Home / Featured / ‘न’ पर ‘आ’ की मात्रा ‘ना’!

‘न’ पर ‘आ’ की मात्रा ‘ना’!

हाल में ही नामवर सिंह की जीवनी आई थी ‘अनल पाखी’, जिसके लेखक हैं युवा लेखक अंकित नरवाल। आज नामवर जी की जयंती पर पढ़िए इस जीवनी का पहला अध्याय जो उनके शुरुआती जीवन को लेकर है-

==============================

जीवनारंभ…

जन्म को मिला जीयनपुर

कैसा था यह जीवन? बनारस की आबोहवा में साँस लेता; चिर-विस्थापित। जोधपुर-दिल्ली में हिंदी-जगत् के लिए जूझता। अपने आप से ही लगातार सवाल करता ‘अब तक क्या किया? जीवन क्या जिया?’

यह शुरू हुआ आध्यात्मिक ग्रंथों में शिव के त्रिशूल पर बसी मानी जाने वाली काशी ऊर्फ़ बनारस के चंदौली जिले के एक छोटे-से गाँव ‘जीयनपुर’ से। यह वही ‘जीयनपुर’ है, जिसे ‘उस जमाने में ऊसर गाँव बोलते थे। इस गाँव को पास-पड़ोस के धोबी जानते थे, जिन्हें रेह की ज़रूरत पड़ती थी, कपड़े धोने के लिए। गिद्ध भी जानते थे, जिनके बैठने के लिए एक ही कतार में दस-पंद्रह ताड़ के पेड़ थे। देव भी जानता था। लेकिन जाने क्या बात थी, जब आस-पास के सारे गाँव पानी से डूब कर त्राहि-त्राहि कर रहे होते थे, यह गाँव प्यासा-का-प्यासा रह जाता था। नाम ‘जीयनपुर’ और जीवन का पता नहीं। हो सकता है, जीवन की चाह में ही इसे ‘जीयनपुर’ नाम दिया गया हो, लेकिन यह ‘पुर’ नहीं ‘पुरवा’ था – किसी गाँव का पूरक। ना-मालूम एक छोटी-सी बस्ती।’

यह उस समय के भारत के अधिकांश साधनहीन व पिछड़े हुए गाँवों की ही तरह था, जिसमें धार्मिक मान्यताएँ कहीं ‘संस्कृति’ के हवाले से और कहीं ‘आस्था’ के वेग से लोक में ख़ूब प्रचलित थीं।

इस गाँव के उत्तर की दिशा में गाँव वालों का आराध्य तालाब पड़ता, जिसे ‘महादेव’ मान कर पूजा जाता। इसे लोग ‘महदेवा’ कहते और अपने मंगल की आशीषें माँगते। दक्षिण की ओर एक बावली थी, जिसे अधिकतर पशुओं को पानी पिलाने के लिए उपयोग में लाया जाता। पश्चिम की ओर फैली ऊसर धरती पर गाँवडीह अर्थात् ग्रामदेवता का पूज्य स्थान रहता। पूर्व की दिशा की ओर एक ताड़वन, जिसके नीचे एक अखाड़ा निरंतर चला करता। इसके पार ‘काली माई का औरा’ पड़ता, जिस पर अक्सर गाँव की औरतें पूजा-अर्चना करने जाया करती थीं। इसके आगे फिर गाँव के खेत शुरू हो जाते, जो ज्यादा उपजाऊ न रहते।

गाँव में बच्चों को बचपन से ही कई सीखें दी जातीं। ‘बचपन में जैसे ही इस गाँव से बाहर निकलने लायक होते, घर में पहला पाठ यही पढ़ाया जाता था कि अगर कहीं भटक गए या गुम हो गए और कोई पूछे घर कहाँ है?

कहाँ रहते हो?

तो क्या बोलोगे?

उत्तर रटवाया जाता था– आवाजापुर (यही आज का अम्बेदकरपुर है)।

‘जीयनपुर’ कहेंगे तो कोई नहीं समझेगा।

‘आवाजापुर’ रोड़ के किनारे। आबादी और क्षेत्रफल के हिसाब से बड़ा गाँव, ठाकुरों के कई टोले। कोई ऐसी जाति नहीं, जो न हो। स्कूल भी। दवाखाना भी। ऐसा गाँव, जिसमें सम्पन्न भी थे, शिक्षित भी, बाहर नौकरी करने वाले भी।’

     इस गाँव के अतीत को याद करते हुए अक्सर बुजुर्गों में किसी पूर्वज ‘शिवरतन सिंह’ को बर्तानिया सरकार से उपहार के रूप में मिले हुए चार गाँवों का उल्लेख होता है– चितावल, हेतमपुर, करजौंडा और जीयनपुर। इनमें पूर्व के दो गाँवों में तो पहले से ही अच्छी खासी बस्ती थी, इसलिए शिवरतन सिंह ने अपने रहने के लिए ‘जीयनपुर’ को ही चुना। इस गाँव में उनसे पूर्व केवल दो ही ठाकुरों के घर थे। वे भी इस गाँव में आ बसे और बाद में इन तीन परिवारों से ही ‘जीयनपुर’ गाँव का विकास हुआ।

शिवरतन सिंह को मिले इस उपहार की भी एक रोचक कहानी सुनायी जाती। बताया जाता है कि वे महारानी विक्टोरिया के राज में हिन्दुस्तानी फौज में सूबेदार थे। लम्बे, तगड़े और मजबूत कद-काठी के जवान। हिम्मत और दिलेरी से भरे हुए एक ख़ूब बहादुर सैनिक। वे एक बार अपनी रेजीमेंट के साथ कहीं उत्तर-पूर्व की ओर गए हुए थे। जाड़े के दिन थे। वे एक दिन सुबह-सुबह शौच के लिए दूर तक निकल गए। वहाँ निबटने के लिए बैठे ही थे कि बाघ ने हमला कर दिया। सौभाग्य से उनके पास कंबल था, जो उन्होंने बाघ पर डाल दिया। बाघ ने उन्हें धर दबोचा, किंतु कंबल के कारण सही पकड़ नहीं बन पा रही थी। शिवरतन सिंह ने भी बाघ पर निरंतर हमला जारी रखा और अपने पानी के लोटे से उनके सिर पर लगातार प्रहार करते रहे। बाघ थोड़ी देर के बाद वहीं ठंडा हो गया। इस प्रकार उस बाघ के मरने की ख़बर पूरे इलाके में फैल गई। ख़बर बर्तानिया सरकार तक भी पहुँची। उन्होंने अपने सुबेदार की इस बहादुरी पर प्रसन्न होकर ये चार गाँव उनके नाम कर दिए।

     इससे पहले शिवरतन सिंह निकट ही पड़ने वाले खड़ान गाँव में रहा करते थे। फिर वे सह-परिवार जीयनपुर आकर बस गए। खड़ान गाँव ऊसर ज़मीन पर ही बसा था, किंतु यहाँ जमीन उससे कुछ ठीक-ठाक थी, जिसके कारण वे यहाँ चले आए थे। यहाँ उन्होंने अपना कुटुंब बसा लिया और आराम से रहने लगे, किंतु परिवार और बिरादरी का बहुत बड़ा हिस्सा पीछे ही छूट गया। वहाँ शादी-ब्याह व किसी व्यक्ति के देहावसान जैसे अवसरों पर जाया जाता और इस तरह संपर्क बना रहता। फिर आगे चलकर इन्हीं शिवरतन सिंह के यहाँ एक बेटे ने जन्म लिया, जिनका नाम घूरी सिंह रखा गया। आगे चलकर उनके भी चार बेटे हुए– अयोध्या, मथुरा, द्वारिका और हरगेन। आगे फिर इनकी भी संतानें हुईं। इनमें से द्वारिका के भी चार बेटे हुए– मकुनी, गोकुल, रामजग और रामनाथ। इनमें से रामनाथ को भी चार पुत्र हुए– सागर सिंह, नागर सिंह, बाबू नन्दन सिंह और जयराम सिंह। आगे चलकर इस परिवार में नागर सिंह प्राइमरी स्कूल के मास्टर हुए। यह माना जाता है कि इस पूरे गाँव में यही एक घर था, जिसमें खेती-बाड़ी के सिवाय बाहर से सोलह रुपये की आय थी। दरअसल, ये सोलह रुपये नागर सिंह की तनख्वाह थी।

