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युवा कवि को लिखा एक ख़त: “तूजी शेरजी” को लिखे गए कृष्ण बलदेव वैद के एक ख़त का अनुवाद

कल प्रसिद्ध लेखक कृष्ण बलदेव वैद की जयंती है। इस अवसर पर प्रस्तुत है जानी-मानी कवयित्री, लेखिका, अनुवादक तेजी ग्रोवर के नाम उनकी लिखी एक चिट्ठी, जिसका अंग्रेज़ी से हिंदी अनुवाद तेजी ज़ी ने ही किया है-

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यह ख़त सम्भवतः 6 जून 1984 से कुछ समय पहले डलहौज़ी में पंजाब यूनिवर्सिटी के गेस्ट हाउस के पते पर मेरे एकान्तवास के दौरान मुझे मिला होगा. अपने चंडीगढ़ के आवास के दौरान वैद उन दिनों कुछ समय के लिए दिल्ली में थे. और शायद जल्द ही उन्हें निराला सृजन पीठ, भोपाल की नियुक्ति मिलने वाली थी.

तारीख इसलिए ज़रूरी है क्योंकि उपरोक्त दिनांक को अमृतसर में स्वर्ण मन्दिर में ऑपरेशन ब्लूस्टार किया गया था, जिसके दौरान मेरे परिवार के लोग लगभग अपनी जान गँवा बैठे थे. वे लोग रोज़ दर्शन करने वाले श्रद्धालुओं में से हैं. और वे लौटने को ही थे कि उनकी पीठ के एकदम पीछे तोपों से गोले बरसने लगे. 6 जून के बाद पंजाब से पूरे देश का सम्पर्क कुछ समय के लिए टूटा रहा, यहाँ तक कि मुझे अपने घरवालों के बारे में खबर भी बड़ी मुश्किल से मिली. वैद और चम्पा जी को भी उन्हीं दिनों डलहौज़ी आना था. लेकिन हुआ यह कि उस गेस्ट हाउस तक में मेरे सिवा कोई भी नहीं पहुँच पाया था. इतना मौन और एकान्त मुझे इससे पहले कभी नसीब ही नहीं हुआ था (और न ही मेरे वहाँ कोई फ़ोन था). मुझे याद है मैंने रोबर्ट म्युसिल का चार-खण्डों वाला उपन्यास THE MAN WITHOUT QUALITIES उसी अलभ्य और सान्द्र एकान्त में पढ़ा था. और यह सम्भवतः उन्हीं दिनों की बात है जब पंजाबी पत्रिका प्रीत लड़ी के सम्पादक सुमीत सिंह पंजाब के आतंक में मारे गये थे.

मनजीत बावा, जो हर गर्मी डलहौज़ी में ही बिताया करते थे, मुझे लेकर इतना चिन्तित हुए कि मेरे घुटने की चोट और स्वर्ण मन्दिर पर की गयी कार्यवाही के बाद गहराई में अलग-थलग पड़े गेस्ट हाउस से मुझे अपने घर लिवा ले गए. घर के साथ लगा उनका होटल मेहर भी था. घुटने की चोट करारी थी लेकिन फिर भी मैं मंजीत के बेटे रवि से ख़ूब खेला करती थी और उसके संग रहकर इशारों की भाषा सीखने लगी थी.

वैद और चम्पा जी जब अमरीका से चंडीगढ़ आये तो चंडीगढ़ की साहित्यिक बिरादरी ने भूखे शेरों की तरह उन्हें घेर लिया. उनमे से एक शेर मैं भी थी, और उनसे मुलाक़ात के कुछ ही दिन बाद वैद ने मेरे नामकरण कर दिया: “तूजी शेरजी”, और इसके कुछ ही समय पश्चात वे मेरे लिए प्रेपी और केबी हो गये. बाद में कभी मुझे लगा कि मुझे अपना नाम बदल ही लेना चाहिए था. “तूजी शेरजी” में केबी की जो दहाड़ थी जो इस ख़त के अनुवाद दौरान मुझे लगातार घेरे रही है.

इस ख़त के साथ क्या कृष्ण बलदेव वैद पहले बार अंग्रेज़ी से हिंदी में अनूदित हो रहे हैं?- तेजी ग्रोवर 

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बघियाड़ जी[i],

आज भी मेरा लैटर बॉक्स क़रीबन ख़ाली रहा. शादी के बारे में न चम्पा से कोई ख़त आया, न लड़कियों से; न तुमसे, न ख़ुदा से; न ही अन्य किसी नरक कुण्ड से. और यहाँ बैठा मैं सोचने लगा था कि मैं ख़तों के ज़रिये संदिग्ध संप्रेषण का  सर्वोपरि सम्राट बन चुका हूँ. मैं अपनी पत्रात्मक मूर्खता पर अड़ा हुआ हूँ. मैं ढीला नहीं पड़ा हूँ. मैं कोई संकेत भी नहीं समझता. मैं अपना राग अलापता रहता हूँ क्योंकि यहाँ रहते हुए मेरे सर्जनात्मक रस मटमैले हो गए है; इसलिए भी कि मैं अस्थाई तौर पर हथियार फेंक चुका हूँ; इसलिए भी क्योंकि शायद मैं उम्मीद पाले बैठा हूँ कि मैं लिख-लिख इस मन्दी से उबर जाऊँगा.

