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पुरुष कवियों की कविताओं में स्त्री की उपस्थिति और दृष्टि

युवा कवियों की कविताओं में स्त्रियाँ किस तरह से आई हैं इसको लेकर एक अच्छा लेख लिखा है काशी हिंदू विश्वविद्यालय के युवा शोधार्थी महेश कुमार ने। आप भी पढ़िए-

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प्रस्तुत लेख में कुछ युवा पुरुषों द्वारा रचित स्त्री केंद्रित कविताओं का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में मुख्य रूप से अनुज लुगुन, विहाग वैभव, मनीष यादव और मनीष कुमार यादव की कविताओं को चुना गया है। विश्लेषण का उद्देश्य यह देखना है कि कविताओं में वे अपनी स्त्री पात्रों के साथ कैसा व्यवहार करते हैं? जब कोई पुरुष स्त्री को केंद्र में रखकर कविता लिखता है तो उसे माँ, प्रेमिका, बहन, पत्नी और पुरखिन की तरह याद करता है। याद करने की प्रक्रिया में पुरुष कवि की अपनी जातीय, वर्गीय, नस्लीय और सांस्कृतिक परिवेश का असर कविता के स्त्री पात्र पर पड़ता है। यदि कविता में  नॉस्टैल्जिक होकर केवल स्त्रियों को ममता, त्याग की प्रतिमूर्ति और बाहों में भरकर पुरुष को दुख से उबार लेने वाला बिम्ब, प्रतीक और छवियाँ हैं, तब वह स्त्रियों की कविता नहीं हो सकती हैं । पुरुषों द्वारा लिखित उन्हीं कविताओं को ‘स्त्री कविता’ या ‘स्त्रीवादी कविता’ मानना ठीक होगा जिनमें स्त्री पात्र समकालीन राजनीति में आवाजाही करती हों और पुरुष उसमें उतनी ही बराबरी से साथ खड़े दिखाई दें। कविता में स्त्री पात्र का स्वतंत्र व्यक्तित्व उभरकर आना चाहिए। उसकी मुखरता जितनी दबी रहेगी और कवि ‘समानुभूति’ से जितना दूर होगा, उस कविता में सच्ची स्त्री दृष्टि का अभाव महसूस होता रहेगा और पुरुष होने के अंतर्विरोधों का फासला उतना बड़ा होगा । उदाहरण के लिए विहाग वैभव की कविता ‘मोर्चे पर विदागीत’ की इन पँक्तियों को देखिए,

 “वे बार-बार पूछेंगे नाम तुम्हारा

  और मैं मर जाऊँगा पर नहीं बताऊँगा

  हमें राजा को उसकी वहशी योजनाओं समेत 

  दफ़्न कर देना है और

  समय रहते लौटना भी तो है

 अपनी-अपनी प्रेमिका के बाहों में” 

(मोर्चे पर विदागीत, राजकमल, 2023)

यह कविता प्रेम और स्वतंत्रता के पक्ष में है। लेकिन, कवि जिस राजा से लड़ने की बात कर रहा है उसमें उसकी प्रेमिका प्यार की देवी मात्र है। वह डरी हुई है और कवि उसे प्यार कर रहा है। वह योद्धा की तरह जा रहा है और प्रेमिका पुनः फफक उठी। इस कविता में स्त्री की छवि बस अपने प्रेमी को बाहों में भरने वाली, ममता और करुणा से ओतप्रोत है। कवि (पुरुष) और उसके साथियों का पौरुष इतना हावी है कि मोर्चे पर उनको स्त्रियों की जरूरत नहीं है। स्त्रियाँ (प्रेमिकाएँ) यहाँ बस आरामगाह हैं। यहाँ कवि की भावना सच्ची होते हुए भी समतामूलक नहीं है।

