आज पढ़िए उर्मिला गुप्ता का यह लेख जो अनुवाद के बहाने आधी आबादी की बात को बड़ी गम्भीरता से उठाने वाली है। उर्मिला गुप्ता अनुवादक, संपादक हैं। आइए उनका लेख पढ़ते हैं-
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बात शुरू हुई माओ की लाइन ‘women hold up half the sky’ के हिंदी समानांतर से। शाब्दिक अर्थ की बात करें तो शायद ‘महिलाएं आधे आसमान की हक़दार हैं’, होना चाहिए। लेकिन हिंदी में ऐसा कोई फिक्स वाक्य, या कोई नारा या कोई काव्य पंक्ति अचानक से ध्यान नहीं आ रही थी।
फिर काव्य की शरण में जाते हुए, जयशंकर प्रसाद की कामायनी में लिखी गई अमर पंक्तियाँ याद आती हैं:
नारी! तुम केवल श्रद्धा हो
विश्वास-रजत-नग पगतल में।
पीयूष-स्रोत-सी बहा करो
जीवन के सुंदर समतल में।
पंक्तियाँ निसंदेह सुन्दर अर्थ समेटे हैं, और नारी को श्रद्धा सहित, अमृत और रत्न जैसे बेशकीमती उपमाओं से संबोधित किया गया है, लेकिन क्या ये नारी की बराबरी को इंगित करती हैं? बेशक उसे श्रेष्ठ बता रही हैं, लेकिन श्रेष्ठ क्यों, मात्र मनुष्य मानने से क्यों परहेज? मनुष्य तो सिर्फ ‘मनु’ ही रहा और ‘श्रद्धा’ व ‘इड़ा’ उसके विकास के लिए ही कामायनी में अवतरित हुईं।
कुछ और टटोलने पर राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त की पंक्ति याद आती हैं:
एक नहीं दो दो मात्राएँ नर से भारी नारी।।
फिर से नर से श्रेष्ठ या भारी बताने पर ज़ोर। बराबरी इतनी भी तो बुरी या छोटी चीज नहीं है। फिर क्यों हमारा पूरा ध्यान एक को बड़ा और दूसरे को छोटा दिखाने में रहा?
थोड़ा और टटोलने पर निराला “शक्ति की करो मौलिक आराधना” करते दिखते हैं। निराला की कालजयी कविता ‘राम की शक्ति पूजा’ राम के टूटते मन को सम्बल देती नज़र आती है। साध्य एक बार फिर से ‘नर’ ही रहा। ‘मनु’ या ‘राम’ या ‘हर कामयाब आदमी के पीछे एक औरत का हाथ होता है,’ वाला ‘आदमी’ साध्य तो यही हैं, बस इनके सहारे के लिए एक प्रॉप के रूप में महिला की उपस्थिति दर्ज होती है।
फिर हमारी संस्कृति का शाश्वत कथन, ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यते, रमंते तत्र देवता’। मतलब जहाँ नारी की पूजा होती है, वहां देवताओं का वास, या रमण मतलब आना-जाना होता है। कहीं ये बैकुंठ या फिर स्वर्ग, जन्नत की तो बात नहीं हो रही? और इसे जाने भी दें तो ‘पूजने’ की बात आई ही क्यों? नारी को पूजा क्यों जाना चाहिए?
फिर संदेह होता है, चूंकि समाज नारी को बराबर का अधिकार नहीं दे सकता, इसीलिए बार बार उसे पूजने की बात करता है। ये बात ‘आदमी’ भी अच्छी तरह जानता है, शायद इसी गिल्ट, ग्लानि को मिटाने के लिए वो अपनी बेटी पर अधिक स्नेह लुटाता है
बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ… सिर्फ यही क्यों… मां को पूजने के स्थान पर बिठाकर, वो पूरी जिंदगी बहन, महिला मित्र, पत्नी, भाभी बाकी सभी रिश्तों में खुद को श्रेष्ठ, और महिला को दोयम दर्जा देता रहा है।
इसी दोष से मुक्ति का समाधान वो बेटी को राजकुमारी मानने से करता है… जीवन में पहली बार वो बेटे और बेटी में अधिक स्नेह और वरीयता बेटी को देता है। शायद अपनी अपराध भावना से मुक्ति के लिए। जबकि ये भी गलत है। जब हम कहते हैं कि बेटा-बेटी एक समान… फिर जीवन की पहली पाठशाला में ही दो बच्चों के बीच भेद कैसे किया जा सकता है।
नारी की तुलना हमेशा प्रकृति की रमणीयता, धरती की सहनशीलता से ही क्यों होती है। क्यों उसके चेहरे को चाँद और उसकी कमनीयता को ही प्रमुखता दी जाती है। क्यों वो सिर्फ एक मनुष्य, आम इन्सान नहीं हो सकती। उसे या तो ख्वाबों से अधिक सुन्दर, या फिर प्रकृति के गुणों से संपन्न ही होना चाहिए। उसमें साहस है तो भी वो मर्दानी ही कहलाएगी। ‘न झुकेगी, न रुकेगी’ तो दुर्गा कहलाएगी। चंचल है तो हवा, तितली। समस्या इन उपमाओं से नहीं है, लेकिन सवाल बस यही है कि क्या उसका सिर्फ नारी होना ही काफी नहीं है। मानो नारी होने की हीनता से निकालने के लिए ही उसे ये सारे उपमान, और सारे रिश्तों से नवाज दिया जाता है। बेटी, पत्नी, माँ, बहन – क्यों वो सिर्फ ‘वो’ नहीं हो सकती।
क्यों नारी को दुर्गा या किसी और देवी के रूप में पूजा जाए। कभी किसी पुरुष की तो आराधना शिव, गणेश या विष्णु के रूप में नहीं होती। पुरुषों का अपना अस्तित्व है और ईश्वर का अलग। उनकी छवियों को आपस में नहीं मिलाया जाता। फिर नारी और देवी के साथ ऐसा क्यों।
नारी को पूजना वास्तव में हमारे मन में छिपी एक ग्लानि ही है। उसे पूजकर, हम उसके प्रति हुए अपराधबोध से मुक्त होना चाहते हैं। पिता और पुत्री के बीच जो ये स्नेह का सम्बन्ध अभी हाल के समाज में और गहनता से देखने को मिलता है, वो भी इसी की पुष्टि करता है।
‘गुंजन सक्सेना’ और ‘थप्पड़’ के पिता जहाँ अपनी बेटियों के लिए अति ‘लिबरल’ और ‘सपोर्टिव’ नज़र आते हैं, वो अपनी पत्नी और दूसरे रिश्तों में ऐसा करते क्यों नहीं दिखते। ‘थप्पड़’ की नायिका अमृता के पिता, जहाँ बेटी पर हुए अत्याचार से बिलबिला जाते हैं, वहीँ उन्हें अपने साथ रह रही पत्नी की घुटन नहीं दिखती।
गुंजन और अमृता के पिताओं को अपनी बेटी को तो कामयाब बनाना है, लेकिन बेटी की माँ की भूमिका सिर्फ उनका घर और रसोई सँभालने तक सीमित है।
ऐसा नहीं है कि सिर्फ यही सच है, हालात इससे उलट भी हैं, लेकिन फिर भी महिलाओं के मामले में, मोटे तौर पर सिर्फ दो ही प्रवृति नज़र आती हैं – या तो उन्हें पूजा जाता है, या फिर दोयम दर्जे का मान लिया जाता है। ‘महिला दिवस’, ‘बेटी दिवस’ जैसे दिन भी इसी भेद को और स्पष्टता से बढ़ाते हैं।
बात सिर्फ बराबरी से शुरू हुई थी, जो किसी दूसरे से चाहिए भी नहीं। पर फिर भी हमेशा बेटी के पैदा होने को ‘घर में लक्ष्मी आई है’ वाक्य से व्यक्त किया जाता है। समझ नहीं आता कि ये हमारी ग्लानि है या सांत्वना। और फिर हमेशा उसका पालन-पोषण ‘परायाधन’ मानकर किया जाता है। और बीच-बीच में चलता रहता है, ‘जितना लाड़ करना है, कर लो, कल को तो उसे अगले घर ही जाना है।’ और ‘घी का लड्डू टेढो भला’ कहकर लड़के को प्यार से झिड़क तो देते हैं, लेकिन मन ही मन अधिकार भाव तो उसी का सुनिश्चित कर देते हैं।
ये दुविधा किसी संपत्ति या कानून के हक के लिए नहीं है, ये दुविधा बस अपनी भाषा में ‘बराबरी’ की पंक्ति ढूंढने भर की है। यकीनन ऐसे अनेकों परिवार और सैकड़ों उदाहरण हैं, जहाँ मातृसत्ता पितृसत्ता पर हावी रही है, लेकिन बात फिर भी बराबरी की आती है।
ऐसे साहित्य, काव्य, सिनेमा और समाज की बात होनी चाहिए, जहाँ दोनों बराबर हों। और बराबरी की भी बात छोड़ दो, बस ‘मनुष्यत्व’ ही रहने दो। देवी, त्याग की मूर्ति, अमृत, सहारा या सिर्फ किसी रिश्ते से संबोधित नहीं… उसे ‘वो’ रहने दो। और ‘women hold up half the sky’ में आसमान भले ही आधा हो, लेकिन उसकी जिंदगी तो पूरी तरह उसकी ही होनी चाहिए। और जब कहीं ‘श्रद्धा’ या ‘इड़ा’ कमज़ोर पड़ें, तो ‘मनु’ भी उसी वैभव से उपस्थित मिलना चाहिए।
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अच्छा लेख है और काव्य पंक्तियों के उद्धरण भी कमाल के हैं l साथ ही सिनेमा से उदाहरण देना भी काफी दिलचस्प है जबकि हम लेखों वगरह में सिनेमा या गीतों की बात ही नहीं करते जबकि उन्हें भी जानकारी का जरिया ही माना जाना चाहिए l mam के लेखों में अक्सर यही सिनेमाई sources दिखलाना बड़ा रोचक लगता है l