जैसा कि तुम जानती हो कि जब रिल्के ने युवा कवि को अपना मशहूर ख़त लिखा था वह ख़ुद अभी तीस का भी नहीं हुआ था; यह ख़त गुस्ताख़ी और गहराई का अजूबा है. रिल्के ऐसी सलाह दे रहा है, जिसे मानने की बात तो दूर, युवा कवि समझ तक नहीं सकता था. ज़ाहिर है रिल्के ख़ुद से बात कर रहा था. मेरा भी एक सपना है कि मैं किसी युवा या बहुत युवा नहीं रहे किसी कवि को ख़त लिखूँ  -– जो शर्मो-हया की निर्बलताओं और असुरक्षाओं से अछूता हो, एक ऐसा ख़त जिसमें मैं ऐसे लहजे में बात कर सकूँ जो एक निखालिस अवसादग्रस्त मुखाकृति वाले प्रेपी[ii] के लिए उपयुक्त हो, एक ऐसा ख़त जो दरअसल मैं स्वयं के युवा सेल्फ़ को लिख रहा होऊँ. यह मेरा सपना है जैसे मेरे और भी कई सपने हैं, लेकिन जब मैं इसे लिखने बैठता हूँ तो इससे अधिक आसान, अधिक ग्राह्य, दिल्लगी मुझे लुभा ले जाती है; मैं स्मृति और ख्वाहिश के जाल में फंस जाता हूँ; संक्षेप में मैं ज़ाती तुच्छताओं में उलझ जाता हूँ. शायद इस ख़त में मुझे मोना गुलाटी से मुख़ातिब होना चाहिए था — क्या मैं तुम्हें बता चुका हूँ कि उसने फ़ोन पर मुझसे कहा कि वह मुझसे मिलना चाहती है और कि मैं उसे उसके चेम्बर में मिल सकता हूँ (वह वकील है) और जब मैंने उससे कहा कि वह मुझसे यहाँ आकर भी मिल सकती है तो वह यहाँ तशरीफ़ ले आयी और अपनी सभी समस्याओं को लेकर बात करने लगी, हालाँकि सभी तो नहीं, और वह यह जानना चाहती थी कि क्या मैं उसे अमरीका में नौकरी दिलवा सकता हूँ क्योंकि वह जादुई ग्रीन कार्ड को हासिल कर चुकी थी -– जिसे न मैं जानता हूँ, न ही वह मुझे अच्छा लगता है. मेरा मतलब है हमारी दोस्ती, जैसी भी वह है, एक ऐसी बाधा है जिसे मेरी कल्पना नज़रअन्दाज़  नहीं कर सकती. तब भी मैं कोशिश कर देखता हूँ. इसमें पैरोडी के तत्त्व होंगे— रिल्के के ख़त की मेरी स्मृति के आधार पर -– लेकिन हर अहम पैरोडी की मानिन्द मेरा ख़त सत्य और संजीदगी का प्रयास करेगा; फिर भी हर अहम पैरोडी से भिन्न, इसमें महत्त्व का अभाव होगा.