                                          दूसरा उदाहरण अनुज लुगुन की कविता ‘औरत की प्रतीक्षा में चाँद’ में देखिए,

 “वह औरत अपने बच्चों 

  और पति की ओर देखकर बोली-

  ‘मैं कुछ देर पहले ही पति के साथ

  खेत से काम कर लौटी हूँ

  और अभी-अभी अपने बच्चों और पति को सुलाई हूँ

  सब सो रहे हैं, अब मुझे ही घर की पहरेदारी करनी है

  इसलिए जब मैं खाली हो जाऊँ

  तब तुम्हारा काम कर दूँगी

  अभी तुम जाओ’

  और चाँद चला गया उस औरत की प्रतीक्षा में” (अघोषित उलगुलान, राजकमल प्रकाशन, 2023)

यहाँ स्त्री के श्रम का सौंदर्य उभरकर बखूबी आया है। पुरुष और स्त्री मिलकर काम करते हैं। कहा गया है कि स्त्री ने आसमान को अपने चूड़ियों, बिंदी और काजल से सुंदर बना दिया है। चाँद भी चाहता है कि वह स्त्री उसे भी संवार दे। यहाँ तक स्त्री की श्रम का खूबसूरत बिम्ब है। लेकिन, श्रम का जब अति दोहन हो तब वह स्त्री की स्वतंत्रता का और आराम करने के चुनाव का अपहरण करने लगता है। यहाँ कविता में कवि यही कर रहा है। वह स्त्री को अत्यधिक श्रम करते दिखा रहा है। श्रम के महिमामंडन में वह भूल गया है कि रात की पहरेदारी भी वही करेगी तब वह आराम कब करेगी? उसका पति तो आराम से सो रहा है। जीवन में स्त्रियाँ पुरुषों से अधिक श्रम कर रही हैं वैतनिक और अवैतनिक दोनों तरह से। कविता में उन्हें आराम का हक़ तो मिलना चाहिए। पुरुष कवियों की कविताओं में यह लक्ष्य किया जा सकता है कि ‘समानुभूति’ के करीब पहुँचते-पहुँचते जब भी उनके शब्द ‘महिमामंडन’ का सहारा लेने लगते हैं वहीं संतुलन बिगड़ जाता है।  इसलिए जरूरी है कि कविता में ज्यादा से ज्यादा जनवादी पक्ष को लिया जाए जिससे भावुकता के अतिरेक से भी बचाव होगा और स्त्रियों के संवैधानिक मूल्य के प्रति सजगता भी बनी रहेगी।

  पुरुष कवि समकालीन राजनीति, सामाजिक जटिलताओं, परिवार और संस्थाओं के प्रति जितना अधिक संवेदनशील और आलोचनात्मक होगा; उसकी कविताओं में स्त्री दृष्टि उतनी अधिक परिपक्वता से आएगी। इसके अलावा पुरुषों की स्त्री संबंधी कविताओं में स्त्री मुद्दों की विविधता इससे तय होती है कि कवि का अपना सामाजिक दायरा कितना बड़ा है। 

विवेक चतुर्वेदी, मनीष यादव और मनीष कुमार यादव की कविताओं में स्त्रियों के ज्यादातर संदर्भ शहरी मध्यवर्ग और गाँव से आते हैं। उनके यहाँ कामकाज का अत्यधिक दवाब, घरेलू हिंसा, परिवार से बिछुड़ने का दर्द, दैहिक शोषण, ऑनर किलिंग, ब्याहता और अविवाहित स्त्री का अकेलापन का संदर्भ अधिक है। उदाहरण के लिए विवेक चतुर्वेदी की चर्चित कविता ‘स्त्रियाँ घर लौटती हैं’ की इन पँक्तियों को देखिए, 

“स्त्री एक साथ पूरे घर में लौटती है

 वह एक साथ आँगन से चौके तक लौटती है” (hindwi. org)

