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साहित्य निर्भय नहीं बनाए तो क्या फायदा!

पटना में कवि-विचारक अशोक वाजपेयी पर एकाग्र ‘अशोक यात्रा’ कार्यक्रम का आयोजन किया गया। उसी आयोजन पर यह विस्तृत रपट लिखी है युवा कवयित्री नताशा ने-

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दिनांक 8/12/ 2022 तथा 9/12/ 2022 को पटना के आईआईबीएम हॉल में वरिष्ठ कवि श्री अशोक वाजपेयी के सद्यः प्रकाशित अब तक के रचना समग्र (सेतु प्रकाशन) के अवसर पर पुनश्च, कोशिश, पटना विश्वविद्यालय, तक्षशिला एवं सेतु प्रकाशन के सहयोग से ‘अशोक यात्रा’ कार्यक्रम का आयोजन किया गया।

         पहली संध्या श्री अपूर्वानन्द जी से उनकी लम्बी बातचीत हुई जो लगभग ढाई घंटे तक चली। अपूर्वानन्द जी के सवालों के दौरान कवि-जीवन के सभी पहलू शामिल हुए। बचपन, किशोरवय, युवावस्था, प्रशासनिक जीवन -उसमें आने वाली समस्याएँ – तथा इन सबके बीच का कविता संसार। इस बातचीत की सफलता यह रही कि हॉल में शहर के बहुधा लेखक, कवि,पत्रकार,एक्टीविस्ट,रंगकर्मी कार्यक्रम के अंत तक बने रहे तथा मुग्ध होकर अशोक यात्रा का आनंद लेते रहे।

         दूसरा दिन दो भागों में विभक्त था -प्रश्नोत्तर सत्र तथा कविता-पाठ! इसमें विश्वविद्यालयों तथा अन्य संगठनों के छात्र, लेखक, बुद्धिजीवी शामिल हुए।

          प्रश्नों की शुरुआत पटना विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रोफेसर तरुण कुमार जी से हुई जिन्होंने ‘सत्ता में संस्कृति’ नामक पुस्तक के हवाले से कहा कि बुद्धिजीवियों  का प्रमुख काम सत्ता को सीमित रखने का कैसे हो?

 उत्तर में श्री वाजपेयी ने कहा कि “आज का समय ज्यादा अभागा है। अधिकांश बुद्धिजीवी वर्ग चतुर कायर चुप्पियों में लिपटा हुआ है। इसके बावजूद कुछ लोग सत्ता से आक्रांत न होकर बुद्धि का उपयोग आलोचना के लिए कर रहे हैं। लोकतंत्र समता न्याय पर जो हमले हैं बुद्धि की अवमानना है। ज्ञान का अपमान इतना पहले कभी नहीं हुआ ॰। मध्यवर्ग भी बेहद डरपोक है। यह सच है कि सबसे अधिक क्रांतिकारी, कलाकार इसी वर्ग ने दिए हैं लेकिन बहुत बड़ा डरा हुआ है। एक तरफ उन्हें राम का डर है तो दूसरी तरफ सत्ता का। तो समझिए यह समय ‘राम भरोसे ‘चल रहा है साहित्य निर्भय नहीं बनाए तो क्या फायदा!

          अगला सवाल मार्क्सवादी आलोचना की स्थिति के संबंध में था कि आप इसे वर्तमान में कैसे देखते हैं?

