकों में एक ऐसी अपूर्व शक्ति है कि जिसके द्वारा मूर्छित समस्त आभ्यंतरिक स्नायु प्रफुल्लित और हरी भरी हो जाती है जिस्से रोग स्वयं हट जाता है क्योंकि हम लोगों के माफिक हमारे प्राचीन महर्षि गण बेवकूफ नहीं थे जो लिख गए : –

         चलदलतरुसेवा  होममंत्र  स्त्रिनेत्रम  द्विजजन  गुरुपूजा कृष्णनाम्नांसहस्रंA

          मणिधृतपरिदाना न्याशिषस्तापसानां सकलमिद मरिष्ठ स्पष्ठमष्ठज्वराणांAA

पीपल बृक्ष की पूजन, हवन, महामृत्युंजय का जप, विद्वान् ब्राह्मण और गुरुओं का पूजन, विष्णुसहस्रनाम का पाठ, हीरा मोती आदि मणि तथा रत्नों का धारण, रोगानुसार तुलादि अनेक दान और सच्चे तपस्वियों की आशीर्बाद सम्पूर्ण अरिष्ठ और आठों प्रकार के ज्वर को नाश करता है, इसलिए ज्वर ग्रस्त रोगियों के कल्याणार्थ ज्वर स्तोत्र और कुछ मंत्रादि जिसे अनेक बार अजमाया है लिखते हैं.”

 छह पृष्ठों में ‘ज्वर स्तोत्र’ शीर्षक से संस्कृत में 48 मंत्र हैं जिसकी पाठ विधि इस प्रकार बतलाई गयी है – “रोगी के समीप चौका लगाय विष्णु भगवान का षोडशोपचार पूजन कर प्रसन्न मन से नव या ग्यारह बार पाठ करैं.” एक अन्य मंत्र के बारे में बताया गया है कि “पृथिवी में मृत्तिका बिछाय बानर की आकृति मूर्ति बनाय चन्दन अक्षत पुष्प धूप दीपादि षोडशोपचार पूजन कर निम्नलिखित 1000 मंत्र ज्वरार्त्त रोगी के सामने जप करै पश्चात् बिसर्जन करै वह मृत्तिका पुष्पादि किसी कूप या तालाब या नदी में फेंक दे इसी प्रकार नव या ग्यारह दिन करने से कैसाहू प्रचंड ज्वर क्यों न हो उतर जाता है रोगी को अच्छे मकान में पथ्य सहित रखना चाहिए.” मंत्र इस प्रकार है –

           ॐ ह्रां ह्रीं श्रीं सुग्रीवाय महाबलपराक्रमाय सूर्य्यपुत्राय अमिततेजसे एकाहिका द्वयाहिक त्र्याहिक चातुर्थिक महाबल भूतज्वर भयज्वर शोकज्वर क्रोधज्वर बेतालज्वराणां दहदह पचपच अवतरअवतर कलितरव महाबीर बानर ज्वराणां बंधबंध ह्रां ह्रीं ह्रूं फट् स्वाहाAA इत्यनेन ज्वरागमनसमये ज्वरस्रास्यतेAA

    उपर्युक्त पुस्तिकाओं को पढ़ने से पता चलता है कि औपनिवेशिक उत्तर प्रदेश में प्लेग, हैजा, ज्वर, चेचक, फ़्लू आदि महामारियों को राक्षस, असुर, दैत्य, चुड़ैल आदि मान लेने की परम्परा रही है. राक्षस वगैरह  होने के कारण औपनिवेशिक जनता ने यह भी मान लिया कि तंत्र-यंत्र, मंत्रोच्चारण, पूजा-पाठ आदि ही इनका इलाज़ है. इसीलिए तथाकथित नवजागरण काल को तत्कालीन लेखिकाओं (यशोदा देवी, रामेश्वरी नेहरू आदि) ने ‘अज्ञानान्धकार युग’ कहा है. अब आप मत कहियेगा कि यह आज़ाद भारत है और हम लोग इन सब बातों से काफी आगे बढ़ चुके हैं व अन्धकार से निकल चुके हैं. मुझे लगता है कि हम सब अभी भी वहीं ठहरे हुए हैं.

            हिंदी की आरंभिक कहानियों में प्लेग की चुड़ैल  नामक एक कहानी मिलती है. कहानीकार की निग़ाह में प्लेग महामारी न होकर एक चुड़ैल है. अक्टूबर 1925 के हिन्दी मनोरंजन में प्रतापनारायण श्रीवास्तव की छपी कहानी प्रतिशोध में दीना डोम का चेचक-पीड़ित लड़का इसलिए मर जाता है क्योंकि मंदिर का पंडित ‘देवी जी का नीर’ देने से मना कर देता है. प्रेमचंद की कहानी मंदिर (चाँद, मई 1927) में भी ‘देवी मनौती’ है. रामेश्वरप्रसाद श्रीवास्तव की कहानी अछूत (विशाल भारत, सितम्बर 1930) हैजे की भयावहता को दिखाता है. माधुरी (1932) में प्रकाशित पंडित तारादत्त उप्रेती की अछूत शीर्षक कहानी में सुखिया के ज्वर पीड़ित लड़के को पंडित भगतराम अपने मंत्र द्वारा ठीक करना चाहता है लेकिन वह असफ़ल होता है.

              जब मैं स्नातक का विद्यार्थी था तो ऐसा लगता था कि जनता ज्यों-ज्यों शिक्षित होती जायेगी   त्यों-त्यों अन्धविश्वास, छुआछूत, ढोंग-ढकोसले आदि खत्म होते जायेंगे. लेकिन हिन्दुस्तान में छपे इस खबर को पढ़कर आज बहुत उदास हूँ. अखबार ने मुखपृष्ठ पर कोरोना को ‘असुर’ का दर्ज़ा देते हुए जाने-माने लेखक अमीश त्रिपाठी के हवाले से लिखा है : “शक्ति की अधिष्ठात्री देवी माँ हमारी रक्षा के लिए युद्ध लड़ती हैं … जब-जब भक्तों पर संकट आता है, माँ दुर्गा हमें उबारती हैं. मौजूदा परिदृश्य में देखें तो कोरोना वायरस महिषासुर के रूप में खड़ा है.”

 
      

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