यह एक कामकाजी वेतन पाने वाली स्त्री का वर्णन है। बाहर काम करने के साथ वह घर में भी काम करती है। यह महिला सशक्तिकरण, अवसर की उपलब्धता, चुनाव की स्वतंत्रता और आर्थिक आत्मनिर्भरता की पोल खोलती पँक्तियाँ हैं। कामकाज के इस अत्यधिक दवाब को धरावाहिकों, विज्ञापनों, कथावाचकों और राजनेताओं के भाषणों ने महिमामण्डित किया है। ‘दीया-बाती’ धारावाहिक में स्त्री पुलिस अधिकारी है और घर लौटकर घूँघट में सबके लिए खाना भी बनाती है। राजनेता बताते हैं कि लड़कियाँ पढ़ेंगी तो घर की आय बढ़ेगी और जनसंख्या नियंत्रण भी होगा। वे पढ़ी-लिखी आदर्श बहू-बेटी बनेंगी। लड़कियाँ जितना पढ़ रही हैं उनको दहेज भी उतना देना पड़ रहा है। कमाई का हिस्सा वो अपने मायके भेजने लगें तो ससुराल को बुरा लगता है। पूँजीवादी राजनीति ने महिला सशक्तिकरण के जिस पक्ष को बढ़ावा दिया है वह आत्मनिर्भरता का एक भ्रम पैदा करता है। ऊपर की पँक्तियाँ इस ओर ध्यान दिलाती है। लेकिन, जब पूरी कविता पढ़ेंगे तो पाएँगे कि यह स्त्री के अत्यधिक काम के मजबूरी को स्वाभाविक बताती हुई ‘धरती का अपनी धुरी पर लौटना’ बताती है। धरती का अपनी धुरी पर घूमना उसका स्वाभाविक और वैज्ञानिक गुण है; जबकि स्त्री का ‘घर लौटना’ एक वृहत सामाजिक बुनावट है। कविता में जिस घर को स्त्री रोज बड़ा कर रही है वह उसकी मजबूरी है न कि स्वाभाविक काम। इसके लिए वर्षों का प्रशिक्षण, सामाजिक नैतिकता और विभिन्न तरह के तंत्र लगे हुए हैं। इसलिए ‘स्त्री का घर लौटना’ और ‘धरती का धुरी पर लौटना’ एक ही बात नहीं है। कविता में इस तरह का अंतर्विरोध आना बताता है कि कवि स्त्री के प्रति संवेदनशील तो है पर परकाया प्रवेश में कहीं न कहीं चूक गया है। हालाँकि, ऐसा सभी कविताओं में नहीं है। उनकी कविता ‘टाइपिस्ट’ उपर्युक्त कविता से ज्यादा स्त्री दृष्टि से परिपक्व कविता है। वहाँ आधुनिक स्त्री के मनोभावों का ज्यादा सटीक प्रस्तुति है। पंक्ति देखिए,

 “मैंने कहा ‘छोड़ी हुई औरत’ 

  फिर वो देर तक खाली स्क्रीन को घूरती रही

  और काँपते हाथों से टाइप किया ‘हिम्मत’

  फिर तो उड़ने लगी उँगलियाँ 

  सारा पेज उसकी हिम्मत से भर गया।” (hindwi.org)

यहाँ एक सचेत और संवेदनशील स्त्री का चित्रण है। यह स्त्री भाषा के भीतर स्त्री द्वेष को पहचान करके उसकी शब्दावली बदलने के लिए तत्पर है। समाज को ऐसी स्त्री और पाठिका की जरूरत है। भाषा में मौजद पितृसत्ता से संघर्ष किए बिना समाज में सच्ची स्वतंत्रता सम्भव नहीं है। भाषा बदलेगी तब समाज का नजरिया बदल सकेगा। 

मनीष यादव और मनीष कुमार यादव की कविताओं में स्त्रियाँ उत्पीड़ित हैं, खासकर विवाहित स्त्रियाँ। उनकी कविताओं में स्त्री पात्र विवश हैं पितृसत्ता के आगे। लेकिन इस विवशता की अनुभूति इतनी वास्तविक है और झकझोरने वाली है मानो एक स्त्री ने ही कविता लिखी है। मनीष यादव की कविता ‘बुलाहटा देती लड़कियाँ’ की इन पँक्तियों को देखिए, 

“किंतु घर से ब्याह दी गयी लड़की को

 इंतजार होता है पिता कर घर जाने का

 भाई के घर जाने का

 पर अपने घर जाने का नहीं” (kavitakosh. org)

