पंकज पराशर के शोधपूर्ण लेखों को हम पढ़ते रहे हैं, सराहते रहे हैं। यह उनका नया शोध है। पढ़कर बताइएगा-
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मेरी सुबह प्रायः ध्रुपद या ख़याल सुनते हुए शुरू होती है, लेकिन आज की सुबह उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ पर बनी एक डॉक्यूमेंट्री देखते हुए शुरू हुई. यह देखकर थोड़ा उदास हो गया कि तकरीबन पैंतालिस मिनट की डॉक्यूमेंट्री में इस बात का कहीं कोई ज़िक्र नहीं आया कि बिस्मिल्ला खाँ साहब का राज दरभंगा से किसी तरह का कोई जुड़ाव रहा है! जबकि वे तथ्यों को खंगालते तो उन्हें पता चलता कि खाँ साहब के बचपन का अच्छा-ख़ासा वक़्त दरभंगा में बीता था. राजाबहादुर विश्वेश्वर सिंह के निधन के बाद वे दरभंगा से बनारस गए. आख़िरी दफ़ा वे राजकुमार जीवेश्वर सिंह की बेटी की शादी में शहनाई बजाने के लिए गए थे. यह मुमकिन है कि डॉक्यूमेंट्री बनाते वक़्त इस तथ्य की तरफ निर्माता-निर्देशक का ध्यान न गया हो. मगर उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ पर बनारस के एक युवा कवि के आलेख से गुज़रते हुए भी जब यही तथ्य नदारद दिखा, तो फिर वही टीस उभर आई कि आखिर दरभंगा के उल्लेख करने में समस्या क्या है? जैसे काँग्रेस पार्टी इस बात का ज़िक्र शायद ही कभी करती है कि सन् 1885 में जब बंबई में कांग्रेस की स्थापना हुई थी, तो उस बैठक में तत्कालीन दरभंगा नरेश लक्ष्मीश्वर सिंह मौज़ूद थे. सन् 1886 में कलकत्ता में हुए उसके द्वितीय अधिवेशन का सारा खर्च लक्ष्मीश्वर सिंह ने ही दिया था. सन् 1892 में जब इलाहाबाद में अधिवेशन करने के लिए कांग़्रेस को कहीं जगह नहीं मिल रही थी, तो दरभंगा नरेश ने ही कांग्रेस को अधिवेशन करने के लिए इलाहाबाद में पूरा ‘लोथर कैसल’ ख़रीदकर दे दिया था. लेकिन इस तथ्य का उल्लेख ‘भारतीय’ इतिहासकारों के यहाँ तकरीबन नदारद दिखता है!
अकादमिक दुनिया के लोग इस बात को भी बारहा नज़रअंदाज करते हैं कि आख़िरी मुग़ल बादशाह बहादुरशाह जफ़र के पोते को दरभंगा नरेश लक्ष्मीश्वर सिंह ने पनाह दी दी थी. बहादुरशाह जफ़र के बड़े बेटे दारा बख़्त 1857 के विद्रोह से पहले ही मर गए थे, लेकिन गदर के विद्रोह के बाद सारा मंज़र बदल गया. उनके पाँच बेटों को अँगरेज़ों ने दिल्ली के खूनी दरवाजे के पास बड़ी बेरहमी से क़त्ल कर दिया और उसके बाद सिर काटकर बहादुरशाह जफ़र के सामने पेश किया था. बहादुरशाह अपने सबसे बडे पोते जुबैरउद्दीन गोरगन के नाम का ऐलान बतौर शहज़ादा करना चाहते थे, लेकिन उससे पहले ही सल्तनत का ख़ात्मा हो गया. सिपाही विद्रोह के बाद अँगरेज़ों ने मुग़लिया सल्तनत के इस उत्तराधिकारी को दिल्ली से निकाल दिया और अँगरेज़ों ने फ़रमान ज़ारी किया कि हिंदुस्तान में कहीं भी वे तीन साल से ज़्यादा वक़्त तक नहीं रह