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नम ज़मीन पर धँसते हुए यादों का दरिया पार करना

अनिरुद्ध उमट की पुस्तक वैदानुराग पर चंद्रकुमार का यह लेख पढ़ें। चंद्र कुमार ने कॉर्नेल विश्वविद्यालय, न्यूयार्क से पढ़ाई की। वे आजकल एक निजी साफ्टवेयर कंपनी में निदेशक है लेकिन उनका पहला प्यार सम-सामयिक विषयों पर पठन-लेखन है। स्थानीय समाचार पत्रों में युवाओं के मार्गदर्शन के लिए लंबे समय तक एक नियमित स्तंभ लेखन के साथ ही खेल, राजनीति, शिक्षा, कलाओं और समाज पर उनके आलेख राष्ट्रीय समाचार पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए है। मधुमती (राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर) में उनकी हवेलियों पर लिखी कविताएँ प्रकाशित हुई है। मधुमती और हाल ही में नवनीत पत्रिका में आर्टिफिशियल इंटेलिजेन्स और मानवीय संवेदना पर उनके आलेख प्रकाशित हुए है जिन्होंने लोगों का ध्यान आकृष्ट किया है-

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कवि नरेश सक्सेना का एक कवितांश देखें:

पुल पार करने से
पुल पार होता है
नदी पार नहीं होती

नदी पार नहीं होती नदी में धँसे बिना

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ज़ाहिर-सी बात है, कि जब हम पुल पर से गुजर रहे होते हैं तो हम पुल पार करते हैं, नदी नहीं। नदी को पार करने के लिए हमें नदी में उतरना, धँसना और भीगते हुए पार करना होगा। पुल से आप नदी के इस किनारे से उस किनारे तक पहुँच सकते हैं — जो आपका उद्देश्य रहा हो, लेकिन इसे नदी पार करना कहना ज़्यादती होगा। ठीक इसी तरह, जब किसी संस्मरण या किन्ही व्यक्तियों के आपसी पत्र-संवाद का अगर हम फ़ौरी तौर से कोई पाठ पढ़ते हैं तो यह ‘इस किनारे से उस किनारे’ तक जाने जैसा होगा। अमूमन यही होता है और हमारा मन्तव्य भी शायद यही हो कि उनके परस्पर संवाद और सम्बन्ध से हम वाक़िफ़ हो जाएँ लेकिन, अनिरुद्ध उमट की पुस्तक ‘वैदानुराग’ — बल्कि इसे दो पीढ़ियों के सर्जकों के परस्पर सुघड़, कोमल रिश्ते और ‘सर्जनात्मक-आलोचनात्मक संवाद’ का दस्तावेज कहना ज़्यादा सही होगा, से गुजरते हुए आप ‘किनारे से किनारे’ की यात्रा नहीं करते, बल्कि उनके अत्यन्त स्नेहमयी संबन्धो की नम ज़मीन पर लगभग धँसते हुए पत्र-दर-पत्र, शब्द-दर-शब्द गुजरते हैं। इसमें चम्पा जी का और खुद अनिरुद्ध उमट का वैद जी को लिखा पत्र भी शामिल है, लेकिन वैद जी के पत्रों के मज़मून से अनिरुद्ध जी के लिखे बाक़ी पत्रों का आभास आसानी से हो जाता है।

वैद जी के पत्रों में उनके हल्के इशारों से यह स्पष्ट हो जाता है कि वे अपने से युवतर लेखक को कनिष्ठ की बजाय सहधर्मी सर्जक मानते हैं। तभी वे, बिना कोई हिचक और दबाव के, अपनी बात का इशारा भर करते हैं। वे नहीं चाहते कि उनकी बात या सलाह मानी ही जाये। वैद जी जहाँ अनिरुद्ध उमट के पहले उपन्यास में अत्यधिक भाषाई अमूर्तन पर टिप्पणी करते हुए उन्हे इससे बचने की सलाह देते लग रहे हैं वहीं बाद के लिखने में उसी भाषाई अमूर्तन पर प्रसन्नचित्त मन से तारीफ़ करते हैं — यह वैद जी जैसा व्यक्तित्व ही कर सकता है, अन्यथा लोग अपने चाहे-अनचाहे पूर्वग्रहों से इतर कुछ भी बर्दाश्त नहीं करते और शायद साहित्य सहित कला-जगत में तो ‘धारणा / परसेप्शन’ अन्य सभी अवयवों पर हमेशा भारी पड़ती दिखी है। हालाँकि अनिरुद्ध उमट की शैली बन चुका यह भाषाई अमूर्तन बहुत बार खीज जैसा भाव भी पाठकों को महसूस करवाता होगा लेकिन यही उनका लेखकीय-स्वरूप है। वैद जी ने अपने पत्रों में अनेक उदाहरणों से उनके अमूर्तन प्रेम की ओर सहजता से इंगित भी किया लेकिन उन्होंने अपनी राय थोपी नहीं — यह भी एक वरिष्ठ लेखक को ‘बड़ा’ बनाती है। अपने लेखन में वे खुद भी पाठकों को अंधेरी कोठरियों में ले जाते रहे हैं और तब अपने सुपरिचित प्रतीकों व बिम्बों से वहाँ से बाहर निकलने की राह भी सुझाते, और लगभग हाथ पकड़ कर साथ चलने जैसा महसूस करवाते हैं।

