युवा उड़िया लेखक प्रबुद्ध जगदेब की कहानी हिंदी में पढ़िए। यह कहानी धौली बुक्स द्वारा उड़िया में प्रकाशित कहानी संग्रह से ली गई है-
समय-असमय
सुबह नौ से ग्यारह का वक्त रहा होगा। दिल्ली मेट्रो सेन्द्रल सेक्रेटिरिएट स्टेशन जहां पीली-लाईन बैंगनी-लाईन को छूती हैं। बसें भीड से खचाखच भरी हुई हैं। मेट्रो में ‘एसी’ होते हुए भी सब पसीने से लथपथ थे, मानो आलू की बोरी की भांति खचाखच भरे हुए यात्री दरवाजा खुलते ही धकिया के प्लेटफार्म पर फेंक दिए गए हों। अधिकतर यात्री सरकारी कर्मचारी होते हैं, जो साथ में टिफिन बाक्स, बैग या फाईल हाथ में लिए हुए चला करते हैं। हफ्ते में पांच दिन प्लेटफ़ोर्म पर गिरे हुए बोरी में से निकलकर एक लंबी सांस लेते हुए पैर, हाथ, कमर, सीधी करता हूं। तत्पश्चात सीढियों से नीचे उतरते हुए निकास के मार्ग से शास्त्री भवन की ओर चल देता हूं। सीढियों से होते हुए एसी प्लेटफार्म को अलविदा करते हुए बाहर निकलने पर दिल्ली की उमस भरी मौसम और चिलचिलाती धूप चेहरे झुलसाने लगती है।
लाल बलुई पत्थर के चारदिवारी के साथ साथ चलते हुए पहले मोड़ पर कार्यालय का विशाल दरवाजा था। दस से छः कोल्हू के बैल की तरह सरकारी नौकरी। कभी -कभी समय मिलने पर मोड़ के पास मेरे पैर रूक जाया करते हैं। पीपल पेड के पास सरकारी महकमों में दफ्तरियों के लिए इन दुकानों से कुछ-न-कुछ मिल ही जाता है। गुप्ता जी का ठेला, जहां समोसे ब्रेड पकौडे सैंडविच के साथ नींबू चाय या ग्रीन टी भी उपलब्ध है। पास ही यादव जी के छोले कुलचे का पीतल का चमचमाता हुआ हंडी का स्टेंड। ग्यारह से दो बजे तक कोई ना कोई सरकारी कर्मचारी यहां चाय और सिगरेट के कस लगाते हुए निर्रथक बकवास में लगा रहता है। थोडी ही दूरी पर दिवार से सटे हुए एक लकडी की पेटी कुछ पुराने जूतों के साथ काम में लगा हुआ बशीर मियाँ। वे इस स्थान पर कब से दुकानदारी कर रहा है, पता नहीं। इस कार्यालय के सबसे पुराने स्टाफ में से तिवारी जी जो छ महिने बाद ही एक प्रमोशन के बाद सेवानिवृत होने वाले है। उन्हें भी ज्ञात नहीं है। फिर भी शास्त्री भवन का एक एक व्यक्ति उससे वाकिफ है। बशीर के पास काम की कमी नहीं रहा करती है। नयी नौकरी के प्रोबेशनर्स अपने जूतों को चमकाने के शौक रखने वालों से लेकर अपने सैंडिल में सस्ता सोल डलवाने बाले एल डी सी भी भीड़ लगाए रहते हैं । बशीर साठ पार होगा जबकि अंदाज से अपना उम्र 70 बताते हैं। उसके पेटी के साथ नीले रंग के पन्नी पर रंगबिरंगे डब्बों की लड़ी और घिसे हुए ब्रश और औजार सजा हुआ साफ चेक की लूँगी और उजले कुर्ते में मेरे आने से पहले ही बैठा हुआ मिल जाता है। धीरे धीरे उजला कुर्ता झोलेमें डाल सैंडों गंजी में ही काम शुरू कर देता है । ठंड के मौसम मे एक बैंगनी रंग का उघडा हुआ स्वेटर और लाल रंग की मफलर पता नहीं किस जमाने का है जो सालों से हर कोई देखता है पिछले पांच छह वर्षो से कभी कभार उसे नहीं देखता हूं। एक तारपोलीन की छज्जी बनाकर उसके नीचे बैठकर काम करता ही रहता है। उसके हाथों में जैसे तजुर्बे का जादू, खूब ध्यान देकर जूतों की मरम्मत किया करता है। यदि काम में कोई खोट निकल जाए तो दुबारा मजूरी भी