Home / Featured / श्रमसाध्य शोधपरक विश्लेषण और पुनर्पाठ का ठाठ

श्रमसाध्य शोधपरक विश्लेषण और पुनर्पाठ का ठाठ

मेरी अपनी नज़र में हितेन्द्र पटेल की किताब ‘आधुनिक भारत का ऐतिहासिक यथार्थ’ पिछले एक दशक में प्रकाशित हिन्दी की सर्वश्रेष्ठ आलोचना पुस्तक है। यह अतिशयोक्ति लग सकती है लेकिन हिन्दी उपन्यासों के माध्यम से उस ऐतिहासिक परिदृश्य का खाका तैयार करना बहुत मेहनत की माँग करता है और स्पष्ट दृष्टि की। इस किताब को पढ़ते हुए मुझे कई बार एडवर्ड सईद की किताब ‘कल्चर एंड इंपीरियलिज्म’ की याद आई। लेकिन यह किताब उससे बहुत अलग है और हिन्दी में अपनी तरह की अकेली किताब है। बहरहाल, इस किताब पर अनूठे कवि यतीश कुमार ने बहुत विस्तार से लिखा है और क्या खूब लिखा है। राजकमल से प्रकाशित इस किताब पर यतीश कुमार की इस टिप्पणी को आप भी पढ़ सकते हैं-

================================================================

इतिहास पहले कभी भी मेरे लिये ऐसा रोचक विषय नहीं रहा। अकादमी की किताबों में दर्ज ईस्वी-सन का गणित मेरे समीकरण में कभी फिट नहीं हो पाया। किताबों की दुनिया में पुनर्प्रवेश करने के बाद से ही महसूस किया कि साहित्य की नज़र से देखते ही इतिहास मुझे अपनी रोचकता में लपेटता चला जाता है। इस बात का आभास सबसे पहले यशपाल को शृंखलाबद्ध तरीक़े से पढ़ते हुए महसूस हुआ। जब यशपाल को पढ़ना शुरू किया तब इसका एक सिरा हरिवंशराय बच्चन की ओर ले गया और फिर उनकी आत्मकथा के चार खण्डों की ओर और फिर उसे सिंहावलोकन से जोड़ते हुए प्रकाशवती के व्यक्तित्व को समझने की कोशिश भी की। इसके साथ ही इतिहास की रोचकता ने और भी ज़बरदस्त तरीके से आकर्षित किया, जब अक्षय मुकुल की लिखी अज्ञेय की जीवनी पढ़ी। अनसुलझे इतिहास के पहलू को सुलझाने में आत्मकथा, संस्मरण और जीवनियाँ पढ़ना बहुत सहायक सिद्ध हुआ। इस शृंखला में कई अद्भुत व्यक्तित्व के सफ़र को, अज्ञेय की जीवनी,मीर की आत्मकथा, परसाई की जीवनी, शरतचन्द्र, सरला देवी या स्वर्ण कुमारी की जीवनी, ईज़ाडोरा और वान गॉग की जीवनी के माध्यम से जाना और समझा। इन जीवनियों से इतर नये लेखकों में प्रवीण झा की किताबें भी मेरे लिए बहुत सहायक रहीं, वो चाहे ‘गिरमिटिया’ हो या ‘रुस,रशिया और रासपुतिन’। साहित्य और इतिहास की इन आपस में जुड़ी खिड़कियों की ओर झाँकने में और इसे समझने में कथेतर साहित्य भी बहुत उपयोगी रहा।

परंतु, इन सभी किताबों से इतर हितेन्द्र पटेल की लिखी ‘आधुनिक भारत का ऐतिहासिक यथार्थ’ से गुजरते हुए लगा जैसे मेरे अपने सपने को किसी और ने बहुत सुंदर तरीके से गढ़ डाला है, लगा जैसे, ऐसे लिखना मेरा सपना रहा हो जिसे कोई और सच कर रहा है। पढ़कर ख़ुशी और बढ़ गई जब जाना कि लेखक ने अंग्रेज़ी में छः सौ पन्ने लिखने के बाद अपने पिता के मृत्योपरांत उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि देने के लिए इस महत्त्वपूर्ण किताब को हिन्दी में फिर से लिखा। लेखक के साथ यहाँ एक ऐसा बेटा भी लिख रहा है जिसके व्यक्तित्व में देशज राग अब भी बज रहा है, गाँव की उर्वर मिट्टी की सौंधी ख़ुशबू जिसके रचनाक्रम में खाद पानी का काम कर रही है, वही ऐसा कर सकता है, ऐसा सुंदर गढ़ सकता है जो, लीक से हटकर हो जो, पाठकों को नयी दृष्टि के साथ एक नयी दिशा प्रदान करे ।

इतिहास से संवाद समय की माँग भी है और ऐसा होना किसी लेखक के लिए एक उपलब्धि से कम नहीं। सापेक्ष इतिहास चुने हुए तथ्यों पर निर्मित होता है और अगर ये तथ्य साहित्य के बागानों से इकट्ठे किये जाएँ तो इसमें नीरस घटनाक्रम के बदले रोचक कहानियों का समागम दिखेगा और इतिहास को समझने में भरपूर मदद भी मिलेगी। वर्तमान और इतिहास आपस में यूँ बतियाते मिलेंगे जैसे दादा-पोता कहानियाँ सुनते-सुनाते हुए बतियाते हैं।

इतिहासकार को रोमांटिक भ्रमों से दूर रहने की सलाह सर्वपल्ली गोपाल ने दी थी पर, हम ऐसा करते हुए क्या भ्रम के बदले यथार्थ से भी दूर तो नहीं हो रहे? इस प्रश्न का उत्तर ढूँढने निकले लेखक हितेन्द्र पटेल ने इस किताब के जरिये 1917 से 1962 के बीच के राजनीतिक घटनाचक्र को साहित्यिक स्रोतों से समझने की श्रमसाध्य कोशिश की है। उनका मानना है कि आज़ादी के उपरांत जब वित्त पोषित इतिहास गढ़ा जा रहा होगा तब ऐसे तथ्यों और संदर्भों को इतिहास लेखन का केंद्र बिंदु बनाने की ज़रूरत महसूस हुई होगी। लेकिन सत्ता पोषित वर्गों से यह शायद संभव नहीं हो सका और उसे बेहतर ढंग से कर दिखाया साहित्यकारों के एक कुनबे ने जिनके पास छिपाने या लीपा पोती के लिए जगह नहीं थी और इसीलिए वे निःसंकोच अपनी बात सिलसिलेवार ढंग से रख पाये। इस क्रम में लेखक ने यह भी समझाने की कोशिश की है कि क्रांतिकारी राष्ट्रवादी समूह का उदय और अंत का इतिहास यहाँ साहित्य में बेहतर पढ़ने को मिलता है, बनिस्बत आकादमिक इतिहास के ! इसी समझ को अपने सृजन का खाद पानी बनाते हुए हितेन्द्र, साहित्यिक और ऐतिहासिक मरुस्थल की मृगतृष्णा का सच समझने निकल पड़ते हैं।