दुनिया ‘ग्लोबल’ हो गयी है। कहीं भी आना-जाना आसान हो गया है। लेकिन, एक विवाहित स्त्री के लिए अपने मायके जाना आज भी आसान नहीं है। सामाजिक मूल्य और परिवार के ताने यह सम्भव नहीं होने देती है। विवाह के बाद कोई स्त्री मायके में कोई खास मौके पर ही घर जा सकती है। ऐसे आम दिनों में जाना ठीक नहीं समझा जाता भले ही मायका एक किलोमीटर की दूरी पर हो। घर में आज भी उन्हें जायदाद में हिस्सा नहीं मिलता जबकि संविधान इसके पक्ष में है। यह सब बताता है कि स्त्रियों के लिए ‘अपने घर लौटना या अपना घर होना’ एक झूठ है। कोई विवाहित कामकाजी स्त्री अपने पैसे से जमीन खरीद ले, मकान बना ले और अपने माँ-बाप को साथ रखना चाहे तो भारतीय समाज में यह कितना सम्भव है? कविता में ‘अपने घर’ जाने का मतलब ‘अपने परिवार’ से है। स्त्रियों के लिए यह बेहद मुश्किल है। इसलिए जब यह कविता पढ़ेंगे तो लगेगा कि यह किसी स्त्री की कविता है। इसी तरह ‘बत्तीस बरस की लड़की’ मनीष यादव की उल्लेखनीय कविता है। कविता में एक प्रतिभा सम्पन्न लड़की है लेकिन वह काली है। उसकी त्वचा का रंग उसकी प्रतिभा पर भारी पड़ गया और उसने आत्महत्या कर ली। 

“उसी शुभ दिन माघी पूर्णिमा को

गंगा स्नान करने आई वह लड़की

नहीं लौटी घर

संभवतः कुछ गोते 

जीवन की तैयारी से 

दूर भागने के लिए लगा दिए जाते हैं।”

यह नस्लीय अत्याचार हमारे आसपास रोज हो रहे हैं। गोरी त्वचा का पागलपन के दम पर कॉस्मेटिक बाजार और प्लास्टिक सर्जरी का बाजार खड़ा है। घर-घर में टीवी और मोबाइल ने सुंदरता के इस मानक को सुदूर ग्रामीण इलाकों तक पहुँचा दिया है। साँवली लड़कियों की शादी ज्यादा दहेज देकर किया जा रहा है। एलीट वर्ग प्लास्टिक सर्जरी का सहारा लेता है। जिनके पास पैसा नहीं है उनकी बेटियों को लम्बा इंतजार करना पड़ता है। जो माँ-बाप सामाजिक दवाब नहीं झेल पाते उनकी बेटियों को यह कदम उठाना पड़ता है। सुंदरता का दवाब साँवली लड़कियों में गोरी लड़कियों के प्रति कुंठा और नफरत का भाव भर देता वहीं गोरी लड़कियाँ अतिशय आत्मविश्वास या आत्ममुग्धता का शिकार हो जाती है। हर हाल में नुकसान स्त्री का होता है। यह केवल सुंदरता की बात नहीं है। कविता अपने व्यापक अर्थ में श्रम के अपमान की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करती है। जो खेतों-खदानों में श्रम करती हैं उन स्त्रियों की त्वचा काली और खुरदरी हो जाती हैं। लेकिन, प्रचार में यह दिखाया जाता है कि फलना डिटर्जेंट उपयोग कीजिये तो त्वचा मुलायम रहेगी और पति प्यार करेगा। यह दृश्य कई करोड़ घरों में रोज हजारों बार दिखाया जाता है और उतनी ही बार श्रमजीवी महिलाओं का अपमान किया जाता है। इन दुश्चक्रों की ओर यह कविता ध्यान दिलाती है और समानुभूति की अहसास कराती है।

मनीष कुमार यादव युवतम कवि हैं। उनके पास स्त्री केंद्रित कविताएँ कम हैं। जो हैं उसमें स्त्री दृष्टि की संभावनाओं को परखा जा सकता है। उनकी कविता 

‘कजरी के गीत मिथ्या हैं’ की पँक्तियों को देखिए,

“विवाहित स्त्रियों का भाग जाना

 क्षम्य नहीं होता

 उनको जीवित जला देना क्षम्य होता है…..