इसी गाँव के ये शिक्षक नागर सिंह अत्यंत एकांतप्रिय और आध्यत्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे। उनके परिवार द्वारा उनका विवाह एक निश्चित व्यय होने पर एक समकक्ष परिवार में कर दिया गया। उनका विवाह बनारस से तीस किलोमीटर दूर हुआ था – फेसुड़ा गाँव में। यह बढ़वल परगने और सकलडीहा तहसील की पूर्वी सीमा पर स्थित सावरण-गोत्रीय भृगुवंशी ठाकुरों का पहला गाँव है। यहाँ की पूर्व पट्टी के ठाकुर रामलखन सिंह उनके ससुर थे। रामलखन के परिवार में तीन बेटियाँ और एक बेटा था। जब बेटा बचपन में ही कालकलवित हो गया तो पीछे तीन बेटियाँ ही बच गईं। इनमें मझली बेटी का नाम बगेसरा था। जब बेटियाँ वयस्क हुईं तो उनकी शादियाँ करने की योजनाएँ बनने लगीं। आसपास के समकक्ष परिवार तलाशे गए। इसी बीच मझली बेटी की शादी के लिए रामपति सिंह और रामकरन सिंह जीयनपुर गए और गहरवार वंशीय ठाकुर रामनाथ सिंह के मझले बेटे नागर सिंह पर उनकी निगाह जमी और दो-तीन बार की दौड़-धूप के बाद उन्होंने शादी पक्की कर दी। शीघ्र ही परिवार द्वारा धूम-धाम से विवाह किया गया।

 

विवाह के कुछ समय बाद ही घर में बेटी ने जन्म लिया, तो सभी ने खुशियाँ मनाईं। किन्तु छोटी उम्र में ही उनकी वह बेटी चल बसी। उन्हें इससे गहरा सदमा लगा। वे भाव-विह्वल होकर फूट-फूट रोए। उन्हें कहीं भी शांति न मिलती, इसलिए वे वैरागी होकर विन्ध्याचल की पहाड़ियों की ओर चले गए। काफी समय तक वहाँ रहे। बताते हैं कि वहाँ उन्हें किसी साधु के दर्शन हुए, जिसने कहा कि तुम यहाँ कहाँ भटक रहे हो? तुम्हारे भाग्य में तो कई पुत्र लिखे हैं, जाओ अपना परिवार संभालो।

वे उस साधु की बात मानकर वापस लौट आए। धीरे-धीरे घर में उनका मन रमने लगा और स्थिति में भी सुधार हुआ।

     थोड़े समय बाद इसी ‘जीयनपुर’ गाँव में, इन्हीं नागर सिंह जैसे एक छोटे किसान के घर में 28 जुलाई 1926 ई. को नामवर सिंह का जन्म हुआ। उनके जन्म पर परिवार में ख़ूब खुशियाँ मनाई गईं, क्योंकि इससे पहले यह परिवार एक बेटी खो चुका था। इस नवागंतुक बच्चे के कारण पास-पड़ोस के लोगों में भी विशेष खुशी व उत्साह का माहौल था। हालाँकि, नामवर का परिवार कहने भर के लिए ज़मींदार था, पर जो ज़मीन थी, वह किसी काश्तकार के ही बराबर थी।

नामवर के पिताजी कोई घोर कर्मकांडी आदमी नहीं थे, किंतु उन्हें इस बच्चे के नाम रखने की रश्म तो करानी ही थी। इसके लिए उन्होंने किसी पंडित को बुलाने की अपेक्षा, घर-परिवार व आस-पड़ोस के लोगों को ही इकट्ठा किया। जब नाम रखने की रश्म हुई, तो बड़े प्यार से पिताजी ने बालक का नाम रामजी रखा।

दूसरी ओर, जब खबर मिली कि मास्टर के घर पहला बेटा हुआ है, तो पड़ोस की एक बूढ़ी औरत भी आई और आकर कहा कि इसका नाम ‘नामवर’ रखो।…वह जाने क्यों आई और आकर कहा कि इसका नाम नामवर रखो। वह अपनी ओर से यह नाम रखकर चली गई और एक हफ्ते के अंदर कुत्ते के काटने से उसकी मृत्यु भी हो गई। हालाँकि उनके पिताजी बेटे का नाम रामजी रखना चाहते थे। वे उन्हें रामजी, रामजी ही कहा करते थे।

खैर यह बात तो आई-गई हो गई।…किंतु बूढ़ी औरत का दिया हुआ यह नाम ही फिर सदा के लिए उनके साथ चिपक गया। बचपन में जब वे बहुत छोटे ही थे, तो उन्हें रामजी कहकर बुलाया जाता, तो वे रोने लगते और ‘नामवर’ कहकर बुलाने से चुप हो जाते। इस प्रतिक्रिया को देखते हुए यही माना गया कि बचपन से ही उन्हें यह नाम पसंद आ गया था।

फिर यही नाम स्कूल में दाखिले के समय सदा के लिए तय हो गया। खैर, पिताजी की ‘रामजी’ नाम के प्रति एक कशक बनी रही, इसलिए उन्होंने बाद में नामवर के छोटे भाई (जो 1932 ई. में पैदा हुए थे) को यह ‘रामजी’ नाम दिया और नामवर सिंह अपने पिता के लिए ‘बड़के जने’ हो गए। फिर उन्होंने पूरी उम्र नामवर को इसी नाम से पुकारा।

दूसरी ओर, परिवार में इनके बाबा रामनाथ सिंह एक नितांत वितरागी आदमी थे। उनकी पाही की खेती करजौड़ा में होती थी, जो गाँव से थोड़ी दूरी पर ही पड़ती थी। वे वहीं एक तालाब के किनारे दिन भर रहा करते। वहीं नहा-धोकर पूजा-पाठ करते। भैंस चराते और बड़े सरल ग्रामीण व्यक्ति की तरह रहते। हालाँकि, उन्हें थोड़ी-सी ही आयु मिली थी, जिसमें वे एक कर्मयोगी की तरह रहे।

नामवर सिंह का परिवार संयुक्त था, जिसमें उनके ताऊजी सागर सिंह मालिक की तरह थे। ताऊजी के आगे कोई नहीं बोलता था। छोटे चाचा बाबू नन्दन सिंह को गाने-बजाने का शौक था। किंतु, बाकी परिवार की इसमें कोई रुचि नहीं थी। वे खेती बिल्कुल नहीं करते थे। स्त्रियाँ पर्दा करती थीं। ताऊजी के आदेशों पर एक नियमित अनुशासन के तहत घर चलता था। नामवर के पिताजी बाहर नौकरी करते और घर के कामकाज में कोई दखल न देते थे। घर में लेन-देन की सारी जिम्मेदारी ताऊजी के ही कंधों पर थी। दूसरे भाई उनका ख़ूब सम्मान करते थे और उनके फैसलों में कोई आनाकानी नहीं की जाती थी। ताऊजी के तीन बेटे थे, जो खेतीबारी का ही काम किया करते। नामवर सिंह भी तीन भाई थे और छोटे चाचाजी को भी एक पुत्र था। इसके अतिरिक्त घर में बुआजी थीं। एक बहन भी थीं, जो विधवा होने के कारण इसी घर में आकर रहने लगी थीं। घर के सबसे बड़े बेटे बदरी सिंह पहलवानी करते थे। उनके लिए घर में अलग से गाय और भैंस थी। इतने बड़े संयुक्त परिवार में रात को सभी के लिए खाना बनाने में अक्सर देर हो जाया करती। तब तक बच्चे सो जाया करते थे। फिर उन्हें उठाकर खाना खिलाया जाता। इधर घर में यदि मेहमान आ जाते, तो सोने की जगह की कमी पड़ जाती, जिससे कई बार आपसी झगड़े व तनाव का माहौल बन जाता, किंतु ताऊजी के आगे सभी चुप रहते थे।