लेखक ने चार लेखकों की जिन रचनाओं को संदर्भों का स्रोत बनाया है उनके चयन के पीछे के उचित कारण और उद्देश्य को भी बहुत साफ़गोई से बताया भी है। भवतीचरण वर्मा, यशपाल, अमृतलाल नागर और गुरुदत्त को ही आख़िर क्यों रखा गया इस किताब की परिधि में और उन्हीं के समकालीन लेखक भीष्म साहनी, राही मासूम रज़ा या कृष्णा सोबती जैसे महान रचनाकारों की रचनाएँ जो, कि इस संदर्भ के लिए उपयुक्त हो सकती थीं, वे क्यों नहीं रखी गयीं? इसका जवाब भी मिलता है यहाँ। पाठकों के मन में कोई शंका शेष न रहे इसलिए इसका जवाब वे शुरू में ही दे देते हैं ताकि पाठक इत्मीनान से अपनी इस पाठकीय यात्रा पर निकले। हितेन्द्र न सिर्फ़ रचनाओं अपितु चारों रचनाकारों का जीवन सारांश भी रखते हैं और इस श्रृंखला में जब वे गुरुदत्त के पास आते हैं तो जीवन विस्तार का बितान लंबा और गहरा हो जाता है। हम जैसे पाठक अपने कथाकार को बहुत क़रीब से जान पाते हैं,उनके भीतर चल रहे असमंजस को समझ पाते हैं।

यह किताब कुछ महत्त्वपूर्ण मुद्दों को भी सशक्तता से रखती है जिन पर सामान्य इतिहासकार अपनी दृष्टि चाहते हुए भी नहीं रख पाते हैं, जैसे- ख़िलाफ़त और राष्ट्रवाद का समन्वय, इतिहास या फ़्यूज़न जिसके, नेपथ्य में कम्युनिज्म(वामपंथ) की पृष्ठभूमि भी रही है, ठीक से कहीं अंकित नहीं है। अरबिन्दो का पॉण्डिचेरी जाना या सावरकर की 1910 की गिरफ़्तारी का उस समय पर असर के बारे में भी इतिहास की मुख्यधारा में ज़्यादा लिखा नहीं गया। महत्वपूर्ण घटनाएँ जहाँ इतिहास की करवट साफ़ दिखती है जैसे गाँधी का आगमन, ख़िलाफ़त आंदोलन के बाद का सांप्रदायिक माहौल- यह सब भी इस किताब के साथ साहित्य की खिड़की से बेहतर देखा जा सकता है।

अकादमिक और जनप्रिय साहित्य जैसी दो धाराएँ प्रवाहमान रही हैं जहाँ एक का स्रोत सत्ता और दूसरे का जनमन रहा है। जिसके कारण इसका झुकाव राष्ट्रवाद या राष्ट्रीय आंदोलन की ओर रहा। ऐतिहासिक गल्प और तथ्य के बीच का अंतर बहुत महीन है। इसे डिकोड करने के लिए इन रचनाओं को बहुत बारीकी से पढ़कर उसके तारतम्य को समझने की ज़रूरत रही है। भवतीचरण बोहरा की मृत्यु के पीछे कौन से हाथ रहे उसे समझने के लिए कई किताबें पढीं, पर अभी भी वहाँ धुँध है, पूरा कोहरा छंट नहीं पाता, या फिर प्रकाशवती कितने जेवर-पैसे लेकर आयी थीं, उनके घर से भागने का उद्देश्य यशपाल थे या क्रांतिकारियों की मदद और यह भी कि उनके कितने पैसे वास्तव में स्वतंत्रता संग्राम में लगे, उसको लेकर भी मामला बिल्कुल साफ़ नहीं है। यहाँ तक कि भगवतीचरण बोहरा के पिता का रेलवे का अधिकारी या अभिजात्य होना, उनको कितने दिन तक प्रश्नों के घेरे में रखा और चंद्रशेखर आज़ाद का भरोसा क्यों डगमगाता रहा, यह सब अब भी धुँधला ही है। दुर्गा भाभी की जीवनी भी इस हिस्से को साफ़ नहीं कर पाती और न ही अज्ञेय की जीवनी। ऐसे समय में हितेन्द्र पटेल का यह अनूठा प्रयास कुछ ढाँढस बँधाता है कि अभी रास्ते और हैं, जिन पर चलना बाक़ी है और तथ्यों पर फैले धुँध को साहित्यिक रचना की कड़ियों को कैसे जोड़ते हुए साफ़ किया जा सकता है। यह किताब इस मामले में इस पूरे प्रोसेस को समझने में मददगार साबित होती है, हम जैसों को एक दिशा और रास्ता दिखलाती है।

