
आज पढ़िए वैशाली जनपद के एक बिसरे गीतकार हरेकृष्ण के गीत। चयन के साथ भूमिका लिखी है प्रसिद्ध लेखिका गीताश्री ने-
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पचास और साठ के दशक में एक गीतकार हरेकृष्ण
( 1934 -2011) वैशाली जनपद से नया हुंकार भर रहे थे, युवाओं में नये प्राण फूंक रहे थे-
गीतों में एक नारा दिया था –
तुम दीवानी मैं दीवाना , दोनों मिलकर साथ कहेंगे
जियो जवानी , जियो ज़माना , जियो जवानी, जियो ज़माना !
हाजीपुर ( बिहार) निवासी हरेकृष्ण जी ने साहित्यिक पत्रिका “ सतत” का संपादन किया और 1948 में स्थापित साहित्यिक संस्था “किरण मंडल “ के अध्यक्ष पद पर अपने जीवन काल तक बने रहे.
यहाँ बताना जरुरी है कि बीसवीं शताब्दी की शुरुआत में जिन साहित्यिक संस्थाओं की चर्चा देश भर में होती थी, किरण मंडल उनमें से एक था.
किरण मंडल का इतिहास बताते चलें कि इसकी स्थापना 1948 में हुई , उस समय के सक्रिय कवि डॉ दामोदर प्रसाद की प्रेरणा से हुई थी. इसके संस्थापक सचिव भी वही बनाए गए थे. दरअसल
1942 से ही हाजीपुर के एक प्रसिद्ध चित्रकार जगन्नाथ प्रसाद “किरण” के संपादन में “किरण” नामक हस्तलिखित पत्रिका निकलती थी. इसी पत्रिका ने जनपद के बौद्धिको का ध्यान अपनी ओर खींचा.
बाद में किरण संस्था ने अपना विस्तार किया और जनपद में संगीत मंडल बना. प्रत्येक वर्ष शरद पूर्णिमा और आश्विन पूर्णिमा को कौमुदी महोत्सव और मधुपर्व मनाने की प्रथा की शुरुआत हुई थी. किरण मंडल की स्थापना से लेकर हरेकृष्ण जी के जीवन काल तक इस परंपरा का निर्वहन होता रहा. इन महोत्सवों में देश के नामी साहित्यकार, कलाकार भाग लेते थे. सारी सारी रात ये महोत्सव चलते थे. पूर्णिमा की सफ़ेद रातों में सुर बरसते और जनपद के रसिक आनंद उठाते थे.
जनपद का इतिहास गवाह है कि किरण मंडल ने हाजीपुर के सामाजिक जीवन में साहित्यिक – सांस्कृतिक क्रांति ला दी थी. सारी सारी रात महोत्सवों में महिलाएँ भी संगीत सभा का आनंद उठाती थीं.
आपको आज हरेकृष्ण जी के कुछ गीत पढ़वाते हैं. इनके गीतों में प्रेम और क्रांति दो मूल स्वर हैं.
प्रेम में अथाह डूबने के वाबजूद अपने समाज के प्रति इतने सजग थे कि गा उठते थे मंचों से –
“चाँदनी के गीत गाना छोड़ दो अब
सूर्य कि किरणें धरा की जान होंगी
देश पर संकट कभी आने लगे तो
लेखनी से आग के शोले गिराओ !”
वे जानते थे कि देश की राजनीति नागरिकों को किस तरह इस्तेमाल करती है. झूठे राष्ट्रवाद की भावना भड़का कर युवाओं को गर्त में धकेल देती है.
उनके गीत की पंक्ति देखिए –
तुम तो किसी चिमनी के धुएँ में दम तोड़ते
बूढ़े पिता की आँखों का प्रकाश हो !
वे देशभक्ति की शिक्षा को राजनीति के कपट के रुप में देखते हैं . वे समय से पहले भाँप गए थे कि उग्रराष्ट्रीयता की भावना और विचारधारा कभी भी जीवन , मानवता के पक्ष में नहीं होती. वे आसन्न ख़तरे को भाँप रहे थे. दो विश्वयुद्धों की विभीषिका उनकी आँखों के सामने थी.
तभी तो वे चेताते हैं –
“देश का नाम धोखा है
देश तो उनके रक्तिम चेहरे का नक़ाब है !”
मानवतावादी गीतकार चेताते हुए लिखते हैं –
ये लुटेरे भेड़िए विस्तारवाद की जघन्य बलिवेदी पर
तुम्हारी निर्मम बलि चढ़ाकर हँसेंगे
मौत का अट्टहास !
और इन बूढ़ों का कुछ नहीं होगा
मरोगे तुम, केवल तुम…!
==============some songs of
1.
जीवन -नेह
मैं मज़दूरों , कुली किसानों , श्रमजीवी जन-गायक हूँ !