किसी के होने, साथ होने और तदुपरान्त नहीं होने के पेन्डुलम पर सवार यह पत्राचार संकलन और संस्मरण वैद जी के विराट व्यक्तित्व की उन सूक्ष्म परतों, अनछुए और अनजाने पहलुओं को परत-दर-परत पाठक के सम्मुख खोलता है जो केवल उनके करीबी लोगों तक ही पहुँचा हो। अमूमन संस्मरण संजोने वाला कड़वाहट भरे, खारे बीज रूपी पत्रों को अव्वल तो शामिल नहीं करता या आपसी संबन्धों की प्रगाढता या खुलेपन को दिखाने के उद्देश्य से शामिल करता है। लेकिन अनिरुद्ध उमट ने यहाँ पूरी ईमानदारी से संवाद के वाहक पत्रों को सामने रखा है। दरअसल अनिरुद्ध जी यहाँ जो कहना या पेश करना चाहते हैं, उसे भूमिका में ही अशोक वाजपेयी ने संक्षिप्त में, बहुत ही असरदार तरीक़े से रख कर हमारे लिए वह दुर्गम रास्ता प्रदीप्त कर दिया है जिसमें एक वरिष्ठ सर्जक अपने से युवतर सृजनकर्मी से निरन्तर संवाद कर उसे न केवल प्रोत्साहित कर रहा है बल्कि धीरे-धीरे निखरने का हुनर सिखा रहा है।

महीन सुराख़ों से आती रौशनी से अंधेरा कमरा प्रदीप्त तो हो जाता है लेकिन उसमें किसी उपस्थित देह/ देहों की छाया नहीं उभरती। वैद साहब ने अनिरुद्ध उमट के प्रारंभिक लेखकीय जीवन में उन्हीं महीन सुराख़ों से आते प्रकाश का दायित्व निभाया है। उन्होने अनिरुद्ध उमट के पहले उपन्यास के छपने में आयी परेशानियों – मन:स्थितियों से बराबर राब्ता रखा, उन्हें बार-बार आगाह किया, इनसे  निबट सकने का संबल भी दिया; लेकिन अपने रसूख़ के चलते यह प्रलोभन / आश्वासन नहीं दिया कि ‘पांडुलिपी भेज दें, किसी को कह कर प्रकाशित करवा देता हूँ!’ इसी तरह अनिरुद्ध उमट के पहले कविता-संग्रह की पांडुलिपी को राजस्थान साहित्य अकादमी द्वारा ग्राण्ट के लिए अस्वीकार कर दिये जाने से उपजे रोष को लगभग बर्फ़ से लगा देता हुआ उनका पत्र और उसकी समझाइश सिर्फ़ अनिरुद्ध उमट को हौसला नहीं देते, वह एक पूरी पीढ़ी को संबल देने जैसा है। दरअसल हर नये लेखक को ऐसा ही संबल चाहिए तभी वह उस परम्परा का वाहक बन सकेगा जिसे साहित्य-संस्कार कहा जाता है — जहाँ वह युवा सहधर्मियों के साथ वैसा ही व्यवहार करे जैसा उसे मिला है और जो नयी पीढ़ी के लेखकों के साथ, अशोक वाजपेयी के शब्दों में — ‘सर्जनात्मक-आलोचनात्मक संवाद रत’ रहे। नयी पीढ़ी में साहित्यिक-संस्कार के लिए उनकी छटपटाहट इन पत्रों में कहीं-कहीं साफ झलकती है और वे एक से अधिक बार अनिरुद्ध उमट को पीयूष दईया के (तब के) नव-प्रयास ‘पुरोवाक्’ से रचनात्मक रूप से जुड़ने और उनकी हर-संभव मदद करने की आग्रह सरीखी सलाह देते हैं।