लेखक सर्वप्रथम भगवती चरण वर्मा के तीन उपन्यासों को अपने संदर्भ परिमित में रखकर व्याख्या करते हैं। “भूले बिसरे चित्र’ के द्वारा यह सिद्ध करने की कोशिश करते हैं कि ख़िलाफ़त आंदोलन दरअसल ज़मीनी तौर पर मुसलमानों का ही आंदोलन था। असहयोग आंदोलन की तस्वीर भी इस उपन्यास में साफ़ दिखती है। इसी के साथ असहयोग आंदोलन को ख़िलाफ़त आंदोलन से बल मिलने की बात पर भी ज़ोर दिया गया है। अफ़गानिस्तान में गये मुसलमानों के साथ जो हुआ उससे असहयोग आंदोलन को जो बल मिला यह पक्ष उपन्यास में जिस साफ़गोई से समझाया गया है वैसा विवरण अकादमिक इतिहास में नहीं मिल पता। लेखक इसीलिए साहित्य से इतिहास की खोज की वकालत करते हैं।ख़िलाफ़त आंदोलन ने गाँधी को कांग्रेस में कैसे प्रतिष्ठित किया या मठाधीश बनाया इसका विवरण और विवेचना भी लेखक इस उपन्यास के संदर्भों के माध्यम से करते हैं जो कि काफी रोचक और विचारणीय समीकरण है, जिसकी ओर साधारणतः कम ही ध्यान गया है। साहित्य की खिड़की से वैसे मुसलमान नेता जो गाँधी के साथ रह गये और उनकी ही बिरादरी उनको किस तरह से दुत्कारती रही। उनकी अपनी पीड़ा को किसी इतिहास की पुस्तक ने समेटने की कोशिश नहीं की, पर साहित्य ने ज़रूर की। हितेन्द्र उदाहरण देते हुए फ़रहतुल्ला के किरदार का ज़िक्र करते हैं जो कि ‘भूले बिसरे चित्र’ का एक किरदार है। इसी के साथ लेखक नेहरू के उत्थान के पीछे गाँधी की ताक़त का विस्तार से वर्णन करते हुए हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं। ‘सीधी सच्ची बात’ और ‘भूले बिसरे चित्र’ दोनों उपन्यासों को जोड़ कर पढ़ें तो गाँधी और नेहरू की जुगलबंदी के सारे तार एक-एक कर खुलते नज़र आएँगे। भगवती चरण वर्मा ने साहित्य के ज़रिए उन सूत्रों को असाधारण ढंग से साधा है जो इतिहास के पन्नों में इतनी आसानी से नहीं दिखते और इसी पहलू पर हितेन्द्र पटेल ने अपनी इस सुसंकलित किताब में क्रमवार जोर दिया है।नेहरू और सुभाष के बीच के सिद्धांतों की लड़ाई का व्याख्यान भी यहाँ विस्तार से मिलता है जिसे आम पाठक भी आसानी से समझ सकते हैं।दोनों उपन्यास पढ़ने से मुसलमानों के विघटन की प्रक्रिया, हिंदुस्तानी होने के गर्व में आती कमी, क़ौमी एकता पर प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध का असर, अंतिम पाँच वर्ष में मुस्लिम लीग का अचानक शक्तिशाली होना, जिन्ना जो, एक खुले दिमाग़ का व्यक्ति रहा, कैसे सांप्रदायिक तत्वों की प्रमुखता में घिरता गया ! इन सभी महत्त्वपूर्ण पहलुओं को एक तयशुदा तरीक़े से लेखक ने इन दोनों उपन्यासों को आधार बनाकर बहुत सतर्कता से चिह्नित किया है और इसके साथ-साथ इसे क्रमबद्ध करके समझाया भी है।

आज़ादी के बाद का इतिहास भगवती जी के तीसरे उपन्यास में समेटा गया है, ‘प्रश्न और मरीचिका’ में 1947से 1962 की राजनीतिक कहानी रची गई है। यहाँ लेखक एक महत्त्वपूर्ण बात पर ध्यान आकृष्ट करते हैं कि दिल से न नेहरू हिंदू हैं न ही दिल से जिन्ना मुसलमान पर विडंबना यह है कि पूरी राजनीति ऐसे दो व्यक्तियों के इर्द-गिर्द घूमती है जिसका मूल आधार धर्म बनाया गया, जबकि लिखित दस्तावेज़ कहता है कि दोनों धार्मिक नहीं थे। नेहरू दिल दिमाग से अंग्रेज थे और मंदिर जाते नहीं दिखे और जिन्ना ने हमेशा मुल्ला-मौलवियों का मज़ाक ही उड़ाया।लिबास से जिन्ना हमेशा अंग्रेज ही बने रहे। यह सारा झगड़ा दो व्यक्ति के शक्ति आकांक्षा की थी पर झेलना पूरे देश को पड़ा। लेखक इस किताब के जरिए हर ऐसी बात को समेटना चाहता है जिसका जवाब आसानी से उपलब्ध नहीं और इसके विश्लेषण में सफल भी होता है।

पुर्तगालियों ने गोवा पर लगभग 450 सालों तक शासन किया और अंत में जाकर 19 दिसंबर 1961 में यह भारतीय प्रशासन को सौंपा गया।ऑपरेशन विजय के तहत गोवा, दमन और दीव तीनों द्वीप भारत के कब्जे में आ गये। भगवती जी की तीसरी किताब इस विषय पर भी अपनी टिप्पणी रखती है जिसका विश्लेषण बहुत महत्त्वपूर्ण है और इस पर खुलकर कभी ऐसी बात नहीं हुई। यह उपन्यास 20 अक्टूबर 1962 में चीन के आक्रमण की परतें भी खोलता है। वेलंग, नेफ़ा, सेला पास, बोमड़िला आदि तक चीन आकर 23 नवम्बर 1962 को पीछे लौटने की ख़ुद की घोषणा पर यहाँ पढ़ने को मिलता है जो साधारणतः आम पाठकों को उपलब्ध नहीं । यह पूरा कालखंड जो लेखक ने चुना है इस घटना से इसकी महत्ता की पुष्टि हो जाती है।

उपन्यास इतिहास के महत्त्वपूर्ण हिस्से को समझने में मदद करती है इस बात को अपनी सधी हुई टिप्पणियों से हितेन्द्र पटेल और भी परिष्कृत कर देते हैं, लिखा है – “यह देश के निर्माण के स्वप्न के टूटने और बिखरने का राजनीतिक वृत्तान्त अपने उपन्यासों में रखकर भवतीचरण वर्मा ने अपने समय का जो इतिहास लिखा है उसमें ऐतिहासिक यथार्थ है यह कहा जा सकता है।’’ उपन्यास के अंत में भगवतीचरण वर्मा ने स्वयं लिखा है – “मैं इतिहास नहीं लिख रहा। मैं कहानी लिख रहा हूँ। पर, मैं क्या कर सकता हूँ? मेरी कहानी में इतिहास की सभी बातें मौजूद हैं।” हितेन्द्र ने इन टुकड़ों को जोड़ कर जो दृष्टि दी है वह चौंकाने वाले तथ्यों पर पुनर्विचार करने को उकसाती है। खालिस इतिहास और साहित्य में यही उकसाने भर का अंतर है जिसे लेखक की पैनी नज़रों ने समझ लिया और तभी इस सुंदर विस्तृत विचारोत्तेजक किताब का सृजन संभव हो सका।

क्या ही संयोग है कि मैं पिछले तीन साल से ऐसी साहित्यिक किताबें पढ़ रहा था जो क्रांतिकारियों के इर्द गिर्द घूमती हैं। यशपाल, भगवतीचरण बोहरा, दुर्गा भाभी, प्रकाशवती, मन्मथनाथ गुप्त इत्यादि। यहाँ जब यशपाल के उपन्यास पर बातचीत और इतना घनघोर विश्लेषण दिखा जिसकी शुरुआत मन्मथनाथ गुप्त की वैचारिक टिप्पणी से की गई है, जहाँ काकोरी कैदियों के छूटने पर नेहरू द्वारा दी गई पार्टी पर गाँधी की आपत्ति और कानपुर में कविवर बालकृष्ण और लखनऊ में चन्द्रभानु गुप्त द्वारा स्वागत अभिनंदन के कार्यक्रम को अशोभनीय बताया गया है। उस समय की राजनीतिक स्थिति और दिशा को समझने के लिए ये अंश महत्वपूर्ण हैं जिसे लेखक अपने विश्लेषण के लिए चुनते हैंl यहाँ यह समझ में आता है कि यशपाल तक विस्तार से जाने से पहले हितेन्द्र मन्मथनाथ गुप्त के पास क्यों जा रहे हैं।