मृतवत् जो जी रहे विवश, उनमें स्वर का उन्नायक हूँ !
मैं ऐसा कवि जो हर क्षण
जीवन गीत सुनाता है
चांद-सितारों से जिनका
दर्शन भर का नाता है ;
गगन -महल का मोह छोड़ , कुटिया में मैं रहना चाहूँ
सन्नाटों में स्वर भरता निकल तूणीर से शायक हूँ !
नंदन वन की घनी छाँह
वेणु-कुंज में इठलाता
उड़ूँ धुँआ बनकर चिमनी से
पकी फसल बन लहराऊँ ;
देखूँ जर्जर रोता जीवन मिट्टी से निज नेह लगा
जलती धरती पर मैं उमड़ा-घुमड़ा जीवन-दायक हूँ !
कुसुम कली में , कुंज गली में
छाई मोहक रंगीनी
लेकिन मुझको खींच रही
दुखिया अँखियाँ भीनी-भीनी ;
नहीं चाह भोली आँखों को, मैं निष्ठुरता खोज रहा
जो भूखे, अधनंगे विगलित नर , मैं उनका नायक हूँ !
2.
चाँदनी शरमा रही है
धो रही मुख बैठ तट पर
फूल रख अनजान तट पर
देखती विचलित दृगों से
मन्द स्वर में गा रही है
भावना मेरी सबल है
चेतना के पग अटल हैं
कामना के सत्य पथ में
कल्पना भरमा रही है
यह नियति का मूल ही है
फूल है तो शूल भी है
छद्म -छल से दूर कोसों
प्रेरणा मुस्का रही है !
3.
जीवन में आराम न होगा
मैं तो सदा दुखी रहता हूँ
नहीं किसी से कुछ कहता हूँ
अपनी विपदा आप सुनाकर
जग में कुछ भी नाम न होगा !
सुनकर सभी हँसेंगे केवल
कभी न देंगे अपना संबल
घबराने से काम न होगा !
मन की पीड़ा तन से ज़्यादे
मैं हरदम रहता हूँ लादे
कभी कहीं उफ़ नहीं निकालूँ
सदा विधाता वाम न होगा !
4.
मेघ गगन
आज सज गई धरा !
दिशा-दिशा है झूमती
कली-कली को चूमती
विकल पवन उछल रहा
है मेघ से गगन भरा !
सुबह सिहर लजा गई
अरुण किरण जगा गई
सूर्य -शाम ढ़ल गया
व्योम में कनक जड़ गया !
धरा-चमन नई छटा
छिटक गई है छटपटा
गगन, पवन की बांसुरी
बजा रहा बढ़ा-चढ़ा !
5.
रुप का अभिमान कैसा ?
धर्मशाला यह धरा है
हर मनुज निश्चय मरा है
ज़िंदगी जब मिल गई तो
झूठ का यह मान कैसा ?
एक से बढ़कर एक सुंदर
मिट गए सब हैं जमीं पर
अश्रु के जल पी गए तो
सृष्टि का एहसान कैसा ?
जन्म ले जो आ गये हैं
कर्म के फल पा गये हैं
एक क्षण की ज़िंदगी पर
छल-कपट गुणगान कैसा ?
6
मन -गीत
ले लो अक्षर , शब्द पंक्तियाँ पूरी कविता
पर मेरे मन मीत अधर से गान न लेना !
मन की गंगा लगी आज समतल पर आती
उतरी आँखों की कोयल मधुबन में गाने;
पीड़ा के कंधों पर अरमानों की डोली
चला सुहागिन आज तुम्हारे लिए सजाने !
ले लो सारा गगन धरातल अपने जो हैं ;
पर आँखों में छिपी हुई पहचान न लेना !
सपनों से सुकुमार और भावों से कोमल
बिखर गए अनजाने ही जीवन के शतदल
स्नेह-दान जो तुमने पहली बार दिया था
मेरे मरु-पथ के थे केवल वे ही संबल
क्षण भर में ही ले लो सारा तन-मन यौवन
पर मन में पलने वाले अरमान न लेना !
गीली होती आँखें बरबस हंसते-रोते
जल में तेरी छाया छपती जगते-सोते
मैं चौराहों की घाटी में भटका करता
तुम नहीं अमीर भी करती सम्मुख होते
ले लो मेरे छंद , कल्पना , गीत लेखनी
पर अधरों की नई-नई मुस्कान न लेना !
पहले तुमने दिए अनेकों बार सहारे
बिना वजह फिर खींच लिए अपनापन सारे
आऊँगा जीवन में अंतिम बार बुलाना
जब धुंधले पड़ जाएँगे आँखों के तारे
ले लो अब भी मेरे जीवन से जो चाहो
पर दबकर जगने वाले तूफ़ान न लेना !
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