धीरेन्द्र अस्थाना हिंदी के जाने-माने कथाकार-उपन्यासकार हैं। कहानी लिखने की प्रक्रिया को लेकर उनका यह लेख हर युवा लेखक-पाठक को पढ़ना चाहिए-
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कथ्य कैसे आता है?
कोई एक घटना,अनेक घटनाओं के टुकड़े, कोई विचार,बार बार देखा जा रहा कोई स्वप्न,किसी और या अपने साथ घटी दुर्घटना/दुर्घटनाएं, सार्वजनिक संहार या विनाश,किसी से प्रेम या बिछोह-कैसे भी, कहीं से भी कोई कथ्य कौंध सकता है। फिर धीरे धीरे उसके भीतर बाहर से कहानी विकसित होने लगती है।इस विकसित होने में दिन महीने साल लग जाते हैं। यहां हर लेखक का अपना कौशल, नजरिया और गृहणशीलता काम आती है।दृष्टिकोण, सरोकार और संवेदनशीलता- कंटेंट को रचना बनाने के लिए ये तीन तत्त्व सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं।संभवतः इसीलिए रूसी लेखक मैक्सिम गोर्की ने एक बार नये लेखकों को संबोधित करते हुए कहा था- यह मत कहो कि मुझे विषय दो, यह कहो कि मुझे आंख दो।किसी भी कथ्य पर रचना विकसित कैसे होती है– बहुआयामी और चौतरफा ढंग से।एक बार दिमाग में यह दर्ज हो गया कि हमें इस कथ्य को कहानी में ढालना है तो सहायक तत्त्व खुद ब खुद सक्रिय हो जाते हैं। कथ्य के अनुरूप वातावरण,स्थान, परिवेश, चरित्र, संस्कृति और संवाद आकार लेने लगते हैं। ज्यादातर लेखक डायरी में सब कुछ दर्ज करने लगते हैं, कुछ मन ही मन सब बुनने सोचने लगते हैं।सबका अपना अलग तरीका होता है,यह तरीका ही एक लेखक को दूसरे से जुदा करके नयी पहचान देता है। सबसे अंत में हमारा काम भाषा और शिल्प से पड़ता है, ठीक उस समय जब हम लिखना शुरू करते हैं।यह भाषा और शिल्प हर लेखक को अर्जित करना पड़ता है क्योंकि यहीं आकर कोई निर्मल वर्मा हो जाता है, कोई अज्ञेय और कोई मुक्तिबोध। यहां यह समझ लेना बहुत जरूरी है कि लेखन को मांजा, तराशा और समृद्ध तो किया जा सकता है लेकिन लेखक होने के लिए उस प्रतिभा का होना आवश्यक होता है जिसे आम बोलचाल की भाषा में God gift कहा जाता है।
यहां यह जानना भी जरूरी है कि कई बार हम किसी चरित्र पर भी कहानी सोचने लगते हैं लेकिन ऐसे में लेखक का संघर्ष बढ़ जाता है।उसे अपने देखे जाने सोचे हुए चरित्र को उसके निजीपन से निकाल कर सार्वजनीन शख्सियत देनी होती है कयोंकि तभी वह एक प्रातिनिधिक अहमियत हासिल कर सकता है। इसीलिए हालात, घटना या त्रासदी से ज्यादा कठिन और जटिल चरित्र पर कहानी लिखना हो सकता है।इसे मैं अपनी तीन अलग-अलग स्थानों, समय और हालात पर लिखी चरित्र प्रधान कहानियों का उदाहरण दे कर बताना चाहूंगा। मेरी नवीनतम कहानी ‘ बहादुर को नींद नहीं आती ‘ लिख तो मैंने कुछ घंटों में ली थी। लेकिन उस पर मेरा होमवर्क चला पूरे दस साल। मैंने अपनी और अन्य अनेक सोसायटी के वाचमैनों से लगभग मित्रता जैसी की। उनके सुख-दुख में शामिल हुआ। उनसे जुड़े हर ब्यौरे का बारीकी से अध्ययन किया। उनके संघर्षों को ही नहीं, उनके सपनों को भी पकड़ा।इस सबमें पूरे दस साल निकल गए और उसके बाद जब कहानी लिखी और फिर छपी तो धमाल हो गया।कम से कम सौ लेखकों पाठकों ने फोन कर कहा कि यह तो उनकी सोसायटी के वाचमैन की कहानी है।