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कस्तुरिका मिश्र की कविताएँ

 

आज पढ़िए कस्तुरिका मिश्र की कविताएँ। उनकी कला के अलग अलग रूपों से हम वाक़िफ़ रहे हैं। आज कविताएँ पढ़िए-
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उसके और मेरे जीवन में एक समान गति हैं!
उसका बोझा पीठ पर हैं और मेरा दिमाग पर,
अपने अपने बोझे को ढोने की ताकत हमने माँ से सीखी हैं!
चट्टान कैसी भी हो हमें तिरना नहीं है,
मां की साहसी उंगलियों पर अपने कदमों को दबाना है,
और मजबूती से पसलियों में उठते दर्द में सांस भरना हैं,
हमें पर्वत की सफेद चादर और माल्टा का नारंगी रंग गाल पर मलना हैं,
एक दूसरे के कंधे से बोझ को दिमाग़ तक पहुंचाना हैं,
हमें एक नए सपने को रोज़ जनना हैं,
जो ताश पीटते हुए मर्द के शुक्राणु से नहीं,
“अहम ब्रह्मास्मि” के बीज स्वर से जन्मा हो,
तान बितान, ओहापोह, पानी बिजली से ये आभा मलिन नहीं होगी!!
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मैने चाहा था,
अपने हिस्से की इज्जत,
तुमने उसे झूठ के बादलों से ढक दिया,
चेहरे की मुस्कुराहट रौंद दी,
रिश्ते की कीमत लगा दी,
दिल की दौलत लुटाने वालों पर मनों सोने की असर्फी लाद दिए,
सिलसिले शर्तों पर नहीं उसूलों पर गाढ़े थे मैने,
आधी आधी रोटी बांट लिया
बर्फ में भी आग लगाकर सेंका उसे,
सोचा तुम भूखे होगे,
तुम्हारी नंगी आंखों में फरेब की एक दास्तान पढ़ ली थी मैंने ,
बचाना चाहती थी में तुम्हें उस अंधेरे कुएं में गिरने से, पर…

मुस्कराहट भी चीखती है, दुलार भी रोता हैं,
दरवाज़े सिर्फ खुलते नहीं बंद भी होते हैं,
रूहें भी दीवार बनाती हैं,
बातें भी बुरा मानती हैं,
पर…

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मैं और मेरा मन दरख्तों से बहलते,
दूरियों को मिटा रहे थे,
चुप्पी में छिपा एक राज़, सूने चेहरों की धड़कती भूख को,
कागज़ पर उतार रहे थे,
धुएं का परिंदा चहलकदमी कर रहा था,
मेरे कंधों पर दाएं बाएं घूम रहे थे तुम्हारे थपकियों का एहसास,
कैफे की बेंच पर मेरे हथेलियों में तुम्हारे गर्मी,
डबल रोटी की नमकीन मक्खन की तरह,
पिघल रहा था हमारे बीच,
हमारे जिस्मों का बोझ पिट्ठू की पीठ पर लद कर
अनंत यात्रा पर आगे निकल गया था,
दोस्तो से मिलने का बवंडर होठों की सीढ़ी चढ़कर
मोबाइल की इंस्टाग्राम रील में यादें समेट रहा था,
लाइब्रेरी की छत किताबों की कद को छू रही थी,
पीले, हरे, लाल, नीले पेन उन किताबों को नए सिरे से लिख रहे थे,
कुर्सियां बारिश की बूंदों का आइसक़रीम कोन बनाकर पगडंडियों पर बेच रहे थे,
मामा की 10 साल की शादी बच्चों की चिल्लम्म पो में बिजली की तार सी ट्रिप कर गई थी,
पहाड़ी कुत्ता मेरे स्कूल बैग को कुतर चुका था,
जब मैने बची हुई बर्गर बंदर को दे दी,
कश्मीर की वादी से एक लड़का शिमला में एक दिन की मज़दूरी का मोल भाव कर रहा था,
सफ़ेद पोशाक में बैरे सैलानियों के टेबल के पर्चे के नीचे रखे नोट पर गिद्ध से मंडरा रहे थे,
पेस्ट्री शॉप का मालिक “जाओ” बोलकर भगा दे रहा था,
दो दिन से भूखे मज़दूर को,
कोई काम नहीं ये यहां!
इरफान अंकल बची हुई उम्र को धुंए में उड़ा रहे थे जैसे उन्हें सिगरेट पीने की नहीं,
डब्बा खत्म कर दूसरे लेने की जल्दी हो!
कटे हुए पेड़ों के नारंगी तन अपने आशियाने बनने पर इतरा रहे थे,
मेरे मन का कारीगर मुझ में आखिरी सांस ले रहा था!
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2 comments

  1. I do not even understand how I ended up here, but I assumed this publish used to be great

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