ममता कालिया की किताब ‘रवि कथा’ पर यह विस्तृत टिप्पणी लिखी है चिकित्सक लेखिका निधि अग्रवाल ने। आप भी पढ़ सकते हैं-
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‘पापा का आज जन्मदिन है
और दिल करता है उन्हें एक सुंदर
प्रेमिका उपहार दूँ’
मात्र 18 बरस की उम्र में यह पंक्तियाँ लिखने वाला यह लड़का आजीवन पत्नी के लिए समर्पित रहा और अपनी प्रेमिका से मिलने के पश्चात एक हफ्ते में ही उससे शादी का निवेदन भी कर दिया।
प्रेम में निहित इस प्रतिबद्धता से अभिभूत प्रेमिका लिखती है –
‘यह सोचकर अच्छा लगा कि रवि के लिए प्रेम में विवाह का फ्रेम अनिवार्य था। वे चालू फ़ार्मूले के अंतर्गत निष्कर्षहीन निकटता के पक्ष में क़तई नहीं थे।’
विवाह के उपरांत जीवन के उतराव- चढ़ाव में यह रिश्ता और प्रगाढ़ हुआ तभी तो वे उन्हें स्मरण करते, लाड़ से लिखती हैं-
‘ऐसे थे ‘मेरे’ रवि। मुझ कवि के अन्दर न जाने कितनी कहानियाँ रच दीं।’
इन्हीं खूबसूरत कहानियों का गुलदस्ता है रवि कथा!
कुछ समय पहले पाखी पत्रिका में छपे ममता मैम के एक संस्मरण को पढ़कर हँसी नहीं रुकी थी। उनके और रवींद्र कालिया सर के मध्य घटे उस प्रसंग का रीमेक मैं और विक्रम बना चुके थे। जब रवि कथा का आवरण देखा तभी से पढ़ने की इच्छा थी। बुक कुछ देरी से हाथ में आई पर हाथ में आते ही रातभर में पढ़ डाली।
किताब का नाम रवि कथा ज़रूर है लेकिन मुझे यह हर उस महिला की कहानी लगी जिसके हिस्से एक खुशमिज़ाज और सरल हृदय वाला मिलनसार, सज्जन पुरुष आया है। जितना प्रेम वह बाहर देता है, कहीं न कहीं वह कटता स्त्री के हिस्से में से ही है। आमुख में वे लिखती हैं-
‘यादों में बसे इस रवि से मेरा प्रेम उस जीते-जागते रवि की तुलना में कहीं ज़्यादा है। यह रवि पूरी तरह मेरा है।’
फ़ैज की पंक्ति ‘हर क़दम हमने आशिक़ी की है!’, आवरण पर दर्ज़ है। इस आशिक़ी को यथार्थ के करीब लाते वे लिखती हैं कि पूरे नम्बर तो बस गणित में आते हैं। जीवन तो सब थोड़ा गड़बड़, हड़बड़ जीते हैं।
सच ही तो है। जीवन प्रेम-कहानियों सा रूमानी नहीं होता। यहाँ एक- दूसरे के साथ की अगाध चाह ही तमाम असहमतियों के पश्चात भी दूरी नहीं आने देती।
मैं इससे पहले मन्नू भंडारी जी का संस्मरण ‘एक कहानी यह भी’, नन्दन जी का संस्मरण ‘कहना ज़रूरी था’ और स्वदेश दीपक जी का ‘मैंने मांडू नहीं देखा’ पढ़ चुकी हूँ। अलग-अलग समय पर अलग-अलग लेखकों द्वारा अलग दृष्टिकोण से लिखे गए इन संस्मरणो में आए साहित्यिक वर्ग के विभिन्न किरदारों के चरित्र चित्रण में मिलता अद्भुत सामंजस्य इनमें निहित सत्य की पुष्टि करता है।
यहाँ एक बात उल्लेखित करना आवश्यक समझती हूँ। रवींद्र जी हों या धर्मवीर भारती जी या सामाजिक रूप से सक्रिय और ‘दोस्तियाँ दिल से निभाने वाला’ कोई भी अन्य व्यक्ति, उसकी यह स्वतंत्रता, पारिवारिक ज़िम्मेदारियों से विमुखता, तभी संभव हो पाती है जब दूसरा साथी यह ज़िम्मेदारी मौन, अपने ऊपर वहन कर लेता है। हालाँकि रवि सर को ममता मैम ने कहीं भी परिवार से विमुख आत्मकेंद्रित नहीं कहा है। वह परिवारजनों के प्रति स्नेहिल थे।
इस अगाध स्नेह के कारण ही ममता जी सवाल किए गए कि ममता जी आपकी नायिका सम्पूर्ण विद्रोह कभी नहीं करती। वह बहुत जल्द सहमत हो जाती है।