यह तो हुई जन साधारण के बीच से उठाए चरित्र की बात।अब बात करते हैं निहायत निजी जीवन से उठाए चरित्र की।बात करते हैं के की। मेरी, लगभग क्लासिक बन चुकी कहानी खुल जा सिमसिम की नायिका के वास्तविक जीवन में मेरी मित्र से थोड़ा बढ़कर थी। जैनेन्द्र कुमार और राजेंद्र यादव जैसे कालजयी कथाकारों ने खुल जा सिमसिम को हिंदी कथा साहित्य की प्रेम कहानियों में अप्रतिम और अविस्मरणीय माना है।यह एक मुश्किल प्रेम कहानी है- प्रेम के उद्दाम आवेग और जटिलताओं से लदी फंदी।के मेरी खास दोस्त थी, लेकिन वैसी प्रेमिका नहीं थी जैसी कहानी में बतायी गयी है। फिर, कहानी लिखते समय वह जीवित भी थी और मेरी प्रत्येक कहानी की चौकन्नी तथा सजग पाठिका भी।वह किसी की पत्नी थी और एक बोहेमियन चरित्र वाले प्रतिष्ठित कवि की प्रेयसी भी रह चुकी थी।उसे कहानी में अपनी प्रेमिका बना कर उपस्थित करना अत्यंत चुनौतीपूर्ण तथा असाध्य था। नाज़ुक रिश्तों के तार तंतु तहस नहस हो सकते थे। मेरा अपना पारिवारिक जीवन खतरे में पड़ सकता था। लेकिन कहानी मेरे दिमाग में पक चुकी थी और पन्नों पर उतरने को आमादा थी। मैं डरा हुआ था।मेरे तनाव को मेरी पत्नी ने भांपा और वादा किया कि वह कहानी को सिर्फ गल्प समझेगी।एक मुलाकात में मैंने के से भी यह उलझन बयान की और उसने भी अभयदान दे दिया। शायद वह तब समझी नहीं थी कि मैं क्या लिखने जा रहा हूं। कहानी छपी तो तहलका मच गया। इसे कमलेश्वर जी ने गंगा में छापा था जो उन दिनों बहुत पढ़ी जाती थी।के नाराज़ हो गई और लंबे समय तक नाराज़ रही।फिर क्रमशः उसकी नाराजगी पिघली और वह मुझसे मिलने दिल्ली के लिए चल पड़ी। लेकिन नहीं मिल सकी। सड़क हादसे में वह चल बसी।तो ऐसे भी घटती है कहानी।एक कहानी का और जिक्र जरूरी है। नींद के बाहर।इस कहानी के मुख्य चरित्र धनराज चौधरी का चरित्र गढ़ने में मुझे अनेक दिक्कतों का सामना करना पड़ा। धनराज चौधरी मैं खुद हूं। लेकिन पूरा नहीं, आधा अधूरा। उसमें मेरे कुछ मित्रों की छायाएं भी हैं।इस चरित्र को लेकर सबसे बड़ी दिक्कत यह थी कि कहीं इसे समूचा का समूचा मुझे ही न मान लिया जाए।क्योंकि वह कहीं कहीं अत्यंत नकारात्मक और तुच्छ चरित्र भी है। धनराज चौधरी को कागजों पर उतारने के लिए मुझे पहली बार खुद से जूझना पड़ा। अंततः लेखकीय साहस के सामने निजी दुनिया परास्त हुई और धनराज चौधरी जैसा जीवंत चरित्र आकार ले सका।जीवन की भट्टी में तपकर निकला एक विश्वसनीय लेकिन आम चरित्र- समाज का प्रतिनिधित्व करता हुआ।जो भी हिंदी कहानी की दुनिया में आमद रफ्त करना चाहता है उसे नींद के बाहर से जरूर गुजरना चाहिए।
कथ्य, चरित्र और लोकेल तय हो जाने के बाद तो हम भाषा के साथ उस बीहड़ में उतरते हैं जहां एक कहानी अपने मुकम्मल होने के लिए हमारा इंतज़ार कर रही होती है। कहानी की यह चुनौती संपन्न करने के बाद हम स्वयं भी संभव हो जाते हैं।
और इसके बाद तो कहानी लेखक से छूट कर विशाल पाठक वर्ग के हवाले है।
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बहुत सुंदर कहन!
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