यशपाल समय के इस खण्ड की लगभग हर गली, मोड़ से थोड़ा-थोड़ा गुजरे थे, इसलिए उनके पास कहने को बहुत कुछ हमेशा से रहा। शुरुआती दिनों में (रौलेट सत्याग्रह ) कांग्रेस के विचारों को अपनाना, फिर विशुद्ध क्रांतिकारी गतिविधियों का हिस्सा होना, भगत सिंह, सुखदेव और बाद में चन्द्रशेखर आज़ाद के साथ काम करना और चंद्रशेखर आज़ाद की शहादत के बाद संगठन को प्रांतीय नेतृत्व देना, बाद में वामपंथी विचारधारा के साथ जाना, यह सब उनके नज़रिए को एक वृहत विस्तार देने में सहायक रहे होंगे, इसलिए हितेन्द्र का उनकी प्रमुख व चिह्नित रचनाओं के आधार को मानकर इतिहास के युक्तिसंगत तथ्यों को यूँ क्रमबद्ध करना एक सही निर्णय है।

एक बहुत महत्त्वपूर्ण आधार यह भी है कि 1941 में जब गाँधी जिंदा थे, तब यशपाल का ‘गाँधीवाद की शव परीक्षा’ लिखना कोई साधारण प्रयास नहीं, एक दुस्साहस था। इससे साफ़ है कि समय से पहले लेखक एक विचारधारा का पतन देख रहा था और बड़ा रचनाकार तो वही होता है जो समय के पहले भविष्य को देख सके, उसे रच सके। ऐसा लिखते हुए यशपाल ने जनता को आंदोलन से जोड़ने व आंदोलन की चेतना प्रदान करने को गाँधी की असली उपलब्धि कहा, उन्होंने इन सब का श्रेय गाँधी जी को ही दिया। पर, उनको इस बात से हमेशा परहेज रहा कि गाँधी की नीति सब कुछ के बावजूद पूँजीपतियों के पक्ष में थी। क्रांतिकारियों के साथ कोई हमदर्दी नहीं थी। एक बहुत ही रोचक घटना को यशपाल की नज़र से लेखक देख रहे हैं,वह यह है कि 1905 में रूस की हार हुई और 1906 में भारत में औपनिवेशिक शासन के अंतर्गत स्व-शासन की माँग उठी। उस महत्वपूर्ण निर्णयात्मक समय में गाँधी का युद्ध में अंग्रेजों का साथ देना और वायसराय को पत्र लिखना कि वे स्वयं स्वयंसेवकों की तरह मेसोपोटामिया जाने की अनुमति चाहते हैं जिसपर यशपाल ने आपत्ति, अपनी लेखनी के माध्यम से, दर्ज की। ऐसे कई संदर्भ हैं जिसे हितेन्द्र जोड़ते हैं और पाठकों को लाभान्वित करते हैं।

हितेन्द्र यशपाल की लेखनी में विरोध का स्वर घटनाक्रम से चुनते हैं, जैसे कि कांग्रेस का कर बंदी का विरोध करना, चौरी चौरा की घटना के बाद असहयोग आंदोलन रोकना यह सब एक के बाद एक ग़लत कदम रहे। लेखक इन निष्कर्षों का सिरा यशपाल की कृत्यों के तथ्यात्मक बिंदुओं से मिलाते हैं। असहयोग आंदोलन के समय कांग्रेस के सदस्यों की संख्या एक करोड़ हो गई थी जो कि चरखा अभियान के समय 1924 में बीस हज़ार तक सिमट आयी थी। यह दर्शाता है कि वह एक भूल थी और जनता के मन की बात कहीं से नहीं थी। पूर्ण स्वन्त्रता की माँग वामपंथियों की थी। 1928 के कोलकाता अधिवेशन के बाद अंग्रेजों को एक साल का समय देना भी आम जनता को असल में पसंद नहीं आया था। एक और तथ्य की ओर लेखक इंगित कर रहे हैं कि जब तक गाँधी जेल नहीं गये, आन्दोलन में तीव्रता नहीं आयी। उनके जेल जाने से बाहर रहे नेतृत्व को थोड़ा खुला हाथ मिलते ही आंदोलन में इतनी तीव्रता आई की नब्बे हज़ार लोग गिरफ़्तार हुए। इस ओर हितेन्द्र आपका ध्यान, ख़ासकर अपने अचूक विश्लेषण क्षमता से, ले जाते हैं ताकि यह भी समझा जा सके कि आज़ादी के पहले ही पूँजीवाद, नाजीवाद,समाजवाद और गाँधीवाद में आपसी संग्राम छिड़ा हुआ था। हितेन्द्र, सरकार द्वारा ‘कैसर-ए-हिंद’ के नेपथ्य के सच को यहाँ उजागर करना चाह रहे हैं, उसी के साथ ज़्यादा से ज़्यादा भारतियों को सेना के साथ प्रथम युद्ध में भेजने के उस समय की घटना को तथ्य बनाकर नीतियों में क्रमवार आयी गलतियों को चिह्नित कर रहे हैं और अपने विश्लेषण से सच्चाई के ऊपर से परदा उठा रहे हैं। इसी के साथ लेखक समझाते हैं कि प्रथम विश्व युद्ध और द्वितीय विश्वयुद्ध दोनों के काल खंड को जोड़ते हुए कांग्रेस के भीतर वाम और दक्षिण पंथ की आंतरिक लड़ाई को साहित्य या इतिहास के किसी अन्य पुस्तक में इतने क्रमवार तरीके से पढ़ना मुश्किल है जिस तरह से ‘मेरी तेरी उसकी बात’ में यशपाल ने लिखा है और इस सूत्र को पकड़ कर वे आगे विस्तृत व्याख्या भी करते हैं। बताते हैं कि यशपाल के उपन्यासों में कांग्रेस के भीतर के तनावों को यथोचित जगह दी गई जो अकादमिक किताबों द्वारा समझाया नहीं जा सकता । ब्रिटिश शासन के अधीन सरकार बनाने का निर्णय इसके भीतरी विघटन का कारण भी रहा। सुभाष चन्द्र बोस कांग्रेस अध्यक्ष होकर भी इसके ख़िलाफ़ थे। उग्र कांग्रेसी, समाजवादी, और कम्युनिस्ट उनके साथ थे। सुभाष की नीति और गाँधी की नीति में टकराव होना तय था। उस समय गाँधी ने खुद को कांग्रेस से अलग कर लिया। यहाँ संघर्ष की राह और जनता के साथ के बीच में चुनाव होना था। इस गंभीर समय में जनता और पूँजीपतियों का साथ गाँधी को मिलना और उसके ऊपर समाजवादियों का सुभाष की ओर मत होते हुए भी पलटना एक टर्निंग पॉइंट है जिसे यहाँ यशपाल के उपन्यासों में और बेहतर तरीके से समझने में मदद मिलती है। लेखक ने यहाँ इस एंगल को बहुत बारीकी से समझाया है ।