वह उत्तर देते प्रश्न करती हैं कि मैं उन्हें कैसे बताऊँ कि असल जीवन में मेरा जो नायक था, वह मुझे प्रतिरोध और प्रतिकार की पराकाष्ठा पर पहुँचने से पूर्व ही प्रेम का ऐसा बाण चलाता कि मैं वापस उसकी प्रियतमा बन जाती।
(यही भावुक निर्भरता मेरी कहानियों के स्त्री पात्रों में भी सहज चली आती है तो मुझे दोष नहीं)
स्त्री-पुरुष के मध्य निहित इस स्नेह पर बल देते हुए वे आगे लिखती हैं-
‘स्त्री सशक्तिकरण के समस्त सैलाब में समर्पण के ये छोटे-छोटे सेतु कितने सगे, सच्चे और सार्थक होते हैं; घनत्व के घोंसले।’
पूरी पुस्तक में केवल एक जगह मैं सहमत न हो सकी। मैम ने लिखा है-
‘साहित्य की दुनिया का यह बड़प्पन यह दरियादिली आज भी अभिभूत करती है कि नए से नए लिखने वाले का भी यहाँ गर्मजोशी से स्वागत किया जाता है। यह खासियत दुनिया के हर कोने के साहित्यकार में होती होगी पर अपने हिंदी जगत में अद्भुत औदार्य है।’
मेरा अनुभव इसके विपरीत रहा है।पाठकों से मुझे सदा असीम स्नेह मिला किंतु साहित्यिक समाज सदा मेरे प्रति उदासीन रहा है और इस प्रकार के प्रोत्साहन के लोभ में ही मैत्रयी देवी जी का ‘न हन्यते’ और अमृता प्रीतम जी का ‘एक रसीदी टिकट’ पढ़ते हुए गुरुदेव से न मिल पाने का, इस धरती पर देरी से आने का अफसोस शिद्दत से हुआ था। वही अफसोस अब रवींद्र सर से न मिल पाने के कारण भी हो रहा है।
इस मनभावन मासूम प्रेम कहानी में हिन्दी साहित्य की सास, यमराज, शरलक होम्स, देवानन्द, हेमामालिनी आदि की सहायक भूमिका भी कम रोचक नहीं।
साहित्य में निर्मल वर्मा जी और कृष्णा सोबती जी के लेखन के विषय में विचार हों या अकहानी में अनुपस्थित नाम और ग्राम या परिवार में जयपुरी रज़ाई और घड़ी की टिकटिक से नींद में उपजा व्यवधान या गाज़ियाबाद का मालीवाड़ा चौक, सब मुझे बेहद अपना लगता है।
किताब इस खूबसूरती से लिखी गई है कि कितनी ही पंक्तियां रेखांकित हो गई हैं। झलक देखिए-
– मेरे दुख में उसकी हिस्सेदारी कैसे होती जब उसके सुख में मेरी हिस्सेदारी नहीं थी।
-यह कितना अजीब है कि हम जो अपने को यथार्थवादी रचनाकार मानते आए हैं असल जीवन में यथार्थ की ज़रा करारी मार पड़ने पर तिलमिला जाते हैं।
-लोग सब भले होते हैं, हालात उन्हें मजबूर करते हैं।
-एक अच्छी किताब हमें खींचकर गड्ढे में से बाहर निकाल देती है। ज़िंदगी की मुश्किलें कम नहीं होती लेकिन अपनी तैयारी बेहतर होती जाती है।
कुछ प्रसंगों का किताब में दोहराव है। यह कोई कहानी या उपन्यास होता तो इसे संपादन की बड़ी कमी मानी जाती किंतु यह तो ऐसे है जैसे कोई परिवार की स्नेहमयी नानी- दादी अपने जीवन का निचोड़ सुना रही हो। यहाँ आँखें भीगती भी हैं, होंठ मुस्कराते भी हैं और जिन लम्हों की कसक मन में गहरी दबी है, लब उन्हें बारहा दोहराते भी हैं।
और अंत में शिवमूर्ति सर से सहमत होते हुए ममता मैम के शब्दों में –
जब जब हिंदी कहानी की चर्चा छिड़ेगी, रवींद्र कालिया उसमें नज़र आएँगे, कभी मौन कभी मुखर, कभी सहमत कभी असहमत। हर स्मृति उन्हें नया जीवन देगी।
मैम, निश्चित ही आपके रवि अस्त होने के बजाय प्रशस्त होते जाएँगे!
सस्नेह
निधि अग्रवाल
(पुस्तक वाणी प्रकाशन से प्रकाशित है)
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