सकते. बनारस में तीन साल रहने की उनकी मियाद पूरी हो रही थी. इसी दौरान उनकी मुलाकात दरभंगा रियासत के राजा लक्ष्मीश्वर सिंह से हुई. ज़ुबैरउद्दीन गोरगन ने उन्हें जब अपना परिचय दिया, तो वे खड़े हो गये. लक्ष्मीश्वर सिंह जुबैरउद्दीन गोरगन को अपने साथ लेकर दरभंगा आ गए और उन्हें बतौर मेहमान-ए-रियासत रखा गया. बाद में अपनी पहुँच का इस्तेमाल करके लक्ष्मीश्वर सिंह ने एक जगह महज़ तीन ही साल रहने का बरतानवी हुक़ूमत का फ़रमान ख़त्म करवा दिया. दरभंगा में रहकर ज़ुबैरउद्दीन गोरगन ने तीन किताबें लिखीं-‘चमनिस्तान-ए-सुखन’, ‘मसनबी दुर-ए-सहसबार’ और ‘मौज़-ए-सुलतानी’. ‘मौज़-ए-सुलतानी’ में हिंदुस्तान के अलग-अलग रियासतों की शासन व्यवस्था का जिक्र है. ख़ास तौर पर ‘मसनबी दुर-ए-सहसबार’ में रियासत-ए-दरभंगा और मिथिला के तहज़ीब के तमाम पहलुओं को तफ़सील से बयान किया गया है.
लक्ष्मीश्वर सिंह ने दरभंगा के काज़ी मोहल्ला में उनके रहने के लिए घर और इबादत करने के लिए एक मस्ज़िद भी बनवा दी थी. उनके दोनों बेटे और बेगम का सन् 1902 में शहर में फैले हैजे के कारण इंतकाल हो गया. ज़ुबैरउद्दीन इस सदमे से उबर नहीं पाए और 1910 में इस फ़ानी दुनिया से कूच कर गए, जिनके पीछे कोई वारिस हयात न रहा. दरभंगा शहर के दिग्घी झील के किनारे उन्हें सुपुर्द-ए-ख़ाक किया गया था. रियासत दरभंगा की तरफ़ से 1914 में उस जगह पर एक मज़ार बनवाया गया, जिसकी हालत अब बेहद ख़स्ता है. मजार का देख-रेख करने वाले उस्मान को इस बात का ज़रा भी अंदाजा नहीं कि ये मज़ार आख़िरी मुग़ल बादशाह मिर्ज़ा अबू ज़फ़र सिराजउद्दीन मोहम्मद बहादुरशाह ज़फ़र के वारिस की है.
वैसे इस तथ्य को भी नज़रअंदाज किया जाता है कि बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी यानी बी.एच.यू. की स्थापना के पीछे मदनमोहन मालवीय की भूमिका उतनी बड़ी नहीं थी, जितनी कि लगातार हमें ‘समझाई’ गई. महामना मालवीय के अलावा इसके पीछे दो और महान् हस्ती थी, जिनकी चर्चा नहीं होती है. एक दरभंगा नरेश रामेश्वर सिंह और दूसरी एनी बेसेंट. 04 फरवरी, 1916 वसंतपंचमी के दिन बी.एच.यू. की आधारशिला रखने जब लॉर्ड हार्डिंग्स बनारस आए थे, तो इस समारोह की अध्यक्षता दरभंगा नरेश ने की थी. लेकिन बी.एच.यू. की स्थापना की इस कहानी को जैसे दफ़्न ही कर दिया गया. जब दरभंगा नरेश रामेश्वर सिंह की इतनी बड़ी भूमिका थी, जिसके सारे दस्तावेज़ आज मौजूद हैं, तो बी.एच.यू. की स्थापना के इतिहास से उनके नाम को इस तरह क्यों मिटाया गया? क्यों बी.एच.यू. में उनका नाम महज एक दानकर्ता के रूप में महज एक स्थान पर दिखता है? वैसे इन बातों पर भी ग़ौर करने की जरूरत है कि जब बी.एच.