गाँधी द्वारा कांग्रेस की सरकार बनाने के प्रस्ताव के बरक्स वायसराय के द्वारा मुस्लिम लीग की सहमति की शर्त लगाना और ग्यारह से नौ राज्यों में कांग्रेस की सरकार होने के बावजूद सभी का त्यागपत्र दे देना, ये ऐसे घटना चक्र हैं, जिन्हें भुलाया नहीं जा सकता और जो सच में टर्निंग पॉइंट रहे हैं। इस घटना के बाद से मुस्लिम लीग के उत्थान की दास्तान यशपाल की किताबों में बहुत रोचकता के साथ पढ़ने को मिलती है जिसे, उतनी ही रोचकता के साथ यहाँ समझाया गया है। सिलसिलेवार ढंग से दर्ज करते ही इतिहास की सारी परतें आराम से खुलती चली जाती हैं। यहाँ लेखक के गहन अध्ययन और समझ की तारीफ़ करनी होगी जो अलग-अलग किताबों के संदर्भों को कालखण्ड की समय पट्टिका पर रखकर रेखांकित कर रहा है, वह भी इस तरह से कि इतिहास क़िस्सा बन जाए। इस किताब को पढ़ते हुए यह महसूस हो रहा है कि यूनिवर्सिटी की पढ़ाई में साहित्य और इतिहास को संदर्भों से जोड़कर अगर इस तरह पढ़ाया जाए तो छात्रों को ज़्यादा लाभ मिलेगा, वे ज़्यादा इतिहास पढ़ने की ओर आकृष्ट होंगे।

हितेन्द्र यशपाल के उपन्यास से टुकड़ों को उठाकर जोड़ते हैं और पूरा का पूरा आईना खड़ा कर देते हैं जिसमें, इतिहास का प्रतिबिंब ज़्यादा साफ़ दिखता है। घटनाओं के क्रम से गलतियाँ मुखर होकर बोलने लगती हैं। इन घटनाओं से रूबरू होते हुए ही इस किताब की महत्ता बेहतर तरीके से समझी जा सकती है।

लेखक की व्याख्या के अनुसार 1940 में मौलाना आज़ाद को अध्यक्ष चुनने के बाद जिस तरह की सिलसिलेवार घटनाएँ हुईं, वे भी गाँधी के पक्ष को कमज़ोर करती दिखती हैं। विनोबा भावे को प्रथम सत्याग्रही के तौर पर इसलिए चुना जाना कि वे नारी के संपर्क में नहीं रहे हैं, एक बहुत ही कमज़ोर तर्क साबित हुआ। यहाँ पर गाँधी एक डिक्टेटर की तरह दिखते हैं, जहाँ यह बताया गया कि सत्याग्रही कौन-कौन होगा और वह भी गाँधी की अनुमति के बिना नहीं हो सकता। युद्ध के लिए कंबल गाँधी के नाम से चल रहे खादी भंडार से ख़रीदा जाना, प्रथम युद्ध में जर्मनी का फ़्रांस पर जीत होने के बाद पुणे की सभा में कांग्रेस का इंग्लैंड को मदद करने की गुहार, उधर भारतीय सिपाहियों का मन अपने देश के लिए लड़ने का होना, उस पर नेहरू का यह कहना कि गाँधी सेना या पुलिस को विद्रोह नहीं सीखा सकते, सुभाष का 27 जनवरी 1941 में बतौर कांग्रेसी जेल से फरार होना, उसी बीच जापानी आक्रांताओं की खबर आना, वायसराय का गाँधी की बात को अनसुना करना और जेल में नेताओं को भर्ती करने की भयानक मुहिम शुरू करना, इन सभी घटनाओं का ज़िक्र हितेन्द्र यशपाल के उपन्यासों के मार्फ़त करते हैं।

इसी के साथ कांग्रेसी नेताओं का अपने आपको बचा कर चलने का भी चित्रण यहाँ मौजूद है। इन घटनाओं में गाँधी के ढुलमुल रवैये को भी इंगित किया गया है, जहाँ वे जनता को छह निर्देश भी देते हैं और दूसरी तरफ़ वायसराय का पक्ष भी लेते हैं। सभी नेताओं के जेल में होने के दौरान विद्रोह पर उतारू आम जनता का फ़ौज द्वारा दमन और तदुपरांत गाँधी का ‘आत्मशुद्धि अनशन’ का मतलब यह निकाला गया कि गाँधी को अपने ही छह निर्देशों पर पश्चाताप हो रहा है, उस जन साधारण की भावना को आहत करता है जो उनके छह निर्देशों का पालन कर रहे थे। इस महत्वपूर्ण पक्ष का सार्थक विश्लेषण लेखक यहाँ कर रहे हैं और वैसे पक्ष को प्रत्यक्ष ला रहे हैं जो आम छात्र तक सीधे इतिहास नहीं पहुँचा रहा है।