     नामवर के पिताजी अपने पूरे क्षेत्र में एक विशेष सम्मानित व्यक्ति थे। उनसे लोग अक्सर डरते भी थे। वे अपनी पूरी तनख्वाह घर में दे देते। घर में उन्हीं के पैसों से जगह-ज़मीन खरीदी जाती। ‘वे कभी गाँवों के पचड़े-झगड़ों में नहीं पड़े– झगड़े अपने घरानों के हों या पट्टीदार या छोटी-बड़ी जातियों के। अपने काम से काम। न किसी की चुगली सुनना न खाना। नाच-तमाशे और हा-हा हू-हू से कोई मतलब नहीं। बच्चे चाहे जिस जाति के हों- उन्हें डाँट-डपट के स्कूल भिजवाते रहते थे। पाखंड, धूर्तता और झूठ से चिढ़ थी। हुक्का पीते थे– घर पर भी और स्कूल में भी। हमेशा छड़ी या छाता लिए हुए चलते थे– नाक की सीध में; और सिर्फ चलते नहीं थे, देखते भी थे। बेहद नियमित और अनुशासित। कभी नहीं पाया कि स्कूल खुला हो और वे घर के काम निपटाने में लगे हों। गिरस्ती का काम न वे करते थे और न कोई उनसे करने के लिए कहता था।’

 गाँव में अकेले पढ़े-लिखे मिडिल क्लास पास वही थे। वे जल्दी ही प्राइमरी स्कूल के अध्यापक हो गए थे।…वे चुप्पा, एकान्तप्रिय और शाम को थोड़ पूजा-पाठ करने वाले व्यक्ति थे। सुना जाता है कि उन पर अपने पिता की कोई छाया पड़ी होगी, जिसके कारण वे साधु होने के लिए विन्ध्याचल की पहाड़ियों की तरफ निकल गए थे।…वे लौट कर आ गए लेकिन आजीवन वह शाम को पूजा पाठ करते थे। वह अद्भुत अनुशासनप्रिय और घोर मर्यादावादी आदमी थे।…उनकी छवि एक चरित्रवान व्यक्ति की थी। इस चरित्र का बड़ा गहरा असर नामवर सिंह के ऊपर भी पड़ा।’

नामवर सिंह के लिए बचपन से ही वे पिता कम, शिक्षक ज्यादा थे ।

नामवर सिंह स्वयं कहते हैं-

 ‘मैं आज तक उन्हें सिर्फ अध्यापक के रूप में जानता रहा। शायद उन्हीं का प्रभाव हो कि मैं भी चुप्पा ही था। उन्हीं का प्रभाव है कि तीन-चार दिन कोई बात न करे तो महसूस नहीं होता। पिताजी को कभी हँसी-मजाक करते नहीं देखा। उन्हें लोग मास्टर कहकर आदर देते। जब बड़ा हुआ तो जाना, वे मुझे कितना प्यार करते हैं, पर जाहिर कभी नहीं किया। मेरा मन उनके प्रति सम्मान से भरा रहता था। वो डाँटें, गुस्सा करें, मैं जबान नहीं खोलता था।…उन दिनों बड़े पुत्र को नाम से नहीं पुकारने का रिवाज था। पिताजी ने कभी मुझे नाम से नहीं पुकारा। कभी सोते से नहीं उठाया, कभी गोद में लेकर प्यार नहीं किया। अपने बेटों से बात करना या उन्हें दुलारना शर्म समझी जाती थी।’

इसी शर्म में वे उन्हें केवल दूर से देख भर लेते, किंतु कहते कुछ न थे। यही उनके प्रेम का प्रकटीकरण था।

जीयनपुर से एक-डेढ मील पूर्व की ओर ‘हेतमपुर’ नामक एक कस्बा पड़ता है, जिसमें नामवर के पिताजी के मित्र कामता प्रसाद विद्यार्थी जी रहा करते थे। वे पक्के गाँधीवादी और सुराजी थे। वे बाद के दिनों में क्रांगेस में विधायक भी बने। नामवर के पिताजी छुट्टी के दिनों में इनके यहाँ नियमित रूप से बातचीत करने जाया करते थे। ‘उनके घर रोज अखबार आता था। पिताजी रोज वहीं जाकर अखबार पढ़ते थे…वहीं दो-तीन घंटे जमावड़ा होता। ठहाके भी लगते होंगे, पर घर में एकदम मौन रहते।’

      अपने बड़े बेटे नामवर सिंह को लेकर उनके पिताजी के सपने कोई ज्यादा बड़े नहीं थे। उनके सपनों की ऊँचाई ‘जीयनपुर’ के टीलों से अधिक न थी।…वे चाहते थे कि ‘बड़के जने’ मिडल पास करने के बाद नार्मल की ट्रेनिंग करें और गाँव के आसपास ही किसी स्कूल में मास्टर हो जाएँ। खेती-बारी सँभालें और पढ़ाएँ भी। यह नामवर सिंह को स्वीकार न हुआ और इस मामले में माँ बेटे के साथ थी।

नामवर सिंह अपने पिता से संकोचवश कुछ नहीं कह पाते थे। अपने मन की बातें माँ से  ही खुलकर करते। क्यों न कहें, वे अपनी माँ के सबसे बड़े बेटे जो थे। पहली भूख-प्यास के। (मानसिक, हृदय की भूख-प्यास)। बच्चों के लिए हर भारतीय स्त्री की कामना होती ही है। नामवर के पैदा होने पर उनकी माँ की भी मुद्दत की कामना पूरी हुई थी। माता-पिता की शादी के नौ साल बाद नामवर का जन्म हुआ था।

नामवर सिंह की अपनी माँ के प्रति विशेष आसक्ति रहती। उनकी माँ श्रीमती बगेसरा देवी इकहरे बदन की लम्बी, गोरी, ख़ूबसूरत और धर्मभीरु औरत थी– छोटी से छोटी बात पर मनौती मनाने वाली खुशदिल और हँसमुख। गाने बजाने के लिए हर त्योहार और मौके पर हाजिर। हालाँकि, उन्हें एक दुख बार-बार सालता रहता कि उसका पति पढ़ा-लिखा और वह अनपढ़ गँवार। वह अक्सर कहा करती थीं कि यदि उसके गाँव में स्कूल रहा होता, तो वह अवश्य पढ़ती। वास्तविक रूप से पढ़ने का सुख उन्होंने तब जाना, जब उसके बड़े बेटे (नामवर सिंह) को वजीफा मिला। उसी पैसे से उन्होंने अपने बच्चों को दूध पिलाने के लिए एक बकरी खरीदी। वह चाहती थीं कि उसके बच्चे ख़ूब पढ़े-लिखें और बड़े आदमी बनें। इसके लिए ही उन्होंने अपना गहना-गुरिया सब-कुछ बेच दिया था।

नामवर सिंह बताते हैं

‘मेरी माँ लम्बी, छरहरी थी। पिताजी जितने चुप्पा थे, माँ उतनी मुखर थी। लोकगीतों को गाने की शौकीन। गाँव में हर तरफ उनकी पूछ रहती थी। गाँव की बहुत-सी कहावतें तो उसी के मुँह से मालूम हुईं। वही थी जो गा गा कर और गाते हुए रो रो कर बहुत-सी कहानियाँ सुनाती थीं।’

बचपन में ही एक बार जब नामवर अपनी माँ के साथ ननिहाल गए हुए थे, तो इस गाँव में प्लेग फैल गया। माँ उन्हें लेकर वापस आ गई; पीछे खबर आई की उस परिवार में कोई नहीं बचा। उनकी माँ पर मानो कहर टूट पड़ा। एक ही साथ पूरा परिवार तबाह हो गया। लोगों ने उन्हें संबल दिया, फिर भी पूरी उम्र उन्हें यह दर्द सालता रहा। किंतु वे किसी के सामने इसे जाहिर नहीं करती थीं। कभी विशेष अवसर पर रोते-रोते गाने लगतीं थीं और कभी गाते-गाते रोने लगती थीं। यही उनके दर्द की दवा थी। अक्सर उनकी आँखें पनियल पाई जातीं।