वैद जी को समझना हो तो उनके पत्रों की कुछ पंक्तियाँ देखे: जैसे, “अब आप हिल स्टेशन जाएँ या अपने कमरे में बैठ कर काम करें, आप पर। मेरा अनुभव है कि असली एकान्त घर में ही मिलता है, बाहर नहीं। बाहर एकान्त के लिए नहीं अनुभव के लिए, सैर के लिए जाना चाहिए।”, “हिन्दी साहित्य के हीन पक्ष सम्मान, पुरस्कार, धूमधाम से विमुख हो/ रह कर ही काम किया जा सकता, किया जाना चाहिए। ईमानदारीको मैं एक अनिवार्य लेखकीय धर्म मानता हूँ और वह तभी संभव है जब इधर-उधर के प्रलोभनों को इधर-उधर करते रहने की कोशिश निरन्तर जारी रहे।”, इसी तरह “इस असफलता से तुम्हारी कविताओं की सार्थकता कम होती है न तुम्हारी, ऐसी निराशाएँ हर नये और मौलिक लेखक की नियति का एक अनिवार्य अंग होती है, मुझे विश्वास है कि तुम्हारा कविता-संग्रह अपना घर देर सवेर पा लेगा।”, और “कहने का मतलब यह कि तुम ने अपने काम से मुझे प्रभावित ही नहीं किया, बल्कि मोह भी लिया, और यह आश्वासन भी दिया कि युवा पीढ़ी में कुछ लोग ऐसे हैं जो मेरे टेढ़े-मेढ़े रास्ते पर चलने का साहस कर सकते है, जो हिन्दी उपन्यास की सुषुप्त सम्भावनाओं को साकार करने का जोखिम उठा सकते हैं।” अपने समय का विरल रचनाकार कितनी सहजता से संस्कार अगली पीढ़ी को हस्तांतरित कर रहा है, यह वैद जी का ही प्रताप हो सकता है। लेकिन उनकी असहमति का सुर भी उनकी प्रीत जैसा गहरा है, इसे देख कर सहसा विश्वास ही नहीं होता – “वैद फैलोशिप को ले कर तुम्हारा असन्तोष इस पत्र में प्रतिबिंबित है, लेकिन उसमें निहित आरोप और आलोचना मुझे मन्जूर नहीं। निर्णय विशेष के बारे में मतभेद अनिवार्य है लेकिन जो स्वर तुमने अपने इस पत्र में अपनाया है वह मुझे अहंकार प्रेरित नज़र आता है। हर बार सहीहोने का दावा नहीं, लेकिन अभी तक का कोई भी निर्णय किसी दबावमें या किसीशोर-वाचालताके तहत नहीं लिया गया। संक्षेप में यही कि मैं तुम से और तुम्हारी राय से असहमत हूँ। और किसी हद तक आहत भी।” हालाँकि अनिरुद्ध इसके बाद एक पत्र में उन्हें यह बता पाते हैं कि उनकी भाषा के आवेशित सुर या आचरण के हल्केपन से हुई तकलीफ़ हेतु दुख के बावजूद वे अपनी असहमति पर क़ायम है कि फैलोशिप चयन में कुछ कोताहियाँ बरती गयी है। इस तरह यह सारा मामला फिर ख़त्म और पत्राचार, सहमतियों-असहमतियों की मर्यादित भाषा के साथ, बदस्तूर जारी रहा।

अनिरुद्ध लिखते हैं कि किताबों के कुएँ में नीचे नहीं उतरा जाता, उपर चढ़ा जाता है। लेकिन वैद जी के लिए उनके संस्मरण-भावों में इसके ठीक उलट होता प्रतीत होता है। उनके लिखे को पढ़ते समय हर वक़्त ऐसा लगता है जैसे बरसात से पहले, जून की तपती दुपहरी में, हम किसी अनजान बावड़ी की अतल गहराई में उतर रहे हैं। वहाँ शायद बहुत नीचे हरी-टाँच काई से आच्छादित छिछला पानी होगा लेकिन बावड़ी में नीचे उतरते-उतरते एक ठंडक आपकी प्यास बुझाने लगती है। आप तृप्त हो कर बस उस हरे पानी को छूने की अभिलाषा के साथ बावड़ी की नक़्क़ाशीदार गोलाईयों में गहरे उतरते रहते हैं। आख़िरी सीढ़ी तक पहुँच आप हाथ से काई हटा कर अँजुरी भर पानी से कंठ गीला करते है, प्यास तो आपकी वहाँ तक पहुँचने के दौरान तृप्त हो जाती है। अँजुरी भर पानी से कंठ गीला कर आप अपने आने के प्रयोजन को सार्थक करने का दिलासा देते हैं।