 कजरी के गीत मिथ्या हैं

 जीवन में कजरी के गीतों सी मिठास नहीं होती” (hindwi. org)

कजरी ज्यादातर महिलाएँ गाती हैं। उसमें मिठास होती है। लेकिन यह मिठास जीवन में उसी मात्रा में नहीं होती हैं। यूँ तो लड़कियों का घर छोड़कर चले जाना ही हंगामा के लिए काफी होता है। हमारे समाज में लड़कियों के ‘भाग जाने’ का अर्थ यही होता है कि साथ में कोई लड़का होगा ही। एक तो ‘भाग गई’ जैसे शब्द ही आपत्तिजनक हैं। भाग जाना एक मुहावरे की तरह स्थापित हो गया है। उसमें भी एक विवाहित स्त्री का कहीं चले जाना तो समाज (पितृसत्तात्मक) बर्दाश्त ही नहीं कर पाता । समाज वैवाहिक स्त्री का दहेज के नाम पर उत्पीड़न, वैवाहिक बलात्कार, उसके भ्रूण की हत्या, परिवार के अन्य सदस्यों द्वारा यौन शोषण तो बर्दाश्त कर लेता है, पर उसका घर छोड़कर चले जाना नहीं। समाज और परिवार इस मामले में असहिष्णु और क्रूर है। अकारण नहीं है कि स्त्री केंद्रित तमाम लोकगीतों में पुरुषों का मजाक उड़ाया जाता है और स्त्री की वेदना को शामिल किया जाता है। दरअसल यह घर-परिवार में अपनी पीड़ा न कह पाने का एक तरीका लोकगीतों में कह देना है। लोकगीतों में जो मिठास स्त्रियों ने घोले हैं वह जीवन में आना बाकी है। 

विहाग वैभव की कविताओं में प्रगतिशील विचारों और दलित सौंदर्यबोध का मिश्रण है। इसलिए उनकी कविताओं की स्त्री पात्र भी उसी समाज से आती हैं। दलित अस्मिताबोध से सृजित स्त्री पात्र वाली कविताएँ दलित स्त्रीयों के मुद्दे के करीब हैं। विहाग इसके लिए मिथक और इतिहास दोनों का प्रयोग करते हैं। उनकी कविता का विषय होलिका भी है और फूलन देवी भी। विहाग इन स्त्रियों के जरिये आधुनिक पितृसत्ता, परंपरा के नाम पर चल रहे रिवाजों और आधुनिक ब्राह्मणवाद को चुनौति देते हैं। ‘तुम एक औरत की हत्या का जश्न मनाते हो’ कविता की पँक्तियों को देखिए, 

“जो तुम्हारे वर्ण और नस्ल की नहीं होतीं

 तुम उन्हें राक्षसिन कहते हो …

 अब भी तुम उतनी ही निर्ममता से फूँकते हो

 मेरी माँ, बहन, बीवी, प्रेमिका या दोस्त को

 सभ्यता के इस मुहाने अब भी तुम

 एक औरत के जलाए जाने का जश्न मनाते हो” 

(मोर्चे पर विदागीत, राजकमल प्रकाशन,2023)

यहाँ ‘राक्षसिन’ का आधुनिक संदर्भ केवल गैर-सवर्ण स्त्रियाँ न होकर वे सभी साँवली और काली लड़कियाँ हैं जो गोरी नहीं हैं। मिथक की दृष्टि से देखें तो आर्येतर स्त्रियाँ ‘राक्षसिन’ हैं खासकर वे जो आर्यों के वर्चस्व को नकारती हैं। कविता उन सभी दलित स्त्रियों की याद दिलाती है जिनका ब्राह्मण धर्म ने शोषण किया। मिथकीय कथाओं में होलिका दहन, शूर्पणखा प्रसंग, हिडिम्बा का प्रकरण और इतिहास में नंदेली का स्तन काटकर स्तर कर का प्रतिरोध करना, देवदासी प्रथा, डोला प्रथा, बिहार के जनसंहारों में स्त्रियों का बलात्कार और जिंदा जला देने की घटनाएँ सभी इस कविता के भीतर समा जाते हैं। इस कविता का विस्तार ‘लगभग फूलन के लिए’ कविता में और अधिक मुखरता से है। 