तो मेरी प्यारी मैडम, हालाँकि तुमने कविता की भीषण समस्याओं के बारे में मुझसे कोई सलाह नहीं माँगी, हिन्दी कविता की दयनीयता की तो बात ही न करें, और जबकि तुम जैसी स्वघोषित रोमांटिक को सलाह देने की योग्यता मुझ जैसे शापित दोषदर्शी में सिरे से ही नहीं है –- हालाँकि मेरे शब्दों के लिए कोई कान होंगें ही नहीं, तब भी भरी गर्मी की इस दोपहर, मैं कविता और कला और सौन्दर्य और शैली और जीवन और प्रेम और प्रकृति और समाज पर ख़त लिखने बैठ गया हूँ.   जैसा कि तुम देख ही रही हो मैं बहुत चकराया हुआ हूँ, तुमसे भी कहीं ज़्यादा, अपनी उम्र और दानिश के बावजूद, इनमें से जो दूसरी है वह पहली का तथाकथित गुण है. शायद तुम नहीं जानतीं लेकिन सबसे सुन्दर कैक्टस रेतीली ज़मीन के असमंजस और उलझन से पैदा होते हैं. मिट्टी दूसरी चीज़ों के अलावा पानी के अभाव से घबरायी हुई होती है; ये असमंजस और घबराहट ही वे वजहें हैं जो माटी को यूफ़ोर्बिया जैसे विचित्र पौधे को  ऊपर धकेलने को बाध्य करती हैं. हो सकता है तुमने euphorbia (यूफ़ोर्बिया) के बारे में न सुना हो, क्योंकि यह euphoria (उल्लासोन्माद) नहीं है जो रोमांटिक लोग शाम के वक़्त महसूस करने लगते हैं.    खैर,  जो कैक्टस इस उलझन की बदौलत बाहर निकल आते हैं, वे ख़ुद भी असमंजस में होते हैं; वे दरअसल अपने विचित्र सौन्दर्य से खुद ही शर्माए हुए होते हैं, इसलिए भी कि वे मोतियों, गेंदों, शिश्नों की तरह दिखते हैं; उनके पास इस बात को समझने का कोई तरीक़ा नहीं कि उनकी माँ-माटी के असमंजस की परिणिति कंटकों के वैभव में कैसे हो सकती है; उन्हें इस बात का कोई इल्म नहीं होता कि उन्हें ऐसी तपस्वी भव्यता क्योंकर हासिल करना होती है. लिहाज़ा उनका असमंजस और उलझन अंततः कैक्टस के फूलों में रूपायित हो जाता है. मसलन क्रिस्मस कैक्टस पूरा साल अपने असमंजस और लज्जा को संजोये रखता है और क्रिस्मस के मौसम में सुन्दर लाल फूलों की शक्ल में उनसे पीछा छुड़ा लेता है. कई और कैक्टस क्रिस्मस कैक्टस का अनुसरण करते हैं. इनमे से कुछ क्रिस्मस कैक्टस का करतब कर दिखाते हैं; दूसरे असफल हो जाते हैं. युवा मिस, मेरा आशय यह है कि असमंजस भले ही कमी या ख़ामी हो लेकिन यह ज़रूरी नहीं कि वह मुझे कविता और कला और ….. के बारे में एक मूरख लेकिन सुस्पष्ट ख़त लिखने से रोक सके.

खैर, तुम्हारे पहला प्रश्न क्या था? मुझे मालूम है, मिस, कि तुमने मुझसे कोई प्रश्न नहीं पूछा, लेकिन बात करने का मेरा एक अन्दाज़ है, ख़ुद को प्रस्तुत करने का, और फिर वाक्पटुता के प्रपंच का आदि भी हो चुका हूँ मैं. मुझे लगता है कि कविता की बारे में युवा कवि का पहला दुराग्रह फ़ॉर्म को लेकर होता है. ध्यान रहे, मिस, कि हम ऐसे युवा कवियों की बात नहीं कर रहे जिनमें प्रतिभा ही नहीं है; ऐसे जीवों की तो कोई अहमियत ही नहीं है, सहमत होगी? मुझे मालूम है तुम मुझसे बमुश्किल सहमत होती हो, लेकिन तुमसे झगड़ा करने के लुभाव को काबू में रखना होगा मुझे. कविता ज़्यादा अहम चीज़ है; उसकी पीड़ा भी. हाँ, तो मैं कह रहा था कि प्रतिभाशाली युवा कवि अक्सर फ़ॉर्म को लेकर उदासीन होता है और उसे एक ऐसी ग़ैर-ज़रूरी रुकावट मानता है, जोकि समय पाकर कहीं ऊपर से उतर आती है, उन समयों का अवशेष जब लोग मुक्त छन्द में सॉनेट लिखते थे और विलानेल्ल (villanelle) को अभ्यास के रूप में. इनकी जगह हिन्दी के विकल्प चुन लो[iii] क्योंकि तुम जानती ही हो मुझे हिन्दी वर्णमाला का ज्ञान नहीं है. मुझे पक्का नहीं पता फ़ॉर्म को लेकर तुम्हारा अपना रवैया क्या है, किस हद तक तुम उसे लेकर उदासीन हो, लेकिन मुझे ऐसा लगता है, कि उन चिंगारियों के बावजूद जो तुम्हारी आँखों से फूटती हैं, और वे जोखिम जो तुम शिल्प को लेकर उठाती हो और तुम्हारी अनोखी कल्पना की चौंध के बावजूद तुम्हारे निकट फ़ॉर्म संयोग से ही घटित होती है; तुम्हारे हृदय में उसके लिए लालसा नहीं है और न तुम उससे मनुहार करती हो; हो सकता है तुम अपने बिम्बों और वाक्यांशों की आभा से ही सन्तुष्ट हो जाती हो; तुम्हारी कृतियों में फ़ॉर्म की आँख-मिचौनी तुम्हें पर्याप्त सन्तप्त नहीं करती; फ़ॉर्म की जो मौजूदगी उनमें है, वह तुक्के और संयोग से है; तुम्हारे ख़ुदाओं की रहमत से; तुम्हारी अन्यमनस्कता से मिला हुआ उपहार. वहाँ भी मुझे लगता है पर्याप्त बाहुल्य नहीं है –- मेरा मतलब है ख़ुदाओं और अन्यमनस्कताओं का. पुनर्लेखन को लेकर संकोच इस मुआमले में तुम्हारा दुश्मन है. उस ऊर्जा पर तुम्हारी निर्भरता की आदत भी संदिग्ध महत्व की है जो तुम्हें अनिद्रा और बातचीत से मिलती है. माय डिअर मिस, फ़ॉर्म को लेकर कवि लोग गद्यकारों से अधिक पुख्ता पदार्थ के बने होते हैं. जिसका यह अर्थ क़तई नहीं है कि गद्य लिखने वाले फ़ॉर्म को लेकर वैरभाव और द्वेष पाल लें. लेकिन इस मुआमले में उनकी तैयारी बुनियादी तौर पर कम विधिवत होती है. वे नियमों को सीखने के बिना उन्हें तोड़ सकते हैं. कवि ऐसा नहीं कर सकता. उसकी उक्तियों को अधिक सटीक, अधिक स्मरणीय, कम सांयोगिक और अधिक अकाट्य या सम्मोहक होना होता है. इसलिए –- मैं अभी से थक भी गया हूँ  –- मुझे नहीं मालूम तुम्हारी चेतना में कैसे घुसेडूं कि कि तुम्हें फ़ॉर्म की अकाट्य और अटल अनिवार्यता पर मनन करना शुरू कर देना चाहिए. अगर जीवन में तुम्हें रस्मों की अदायगी इतनी प्रिय है –- मुझे पता नहीं ऐसा क्यों लगा मुझे —  तो कला में क्यों नहीं? फ़ॉर्म और है ही क्या सिवा रस्मों के एक ज़ाती नमूने के जो मौलिक जान पड़ता है बिना हमेशा मौलिक हुए.