विश्लेषण की कड़ी यहीं नहीं रुकती,लेखक लिखते हैं, इसी के साथ भारत छोड़ो आंदोलन जब पूरी तरह बैठ रहा था तभी अक्टूबर 1943 को सुभाष का सिंगापुर में जापान के संरक्षण में स्वतंत्र भारत सरकार के गठन की खबर आयी, 1944, मई में गाँधी को बिना शर्त रिहा कर दिया गया और निकलते ही गाँधी हिन्दू-मुस्लिम गुत्थी में उलझ गये। उसके बाद महीनों तक गाँधी-जिन्ना पत्राचार चलता रहा और वे पत्र, समाचार पत्रों का हिस्सा बनते रहे, जिसमें जिन्ना तो एक तरफ़ अडिग दिखे, परंतु गाँधी की कैफ़ियत बदलती रही। उनके दुलारने-पुचकारने की तक़रीर बदलती रही। उधर जापानियों के हाथ बंदी रहे सेना ने ही आज़ाद हिन्द फ़ौज में शामिल होना स्वीकार कर लिया। साथ ही ब्रिटेन में चर्चिल की हार और एटली को वेवेल का समझाना कि भारतीय सेना को अब एक सूत्र में रखना मुश्किल हो रहा है, अतः भारत को स्थायी सरदर्द बनाये रखने के बजाय स्वशासन के साथ स्थायी मित्र बनाया जाना बेहतर विकल्प है। शिमला में रहते हुए भी गाँधी और जिन्ना का वार्ता में शामिल नहीं होना, देसाई और लियाक़त अली के बीच हुई वार्ता, समझौते के ऐन पहले जिन्ना का मुकर जाना कि पाकिस्तान की स्थापना से कम कुछ नहीं, जो की असल में गृहयुद्ध की ललकार से कम नहीं था। अंग्रेज की कूटनीति काम कर रही थी कि एक सशक्त आजाद हिंदुस्तान से बेहतर है बर्मा, लंका, हिंदुस्तान और पाकिस्तान…। इन सभी घटनाक्रम को लेखक यहाँ पुनर्विचार के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं और कहने कि कोशिश कर रहे हैं कि हमें जानने की ज़रूरत अब भी है कि हम कहाँ-कहाँ और कैसे- कैसे चूकते चले गये। इतिहास ख़ुद को दोहराता है और दोहराते समय हम निर्णय लेने के काबिल रहें, यह इतिहास की ही सीख रही है, इस लिहाज़ से यह किताब और महत्त्वपूर्ण साबित होती है।

देश भर में दिसंबर 1945 में चुनाव प्रक्रिया का शुरू होना, लीग की नारे की बुलंदी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का उभरना, इन सभी घटनाओं को यशपाल के किरदार देखते हैं और उसका वृत्तान्त सुनाते हैं। यशपाल के उपन्यासों में यह बात उभरकर आती है। आज़ादी के बाद के कांग्रेस की स्थिति ‘झूठा सच’ के जरिये पाठकों तक पहुँचती है और बदतर होते हालात को यशपाल एक सकारात्मक आशा भरी दृष्टि पर ख़त्म करते हैं कि – “जनता निर्जीव नहीं हैं। जनता सदा मूक भी नहीं रहती। देश का भविष्य नेताओं और मंत्रियों की मुट्ठी में नहीं, देश की जनता की हाथों में हैं ।” …

हितेन्द्र पटेल ने जिस तीसरे लेखक की रचनाओं को अपनी इस साहित्यिक सृजन यात्रा की सीढ़ी समझा है वे हैं अमृत लाल नागर। उनके लिखे बेहद महत्त्वपूर्ण उपन्यासों- `बूँद और समुद्र’, ‘अमृत और विष’ व ‘पीढ़ियाँ’ इत्यादि पर यह चिंतन दृष्टि डाली है लेखक ने। इन उपन्यासों का काल खण्ड भी 1905 से 1986 ही है जो कि लेखक के शोध के सर्वाधिक उपयुक्त समय काल से मेल खाता है, जिसे लेकर लेखक ने यह पूरा ताना-बाना रचा। ‘साहित्य की दृष्टि और इतिहास की यात्रा’ यहाँ उपयुक्त पंक्ति है !

यहाँ लेखक बताते हैं कि नागर गाँधी के प्रति अनन्य श्रद्धाशील थे और उन्हें महामानव मानते रहे, साथ ही वे गाँधी के राजनीतिक विचारों के आलोचक भी रहे। गाँधी को वे एक तपस्वी कर्मयोगी की श्रेणी में रखते थे। नागर नेहरू के प्रति अनुरक्त होने के बावजूद एक क्रिटिकल रवैया रखते थे। यहाँ एक और बात पर लेखक ने गौर फ़रमाया है कि नागर की लेखनी का रुझान किसी भी एक राजनीतिक पार्टी की ओर नहीं रहा।सतत निष्पक्षता रही उनकी लेखनी मे। इसलिए लेखक का उनकी किताबों को चुनना और महत्त्वपूर्ण हो जाता है। लेखक, नागर के उन संदर्भों को प्रस्तुत कर रहा है जहाँ कांग्रेस की बदलती सीरत दिखती है। कांग्रेस को कब झूठा गाँधीवाद कहा गया। नागर सिर्फ़ कांग्रेस को ही नहीं बल्कि अनन्य राजनीतिक दल जैसे कम्युनिस्ट, जनसंघ, सोशलिस्ट सबको कठघरे में खड़ा करने से नहीं हिचकते हैं।

इस किताब में लेखक एक और महत्त्वपूर्ण बिंदु पर हमें लेकर जाता है जो, एक नयी दृष्टि देता है, वह है क़ुर्बानी देने वाले नेता और व्यावहारिक नेताओं में भिन्नता। नागर की रचनाओं में यह बात बाकी लेखकों से ज़्यादा खुलकर आती है कि व्यावहारिक नेताओं के लिए राजनीति का महत्त्व था जबकि आंदोलन के नेताओं के लिए राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रीयता की भावना का महत्त्व था और इन दोनों श्रेणियों के बीच शुरू से तनाव रहा।

नागर गाँधी की तुलना सुकरात से करते हैं जिन्होंने बुद्ध की भाँति कोई ग्रन्थ नही लिखा परंतु दर्शन की पढ़ाई उन्हें जाने बिना संभव भी नहीं पर, जहाँ तक मेरी समझ है या लेखक यहाँ जिस ओर इंगित कर रहे हैं वह है दोनों का अंत ! जो नागर जी की कहानी ‘आदमी नहीं ! नहीं !’ से समझा जा सकता है।

नागर के शब्दों में अगर देखा जाए तो गाँधी का उदय तिलक के यशोकाय होने के बाद के उनकी अपील एक करोड़ सदस्य को एक करोड़ रुपये के जोड़ने के साथ हुआ। इस घटना ने कांग्रेस को जनता से जोड़ा पर चौरी चौरा कांड के बाद के गाँधी के निर्णय ने इस गति को धक्का दे दिया और इतने ज़ोर से आगे बढ़ते जनाधार को एकाएक ठोकर मारकर गिरा देने वाला काम साबित हुआ। यह संदर्भ नागर और यशपाल दोनों की लेखनी से उभर कर आता है। हितेन्द्र रह-रह कर इस बिंदु की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं।