     नामवर सिंह की एक बहन भी थीं, किंतु वह पहले ही गुजर चुकीं थीं। ‘रेशमी या रेशमा नाम था उसका। यही माँ ने उन्हें बताया था।’ बाद में वे केवल तीन भाई ही बचे। जिनमें से मझले ‘रामजी’ गाँव में ही रहते; दूसरे काशीनाथ सिंह- जो आगे चलकर हिंदी के प्रसिद्ध कथाकार और बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के अध्यक्ष हुए।

उनके जो दो चाचा थे, उनके भी कोई बेटी नहीं थी। उनका पारिवारिक जीवन बहन विहीन ही था। बहन के प्यार का सुख उन्हें नहीं मिला। उन्हें बहन के प्यार का अनुभव सरोज से मिला। सरोज उनके पिताजी के घनिष्ठ मित्र और उनके पितातुल्य कामता प्रसाद विद्यार्थी की बेटी थी।’

सरोज को ही वे अपनी बहन मानते। बचपन में इन्हीं के साथ खेलते। तीज-त्योहार पर उन्हीं से राखी भी बँधवाते। बाद में सरोज की शादी जौनपुर के बाबू श्रीकृष्ण दास के साथ कर दी गई। वे जब भी इलाहाबाद जाते, तो सरोज से मिलने अवश्य जाया करते। बाद में उन्हीं के घर में प्रसिद्ध कथाकार मार्कण्डेय को भी शरण मिली थी।

     बचपन में बालक नामवर गाँव में अपने दोस्तों के साथ ख़ूब शरारत करते। उनका परिवार बड़ा और संयुक्त था, तो विशेष देखभाल का अवसर किसी को न मिलता। फिर भी माँ को उनकी ख़ूब चिंता रहती। किंतु, वे बिना परवाह किए, मौका मिलते ही अक्सर घर के सदस्यों से छिप-छिपाकर उत्तर की ओर पड़ने वाले पोखरे की ओर निकल जाया करते। वहाँ ‘महदेवा’ में ख़ूब नहाते। खेल खेलते। एक दिन नहाते हुए वे बहुत गहराई तक चले गए और डूबने लगे। तब बच्चों के प्रयास से उनकी जान मुश्किल से बची थी। वे फिर भी न मानते और उनकी गर्मियाँ इसी महदेवा के तालाब में बीततीं। वहाँ आम तोड़कर खाते। पेड़ों पर चढ़ते-उतरे। ख़ूब धमा-चौकड़ी मचाते। हालाँकि, ऐसा करते-करते वे ख़ूब अच्छी तरह तैरना सीख गए थे। फिर आगे उन्हें गंगा में भी तो तैरना था; वह भी शर्त लगाकर।

      ‘इस गाँव में दो बड़ी बावड़ियाँ होती थीं। एक को बावड़ी कहते थे, दूसरे को पोखरा कहते थे। बंसवार बहुत थी, जंगल था। घरों से लगा हुआ। गाँव के केन्द्र में बरगद का एक बड़ा पेड़ था, वहीं सब बच्चे खेलते थे। सारी गर्मी होरा-पाती खेलते रहते थे। नीम का पेड़ था, उसमें झूला झूलते थे। वहाँ नागफनी का जंगल था। जिसकी लकड़ी का गुल्ली-डंडा बनाकर खेलते थे, जो टूटती नहीं थी।’ इन्हीं शरारतों में उनका बचपन गुजर रहा था।

बाद के दिनों में नामवर सिंह अपने जीवन-संघर्ष से जोड़कर इस गाँव को याद करते हैं तो कहते हैं कि ‘कहने को तो मैं भी प्रेमचंद की तरह कह सकता हूँ कि मेरा जीवन सरल सपाट है। उसमें न ऊँचे पहाड़ हैं न घाटियाँ हैं। वह समतल मैदान है। लेकिन औरों की तरह मैं भी जानता हूँ कि प्रेमचंद का जीवन सरल सपाट नहीं था।’…

‘अपने जीवन के बारे में मैं नहीं कह सकता यह सरल सपाट है। भले ही इसमें ऊँचे पहाड़ न हों, बड़ी गहरी घाटियाँ न हों। मैंने जिन्दगी में बहुत जोखिम न उठाए हों।…जहाँ मैं पैदा हुआ, उस पूरे जवार में उससे छोटा कोई दूसरा गाँव नहीं था। मेरी बिरादरी यानी राजपूत पूरब दिशा में थे और कुछ लोग दक्षिण दिशा में बावली के किनारे। उस गाँव में जो मूल निवासी थे, दक्षिण दिशा में रहते थे। उत्तर दिशा में हमीं लोगों के बीच के लोग थे। बाकी जो पश्चिमी इलाका था, मध्य भाग से लेकर पश्चिम तक वह आम तौर पर पिछड़ी जातियों का था। पूरा गाँव चमारों की तीन बस्तियों से घिरा हुआ था। उस जमाने में वह ऊसर गाँव था और उसमें दो ही चीजें पैदा होती थीं– एक ओर नागफनी के जंगल थे, दूसरी ओर बासों के जंगल थे।…ब्राह्मण कोई न था और नाई-धोबी पड़ोस के गाँव से आते थे। हमारे गाँव के पास गौरव की कोई चीज़ नहीं थी। छोटा-सा ऊसर गाँव। खपरैल और फूस के मकान। रहने वाले बहुत साधारण लोग।’

इस गाँव में फसलें दो ही होती थीं– अगहनी और चैती।

गरमी में भोर की शुरुआत होती सिवान में महुआ बीनने से। दोपहर आम और जामुन के पीछे बगीचे में। रात को जौं की रोटी बनतीं और अरहर की पनियल दाल। गेहूँ को ब्राह्मण देवता कहा जाता। थोड़ा बहुत होता भी तो शादी-ब्याह और श्राद्ध के लिए रखा रहता। प्रायः हर घर में एक-एक भैंस थी, लेकिन जब ब्यायी होती तो उसका मट्ठा ही मिलता- वह भी नपने से, उम्र के हिसाब से। दूध-दही के दर्शन मकर संक्राति को होते, चिउड़ा के साथ।

यह सारा इसलिए था कि सिंचाई कुएँ या दैव के भरोसे थी।’

 उन दिनों गाँवो में त्योहारों का विशेष इंतज़ार रहता।

हालाँकि, आज इस गाँव में नहर है, जिसमें साल भर पानी भरा रहता है। पक्की सड़क बन गयी है, जिस पर मोटर चलती रहती है, जो आसपास के कस्बों से इस गाँव को जोड़ती है। आज प्राइमरी स्कूल भी है और बिजली भी। लेकिन उन दिनों प्राथमिक चिकित्सालय तक की सुविधा न थी। इसी कारण एक बार नामवर की जान पर बन आई थी।

     जब नामवर सिंह लगभग पाँच वर्ष के रहे होंगे, तब उन्हें एक भयंकर रोग ने जकड़ लिया। उनके बाएँ पैर की जाँघ पर एक फोड़ा निकल आया। काफी दिनों तक तो यही न पता चल सका कि यह फोड़ा है। इसे उनकी दशा ऐसी बिगड़ी कि इसे देखकर गाँव के लोगों को उनके बचने की आशा न रही। बालक नामवर का खाना-पीना भी छूट गया और उन्हें भयंकर दर्द होता। उस समय उनके गाँव में न कोई आधुनिक डॉक्टर थे, न ईलाज ही वैसा, जैसा आज है। फिर गाँव के वैद के बताए अनुसार उसे फोड़ा मानकर उपचार किया गया। उपचार में मुश्किल यह थी कि फोड़े का कोई मुँह दिखाई नहीं देता था। इसके लिए नामवर की जाँघ पर जोंके चिपटाई गईं, ताकि वे खून चूस सकें और कुछ राहत मिले। फिर जर्राह को बुलाया गया। उसने फोड़े को काटा, तब जाकर उनकी जान बची। बालक नामवर की जाँघ पर उस लम्बें चीरे और जोकों के काटने के निशान उम्र भर के लिए छूट गए।