मुझे लगता है -– अगर मैं ग़लत हूँ तो मुझे टोक देना -– कि एक तरफ़ तुम्हें अपनी प्रतिभा को गम्भीरता से लेने में शर्म आती है और दूसरी ओर तुम खौफ़ खाती हो कि उसका उपयोग न करने से तुम उसे खो दोगी. विनयशील होना एक कमजोरी है, जैसे मैं पहले ही से ज़ोर देकर कह चुका हूँ. मेरा मतलब है ज़ाती तौर पर. सार्वजनिक विनयशीलता एक गुण हो सकता है; है भी. किसी कवि को खुले-आम शेखी बघारने की न ज़रूरत है, न शिव कुमार[iv] की तरह उसे ऐसा करना चाहिए; लेकिन अपनी खोह की गोपनीयता में (यहाँ मुझे किसी ने रोक दिया है, मिस; क्योंकि इस घर में मेरा कमरा सबसे पहला है और लगातार आने-जाने वाले लोग मेरे काम में हमेशा बाधा डालते हैं) उसे अपनी प्रतिभा पर सन्देह नहीं करना चाहिए और उसी क्षण उस प्रतिभा में विश्वास भी नहीं. एक क़िस्म के अस्थिर आस्था. आस्था-विहीन आस्था जो आपको अहमक नहीं बनने देती. बाधित होने से मेरे वाक्य पहले से अधिक कुतरे जा चुके हैं. जो कर्नाटक संगीत मैं सुन रहा हूँ उसका भी इससे कुछ सम्बन्ध है. क्या तुमने किसी ऐसे संगीतकार को देखा है, कर्नाटक या कोई और, जिसका आधार फ़ॉर्म न हो. जिस हद तक कविता एक ऐसी कला है जो ध्वन्यात्मक तौर पर स्वयं को संगीत की उपलब्धियों के निकट मानती है, टेड ह्यूज़ भी फ़ॉर्म को लेकर उदासीन नहीं हो सकता, सिर्फ़ ध्वनि की कीमत पर ही वह ऐसा कर सकता है. और कविता ध्वनि के बिना क्या है? शोर, माय डिअर मिस, शोर.