इस किताब से गुजरते हुए समझ में आता है कि नागर जब ‘सविनय अवज्ञा आंदोलन’ की बात रखते हैं तो साथ में क्रांतिकारियों के ऐतिहासिक योगदान का भी जिक्र करते हैं। अंग्रेजों द्वारा अछूतों को भी पृथक आंदोलन का अधिकार मिलने पर गाँधी की तीखी प्रतिक्रिया आना और हरिजन नाम देना इन सब घटनाओं को यहाँ साहित्य की दृष्टि से देखा जा सकता है। खलीकुज्जमा जैसे कांग्रेसी को अपनी गलत नीतियों से नाराज़ करना और लीग, जो पहले मजबूत नहीं रही, उसे अकारण मजबूत बनवाने का घटनाक्रम यशपाल और अमृतलाल नागर दोनों के यहाँ आता है। लेखक इन सभी सन्दर्भों की ओर बार-बार इंगित कर रहे हैं ताकि असली वस्तुस्थिति और साफ़ हो सके जो कि इस किताब को लिखने की उनकी मंशा रही है। उत्तर प्रदेश का अहम रोल रहा है लीग को बढ़ाने में, यह इस बात से साबित होता है कि मुस्लिम लीग की पहली मीटिंग के बाद देश भर में एक सौ सत्तर शाखाएँ स्थापित की गयीं जिसमें नब्बे उत्तर प्रदेश में ही थे। लीग के अकेले एक लाख सदस्य उत्तर प्रदेश से ही थे। हितेन्द्र ऐसे संदर्भ पर जोर देते हैं जो ऐनक का काम करता है और आपको ज़्यादा साफ़ दिखने लगता है। जब तक सही चश्मा नहीं मिलता हम हल्के धुंधलेपन में ज़िन्दगी बसर करने के आदी होते हैं पर जिस पल हमें नया चश्मा मिलता है, हमें उसकी उपयोगिता समझ आती है। दरअसल अच्छी किताबें पाठकों पर कुछ ऐसा ही असर करती हैं।

नागर के उपन्यास के मार्फ़त जयंत टंडन का किरदार 1937 से 1941 के बीच के दौर में नेहरू के ऐसे करीबी सहयोगी के तौर पर उभरा जो गाँधी के साथ कई मुद्दों पर मन से एकमत नहीं था। यहाँ ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ के मंत्र को लेकर भी साहित्य की नज़र से कई पहलू साफ़ होते दिखते हैं। अंबेडकर और वीर सावरकर दोनों ने इस पर तीखी प्रतिक्रिया दी और इसे समयानुसार निर्णय नहीं बताया। कम्युनिस्टों ने भी कांग्रेस को इसे स्थगित करने की सलाह दी। नागर ने जो बातें दबे-ढँके ‘बूँद और समुद्र’ में कही है उसे ‘पीढ़ियाँ’ में और साफ़-साफ़ कह दिया है। इस विश्लेषण को भी लेखक इस अध्याय के अंत में भी विशेष तौर से इंगित करने से नहीं चूकते।

किताब के अंतिम पड़ाव पर हम गुरुदत्त के न सिर्फ़ लेखन, बल्कि पुरे के पुरे व्यक्तित्वसे रूबरू होते हैं। यशपाल, भगवतीचरण वर्मा, अमृत लाल नागर से गुरुदत्त के उपन्यासों की लोकप्रियता और ख्याति बहुत ज्यादा होने के बावजूद यहाँ राजनीतिक इतिहास, कांग्रेसी राजनीति और हिन्दू राष्ट्रवादी दृष्टि का चित्रण और अवलोकन गहरे होकर मिलता है। अंतर इतना है कि गुरूदत्त की लेखनी में प्रारंभ से ही हिन्दू राष्ट्रवाद का रुझान रहा। शुरू में गुरुदत्त ख़ुद कांग्रेसी थे पर परमानंद भाई से मिलने के बाद वे कांग्रेस और गाँधी के कड़े आलोचक बन गए। उनका मानना था कि गाँधी मुसलमानों के प्रति अतिशय उदार रवैया रखते हैं और ख़िलाफ़त के बाद के सारे आंदोलन में हिंदू-मुस्लिम दूरी गाँधी की इन नीतियों के कारण बढ़ती चली गई। यह भी एक चौक़ाने वाला सच है कि आज़ादी के बाद जनसंघ के साथ काम करने के बाद वे अपने सैद्धांतिक कारणों से अलग हो गये। यहाँ आश्चर्य की बात यह भी है कि अपने पहले उपन्यास ‘स्वाधीनता के पथ पर’ लिखते समय तक वे गाँधी की किसी तरह की नकारात्मक छवि नहीं गढ़ते पर उसके बाद की रचनाओं में वे आलोचनात्मक होते चले जाते हैं। यहाँ एक और रोचक बात का ज़िक्र लेखक ने बखूबी किया है कि गुरुदत्त ने गाँधी के आह्वान पर विदेशी कपड़ों को तिलांजलि दी थी। पैंट-कोट और टाई को जलाया, खादी को अपनाया तदुपरांत अपनी नौकरी भी खोयी। बाद में गुरुदत्त कैसे बदल गये वह एक रोचक पक्ष है इस किताब का।

हितेन्द्र पटेल गुरुदत्त के व्यक्तित्व में आये बदलाव को उनके संस्मरण और बाक़ी किताबों के संदर्भों के आधार पर क्रमवार प्रस्तुति के माध्यम से सामने लाने की सफल कोशिश करते हैं जो कि रोचक भी है और चौंकाने वाला भी। 1924 के कोहाट के दंगे ने उन्हें भीतर से हिला दिया और गांधी के प्रति उनको अनास्थावान बना दिया। उन्होंने अपने आपको कांग्रेस से अलग कर लिया। मालवीय और लाजपत राय की नेशनलिस्ट पार्टी के संपर्क में भी वे आये, जिन्होंने कांग्रेस को अच्छी टक्कर दी थी जिसके पास मुस्लिम लीग से ज़्यादा वोट थे और कांग्रेस से मात्र सात वोट कम थे। गुरुदत्त पर इन सभी बातों का असर हुआ, ऐसा प्रतीत होता है। आश्चर्य यह जानकर भी हुआ कि यशपाल और प्रकाशवती दोनों अपने बुरे समय में आकर गुरुदत्त के पास ही रुके थे। गुरुदत्त को भगतसिंह के मामले में गवाही देने के लिए बुलाया भी गया था। यह उनके क्रांतिकारियों के प्रति रुझान को भी इंगित करता है। प्रकाशवती को जानने की मेरी व्यक्तिगत जिज्ञासा पर यहाँ थोड़ा सा प्रकाश पड़ता है। कभी-कभी किसी किताब को पढ़ते हुए आप एक बच्चे की तरह पुलकित हो उठते हैं। यही इस किताब से गुजरते हुए मेरे साथ बार-बार होता रहा। पुलक के अगले पल रोयें भी खड़े हो गए, जब आप काज़ी की अदालत जैसी घटनाएँ पढने को मिलीं जहाँ सिक्खों को धर्म परिवर्तन के लिए राजी नहीं होने पर मृत्युदंड मिलता था और कालांतर में उस जगह के नाम पर दंगे हुए कि वह जगह असल में काजी की अदालत रही है या गुरुद्वारा। गुरुदत्त उस हमले की तैयारी के बचाव में शामिल हुए थे जहाँ स्वयंसेवक संघ से उनका परिचय पहली बार हुआ।लेखक यहाँ शायद यह इशारा कर रहे हैं कि गुरुदत्त की ज़िंदगी में यह एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव समझा जाए जो इस ओर इशारा कर रहा है कि यहाँ से वे संघ की ओर आकर्षित हुए।