     इस समय तक नामवर लगभग छह साल के होने को आए थे। घर में अध्यापक पिता को उनके पढ़ने की चिंता सताने लगी थी। इसी के चलते लगभग छह वर्ष की आयु में उनका नाम एक मील पूरब की ओर पड़ने वाले गाँव ‘आवाजापुर’ के प्राथमिक विद्यालय में लिखवाया गया। उन दिनों यहीं उनके पिताजी भी अध्यापक थे। नामवर ने इसी गाँव में हिन्दी की वर्णमाला सीखी थी ‘न’ पर ‘आ’ की मात्रा ‘ना’।’

यहाँ इस स्कूल में वे अपने चचेरे भाइयों के साथ जाया करते। बीच में एक लम्बा सुनसान रास्ता पड़ता। पेड़-ही-पेड़। गाँव में यहाँ भूतों के रहने की अनेक कहानियाँ अक्सर सुनी-सुनाई जातीं। उन्हें भी इनका ख़ूब डर लगा रहता। ख़ैर, उस समय स्कूल से लौटने वाले विद्यार्थियों ने इस डर से बचने का एक आसान उपाय निकाल रखा था। वे झुंड में चलते और हनुमान चालीसा का ऊँची आवाज में पाठ करते। नामवर इन सबमें आयु व कद से छोटे थे, तो अक्सर उनके पीछे-पीछे चला करते। सभी भजन गाते, तो वे भी उनके पीछे-पीछे गाते। ऐसा करने से उन्हें वह पूरी पुस्तक कंठस्थ हो गई। किसी पुस्तक के साथ यह उनका पहला परिचय था।…आज भी कोई नई किताब दिखाई पड़ जाए तो उनके मन में वही ललक होती है जो बचपन में हनुमान चालीसा के लिए हुई थी।’

स्कूल में सभी विद्यार्थियों से सुलेख लिखवाया जाता। सभी घर से कलम लेकर जाते। तब प्राइमरी में पढ़ने वाले बच्चों को सुलेख की एक छपी कॉपी मिला करती थी और अध्यापक पहला काम सुलेख लिखाने का ही किया करते थे। सभी बच्चे सरकंडे की कलम से लिखते। पट्टी को ख़ूब घिसकर चिकनी बनाते और खड़िया वाली स्याही से उस पर लिखा करते। स्याही के लिए दवात हुआ करती। काम के बाद सभी बच्चे अपनी कलम को मेज में रख देते थे और मास्टर पहला काम यह करते थे कि सबकी कलम काटकर कत लगाकर हर विद्यार्थी को दिया करते थे। उन दिनों सुलेख बहुत आवश्यक समझा जाता था।’

सामान्य पटिया पर ख़ूब बढ़िया सुलेख लिखने पर अध्यापक प्रोत्साहित करते। फिर स्कूल के दूसरे विद्यार्थियों के सामने एक धाक जम जाती। उसे दूसरे विद्यार्थियों के सुलेख लिखवाने का जिम्मा मिलता, सो अलग।

ये सन् 1936 के शुरुआती दिन थे। नामवर सिंह अभी विद्यालय में शिक्षा के शुरुआती सबक सीख ही रहे थे कि उनके पिताजी का तबादला नजदीक के ‘आवाजापुर’ गाँव से ‘माधोपुर’ नामक गाँव में कर दिया गया था। वे अपने बेटे को भी उसी स्कूल में ले गए। वहीं कक्षा चार में नामवर का नाम दर्ज कराया गया।

यह तबादला उनके पिताजी की ईमानदार और स्वाभिमानी व्यक्तित्व का होने की वजह से हुआ था। क्योंकि उस समय उनके गाँव के पास के ही ठाकुर अपरबल सिंह डिस्ट्रिक बोर्ड के चेयरमैन हो गये। वे जमींदार पार्टी के थे और कांग्रेस के कट्टर विरोधी थे। वे वकील भी थे। उनका प्रताप इलाके भर में था। जबकि इनके पिताजी की आस्था कांग्रेस में थी। सन् 36-37 के चुनावों के दौरान अपरबल सिंह ने उन्हें कांग्रेस के विरुद्ध स्वयं भी और गाँव के वोट भी दिलवाने के लिए कहा था। इनके पिताजी ने ऐसा करने से मना कर दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि उनका तबादला गाँव से बहुत दूर, जिले के दूसरे छोर पर, कर दिया गया। वे वहाँ लगभग एक साल तक निरंतर साईकिल पर जाते रहे, लेकिन झुके नहीं। साल भर बाद उनका तबादला फिर वापस ‘कमालपुर’ नामक कस्बे में कर दिया गया, जो उनके गाँव से लगभग तीन मील की दूरी पर था। फिर बालक नामवर भी अपने पिताजी के साथ इसी गाँव के स्कूल में आ गए। यहीं उन्होंने कक्षा पाँच की पढ़ाई की। उनके पिताजी सवेरे उन्हें साथ लेकर स्कूल के लिए निकलते और कभी-कभार बीच में पड़ने वाले गाँव ‘हेतमपुर’ में अपने मित्र कामता प्रसाद विद्यार्थी के घर रुक जाते। बचपन के इन्हीं आरंभिक वर्षों में हेतमपुर के स्वाधीनता सेनानी कामता प्रसाद विद्यार्थी के घर आने-जाने से नामवर का साहित्यिक संस्कार बनना शुरू हुआ।…विद्यार्थी जी लोगों को जरूरत होने पर होमियोपैथी की दवा भी देते थे। उनके घर हरिजन खानसामा था। विद्यार्थी जी खादी पहनते थे। देखा-देखी उस छोटी उम्र में नामवर ने भी फैसला किया कि जीवन भर खादी पहनेंगे। विद्यार्थी जी के यहाँ सैनिक, दैनिक, आज और सस्ता साहित्य मंडल की किताबें आती थीं। सैनिक में छपने वाले कार्टून नामवर को बहुत अच्छे लगते थे। विद्यार्थी जी के यहाँ ही उनका नेहरू की मेरी कहानी, विश्व इतिहास की झलक, गांधी की आत्मकथा सत्य के प्रयोग और टालस्टॉय की प्रेम में भगवान नामक किताबों से परिचय हुआ। टॉलस्टॉय के माई कन्फेशन का अनुवाद जब उन्होंने पढ़ा तो एक अजीब किस्म के पापबोध से घिर बैठे। विद्यार्थी जी के यहाँ जा कर या तो वे किताबें उलटते या उनकी बेटी सरोज के साथ खेलते रहते थे।’

विद्यार्थी जी की पत्नी भी पढ़ी-लिखी भद्र महिला थीं। वे बनारस की थीं और पढ़ाई-लिखाई में काफी दिलचस्पी लेती थीं। दरअसल, उन्होंने ही नागर सिंह को कहा था कि अपने बेटे को भी साथ लाया करें। उनका आग्रह मानकर ही उनके पिताजी नामवर को अपने साथ ले जाते। यदि उनकी स्कूल से छुट्टी न होती, तो उन्हें विद्यार्थी जी के घर ही रहना पड़ता। फिर यहाँ उपलब्ध सस्ता साहित्य मंडल की किताबें पूरा दिन साथ निभातीं।

दूसरी ओर, बालक नामवर को आश्चर्य होता कि पिताजी के अध्यापक होने के बावजूद भी घर में कोई पुस्तक नहीं है। वे सोचते रहते। पुस्तकों के प्रति यही उनकी पहली आसक्ति थी। यह आसक्ति ही उनके जीवन का शगल रही।

नामवर सिंह प्राथमिक पाठशाला को याद करके बताते हैं-

‘प्राइमरी पाठशाला में पढ़ते समय की याद, जिसमें शहर से हमारे अध्यापक बक्से में कुछ किताबें लाए थे, और उन किताबों में एक अलग गंध आती थी। पहली बार जब मैंने हाथ में लिया था तो उन किताबों को पढ़ने की बजाय, सूँघने का मन करता था। पुस्तक के साथ गंध का भाव मेरे मन में आज भी है।…मेरा खेती करने वालों का परिवार था इसलिए किताबों के लिए मेरे मन में जो ललक थी, वह कक्षा में पहली बार उन किताबों को देखकर मुझे लगी।’