यू. बनने की प्रक्रिया चल रही थी, तो अंग्रेज सरकार रामेश्वर सिंह के साथ पत्राचार कर रही थी, न कि मालवीय जी के साथ. जब विश्वविद्यालय का शिलान्यास हुआ, तो बधाई के पत्र भी उन्हीं के नाम आए थे. सन् 1914, 1915 और 1916 में ‘लंदन टाइम्स’, ‘अमृत बाजार पत्रिका’ से लेकर ‘स्टेट्समैन’ जैसे अखबारों में जो रिपोर्ट छपी, उसमें महाराजा रामेश्वर सिंह के प्रयासों की चर्चा है और विश्वविद्यालय की स्थापना के संदर्भ में विस्तृत रिपोर्ट हैं. महाराजा बीकानेर और बीएचयू के सीनेट मेंबर रहे वी.ए. सुंदरम ने साल 1936 में बीएचयू के वास्तविक इतिहास को बदलने की कोशिश की और तभी से कई नाम विस्मृत होते चले गए. सन् 1936 में विश्वविद्यालय पर एक किताब आई- ‘बीएचयू 1905-1935’. इसे सुंदरम ने लिखा और इसकी प्रस्तावना महाराजा बीकानेर ने तैयार की, जो बीएचयू की स्थापना के समय बनी 58 सदस्यों की समिति तक में नहीं थे. इसी किताब ने इतिहास को बदल दिया गया और मदनमोहन मालवीय के नाम को उभारकर बाकी नामों को गायब कर दिया गया. इस तरह इतिहास से असल तथ्यों और वास्तविक चरित्रों को ग़ायब किया जाता है.
10 अक्टूबर, सन् 1911 को अपने शिमला स्थित आवास से शिक्षा सचिव श्री हरकॉर्ट बटलर को लिखे पत्र में दरभंगा नरेश रामेश्वर सिंह ने लिखा था, ‘हिंदुस्तान के हिंदू समुदाय के लोग चाहते हैं कि एक उनका भी एक अपना विश्चविद्यालय हो. शिक्षा सचिव बटलर ने 12 अक्टूबर, 1911 को उनके ख़त का जवाब देते हुए जो जवाबी ख़त भेजा था, उसमें रामेश्वर सिंह को इसके लिए मुबारकबाद दी थी और और इसके लिए पूरा मंसूबा कैसे बनाया जाए इसके लिए कुछ नुस्खे भी दिये थे. बी.एच.यू. पहला दान दरभंगा नरेश रामेश्वर सिंह ने दिया था-5 लाख रूपये. उसके साथ खजूरगाँव के राणा सर शिवराज सिंह बहादुर ने एक लाख 25 हजार रूपये दान दिया था. 22 अक्टूबर, 1911 को रामेश्वर सिंह, एनी बेसेंट, पंडित मदन मोहन मालवीय और कुछ खास लोगों की इलाहाबाद में एक बैठक हुई थी. जिसमें ये तय किया गया था कि इस विश्वविद्यालय का नाम ‘’हिंदू विश्चविद्यालय’’ रखा जाएगा. यह दस्तावेज इस बात का भी सबूत है कि मालवीय जी ने अकेले इस विश्वविद्यालय का नाम नही रखा था. उसके एक सप्ताह बाद 28 अक्टूबर, 1911 को फिर इलाहाबाद के दरभंगा किले में रामेश्वर सिंह की अध्यक्षता में एक बैठक हुई, जिसमें इस प्रस्तावित विश्वविद्यालय के संविधान के बारे में एक खाका तैयार किया गया. जिसमें रामेश्वर सिंह को अध्यक्ष और बाकी 58 लोगों की सूची में पंडित मदन मोहन मालवीय का नाम 55वें स्थान पर था. सन् 1905 से 1915 तक के बी.एच.यू. के इतिहास को खंगालने से पता चलता है कि जो भी ख़तो-किताबत हो, वित्तीय रिपोर्ट, दानदाताओं की सूची, शिक्षा सचिव और वायसराय के दरम्यान हुए पत्राचार, रजवाड़ाओं को दान के लिए ख़त लिखना हो या उस वक़्त के अख़बारों की रिपोर्टिंग्स-इन तमाम चीज़ों में कहीं भी यह नहीं लिखा गया है कि पंडित मदनमोहन मालवीय इसके संस्थापक थे.