नहीं लेता। किसी को बेमतलब उलझा कर भी नहीं रखता। ज्यादा काम होने पर सीधा जबाव मिलता कि एक घंटे बाद आइये। हमारे कार्यालय के चंद महिला कर्मचारी जो कि करोलबाग, पंजाबबाग एवं सरोजनी मार्केट में सस्ते चप्पलों के मोल भाव करते हुए आए दिन दिख जाती हैं। आखिर महिलाओं की जीत होती है। बशीर उनकी दी हुई मजूरी रख लेता है। मैं उसके नियमित ग्राहक नहीं था, किन्तु सिगार के कश लेने के क्रम में हफते के एकाधबार जूते पालिस करवा लिया करता था। सामने के टूटे हएु दांत के न होते हुए भी मंद मंद मुस्कान के साथ सफेद दाढी और टोपी। एक फकीर से कम ना थे बशीर। ग्राहक आते ही एक मखमली बिछाकर उसके पैरों से जूते निकाल कर कामों में लग जाता था। शायद ये रेशम का मैट कश्मीर से ही लाया करता होगा। पिछले दिसम्बर मे कडाके की ठंढ में एक हफता उसे नहीं देखने पर मैं चिन्तित हो उठा। एक दिन चाय पीते पीते कुलचे वाले से पूछ बैठा और पता चला कि उसके इलाके में सीएए एनआरसी को लेकर बखेडा खड़ा हो गया है। शायद यही कारण रहा होगा कि उसे बस में आने में दिक्कत हो रही होगी। कुछ ही दिनों बाद फिर बूढे का दर्शन हुआ। कभी जूते पाॅलिश करते हुए अपनी आपबीती सुनाते हुए कहा-दिल्ली को बनते हुए देखा। अपने पिता के साथ इंडिया गेट और लाल किला आया करते थे। पन्द्रह अगस्त और 26 जनवरी की झांकी देखने हेतु। उसके पिता किसी सिंधी व्यापारी के कोचवान थे। और वे घोड़ा गाड़ी चलाया करते थे। बशीर से पढाई नहीं हो पाई। अपने पेट पालने के लिए अपने चचा के यहां आगरे चला गया। वहां एक टेनरी में 20 साल काम किया। पिता के गुजर जाने के बाद 80 के दशक के पूर्वार्ध से वह दिल्ली में रहने लगा।
यूं तो वृद्ध शरीर में काम नहीं करना चाहिए। दो बेटा और एक बेटी जिसकी निकाह हो गई है। बड़े बेटे का परिवार ऊपर के माले में रहा करता था और छोटा बेटा और बेटी नीचे रहा करता थे। छोटे बेटों के साथ बूढ़ा एवं बूढी नीचे रहा करते थे ना ही वे अपने बच्चों से कुछ मांगा करते थे और ना ही उनके बच्चे ही उन्हे कुछ देने का कष्ट उठाते थे। पूछने पर मुस्कुरा कर बोलता है, ’’जब तक हाथ चल रहा है, तब तक काम चल रहा है ,फिर अल्लाह मालिक।’’ आधा दिसम्बर गुजरने के बाद एक दिन मैने देखा वह थोड़ा चिन्तित होकर अपने काम में तत्लीन था। कौतूहल से मै भी अपने जूते पोलिश करवाने उसके समीप चला गया। एक प्यारी सी मुसकान के साथ उसने मेरे पैरों से निकाले हुए जूतों को अपने हाथों में ले लिया। मैं पूछ बैठा कि वह क्यों इतने दिनों से नहीं आ रहे थे? थोडा निराश होकर वह बोल पड़ा कि देख रहे हैं न कि क्या क्या बखेडा हो रहा है। हमारे पूरखे दिल्ली में रहते आ रहे हैं। अब आप कहोगे कि प्रमाण के तौर पर कागज मांगेगे तो हम कहां से लाएँगे। इस बात ने अंदर तक बशीर को झकझाोर दिया था। मैंने उसे ढांढस बंधाया- परेशान ना हो सब ठीक हो जाएगा। विश्वविद्यालय के छात्र के आंदोलन की वजह से उसके घर तक कोई सीधी बस सेवा उपलब्ध नहीं थी। कुछ हफ़्तों तक चाय नाश्तेतक बूढ़ों को देखा था। कभी -कभी हमारे तरफ पीठ किए घर से लाया हुआ लंच करता था। घीर-घीरे चाय कप लेकर अपने दुकान की ओर चल देता था। एक- दो बार मैंने