कवि लिखता है 

“फूलन जन्मी तो फूल सी थी

  पर वह सही-सही पत्थर और आग से बनी थी।

  जब उसकी आत्मा को उसकी हड्डियों से इतना घिसा

  की वह पत्थर हो गयी …

  पत्थर हो गयी फूलन को पत्थर से घिसा

  इस तरह से तब फूलन आग हो गयी” 

(मोर्चे पर विदागीत, 2023)

कविता मासूम फूलन के व्यक्तित्वान्तरण की कहानी कह रही है। वह ‘पत्थर और आग’ उन आतातायियों के लिए थी जिसने उस जैसे कई मासूम फूलन को फूलन देवी बनने के लिए मजबूर किया। हालाँकि, वे इतने ताकतवर थे कि अंततः फूलन की हत्या करके जश्न मनाया। विहाग फूलन देवी को दलित अस्मिता, स्त्री शौर्य और विद्रोही तेवर वाली पुरखिन की तरह याद करते हैं और अपने समकालीन राजनीति से तीखे सवाल पूछते हैं कि दलित स्त्रियों के हत्या का यह सिलसिला कब रुकेगा? उसका हत्यारा आज ब्राह्मणवादी सवर्णों का प्रिय है और आजाद घूम रहा है । कविता में फूलन मिथक से इतिहास और वर्तमान तक अत्याचारों की क्रमबद्धता को रेखांकित करने वाली पात्र है। आखिर वह समय कब आएगा जब किसी मासूम फूलन को पत्थर और आग नहीं बनना पड़ेगा और वो अपना सहज जीवन जी सकेगी? 

                                      अनुज लुगुन की कविताओं की स्त्रियाँ तुलनात्मक रूप से उपर्युक्त कवियों की स्त्रियों से ज्यादा संघर्षरत, श्रमजीवी और स्वतंत्र दिखाई देती हैं। अनुज लुगुन के पास स्त्रियों को लेकर खासकर आदिवासी स्त्रियों को लेकर एक स्पष्ट समझ और भविष्योन्मुखी दृष्टि है। उनके लंबी कविता का नाम ही है ‘बाघ और सुगना मुंडा की बेटी’। इस कविता में भविष्य का नेतृत्व एक आदिवासी स्त्री के हाथ में है जो अपने साथियों और पुरखों से आदिवासियत का ज्ञान अर्जित करके आने वाले संकटों से लड़ने के लिए तैयार हो रही है। अनुज लुगुन के दो कविता संग्रहों क्रमशः ‘पत्थलगड़ी’ और ‘अघोषित उलगुलान’ में स्त्रियों को केंद्र में रखकर कई कविताएँ हैं। 

अनुज लुगुन आदिवासी समाज से हैं और मुखरता से अपने आदिवासी पहचान को प्रस्तुत करते हैं। इसके साथ ही उनका लम्बा समय गैर-आदिवासी समाज के बीच गुजरता है। इसलिए उनकी कविताओं में दोनों समाज की स्त्रियों की उपस्थिति है। इनकी कविताओं की स्त्रियाँ जनता की राजनीति में भाग लेती हैं। जल-जंगल-जमीन की रक्षा में सरकार और कॉरपोरेट के दमनात्मक रवैये के खिलाफ डटी रहती हैं और स्त्रीवाद का एक जनवादी पक्ष रखती हैं।  ‘पानी में घुसी औरतें’ इसका सटीक उदाहरण है।

“पानी में घुसी औरतें नहीं हैं संसद में

 नहीं हैं राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के कार्यालयों में

 और नही हैं उन कवयित्रियों की कविताओं में 

 जो फिलहाल केवल देह की मुक्ति तलाश रही हैं”