अब एक तीसरा प्रसंग देखिये. पिछले सौ सालों से इस तथ्य पर परदा पड़ा हुआ था कि रियासत दरभंगा के महाराज रामेश्वर सिंह ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के उत्थान के लिए क्या किया था. 09 जून, सन् 1912 को जब वे ‘एंग्लो मोहम्मडन ओरियेंटल कॉलेज’ (अब अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय) आए थे, तो इस विश्वविद्यालय के ‘स्ट्रैची हॉल’ में उन्होंने बहुत नफ़ीस अँगरेज़ी में उपस्थित जनसमहू के बीच एक भाषण दिया था, जिसके बारे ज़्यादातर लोगों को पता ही नहीं था. लेकिन तीन-चार बरस पहले जब मैंने इस तथ्य पर पड़े पर्दे को हटाया और उनका मूल भाषण हिंदी में तर्जुमा करके लोगों के लिए उपलब्ध कराया, तो लोगों की आँख खुली. रामेश्वर सिंह का अलीगढ़ में दिया वह महत्वपूर्ण भाषण ‘जानकीपुल’ पर पढ़ा जा सकता है. 09 जून, सन् 1912 को उसी अवसर पर उन्होंने ‘एंग्लो मोहम्मडन ओरियेंटल कॉलेज’ को बीस हजार रूपये दान दिया था. तब हिंदुस्तान में 18 रूपये, 93 पैसे में एक तोला सोना मिलता था. इस हिसाब से उन्होंने करीब 1053 तोले सोने की कीमत के बराबर रूपये अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय को दान दिया था. 1053 ग्राम सोने की क़ीमत आज तकरीबन 5,26,50,300 (पाँच करोड़, छब्बीस लाख, पचास हजार, तीन सौ रूपये) है. दरभंगा नरेश महाराज रामेश्वर सिंह द्वारा दिया गया यह दान अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय को किसी ग़ैर मुस्लिम द्वारा दिये गये दानों में सबसे बड़ा और सर्वोच्च स्थान रखता है! महाराज रामेश्वर सिंह ने 09 जून, 1912 को अलीगढ़ के ‘मोहम्मडन एंग्लो ओरियेंटल कॉलेज’ के ‘स्ट्रैची हॉल’ में अँगरेज़ी में जो तकरीर की थी, वह तकरीर अलीगढ़ आंदोलन को लेकर काम करने वाले शोधार्थियों से लेकर उन तमाम लोगों के लिए बहुत काम का साबित होगा, जो आधुनिक भारत के इतिहास को सच्चे तथ्यों के आधार पर जानना-समझना चाहते हैं. यहाँ इतना और जोड़ दें कि ‘एंग्लो मोहम्मडन ओरियेंटल कॉलेज’ को विश्वविद्यालय का दर्ज़ा दिलवाने में भी महाराज रामेश्वर सिंह की एक सकारात्मक भूमिका रही है.
किसी भी सामंत और ज़मींदार के भीतर न सिर्फ अच्छाइयाँ थी, न खाली बुराइयाँ. हालाँकि परंपरामोही अक्सर उस दौर के सामंतों की खूबियाँ ही गिनवाते हैं, तो दूसरी तरफ प्रगतिशीलता के उत्साह में अनेक लोगों को सामंतों में सिवाय ख़ामियों के और कुछ दिखता ही नहीं है. ऐसे में इतिहासकारों बहुत संजीदगी से इन अतिवादों से बचते हुए सही तथ्यों की व्याख्या करनी होती है. लेकिन जब राजनीतिक इतिहास के साथ कला और संगीत के इतिहास में भी तथ्यों को नज़रअंदाज़ करने की प्रवृत्ति आ जाए, तो मेरे जैसे साहित्य के विद्यार्थी के सामने उदास होने अलावा और क्या चारा है?
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