नामवर के पिताजी प्रत्येक दिन रामचरितमानस का पाठ किया करते, जिसे पास बैठकर नामवर नियमित रूप से सुना करते थे। उन्हें बचपन में ही रामचरितमानस का यह पाठ सुनते-सुनते ही बहुत सारी चौपाइयाँ याद हो गई थीं। इसी से प्रभावित होकर उन्होंने मेले से रामचरितमानस का गुटका खरीदा और उसे पढ़ते रहते। उनके चाचाजी भी बहुत अच्छे गायक थे। जिससे उनके अंदर संगीत व गायन के संस्कार विकसित हुए।’

नामवर अभी मात्र दस-ग्यारह साल के ही थे, किंतु किताबों के प्रति उनका लगाव किसी वरिष्ठ से भी बढ़कर था। वे किताबों के बीच खेलते रहते। उन्हें छूते-पढ़ते और न जाने क्या-क्या सोचते रहते। इस तरह किताबों के बीच खेलते-खेलते ही वे बड़े हो रहे थे।

नामवर सिंह अपनी कक्षा में भी ख़ूब शरारती थे। अक्सर किसी-न-किसी के साथ लड़ बैठते। मारपीट भी होती। इसकी एक वजह तो यही थी कि उनके पिताजी भी उसी स्कूल में अध्यापक थे। पिताजी के रहने से एक संबल बना रहता। एक दिन जब वे कक्षा पाँच में थे, तो ऐसी ही घटना घटी। वे अपने हेडमास्टर मताअल्लाह खाँ के भतीजे जाहिर खाँ के साथ लड़ पड़े। ये दोनों एक ही कक्षा में पढ़ते थे। यह लड़ाई आपसी मारपीट में इस जगह तक जा पहुँची कि नामवर ने जाहिर के सिर में तख्ती दे मारी। तख्ती लगते ही, उनके सिर से खून बहना शुरू हो गया। सारे स्कूल में हल्ला मच गया।

बच्चों का शोर सुनकर साथ ही पढ़ा रहे अध्यापक उमर मौलवी जी आए और पूछने लगे कि ‘किसने मारा?’ जाहिर ने झट से कहा कि ‘दरवाजे से सिर लग गया, इसलिए सिर से खून बह रहा है।’ यह बात आई-गई हुई, किंतु बालक नामवर पर इस बात ने गहरा असर डाला। वे जाहिर के दोस्त बन गए। यही दोस्ती उन्हें हेडमास्टर मताउल्लाह के भी नजदीक ले गई। बाद में इन हेडमास्टर का उन पर विशेष स्नेह बना।

उन दिनों सभी बच्चे स्कूल नंगे पाँव ही जाया करते थे, तो नामवर सिंह भी नंगे पैर ही स्कूल जाते। नामवर को भी ऐसे देखकर हेडमास्टर उनके पिताजी से हमेशा जूते दिलाने की बात कहते, किंतु जूते न दिलाए जाते। एक दिन वे नामवर को स्वयं बाजार ले गए और जूते दिलवाकर लाए। उन दिनों नामवर खद्दर के कपड़े पहना करते थे। हेडमास्टर खद्दर पहनने की भी मनाही करते थे, किंतु बालक नामवर जिद् करते कि ‘पहनूँगा तो खद्दर ही, चाहे आप जूते दिलवाएँ या नहीं?’

बचपन में परिवार के दूसरे बच्चों को नामवर सिंह की मिसालें दी जातीं। उनकी मेहनत और लग्न से प्रेरणा लेने का उपदेश दिया जाता।

परिवार में सबसे छोटे बेटे काशीनाथ सिंह को भी उनकी माँ नामवर के बारे में अक्सर अनेक बातें सुनाया करतीं।

कि पढ़ने में बहुत तेज थे,

कि इतिहास के पर्चे में किसी एक ही प्रश्न का उत्तर लिखते रहे थे, इसलिए मिडल में फेल हो गए।

कि कादिराबाद में कोई वाचनालय या लाइब्रेरी थी जहाँ अक्सर जाते थे।

कि यू.पी. कॉलेज के पास सरसौली नाम की कोई जगह थी जहाँ कवि सम्मेलन हुआ था; उसमें पहली बार नामवर भी गए थे और ख़ूब जमे थे।

कि कॉलेज की पत्रिका क्षत्रिय मित्र में उनकी कविताएँ तो छपती रहती थीं, लेकिन सबसे पहले उनकी एक कहानी छपी थी– कहानी की कहानी

कि यू. पी. कॉलेज में कोई आयोजन हुआ था जिसमें निराला आए थे। निराला ने खुश होकर बनारस के और कवियों के रहते हुए नामवर को सौ रुपये पुरस्कार में दिए थे। इसी कार्यक्रम में जानकीवल्लभ शास्त्री भी थे, जिन्होंने उन्हें दो सौ रुपये दिए थे।’

स्कूल की छुट्टी के बाद नामवर सिंह अक्सर पास के गाँव ‘आवाजापुर’ में जाया करते थे। वहाँ उनके कुछ मित्र भी बन गए थे। जिनमें जयचन्द सिंह, श्यामनारायण गुप्त, बलराज सिंह, सूबेदार सिंह, रामगति सिंह आदि से साहित्यिक विषयों पर ख़ूब चर्चाएँ किया करते। दरअसल, उन्होंने वहाँ एक साहित्यिक संस्था जैसा माहौल बना रखा था, जिसमें वे अपनी लिखी रचनाएँ सुनते-सुनाया करते। उन दिनों इन मित्रों में से जयचन्द सिंह और श्यामनारायण गुप्त मिडिल एडवांस की तैयारी कर रहे थे। उनके कोर्स में रीतिकाल के कुछ कवियों को भी शामिल किया गया था। नामवर जब उनके पास जाते, तो उनकी तैयारी वाली किताबों से इन कवियों की कविताएँ पढ़ा करते थे। ये कविताएँ अधिकतर श्रृंगार रस की ही होती थीं।

साथ ही यहाँ का वाचनालय भी उनके आकर्षण का केन्द्र था। उन्होंने उन दिनों वहाँ उपलब्ध रहने वाली लगभग सभी पुस्तकें पढ़ीं। हिन्दी के सारे शुरुआती उपन्यास वहीं पढ़े गए। यहीं वे साहित्यलोचन की भी किताबें ख़ूब पढ़ते।

यहीं एक अकबर भाट नामक सज्जन थे, जिनके पुत्र थे अमरीश भट्ट। (वहाँ उनके पिताजी के भी कुछ मित्र थे। उनकी बिरादरी के भी कुछ लोग थे।) उनके बेटे थे जयचन्द्र सिंह, जो कुछ कविताएँ लिखते थे, उनके यहाँ भी बड़ी लाइब्रेरी थी। पहले हिन्दी साहित्य की साहित्यरत्न, विशारद परीक्षाएँ होती थीं, जो उन्होंने पास की थीं। साहित्य की कुछ पुस्तकें साहित्यालोचन, मतिराम ग्रंथावली, बिहारी रत्नाकर- ये सभी रीतिकालीन किताबें भी उनके संग्रह में थीं। वहाँ एक और थे रामरति सिंह जी, वे भी कविताएँ लिखते थे। वे भी भाट थे। इनके यहाँ उपलब्ध बहुत सारी किताबों भी नामवर ने यहीं पढ़ीं। उन्होंने द्विजदेव का ‘रस कुसुमाकर’ वहीं देखा था। इस तरह के बहुत से लोगों से नामवर सिंह की जान-पहचान हो गयी थी और फिर उनके घर आना जाना भी शुरू हो गया था। वहीं एक साहब रहते थे परिमल सिंह। वे नामवर सिंह को पढ़ाते भी थे। इस तरह यह गाँव उनकी पहली साहित्यिक शरणस्थली बन गई थी।