मुझे ग़लत मत समझना; मैं तुम्हारी कविता के ख़िलाफ़ नहीं हो रहा, हालाँकि ऐसा करना उचित ही होगा क्योंकि इतने दिनों तक तुमने मुझे कोई ख़त नहीं लिखा, न मेरे स्थूल और स्पष्ट संकेतों के बावजूद तुमने मुझे पढ़ा ही है; नहीं, मैं तुम्हारी कविता का प्रचण्ड प्रशंसक हूँ जहाँ तक मैं उसके अनोखे बिम्बों और वाक्यांशों से अचम्भित हो जाता हूँ, और समय-समय पर उसके समूचे प्रभाव से; जो मैं कह रहा हूँ उसकी वाबस्तगी इस बात से है कि मैं काम के प्रति तुम्हारे लापरवाह रवैये को बर्बाद कर देना चाहता हूँ. यकीन मानो मैं किसी क़िस्म की मूरख महत्वाकांक्षा की पैरवी नहीं कर रहा. मुझे इस बात की कोई परवाह नहीं कि तुम्हारी एक भी कविता धर्मयुग में प्रकाशित नहीं होती या तुम्हारा शुमार जाने-माने कवियों में नहीं किया जाता; कोई परवाह नहीं अगर तुम्हारा कोई पाठक या आलोचक नहीं होगा. यह अरबर जो मैं बक रहा हूँ वह तुमसे संजीदा मुद्रा बनवाने की बजाय फ़ॉर्म के प्रति संजीदा सतर्कता का निर्वाह करने की ज़रूरत की ख़ातिर की जा रही है. ऐसी सतर्कता जो अधिक काम में प्रकट होगी और ग़ैर-ज़रूरी चीज़ों को लेकर कम चिन्ता करने में. अब, पलटकर यह तो मत कह देना, मिस : सर, दो नहीं, तो कम से कम पिछले एक महीने से आपने ख़ुद भी क्या किया है सिवा अपनी बौड़म टोयोटा कार के लिए भाग-दौड़ करने के? मैं अपनी फ़ॉर्म पर छिप-छिप कर  लेकिन लगातार काम करता रहा हूँ. दो न सही, पिछले एक महीने से तो ख़तों के अलावा मैंने चाहे कुछ भी न लिखा हो, लेकिन वे ख़त भी फ़ॉर्म का मॉडल रहे हैं, भले ही उनका विषय वस्तु छितराया हुआ रहा हो. दूसरे शब्दों में, वो मत करो जो मैं करता हूँ; वो करो जो मैं तुमसे करने को कहता हूँ. यही वह सलाह है जो हर बड़ा हर छोटे को देता है. एक क़िस्म के प्रेपी होने का अर्थ यह नहीं कि वह बड़ा बनने के क़ाबिल नहीं है.

मुआफ़ करना, मिस, मुझे यहाँ रुकना पड़ेगा. शायद फिर कभी.

यहाँ प्रेरणा ने फिर रोक दिया जो, मुझे लगता है, वह पूछना चाहती थी कि कहीं ऐसा तो नहीं कि मैं इतना पी गया हूँ या लम्पट हो चुका हूँ कि ख़ुद को सम्भाल नहीं पा रहा.

इस आलौकिक घड़ी में घर से बाहर फेंक दिए जाने के बिना मैं टाइप नहीं करता रह सकता, इसलिए मैं अपने धीमे ख़ामोश पेन का सहारा लेकर रेडियो पाकिस्तान पर कोई कोरियाई पाठ सुन रहा हूँ. और फिर मैं अपने रिल्के ख़त को लिखना जारी भी नहीं रख सकता, जिसके लिए उष्ण अपराह्न की सुबोधगम्यता ज़रूरी है. और टाइपिंग का सुथरापन. इसलिए मैं अपनी शाम का बोझ जल्द ही उतार फेंकना चाहता हूँ. मैं राम कुमार के घर (डिनर) पार्टी पर गया था. चित्रकारों की महफ़िल में मैं एक फंसा हुआ सा लेखक था, क्योंकि निर्मल भी नहीं आया था. मुझे लगता है शायद इसलिए भी नहीं क्योंकि एक शाम मैंने इसी जगह उसे किसी अपराध-बोध से ग्रस्त कर दिया था. मैं चित्रकारों की सोहबत में अपनी बेकली के चरम पर चमक रहा था. इनमें से बहुतों से मैं पहले भी मिल चुका था लेकिन न तो वे मुझे अच्छे लगते थे न बुरे, और उनके जीवन साथी जिन्हें राम कुमार की पत्नी को छोड़कर मैं जानता भी नहीं था.