(पत्थलगड़ी, वाणी प्रकाशन, 2021)

मध्यप्रदेश में ओंकारेश्वर बाँध के जलस्तर को घटाने के लिए और डूब से बचाने के लिए घोगलगांव और अन्य क्षेत्रों में  सत्रह दिन तक महिलाओं ने जल सत्याग्रह किया। अंततः सरकार झुकी और सुप्रीम कोर्ट के आदेश से महिलाओं की माँग पूरी हुई। नर्मदा बचाओ आंदोलन से जुड़ी महिलाओं ने लंबे समय तक संघर्ष किया और कर रहे हैं। यह कविता उन्हीं सत्याग्रही औरतों के लिए लिखी गयी है। ये महिलाएँ अपनी जिद और जनवादी पक्षधरता से स्त्री मुद्दों में नए आयाम जोड़ रही हैं। स्त्रीवाद का जो मध्यवर्गीय पक्ष है उस दायरे को बड़ा करते हुए ‘इको-फेमिनिस्म’ तक ले जा रही हैं। अनुज लुगुन पुरुष हैं। लेकिन, इस कविता में वो स्त्रियों द्वारा लिखी जा रही स्त्री कविता से इस अर्थ में आगे हैं कि वे केवल मध्यवर्गीय स्त्री कविता की केवल आलोचना नहीं करते बल्कि उसके दायरे को बढ़ाने की बात करते हैं। यह कविता इस बात का उदाहरण है कि यदि मुद्दे और विचारधारा की सही समझ हो तो ‘लिंग’ मायने नहीं रखता; रचना मायने रखती है। इसी कविता की पँक्तियाँ हैं,

“पानी में घुसी औरतें

 पानी-पानी हो जाने की मुहावरे की जगह

 पानी पिला देने के मुहावरे को ठीक से जानती हैं।”

यह कविता स्त्री भाषा, बिम्ब और प्रतीक के स्तर पर भी नया है और विचार के स्तर पर इतिहास के एक घटना को कविता में दस्तावेजीकरण भी कर रही है। 

अनुज लुगुन की कविता में माँ, प्रेमिका, पत्नी, सामान्य ग्रामीण स्त्रियाँ हों या शहर की कामकाजी स्त्रियाँ वे सब अभाव की जिंदगी जीते हुए भी प्रसन्नचित होकर हर मुश्किल से लड़ती हैं। इसका एक कारण ‘आदिवासियत’ की वह भावना है जो कहती है कि गरीबी हो तो हो उसका रुदन नहीं होना चाहिए। जीवन की गरिमा ज्यादा महत्वपूर्ण है। जैसा कि ‘गरीब मंच की औरतें’ कविता में लिखते हैं,

“गरीब मंच की औरतों में 

 गरीबी का रुदन नहीं है

 उनकी सोच में नहीं है

 बिकने का भाव और सुविधाओं की सेंध

 उत्पीड़न के खिलाफ पूरी ताकत के साथ

 सलाम की मुद्रा में अपनी मुट्ठियाँ उठा देती हैं” (अघोषित उलगुलान, राजकमल प्रकाशन, 2023)