नामवर को पढ़कर नहीं, बल्कि उन लोगों से सुनकर बिहारी के दोहे, रत्नाकर की कविताएँ आ गई थीं। जगन्नाथदास रत्नाकर के ‘गंगावतरण’ और ‘उद्धवशतक’ नामक पुस्तकें भी उन्होंने पहले-पहल यहीं देखीं। जब वे मिडिल में पहुँचे, तो उन्हें सौभाग्य से वहाँ भी अच्छे अध्यापक मिले। उन्हीं में एक उपाध्याय जी भी थे। वे सवैया लिखते थे और साहित्य के अच्छे मर्मज्ञ थे। वे उन्हें कक्षा पाँच में पढ़ाते थे। नामवर पर उनका भी प्रभाव पड़ा।

इधर सन् 1936 के दिन शुरू हो गए थे। उन दिनों हिन्दी साहित्य में छायावाद जोरों पर था। हालाँकि द्विवेदी युगीन समस्यापूर्ति के लिए कविताएँ लिखने का भी ख़ूब प्रचलन था। कवि की परीक्षा के लिए उसे कोई समस्या दी जाती और उस पर कविता लिखने को कहा जाता। उनकी मित्र मंडली में भी इसी तरह से कविताएँ लिखीं जाती। वे भी वहाँ बैठे हुए सब सुना करते थे। जैसे एक समस्या वहाँ रखी गई थी– हरीजात पन्नगी हरीरे पर्वत में। हरे पहाड़ों में नागिन छिप गई है। मतलब इशारा था कि दो स्तनों के बीच में स्त्री की वेणी छिप जाती है – ये कल्पना रही होगी।’…इस माहौल का यह असर हुआ कि दर्जा छह तक पहुँचते-पहुँचते नामवर सिंह भी कविता लिखने लगे। पहले उन्होंने कवित्त व सवैया छंद में कविताएँ लिखने का अभ्यास किया। इसके लिए भाषा ब्रज ही रही।

नामवर सिंह लगभग चौदह वर्ष के थे, जब उन्होंने इग्लैंड पर हिटलर की विजय को आधार बनाकर पहली कविता लिखी।

कविता की प्रथम पंक्तियाँ थीं –

“चढ्यौ बरतानिया पर हिटलर पुनीत ऐसे

जैसे गढ़ लंक पर पवनसुत कूदि गो।।”

उन्हीं दिनों एक घटना घटी- सन् ’36-37 के आसपास। उस समय स्कूल में किताबों का एक बहुत बड़ा बक्सा आया था। उसमें शिक्षा विभाग ने नई किताबें भेजी थीं। तब पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी शिक्षा अधिकारी हो गए थे। उन्होंने ही शिक्षा प्रसार योजना के अन्तर्गत तमाम विद्यालयों को किताबें भेजीं थीं। जो मुफ्त में किताबें आईं थीं – उनमें सनेही, बालकृष्ण शर्मा नवीन की कविताएँ थीं- किरण को चीर, कभी आग बनी, कभी पानी बनी। ये सभी किताबों बड़ी सुन्दर छपी थीं। दूसरे विषयों की भी बहुत-सी पुस्तकें आई थीं। नामवर ने वहीं से किताबें लेकर पढ़ीं।

स्कूल में अध्यापक उपाध्याय जी देखते थे कि नामवर सिंह कि कविता में कुछ अधिक रुचि है, खास तौर से मिडिल में पढ़ते हुए। उन दिनों द्वितीय विश्वयुद्ध का जमाना था। इन्हीं दिनों नामवर सिंह को जयचन्द जी ने कहा कि कविता लिखने के लिए ‘नामवर’ नाम तो फिट नहीं बैठता तो उन्होंने ‘पुनीत’ नाम दे दिया। नामवर ने ‘पुनीत’ नाम से लिखना शुरू कर दिया। उस समय विद्यालयों में अन्ताक्षरी होती थी, जिला टूर्नामेंट होते थे। उनमें रीतिकाल की कविताएँ लिखी जाती थीं। इसी की देखा-देखी नामवर ने भी श्रृंगार रस की कुछ कविताएँ लिखीं।

इन दिनों वे कक्षा आठ में पढ़ रहे थे। यहाँ उनकी एक आदत बन गई थी कि वे अपनी स्कूल की कॉपी में ही छुपाकर कविताएँ लिख लेते थे। एक बार उनके साथ इसी कारण रोचक घटना घटी।

उनकी कॉपी में लिखी कुछ श्रृंगारिक पंक्तियों को उनके अध्यापक पं. रामअधार मिश्र जी ने अचानक पढ़ लिया और बोले- ‘अभी बताता हूँ।’

उसकी दो लाइनें इस प्रकार थीं –

आस दुई मास प्रिय मिलन अवधि की है,

उमगै उरोज रहैं, कंचुकि मसकि मसकि।

 ‘उन्होंने पूछा- कंचुकी का मतलब क्या होता है?’ नामवर को मानो साँप सूँघ गया। फिर नाराज होकर बोले ‘नागर को कहता हूँ, तुम्हारी शादी कर दें।’ तब नामवर ने उनसे क्षमा-प्रार्थना की कि पिताजी को न बताएँ। मिश्र जी ने कहा कि यदि तुम डिप्टी साहब के स्वागत में एक कविता लिख दो तो नहीं बताऊँगा। पुनीत ने जब उन्हें कविता लिखकर दी तो वे खुश हुए। किंतु, वे पहले ही बात-बात में उनके पिताजी को नामवर के कविता लिखने की बात बता चुके थे और उनके पिताजी ने उनको कोर्स के बाहर की किताबें पढ़ने पर पाबंदी लगा दी। लेकिन नामवर के अंदर बसे कवि पुनित अब किसी भी बंदिश में आने वाले नहीं थे। वे जमकर कविताएँ लिखते रहते।

नामवर सिंह ब्रज भाषा मे कवित्त-सवैया लिखते और मग्न रहते। उनकी स्कूल की पढ़ाई भी चलती रहती। घर में पिताजी की नौकरी के कारण दूसरे कामों की ओर ध्यान अक्सर कम ही दिया जाता। धीरे-धीरे नामवर के छोटे भाई भी स्कूल की राह पकड़ने लगे थे। सन् 1940 में नामवर ने मिडिल की परीक्षा दी। इस परीक्षा में इतिहास विषय में वे फेल हो गए।

आगे की कथा नामवर की जुबानी –

‘इतिहास मेरा बहुत प्रिय विषय था, और उसी के कारण मैं फेल हुआ था- लोअर मिडिल में। शिवाजी पर प्रश्न आया था- वही मैं लिखने लगा। वह मेरा बड़ा प्रिय विषय था। तो मौलवी साहब की नजर पड़ी- डाँटा, जल्दी-जल्दी लिखो। अन्त में 27 नम्बर मिले। फर्स्ट क्लास है सारे के सारे विषयों में। इतिहास में तीस नंबर मिलने चाहिए थे, तीन नंबर नहीं मिले और मैं फेल हो गया। दोबारा मिडिल की परीक्षा देनी पड़ी। अंग्रेजी ज्यादातर दिलो-दिमाग पर थी, जुबान पर उर्दू। खेल-कूद हमारा ज्यादा होता था। जहाँ हमारा मिडिल स्कूल था, वहाँ बगल में एक तालाब था। आम तौर से तैराकी गाँव में सीखी जाती थी। खेल-कूद में दिलचस्पी थी ही। जहाँ तक साहित्य का सम्बन्ध है, हमारे गाँव में किताब नहीं थी। कुछ स्कूल में होती थी, लेकिन स्कूल में छुट्टियाँ हो जाती थीं, लेकिन जहाँ कोई किताब न हो, लोगों का अपना एक संग्रह होता था। गर्मी के दिनों में, छुट्टी लेकर जाना होता था, तो डेढ़-दो मील की दूरी पर जाता था पांडे जी की लाइब्रेरी में। दो किताबें ले आता था। पढ़ता था, पढ़कर लौटा देता था।’