खैर, मुझे गुमनामी के कुछ पल नसीब हुए और मैं चुपचाप बैठा अपना सुमिरन करने लगा. पार्टी तैयब मेहता की शान में आयोजित की गयी थी जो शान्तिनिकेतन से आये थे और जिनका चेहरा-मोहरा मुझसे बहुत मेल खाता है -– चेहरे की हड्डियाँ, मुस्कान…और सब भी. उनकी पत्नी सकीना एकमात्र शख्स थीं जिनसे मेरी कोई बात नहीं हुई. कृष्ण खन्ना भी थे –- चिकने-चुपड़े और वाचाल, जो तस्वीरें खींचते जा रहे थे –- और उनकी बीवी जो पूरा समय मुझसे बात करती रहीं क्योंकि उनकी बेटी वाशिंगटन में है जहाँ उर्वशी[v] भी रहती है. उनकी डांसर बेटी रसिका भी उनके साथ थी. वह पूरा समय अपने पिता के बेहद क़रीब बनी रही –- उनके बालों, कन्धों और घुटनों को सहलाती हुई. और फिर मृणालिनी मुख़र्जी भी थीं (मूर्तिकार जिनसे मैं पहले कभी नहीं मिला था) अपने दाड़ी-धारी पति रणजीत के साथ, एक लोंगोवाल, आभिजात सरदार. उनके प्रति मुख्यतः मेरा आकर्षण इस वजह से भी था कि उन्होंने हाल ही में डलहौज़ी में कुछ दिन बिताये थे और मनजीत बावा के माध्यम से अपने दोस्तों के लिए एक कॉटेज किराये पर लिया था. लिहाज़ा मैंने सोचा ये लोग शायद तुमसे मिले हों या उन्होंने तुम्हें डलहौज़ी में देखा हो. लेकिन मैंने उनसे नहीं पूछा कि इस बाबत वे मुझे कुछ बता सकते थे या नहीं कि क्या तुमने मुझे इसलिए कोई ख़त नहीं लिखा क्योंकि तुम कविताएँ लिख रही हो वगैरह वगैरह. गाएतोंडे भी वहाँ थे -– ख़ामोश मगर ख़ुश. हुसैन तब आये जब सब खा-पी चुके थे. उन्होंने बड़े स्नेह से मुझे गले से लगाया. मुख्यतः शायद इसलिए क्योंकि उन्होंने अपने अतीन्द्रिय ज्ञान से देख लिया था कि मैं उस जगह न सहज था, न मुझे कोई चैन था क्योंकि फ़िलवक्त डलहौज़ी में रह रही मेरी मित्र ने मुझे निकाल-बाहर कर दिया था. सो वे मेरे पास बैठे मुझे आश्वस्त करने कुछ-कुछ बुदबुदाते रहे जबकि बाक़ी सब लोग अचकचाए हुए और ख़ामोश बैठे थे. शाम का अन्त कुमार शहानी की विवादास्पद फ़िल्म तरंग  पर बातचीत से हुआ जो सिर्फ़ मूर्तिकार मोहतरमा ने ही देख रखी थी और उन्हें वह बिलकुल पसन्द नहीं आयी थी. लेकिन बाक़ी सब लोग किसी अवधराणात्मक आधार पर उस फ़िल्म के पक्ष में बोल रहे थे. मैं अकेला टैक्सी लेकर घर आ गया, अकेला और अनासक्त. टैक्सी ड्राईवर ग़ज़ब के लोगों में से था. उसमें भी ख़ूब अतीन्द्रिय ज्ञान था. देखता हूँ कि मैं कल भी इस अदीबी ख़त को जारी रख पाउँगा या नहीं. फ़िलवक्त तो अँधेरे में लेटकर मुरझा जाने के सिवा मेरे पास कोई चारा नहीं है.

मैं Cioran के निबन्ध “रहस्यवादियों से निर्वाह” के एक दो पन्ने पढूंगा और उम्मीद करता हूँ कि मेरी नींद मुझे आराम करने देगी. गुड नाईट, मिस.!

शुक्रवार शोक सुबह[vi]