          कवि के अनुसार मार्क्सवादी आलोचना और हिंदी के मार्क्सवादी आलोचना अलग-अलग है। मार्क्सवादी आलोचना को पढ़ते हुए लगता है कि इन लोगों मार्क्सवाद को ठीक से पढ़ा ही नहीं है जो बेहद आक्रामकता लिए हुए उपस्थित रहते हैं। संसार की मार्क्सवादी आलोचना से हिंदी की मार्क्सवादी आलोचना बिल्कुल अलग है। विश्व की मार्क्सवादी आलोचना ने संवेदनशीलता पैदा की। हिन्दी में इसे वैचारिक प्रतिबद्धता के खांचे में बांट दिया। लेखक कोई  संगठन नहीं है कि उसे वैचारिक खांचों में बांट दिया जाए! उन्होंने प्रेमचंद-प्रसाद और अज्ञेय-मुक्तिबोध का हवाला दिया कि मुझे दोनों चाहिए! मैं वैचारिक प्रतिबद्धताओं में इतना क्यों बंध जाऊं। लेखक लिखते हैं अपना काम करते हैं खांचो में बांटने का काम दूसरे लोग करते हैं। यह विभाजन एक तरह की विकृति है। विचारधारा का अतिक्रमण ही बड़ा बनाता है।

         प्रेम कविताओं के संकट पर कवि ने कहा कि जो प्रेम की बेवकूफी नहीं कर रहा वह कविता की बेवकूफी क्यों कर रहा है? कवि इतना कम प्रेम क्यों कर रहे हैं! लेकिन इधर कुछ कवि प्रेम कविताओं के जोख़िम उठा रहे हैं। हालांकि कविताओं में विषय को लेकर भारी कमी है। पिता, मां, बूढ़े पर बहुत कम लिखा जा रहा है। उन्होंने यह भी कहा कि साहित्य को अरण्य की तरह नहीं देखा जाना चाहिए। अपने आस-पास के सामान्य जीवन से साहित्य से विषय चुनने की ज़रूरत है। साहित्य गुरु -गंभीर मामला नहीं! आम जिंदगी घर, पड़ोस विश्वविद्यालय से जोड़कर लिखा जाए।

     उन्होने पुरस्कार वापसी, घृणा और अत्याचार तथा साहित्य की सफलता पर महत्वपूर्ण बात कही। पुरस्कार वापसी से इतना हुआ कि 1 हफ्ते तक लेखक अखबार के मुख्य पृष्ठ पर रहे, प्रधानमंत्री ने टिप्पणी की। लेखकों को लेकर बिहार के चुनाव पर उसका असर पड़ा नीतीश और लालू जी ने इसे मुख्य बिंदु बनाया। लेकिन हुआ यह कि क्रूरता कम नहीं हुई बल्कि बढ़ती चली गई।

       फिर भी अंत में नहीं कहूंगा कि निराशा के भी कुछ कर्तव्य होते हैं ॰। हमारे लिखने से दुनिया बदलती नहीं लेकिन यह उम्मीद बनी रहती है कि दुनिया बदले यह महत्वपूर्ण है।  कविता लिखने की प्रक्रिया को लेकर उन्होंने कहा कि एक कविता लिखने से पहले सौ कविताएं पढ़नी चाहिए यह जानना जरूरी है इससे पहले क्या लिखा गया है। मलार्मे से एक चित्रकार ने पूछा- ‘विचार तो आते हैं कविता नहीं बनती तो मलार्मे ने कहा – “कविता विचार से नहीं शब्दों से लिखी जाती है।”

सिविल सेवा को लेकर उन्होंने कहा कि इस वक्त सिविल सेवाओं में नैतिक पतन बहुत अधिक है।

   साहित्य में विफलता सफल होने से अधिक अनमोल है! इस संदर्भ में उन्होंने मुक्तिबोध तथा भुवनेश्वर के नाम लिए।

      कुल मिलाकर यह एक बेहद अनौपचारिक रोचक तथा ज़रूरी सत्र रहा। जिसमें गंभीर सवालों के साथ छात्रों के जिज्ञासु प्रवृत्तिमूलक सवालों के भी चुटीले अंदाज़ में जवाब दिए गये।

           कार्यक्रम के आखिरी भाग में अशोक जी ने अपनी कविताओं का पाठ किया।

 
      

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4 comments

  1. Literature gains its power when it fearlessly explores new ideas and challenges norms. It becomes a guide that takes us to unexplored places, making us think and inspiring positive changes in how we see the world.

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