गरीब की गरिमा नहीं होती है ऐसा प्रायः कहते सुना जाता है। गरीब स्त्री की तो और भी नहीं होती है। लेकिन एक गरीब ग्रामीण आदिवासी स्त्री के साथ ऐसा नहीं है। आदिवासियों का संबंध अनिवार्य रूप से जंगल के साथ है। उनका उसके साथ आर्थिक-सांस्कृतिक संबंध है। उन्हें जीने की मूलभूत सुविधा जंगल और खेत से मिल जाता है। इसलिए गरीब होते हुए भी उनकी एक गरिमा बनी रहती है। यही आदिवासी स्त्रियाँ जब गाँव से बाहर शहरों में आती हैं तब उनका जंगल छूट जाता है मतलब अखड़ा, नाच और उत्सव छूटने लगते हैं। जंगल का न्यूनतम संसाधन छूट जाता है और इसके साथ ही उनकी गरिमा का भी नाश हो जाता है। कविता में जो गरीब औरतें बिना रुदन के मुट्ठी उठा रही हैं वो सब ग्रामीण औरतें हैं जिन्हें सुविधाओं का चस्का अभी नहीं लगा है। ये वो औरतें हैं जो पत्थलगड़ी आंदोलन, जल सत्याग्रह, नर्मदा बचाओ आंदोलन और जंगल में माफियाओं के खिलाफ सक्रिय रही हैं। जिन्हें नारीवाद की अकादमिक सिद्धांतों ने नहीं बनाया है बल्कि आदिवासी जीवन पद्धति में निहित स्वतंत्रता और समानता ने संघर्ष की प्रेरणा दी है। पितृसत्ता वहाँ भी है पर मुख्यधारा की तुलना में न्यूनतम है। कवि अपनी कविताओं में इस बात को लेकर सजग है। इसलिए उसकी कविताओं में जहाँ भी माँ, प्रेमिका और संगी का जिक्र है वहाँ पितृसत्ता न्यूनतम है। कवि अपनी माँ को जब याद करता है तब उसे एक गुरिल्ला योद्धा की तरह देखता है। कवि ‘मुंडा चौक पर दातुन बेचती औरतों” को देखता है तो उसे लगता है कि वो, 

“वो सखुआ, नीम और करंज के दातुन से

 शहर को झकझोर रही हैं कि

 वह पेड़ों के बिना गंदा है और

 दातुन के बिना उसकी भाषा में दुर्गंध है।” 

इन कविता की औरतें श्रमरत हैं और उन औरतों का प्रतिनिधित्व करती हैं जिनपर अभी अकादमिक जगत और मेट्रोपोलिटन के नारीवादी कार्यक्रमों में चुप्पी है या बहुत कम बात हो रही हैं। ये औरतें स्वाभिमानी हैं, अपनी स्थानीयता को गर्व से संप्रेषित करती हैं और अपने होने को लेकर तनिक भी शर्मिंदा नहीं है। बाजार का रंग अभी नहीं चढ़ा है। कवि अपनी इन स्त्री पात्रों को उन शहरी वर्ग तक ले जाना चाहता है जो अपने होने को लेकर कुंठित हैं। इसलिए कवि जब प्रेम कविता लिखता है तब उसमें देह की गंध; श्रम और संघर्ष की ऊर्जा से एकमेक होकर चलती है। चाहे वह ‘महुवाई गंध’ वाली पत्नी हो या ‘साँवली संगी’ या ‘उलगुलान की औरतें’ हों। ये सभी औरतें स्त्री जीवन मूल्य को निज की आकांक्षाओं से ज्यादा सामूहिक संघर्ष की जीवन पद्धति को चुनने का विकल्प प्रस्तुत करती हैं।

इस तरह जब अलग-अलग पृष्ठभूमि के पुरुष कवियों के स्त्री दृष्टि का विश्लेषण करते हैं तो उससे भिन्न-भिन्न मुद्दे सामने आते हैं। स्त्रियों का व्यक्तिव भी भिन्न नजर आता है। सभी की दृष्टि कहीं न कहीं पितृसत्ता से ग्रस्त है खासकर जहाँ ‘श्रम की महत्ता’ और ‘प्रेम का प्रदर्शन’ को प्रस्तुत किया गया है। इसके बावजूद एक बात सबमें है, वह है ‘समानुभूति’ के लिए ईमानदार प्रयास और उनके जीवन के विभिन्न पक्षों पर गौर करने की सच्ची लगन। यही वजह है कि भाषा में अपनी स्त्री पात्रों के लिए एक पक्षधरता है। पुरुष कविताओं की स्त्री दृष्टि इसी रास्ते स्त्रियों के साथ सच्चा ‘सहियापन’ (आदिवासी भाषा का शब्द जो दोस्ती के अर्थ में है) को बढ़ाएगा और स्त्रीवाद के दायरे को वृहत से वृहत्तर बनाएगा।

                          महेश कुमार, शोधार्थी

                  काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी

 
      

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