हमारे गाँव के दक्षिण में एक गाँव है- कादिराबाद। उस समय आस-पास के गाँवों में बी.ए. पास करने वाले वहीं के थे- प्रसिद्ध नारायण सिंह। उन्होंने जब बी.ए. पास कर लिया तो हाथी पर बैठाकर घुमाया गया। वे बहुत बड़े जमींदार भी थे। उनके यहाँ मालूम हुआ, लाइब्रेरी बहुत अच्छी है। तमाम पुरानी किताबें हैं। यही साधन था, यही संस्कार कि कहाँ से, कैसे पाएँ? लेकिन पढ़ते समय एक भूख वहीं से पैदा हुई, क्योंकि हमारे गाँव में किताब नहीं थी। कोई धन्धा नहीं था। तो खाली समय में पढ़ा करते थे। उपन्यास भी मिल जाते थे। जासूसी उपन्यास ‘चन्द्रकान्ता’ वगैरह गाँव में पढ़ा था। मिडिल में जब था, वहीं मैंने पढ़ा।’

पढ़ने के संस्कार लगातार विकसित होते रहे। दूसरी ओर, फिर उन्हें पुनः 1941 में मिडिल की परीक्षा देनी पड़ी। इस बार वे प्रश्नों को लेकर पहले से ही तैयार थे। अबकी उन्होंने न केवल परीक्षा पास ही की, बल्कि उन्हें प्रथम श्रेणी भी मिली। घर में उनकी पढ़ाई को लेकर अध्यापक पिता आश्वस्त हुए।

     नामवर सिंह धीरे-धीरे पढ़ने और लिखने में मग्न रहने लगे। अब उनका कवि नाम भी तय हो गया था। वे पुनीत उपनाम से कविताएँ लिखते रहते थे।

नामवर सिंह के पिताजी चाहते थे कि वे आगे प्राइमरी की ट्रेनिंग लेकर गाँव के आसपास ही मास्टर की नौकरी कर लें। घर की देखभाल भी होती रहे और नौकरी भी चलती रहे। किंतु, उन्हें कामता प्रसाद विद्यार्थी जी के सुझाव पर आगे पढ़ने के लिए बनारस भेजने की सलाह बनी। नामवर भी आगे पढ़ना चाहते थे। इस तरह वे आगे की पढ़ाई के लिए काशी को रवाना हुए। काशी उन दिनों साहित्य, संस्कृति और विचार का संगम थी।

===============================================

दुर्लभ किताबों के PDF के लिए जानकी पुल को telegram पर सब्सक्राइब करें

https://t.me/jankipul

 
      

About Prabhat Ranjan

Check Also

विनीता परमार की कहानी ‘अश्वमेध का घोड़ा’                                                

आज पढ़िए विनीता परमार की कहानी ‘अश्वमेध का घोड़ा‘। इतिहास, वर्तमान के कोलाज से बनी …

32 comments

  1. इतनी जल्दी इतनी तैयारी के साथ आने वाली, इतने आधुनिक ढंग से लिखी जीवनी का स्वागत है। हिंदी के जीवनी-साहित्य में यह पुस्तक एक महत्वपूर्ण योगदान का संकेत दे रही है। जानकीपुल को और विशेषतः लेखक को एतदर्थ बधाई।

  2. I agree with your point of view, your article has given me a lot of help and benefited me a lot. Thanks. Hope you continue to write such excellent articles.

  3. Hi friends, its enormous piece of writing on the topic of cultureand entirely explained, keep it
    up all the time.

  4. Great post. I was checking constantly this blog
    and I’m impressed! Very useful information specifically the last part
    🙂 I care for such info a lot. I was looking for
    this particular information for a long time.

    Thank you and best of luck.

  5. Hello! Do you use Twitter? I’d like to follow you if that would be ok.
    I’m absolutely enjoying your blog and look forward to new posts.

  6. I am not sure where you are getting your information, but great topic.

    I needs to spend some time learning more or understanding more.

    Thanks for great info I was looking for this information for my mission.

  7. Wonderful, what a web site it is! This web site presents useful data to us, keep it
    up.

  8. It’s in reality a great and useful piece of information. I am
    glad that you shared this helpful info with us. Please keep us up to date like this.
    Thanks for sharing.

  9. Nice post. I was checking constantly this blog and I am impressed!
    Extremely helpful info specially the last part 🙂 I care for
    such information much. I was seeking this particular information for a very long time.
    Thank you and best of luck.

  10. Great post. I will be going through many of these issues as
    well..

  11. Hi there to all, how is all, I think every one is getting more from this website, and your views are nice in favor of
    new viewers.

  12. you are really a just right webmaster. The site loading pace is incredible.
    It seems that you are doing any unique trick. Furthermore,
    The contents are masterwork. you have performed a magnificent
    task in this subject!

  13. Hi Dear, are you actually visiting this site daily,
    if so then you will without doubt take good experience.

  14. hey there and thank you for your information – I’ve certainly picked up
    something new from right here. I did however expertise several technical issues using this web site, as I experienced to reload the website lots of times previous
    to I could get it to load correctly. I had been wondering if your web host is OK?
    Not that I’m complaining, but sluggish loading instances times will often affect your placement in google and
    could damage your high quality score if ads and marketing with Adwords.
    Anyway I’m adding this RSS to my email and could look out for a lot more of your respective exciting content.
    Make sure you update this again soon.

  15. Do you mind if I quote a couple of your articles as long as I provide credit and sources
    back to your weblog? My website is in the very same niche
    as yours and my visitors would truly benefit from a lot
    of the information you provide here. Please let me know if this alright
    with you. Regards!

  16. I was curious if you ever thought of changing the structure of your website?
    Its very well written; I love what youve got to say.
    But maybe you could a little more in the way of content so people could connect with it better.

    Youve got an awful lot of text for only having 1 or 2 pictures.
    Maybe you could space it out better?

  17. I used to be recommended this website by my cousin. I am not positive whether or not this submit is written by means
    of him as nobody else recognize such unique about my
    difficulty. You’re incredible! Thank you!

  18. First off I would like to say excellent blog! I had a quick question that I’d like to ask
    if you don’t mind. I was interested to find out how you center yourself
    and clear your mind prior to writing. I’ve had trouble clearing
    my thoughts in getting my thoughts out. I do enjoy writing however
    it just seems like the first 10 to 15 minutes are usually wasted
    simply just trying to figure out how to begin. Any ideas or tips?
    Cheers!

  19. Excellent weblog here! Also your site so much up very fast!
    What web host are you using? Can I get your affiliate hyperlink on your host?
    I desire my website loaded up as quickly as yours lol

  20. Pretty part of content. I just stumbled upon your web site and in accession capital to say that
    I acquire in fact loved account your blog posts.

    Anyway I’ll be subscribing on your augment and even I achievement you get entry to persistently fast.

  21. What a material of un-ambiguity and preserveness of
    valuable knowledge about unpredicted feelings.

  22. I blog quite often and I really appreciate your information. Your article has truly peaked my interest.
    I am going to bookmark your blog and keep checking for new details
    about once per week. I opted in for your RSS feed too.

  23. We’re a group of volunteers and starting a new
    scheme in our community. Your site offered us with helpful info
    to work on. You’ve performed an impressive activity and our whole
    group can be thankful to you.

  24. Nice answer back in return of this query with firm
    arguments and telling the whole thing on the topic of that.

  25. I do not know if it’s just me or if perhaps everybody
    else experiencing issues with your website. It appears like some of the text within your
    posts are running off the screen. Can someone else please comment and
    let me know if this is happening to them too? This might be a
    problem with my internet browser because I’ve had this happen before.
    Many thanks

  26. I don’t even know how I ended up here, but I thought this post was good.
    I do not know who you are but certainly you’re going to a famous blogger if you aren’t already 😉 Cheers!

  27. When some one searches for his vital thing, thus he/she
    wishes to be available that in detail, so that thing is maintained over here.

  28. Hi, just wanted to say, I liked this post. It was funny.
    Keep on posting!

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *