नरेंद्र कोहली ने अपने जीवन काल में यही अंतिम किताब तैयार की थी। ‘सागलकोट’ में उनके विस्थापन की मार्मिक कथा है। जब भारत विभाजन के समाय उनको स्यालकोट में अपना घर छोड़ सीमा के इस पार आना पड़ा था। पेंगुइन हिंद पॉकेट बुक्स से प्रकाशित इस किताब का एक रोचक अंश पढ़ते हैं-
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उन दिनों समाचार कहाँ से आते थे, कैसे आते थे, मैं नहीं जानता; पर पिता जी को आवश्यक सूचनाएँ मिलती ही रहती थीं। … कहीं से समाचार आया कि रात को एबट रोड पर दंगाईयों ने धावा बोल दिया था और आधी रात को वहाँ आग लगा दी थी। यह भी पता चला कि हिंदू सेना पहुँच गई थी और सैनिकों ने अधिकांश लोगों को सुरक्षित
निकालकर कैंप में पहुँचा दिया था।
“मेरे दादा-दादी को भी उन्होंने ही वहाँ से बचाया होगा।” नव्या
ने कहा ।
“हाँ। एबट रोड वाले एक साथ ही निकले होंगे।” मैंने कहा । “और आप लोग ?” नव्या ने पूछा।
“हमारे यहाँ, माँ ने पिता जी की ओर देखा, ‘अब ? ”
“अब हमें भी निकल चलना चाहिए।” पिता जी ने कहा, “गली के ख़ाली मकानों में मुसलमान आकर बसने लगे हैं। अब और रुकने का धर्म नहीं है।”
माँ ने हमारे कपड़ों की एक गठरी बाँधी और पिता जी उसे गली वाली रेशमा चाची को दे आए।
“इसे कैंप के पास हमारे रिश्तेदारों में से किसी के घर पहुँचा देना चाची। हम कैंप गए तो वहाँ से ले लेंगे।”
“अब तो कैंप भी भर गया है पुत्तर।” चाची ने कहा, “पर मैं तेरा काम कर दूँगी। ज़िंदगी में पहली बार तो तू ने अपनी चाची से कोई काम कहा है।”
उनका संबंध क्या था, कैसा था, वे जानें। मैं तो इतना ही जानता था कि रेशमा चाची के सामने वाले मकान में पिता जी की विधवा ससुराल में, नगर के अंदर रहती थीं। जाने चाची के घर के सामने चाची अकेली रहती थीं। उनकी एक विवाहिता बेटी थी, जो अपने रहने पर ही रेशमा भी चाची हो गई थी अथवा उसके पति से भी किसी का कोई संबंध था। मुहल्ला डिप्टी का बाग में रेशमा चाची अकेली मुसलमान थीं ।
मुझे भी यह समझ में आ गया था कि माँ और पिता जी घर छोड़ने की तैयारी कर रहे हैं। पक्का तब हुआ, जब माँ ने मेरा वह लाल पलच्छ का कोट निकाल लिया। उसकी आस्तीन उधेड़ कर, उसके कपड़े की दो तहों में अपने नाक-कान के छोटे-छोटे गहने पिरो दिए। आस्तीन को ऊपर से सी दिया ।
माँ को पता चल गया था कि मैंने यह सब देखा है। पर यह तो मैं ही जानता था कि मैं देखकर भी समझ नहीं पाया था कि माँ ने ऐसा क्यों किया है।
“सुन पुत्तर।” माँ ने मेरी बाँह पकड़ कर मुझे अपने पास बैठा लिया, “जब हम कैंप जाएँगे तो मैं तुझे यह पहना दूँगी। तब यह मत कहना कि तुझे गर्मी लग रही है। कैंप में जाकर उतार देना, किंतु रास्ते भर पहने रहना। यदि ऐसा कुछ हो जाए कि तुझे कोई पकड़ कर यह कोट उतारना चाहे, छीनना चाहे, तो उसे कुछ मत कहना। इन गहनों की तो बात भी नहीं करना। वह कोट उतारता पाएगा।” है, तो उतार ले। हमारे भाग्य का होगा तो कोई हाथ भी नहीं लगा पाएगा।”
तीसरे दिन माँ ने नहला-धुलाकर हम तीनों भाइयों को तैयार किया। मुझे दो कमीज़ें पहनाईं। ऊपर से पलच्छ का कोट पहना दिया… गर्मी लग रही थी किंतु माँ और पिताजी
की गंभीर चिंता देखकर हम वैसे ही सहमे हुए थे । . दिया माँ और पिता जी
माँ ने बहुत सारी रोटियाँ बनाई थीं। आलू की सूखी सब्ज़ी बनाई थी। वह सारा सामान छोटी बाल्टी में डाल कर उसमें एक गिलास भी रख लिया था। रेशमा चाची एक टांगा ले आई थीं, जो हमारी प्रतीक्षा में कूचादानी के बाहर खड़ा था।
दोनों किराएदार घर छोड़कर कब के जा चुके थे। इस समय सारा घर हमारे ही पास था। पिता जी ने घर में उपलब्ध सबसे बड़ा ताला मुख्य द्वार पर लगाया और हम कूचेदानी के बाहर आकर टाँगे में बैठ गए।
आज कर्फ्यू नहीं था, फिर भी दुकानें बंद थीं। सड़क पर पहले जैसी भीड़ नहीं थी, जैसी तब होती थी, जब मैं स्कूल जाया करता था। … कहीं से नारा लगने की भी आवाज़ नहीं आ रही थी। कोई जुलूस भी नहीं था। कोई दंगा-फसाद भी नहीं था; किंतु यह सामान्य स्थिति नहीं थी। यह तूफान से पहले का सन्नाटा था। इस सड़क पर तो कंधे से कंधा छिलता था। सड़क एकदम सुनसान तो आज भी नहीं थी। आता-जाता इक्का-दुक्का व्यक्ति अब भी दिखाई पड़ रहा था। …
हम टांगे में बैठ गए। मैं और राजेन्द्र आगे की सीट पर पिता जी के साथ और माँ, दादी और मुन्ना पीछे। घोड़े ने अभी पग बढ़ाए नहीं थे कि एक व्यक्ति आकर खड़ा हो गया। उसने टांगे वाले को रुकने का संकेत किया। उसे देखकर एक और भी आ गया।
“जा रहे हो ?”
“हाँ। जा रहे हैं।” पिता जी ने कहा ।
“अब लौट कर तो नहीं आओगे ?” उसने पूछा।
“हालात पर इंहिसार है।” पिता जी बोले।
“हालात ऐसे ही रहेंगे। इससे भी बदतर हो सकते हैं।” वह बोला, “काफिरों के लिए कुछ भी सुधरने वाला नहीं है।”
पिता जी चुप रहे।
“क्या लेकर जा रहे हो ?” दूसरे ने पूछा।
उन दोनों की आँखें सारे टांगे को खंगाल रही थीं। पिता जी ने बाल्टी आगे कर दी, “बच्चों के लिए दो वक्त की रोटी
लेकर जा रहे हैं।”
“रुपया पैसा ? सोना चाँदी ?”
“सब बैंक में है और बैंक यहीं है।”
“जाओ।” उसकी पूछ-पड़ताल पूरी हो गई थी।
पर दूसरे को अब भी कुछ पूछना था, “बच्चे को कोट क्यों
पहनाया है?”
“इसे हल्का बुख़ार हो रहा है।” माँ ने कहा, “इसलिए पहना दिया है। ठंडी हवा न लग जाए ।”
स्पष्टत: वह व्यक्ति संतुष्ट नहीं था। फिर भी वह बोला, “अच्छा जाओ ।”
वह भी टल गया था।
टांगे वाला जानता था कि कैंप कहाँ था। वहाँ जाकर पता चला कि पिछला कैंप छोटा पड़ गया था, इसलिए उसका त्याग कर दिया गया है। सब लोग नए कैंप में जा रहे हैं। हमारा टांगा भी उधर ही मुड़ गया और पिछले कैंप वालों की भीड़ में ही मिल गया।
“अच्छा।” सहसा नव्या उठ कर खड़ी हो गई, “जाने का मन तो नहीं है, पर देर हो गई है। आगे की कहानी फिर कभी सुनूँगी।
नमस्ते ।”
वह चली गई ।
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