कभी-कभी, सफ़ेद पन्नों पर छपे काले हर्फ़ों के आलोक में जो उजास फैलता है, वह पन्नों को और धवल कर देता है। वैदानुराग, जिसे अशोक वाजपेयी ने ‘हिन्दी के अनोखे लेखक के साथ एक युवतर लेखक के सम्बन्ध, संवाद, पत्राचार और संस्मरण की आत्मीय बही’ कहा है, इसी तरह और धवल बन कर पाठकों के सामने अपने ‘ऊब भरे लेखकीय कर्म’ से पहचाने जाते रहे वैद जी का अन्तर्मन खोलती है जिसमें जिज्ञासा और अपनापा हर शब्द में लिपटा हुआ है, उसी चिर-परिचित सादगी और सहजता से, जो उन्हे कृष्ण बलदेव वैद बनाती है। अनिरुद्ध उमट और उनकी पीढ़ी के सृजनकर्मियों से दरअसल रश्क ही किया जा सकता है कि पत्र भेजने और जवाब के इन्तज़ार में उन्हें इतना समय मिला कि वो उन सलाहों, आलोचनाओं और किसी अग्रज की आकांक्षाओं के तवे पर धीमी आँच पर सिकते हुए खुद को ठीक से गढ़ पाये। आज के तुरता-फुरत समय में, जब संवाद-माध्यमों की प्रचुरता के बावजूद ‘संवाद’ नहीं बल्कि एक सतही ख़ानापूर्ति-सी हो रही हो, पता नहीं अलग-अलग पीढ़ियों के लोग परस्पर कैसा संवाद और रिश्ता रखते होंगे। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल सरीखे उद्भट विद्वानों को बेलगाम सोशल मीडिया पर बिना गहरे जाने-समझे गरियाने वाली पीढ़ी को दरअसल यही सौग़ात मिलनी चाहिए। वाट्सअप पर ब्लू-टिक और फ़ेसबुक/ट्वीटर पर लाइक की गणना करने वाली पीढ़ी हमेशा तो नहीं लेकिन बहुधा ‘ना-लाइक’ की हक़दार है! इसे किसी वैद सरीखे वैद्य की ज़रूरत ही कहाँ। लेकिन यही हमारा दुर्भाग्य होगा कि आपाधापी के दौर में जब तमाम साधन सुलभ है, हमारे समय के उद्भट विद्वानों से सान्द्र रिश्ते लगभग ख़त्म हो गये हैं। ‘बड़ा लेखक उजाला होता और देता है’ — देता होगा लेकिन हम चकाचौंध में इतने चुँधियाए हुए हैं कि हमें किसी ‘उजाले’ की परवाह ही कहाँ!

बहरहाल, विगत समय की महीन तहों को सलीक़े से पलटते हुए अनिरुद्ध उमट की टीस हर पंक्ति में साफ़ झलकती है – “एक लेखक अंतत: कुछ सिखाने से ज़्यादा बहुत सहने की कलाएँ साझा करने को विकल रहता है। वैद साहब के यहाँ यह सहना एक उधड़ी मुस्कान में तब्दील हो अकेलेपन के तारों को कसने से अधिक टूटने से बचाने की चिंता ज़्यादा होता है। वे मृत होने में इस कदर उजले प्रतीत होते हैं कि जीवन का सारा धवल कारोबार ध्वस्त हो जाता है।” वे इसे जुलाई 2020 में वैद जी के जन्मदिन पर अर्पित करना चाह रहे थे लेकिन दूसरे वे (वैद जी) उससे पहले ही कहीं सात समन्दर पार, देह की देहरी लाँघ चुके थे। इस के बाद उनके यहाँ बाक़ी जो बचा है, उसे उन्होंने बहुत क़रीने से बुहार कर हमारे सामने रखा है। अनिरुद्ध के शब्दों की छटपटाहट साफ दिखाती है कि वैद जी के जाने के बाद उनका मन उखड़ा-सा रहता है। और तयशुदा जुलाई में इसे सामने रखने की विवशता में शायद वो इस पुस्तक में कुछ-एक जगहें ‘मूँझ को सही-से कसने में’ चूक गये जिससे कहीं-कहीं पर दोहराव के गुच्छे नज़र आते हैं। अग्रज अनिरुद्ध से कुछ छूट ले कर कहना चाहूँगा कि वैदानुराग से उऋण तो वे शायद कभी ना हो पायें लेकिन एक लेखक के अपनी अग्रज पीढ़ी के लेखक के प्रति कृतज्ञता जाहिर करने का यह सुचिंतित प्रयास उस परम्परा को ही पुष्ट करता है जिसमें बँध कर वैद जी ने उनकी साहित्यिक राहें प्रदीप्त की है। और जिस से उनमें “वैदानुराग” चिलका!

चंद्र कुमार

 

 

 

 

 

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7 comments

  1. ममता कालिया

    चंद्रकुमार आपने अनिरुद्ध उमट की पुस्तक वैदानुराग की बहुत सम्यक समीक्षा की है।

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