तो फिर उसे जारी रखते हुए, अगर उसे ख़त कहा जा सके तो: फ़ॉर्म की अनिवार्यता के प्रति जन्मजात या अर्जित उदासीनता के बारे में बहुत हुआ. अब हम काव्यात्मक मूर्खता के स्रोत की ओर मुड़ें: युवा कवि को भीतर झाँक कर देखना चाहिए; उसे ख़ुद से पूछना चाहिए अगर वह नहीं लिखेगी तो क्या वह मर जाएगी? उसे किसी से नहीं पूछना चाहिए उसकी कविता कैसी है. इसी तरह की कुछ और हिदायतें भी हैं. खैर, मैं कुछ और भी जोड़ना चाहूँगा: युवा कवि को अपनी बेचैनी, अपनी व्यग्रता के गुह्य स्रोत को खटखटाना चाहिए: अपने असमंजसों और उलझनों के जलाशयों को, उस कालकोठरी को जिसमें दिन-दुनिया की खौफ़नाक आकृतियों और रात के घोड़ों में प्रकट होने से पहले ये सब जीव दुबके रहते हैं; उस जंगल को जहाँ अमृतसर[vii] की गलियाँ उन सारी बेढब पतंगों में मिल जाती हैं, जो अनाड़ी पतंग-साज़ों द्वारा टेढ़ी करके नंगे-पाँव घूमती खिलाड़ी-लड़कियों को दी जाती हैं, लड़कों जैसी वे लड़कियाँ जो बाद में पियानो वादक बन जाती हैं या पगली वृद्धाएँ; भीतर के नर्क-कुण्ड की ख़ामोशी को भी खटखटाना चाहिए. दूसरे शब्दों में युवा कवि को चाहिए कि वह उसे उकसाने वाली उन शाश्वत चीज़ों का साहसी प्रतिरोध करे जो उसे भरमा ले जाती हैं –- जंगल, चिड़ियाँ, पेड़ — भले ही वे सुन्दर होती हैं. युवा कवि को स्वयं को यह आश्वासन नहीं देते रहना चाहिए कि उसके आगे लम्बा जीवन पसरा हुआ है. उसे ख़ुद को काल्पनिक रुग्णताओं और मृत्यु से डराते रहना चाहिए. उसे अपनी पीड़ाओं को टालते नहीं रहना चाहिए. उसे भ्रमित नहीं होना है और आँखें फाड़े रखकर ही वह फ़ैसला कर सकती है कि कविता के सिवा ऐसी कौन सी चीज़ें हैं जो उसके लिए करना ज़रूरी हैं. युवा या वृद्ध ऐसा कोई कवि नहीं हुआ जो लगातार, या फिर बिना रुके लिख सके. न लिखना लिखने का अनिवार्य पूर्वरंग है. लेकिन युवा कवि को वह ज़ंग बुहारकर साफ़ करना ही होता है जो अधिक वय के कवि स्वीकार कर ही लेते हैं कमोबेश. उपयोग में न रहने से न केवल आपके हाथ-पाँव नकारा हो जाते हैं, बल्कि उमंगें भी. युवा कवि को अपनी उमंगों और संवेगों को नमूनों में तरतीब देकर ऊर्जा में रूपायित करने के बाद उसका निर्मम परीक्षण करना चाहिए. युवा कवि को लालसा करनी चाहिए. यह एक निरर्थक हिदायत है. काट डालो इसे.

चूँकि मैं अब घिसट और सूख रहा हूँ, फ़िलहाल इसे यहीं ख़त्म किये देता हूँ.

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शनिवार दोपहर: नहीं मैं रिल्के का मूड पकड़ नहीं पा रहा हूँ. ग़ैर-साहित्य की इतनी क्षति!

मैं और भी कोई मूड पकड़ नहीं पा रहा हूँ. नरक कुण्ड में भटक आया हूँ. तुम्हारा  दूसरा ख़त भी मुझे उससे निकाल नहीं पाया (यहाँ मैं भीष्म साहनी की कॉल से अवरुद्ध हो गया हूँ). वे चाहते थे मैं प्रीत लड़ी[viii] पत्रिका के लिए लिखूँ (और अपनी जान गँवा बैठूँ, जोकि मेरी मुसीबतों का सही अन्त होगा और जो मुई लाल टोयोटा की बदौलत और फल-फूल गयी हैं. हो सकता है कल इस बेवकूफ़ाना वजह से चंडीगढ़ जाना पड़े. शेरों के बिना चंडीगढ़ भला क्या है?)….या फिर ग़म-ए-हस्ती को बुझा डालूँ. तुम्हारे लेखन की गुणवत्ता को लेकर कोई शिकायत नहीं लेकिन मात्रा र्याप्त से कम है, तिस पर तुम्हारा आलस्य. तो मैंने ख़तों और स्व-पीड़न की भूख को खो दिया है. मैं स्वीकार-भाव और प्रशामक उपचार से ही काम चला लूँगा.

मैं मनजीत बावा को फ़ोन नहीं करूँगा. ऊबाऊ काम है यह. मैंने उसके भाई मनमोहन को लिखा है जो शायद ज़्यादा फुर्ती से उत्तर दे. उनके होटल में मुझे कमरा नहीं चाहिए, मैं पागल हो जाऊँगा. शायद वे ऊपरी बरकोटा में कुछ ढूँढ दें जहाँ घायल घुटने वाले लोगों की पहुँच नहीं होगी. उन घायल अंगों को मेरा प्यार देना. तुम्हारी चोट की मुझे चिन्ता है. तुमने उसे हलके-फुल्के ढंग से लिया है, लेकिन जो तुमने लिखा है उससे तो यह लगता है कि हो न हो तुम्हारे घुटने की चपनी गुम हो चुकी है. जाओ ढूंढो उसे.