भी देखा था कि अपने घर की थोडी ही दूरी पर नमाज अदा करते हुए। नमाज से पहले उस स्थान को साफ करके हाथ मुंह धोकर नमाज अदा करता था। पुनः कुछ ही दिनों बाद फरबरी में बशीर गायब मिला। मुझे मालूम था कि पूर्व दिल्ली से वह आता था जहां भीषण दंगे-फसाद हो रहे थे। अल्पसंख्यक समुदाय एवं खुद हिंसक हिंदुओं के बीच धमासान मचा हुआ है। टीवी पर हर दिन मारपीट , पथराव, आगजनी की खबरें आ रही हैं। पुलिस की शक्ति के बावजूद बस्ती-दर-बस्ती, मुहल्ला-दर-मुहल्ला नफरत के आग में जल रहा था। हर दिन पांच -छ लोगो के मरने की खबरें आ रही थी। विभीषिका स्वतंत्रता आंदोलन से कमतर नहीं थी। अखबार के पन्नों पर हर दिन मृतकों के नाम पढ रहा हूं। उसके साथ बशीर और उसके उम्र के लोगों का नाम ढूंढते हुए ना मिलने पर दिल को थोडी राहत मिलती है। अगर मिलता-जुलता नाम होता तो दिन भर मन पर बोझ जैसा एहसास होता और अपने आप से पूछता वह बशीर तो नहीं। अल्पसंख्यक महिलाएं दिल्ली की सड़कों पर धरना प्रदर्शन करने लगे। उसके साथ कभी समाज सेवी, कभी कलाकार और धर्म निरपेक्षता के हिमायती सबकी सहभागिता मिलने लगीं। हमारे कार्यालय में चाय की दुकान पर सब जगह इसी बात की चर्चा शुरू हो चुकी थी। कर्फ़्यू के चलते बसों का आवागमन रोक दिया गया था। साथ ही मेट्रो का तेज पहिया थम गया था। मेरी बेसब्री ने बशीर मियां के बारे में एल डी सी सक्सेना को पूछने पर मजबूर कर दिया। वे बशीर की कालोनी की तरफ से ही आते थे, ‘‘का हो सक्सेना बशीर का क्या हाल चाल है।’’ कौतूहल से वो भी बताने लगे सर आप ना नहीं मानने बाले हो। उसके कालोनी में आगजनी हुआ है। मैने सुना था उसके बेटे का दुकान लूट लिया गया था। मै थोडा थम गया। बशीर का मुस्कुरात चेहरा सामने आ गया। सर, इन लोगों के साथ एैसे ही होना चाहिए। दिल्ली का तो आधा हिस्सा इनहीं लोगों के कब्जे में है। देश-द्रोही और आतंकी इन्हीं लोगों के बीच में से फलते-फूलते है। मैं तो सोच रहा था कि एन डी एम सी में कोई संघी को कहकर बुढडे को हटवा दें। मैं बस बोलने ही बाला था कि सक्सेना जैसे सोच रखने बाले मैं बस बोलने बाले लेाग मैं भी एनटी नेशनल कहलाउंगा और इस वाक्य युद्व से खुद को दूर रख ने में ही समझदारी दिखी। कुछ दिन पश्चात पूरे देश में कोरोना का आतंक फैल गया। पहले पहल लगा कि यह बिमारी कुछ दिनों का ही मेहमान है पर दिन-ब-दिन कोहराम मचाने लगा। दिल्ली में कुछ केस से और कस्बों से भी इसकी खबरंे मिलने लगी, किन्तु हमारा कार्यालय यूं ही चल रहा था। लेाग बायोमिट्रिक पंच के बावजूद अपने सिस्टम से घंटों दूर रहा करते थे। अब हर एक टेबुल पर सैनिटाइजर रखवाया गया। शौचालय के सामने दस मिनट तक खडा रहना पडता था। अब वाश बेसिन पर भीड लगी रहती है। इस बीच देश के माननीय प्रधानमंत्री ने देश मे जनता कर्फ़्यू का ऐलान कर दिया। तत्पश्चात तीन सप्ताह का लाकडाउन कर दिया गया। घर से काम करने का आदेश हो गया। केवल कुछ अधिकारियों को छोडकर घर से काम का आदेश हो गया था। मैने भी घर से ही काम शुरू कर दिया। ज्यादातर काम फोन ईमेल नही तो जूम में करना पडता था। चारों तरफ मौत का भय। और दिन ब दिन बिमारों की संख्या में इजाफा होने