टोयोटा की काग़ज़ अभी तक अधूरे नहीं हुए. नौकरशाह मुझे घनघोर कष्ट दे रहे हैं. यह जगह रिश्तेदारों से अटी पड़ी है. तुम इसकी भयावता का विश्वास नहीं करोगी. मैंने निदेशक के घर शिफ्ट न करने का फ़ैसला कर लिया है. मैंने दो दिन पहले Indian Literature को अपनी कहानी उसका जाल का अनुवाद भेजा है जिसका शीर्षक है ENSNARED. मैंने ग़ुस्से में की अपनी कुछ और कहानियों के अनुवाद कुछ और जगह भी भेजे हैं. गुज़रा हुआ ज़माना का अनुवाद मन्थर गति से चल रहा है. जो अनुवाद अंग्रेज़ी में मुझसे बन पा रहा है उससे मुझे घिन आ रही है. कल रात मैंने दुग्गल[ix] के यहाँ खाना खाया. वापिस लौटकर तुम्हें दोबारा लिखना शुरू किया; फिर उसे फाड़कर फेंक दिया क्योंकि मैं तुमसे भी नाराज़ हूँ. LOTUS में मेरी एक कहानी छपेगी — The Stone of Jamun (जामुन की गुठली). इससे तुम मुझसे नाराज़ हो जाओगी. और तुच्छ बातें चाहिए तुम्हें? जो ठस हों, विनोद और विट से अछूती रहने को अभिशप्त. कटाक्ष के दंश से दूर. इस अनाप-शनाप से तुम्हें बचा लेता हूँ, हालाँकि तुम पर सब ढेर कर देने का लोभ भी कम नहीं: तुम्हें यहाँ बिक रहे आमों के दाम और टोयोटा के फ़ॉर्मों की तीन-तीन प्रतियाँ और भान्ति-भान्ति की वीभत्सताएँ. लेकिन हृदय से भिखारी होने के नाते मैं कुछ चुन पाने की स्थिति में तो हूँ नहीं. मैं कभी कल्पना भी नहीं कर सकता था कि जिस ख़त को मैंने इतने सच्चे और जोशीले स्वर में शुरू किया था वह अब एक बेवकूफ़ाना रिरियाहट से अधिक कुछ भी नहीं है, जो एक कीड़े या कीड़े समान किसी जीव के ही लायक है, यानि मिश्रा जैसे लोगों के लायक.

( नोट: इस ख़त का आखरी पन्ना शायद कभी लिखा ही नहीं गया)

[i] पंजाबी के लिए बाघ के लिए यही शब्द है. आगे जब वे लिखते हैं, “चंडीगढ़ शेरों के बिना क्या है”, यही आशय है उनका.

[ii]  वैद साहब को संबोधित कैसे करें, यह प्रश्न था उन दिनों? उन्होंने चम्पा को लेकर तो मेरा असमंजस ख़ुद-ब-ख़ुद हल कर दिया था. उन्हें मुझे “चम्पा जी” कहकर सम्बोधित करना था. उन दिनों मेरी स्टूडेंट्स ने जिद करके एरिक सेगल का लोकप्रिय उपन्यास लव स्टोरी पढ़वाया था. उस उपन्यास की युवा नायिका शायद अपने पिता को प्रेपी (Preppie) कहकर बुलाती है. संक्षेप में कहें तो ऐसा व्यक्ति जो हमेशा स्टूडेंट जैसा लगता हो और वैसा ही व्यवहार करे. कभी उन्हें प्रेपी तो कभी केबी कहने की इजाज़त मिल गयी थी मुझे.

[iii] उन दिनों ऐसा सुनने में आया था कि कुछ आलोचक क़िस्म के लोग कहते फिर रहे हैं कि कृष्ण बलदेव वैद को हिंदी की वर्णमाला तक का कोई ज्ञान नहीं है, और कि वे उर्दू में लिखते हैं और चम्पा जी देवनागरी में उनके लेखन का लिप्यान्तरण करती हैं.

[iv] लाहौर में जन्मे भारतीय मूल के अंग्रेजी कवि (1921–2017) वे विभाजन के बाद दिल्ली में आ बसे थे.

[v] अमरीका निवासी उर्वशी वैद, कृष्ण बलदेव वैद की सुविख्यात लेखक, वकील और एक्टिविस्ट बेटी जो समलैंगिकों के अधिकारों को लेकर प्रतिबद्ध हैं, और उनकी सामाजिक-राजनैतिक सक्रियता की नींव 11 बरस की उम्र में ही विएतनाम युद्ध के विरोध में डल चुकी थी.

[vi]  Friday Mourning: morning की जगह mourning (शोक).

[vii]  मेरे बचपन का शहर जहाँ पतंगबाज़ी करने की वजह से लड़कों का संग-साथ भी ख़ूब मिलता था मुझे.

[viii]  मशहूर पंजाबी लेखक गुरबक्श सिंह द्वारा 1933 में शुरू की गयी पंजाबी की पत्रिका. यह उन्हीं दिनों की बात है जब वैद चंडीगढ़ लौट आये थे कि गुरबक्श सिंह के पोते और उस समय प्रीत लड़ी के संपादक सुमीत सिंह आतंकवादियों के हाथों मारे गये थे.

[ix] सम्भवतः पंजाबी लेखक करतार सिंह दुग्गल

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