लगा। अंत मे मई में आफिस में खबर मिली कि पचास प्रतिशत कर्मचारी रोस्टर डुयूटी में ही उपस्थित रहेंगे। मैं भी काफी डरा हुआ था। अब आफिस हफते में तीन दिन जाना होगा, लेकिन दिल्ली मेट्रो की सर्विस ठप्प। बहुत कम आवाजाही में भी संक्रमण का डर सताता रहता था। महीनों बाद घर की चहारवादी फांस कर घर से निकलना भी टेढ़ी खीर लग रहा है। हर दिन किसी आफिस को कोरोना मरीज से सील होने का खबर मिल ही जाया करती थी। सुनने में आया दिल्ली सरकार की कडी पहल के बावजूद अस्पताल में बेड की कमी होने लगी है। पर्याप्त टेस्ट ना हो पाने से अस्पताल से शवगृह से शव उठाने के लिए कोई तैयार नहीं होता । अंतिम सप्ताह मे लाकडाउन खुला। मैंने भी घीरे-घीरे बस से आना शुरू किया। दुकानें खुलने लगी। लेकिन ग्राहक नदारत थे। जून के दूसरे हफते में मैं जब बस स्टाप से उतरकर मेन गेट की तरफ चल दिया। एक जानी पहचानी सूरत आंखों के सामने आई। वह बशीर था। वह पूर्ववत अपने स्थान पर ही बैठा हुआ था। मुंह पर एक टिसू का मास्क लगा था। पहले से शरीर निढाल दिख रहा था। मैंने पहले देखा या उसने मुझे देखा। यह मुझे याद नहीं।सामने से गुजरते हुए मैंने देखा कि उसके पास पहले जैसा काम नहीं था। लेकिन मुझे देखकर धीरे से साहिब कहकर बुलाया। लेकिन उसको नजरअंदाज करके भी मेरे कदम आगे बढ गए। मेरे कानों में सक्सेना की आवाज बार बार गूंज रही थी, ‘‘यह सब देश द्रोही है। आतंकवादी भी इन्ही में से आते हैं। मन पर एक पत्थर-सा भार आ गया। मै इसे कैसे उसे अनदेखा कर सकता हूं और उसकी कोमल भाव से साहिब बुलाना मैने कैसे उसे नजरअंदाज किया। यह सब मुझे दिन भर कचोटता रहा। मैंने भी ठान लिया था। कुछ भी हो मैं उससे जूता पालिस नहीं करवाउंगा। दिल्ली मे मोचियों की अकाल थोडी ही है। मैंने मन ही मन तय किया कि अब से कार्यालय के पिछले दरवाजे ही अंदर आया करूंगा ताकि उससे भेंट ही ना हो, लेकिन दूसरे दिन आदतन साढे नौ बजे मुख्य दरवाजे से अंदर दाखिल हुआ। बशीर तक पहंचकर उसे अनदेखा करके आगे बढने का मैने निश्चय किया, लेकिन अंदर से एक आवाज ने मुझे उस जगह से रोक दिया था। उसकी साहब बोलने से पहले। पेड़ की छाया के नीचे। खडे होकर मैंने अपने जूते उतार कर दिए। पाॅलिस करने के लिए। ‘‘चलो पाॅलिस कर दो। मास्क के अंदर से बशीर की मुस्कुराहट नहीं दिखी। लेनिक आंखों मे पहले जैसे चमक के साथ मेरे लिए मैट बिछा दिया और बोला पांच मिनट, साहब। पहले जैसे ही मन लगाकर ही उसने पाॅलिस शुरू कर दिया। रंग से फिर वाश लगाकर अच्छे से पालिस मारकर मेरे सामने जूते रख दिए। मैने अनायास ही पूछ लिया वसीर जूता पाॅलिस के बाद हाथ घोते हो की नही। वसीर ने अपनी जेब से सैनिटाइजर की बोतल से दो बूंद निकालकर अपने हथेलियों पर अच्छे से मल दिया। मैंने पूछा, कितना दूं। इसके जबाव में उसने कहा अब दाम बढ गया है। बीस रुपए ,लेकिन आप पूराने आदमी है, पन्द्रह ही दीजिए। जब तक मैं अपना जेब टटोटने लगा। उसने अपना फोन निकालकर दिखाया। साहब अभी ‘‘पे टी एम’’ है ना। मैंने क्यू आर कोड स्कैन करके पैसे भर दिए। फिर मिलेंगें बोलते हुए मैं आगे बढ चला। चहुं ओर जून महीने की चिलचिलाती धूप, लेकिन आगे बढना ही होगा।