कालांतर में वे संघ से जुड़े रहे। उनके दूसरे उपन्यास ‘पथिक’ को सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया। यह बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि गुरुदत्त भारतीय जनसंघ के संस्थापक सदस्य थे। बाद में दिल्ली के प्रमुख बनने के बाद वे और सक्रिय हो गये। उनको हमेशा लगता रहा कि नेहरू के कारण कश्मीर समस्या बढ़ती चली गई। कट्टर मुस्लिम नेता शेख अब्दुल्ला को राष्ट्रीय नेता बनाकर नेहरू ने बहुत बड़ी ग़लती कर दी। श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में जब परमिट सिस्टम का विरोध हुआ उस समय उनके साथ कश्मीर जाने वालों में गुरुदत्त भी थे जिन्हें स्वीकृति नहीं मिली और प्रतिवाद रैली निकालने के क्रम में गुरुदत्त डेढ़ महीने के लिए जेल गये। हितेंद्र लिखते हैं कि बाद में श्यामा प्रसाद मुखर्जी के साथ वे कश्मीर भी गये और अपनी गिरफ़्तारी भी दी। वहीं 23जून 1953 को श्यामा प्रसाद मुखर्जी का देहांत हो गया। उनकी मृत्यु के बाद संघ में जो घटनाएँ हुईं उससे आहत होकर उन्होंने त्यागपत्र दे दिया क्योंकि उन्हें लगा कि पार्टी राष्ट्रवाद से समाजवाद की ओर बढ़ रही है। लेखक का यह सब लिखना उनके पूरे व्यक्तित्व को समझने में सहायक है ताकि उनकी किताब के अंश में जो संकेत छिपे हैं उसे समझने में आसानी हो। श्यामा प्रसाद मुखर्जी के साथ बिताये वे 40-42 दिन उनके लिए कितनी सीख भरे थे, इसका भी ज़िक्र हितेन्द्र ने किया है ।

गुरुदत्त का मानना था कि गाँधी ने हिन्दू, रामराज्य, परमात्मा, गीता आदि का नाम लेकर लोगों को संगठित करते हुए नेहरू परिवार के पीछे लाकर खड़ा कर दिया। उनको यह लगता रहा कि गाँधी ने नेहरू को इतनी ताकत दे दी कि उनको सत्रह वर्षों तक कोई हिला न सका। आज़ादी के दो दशकों के बाद भी उन्होंने नेहरू की नीतियों को हर फ़्रंट पर असफल होता पाया। भारत के पड़ोसी देशों से चार बार लड़ाई हुई, कश्मीर का एक तिहाई हिस्सा पाकिस्तान के पास चला गया, साथ ही एक लाख वर्गमील का भू-भाग चीन के कब्ज़े में चला गया, इसके साथ जो हानि होनी थी 1965 में हुई ही। इन सबके लिए वे नेहरू की नीतियों को दोषी मानते हैं। इन सभी का विवरण उपन्यास के माध्यम से वे क्रमवार लिखते रहे। ‘स्वराज के पथ पर’ (1952), ‘स्वराज्य दान’ (1957), ‘ विश्वासघात’ (1951) और ‘देश की हत्या’ जैसे उपन्यासों का शोधपूर्ण ब्यौरा देते हुए हितेन्द्र पटेल सिलसिलेवार तथ्यों को रखते हैं जो इन किताबों को संदर्भों के स्रोत में बदलने का काम करता है।

इतिहासकार और साहित्यकार दोनों समय का पुनरावलोकन करते हुए पुनर्रचना करते हैं। इन उपन्यासों और इन संदर्भों के ज़रिए लेखक ने यह पक्ष सामने रखा है कि वर्तमान को समझने और सँभालने के लिए भूत को समझना ज़रूरी है और उस महत्त्वपूर्ण कालखण्ड से संवाद इतिहास के साथ-साथ साहित्य के जरिये ही संभव है या यूँ कहें कि इतिहास और साहित्य को दो पहिया बना कर चलें तो कालखण्ड की बेहतर पुनर्रचना हो सकती है। उपन्यास के पात्रों का भी अपना अतीत होता है और समय की समझ के लिए आपको संस्मरण, जीवनी, आत्मकथा जैसे साहित्यिक विधाओं की शरण में भी जाना ज़रूरी है। अंत में मिला-जुला कर मामला संवाद का ही होता है और यह अतिशयोक्ति नहीं कि इतिहास संवाद से थोड़ा कतराता तो है ही या इतिहासकारों के बीच में एक द्वंद्वात्मक ध्वनि होती तो है ही, जिसे डिकोड करने के लिए, गैप भरने के लिए इन साहित्यिक रचनाओं के पुनर्पाठ से अच्छा और क्या ही बेहतर विकल्प होगा !

अंत में आलोचक इतिहासकार हितेन्द्र पटेल को जितना साधुवाद दूँ, कम होगा। पहले ऐसी विरल कल्पना करने के लिए कि साहित्य के दरवाज़े से इतिहास के आँगन में प्रवेश करें और फिर उसी शिद्दत से उसे साकार कर दें, ऐसा रच दें कि पाठक पढ़ते हुए भूल जाए कि वह कोई शोधपूर्ण आलोचनाबद्ध कहानियों की शृंखला से गुजर रहा है। यहाँ एक ख़ास कालखण्ड को कई खिड़कियों से दिखाया जा रहा है ताकि पाठक निश्चिंत हो जाए कि जो दिख रहा है वह सच के कितने पास है। लेखक ने इन चारों उपन्यास में निहित समान सूत्र को पकड़ कर सत्य के करीब जाने का स्तुत्य प्रयास किया है। चारों उपन्यासों में हिंदू-मुस्लिम विभेद और उसके दुष्परिणाम पर चर्चा हुई है, जिसे लेखक ने भी मूल बिंदु माना है और गाँधी इस मसले को अपने तरीक़े से सुलझा नहीं पाए और असल में दोनों ओर का अविश्वास उन्हें मिला यह कड़वा सच एक विडंबना के रूप में सामने आता है। एक और बात यह भी कि गाँधी और नेहरू की जिस तरह की छवि इन उपन्यासों के झरोखों से दिखती है वैसी अकादमिक इतिहास में नहीं मिलती। क्रांतिकारियों और कम्युनिस्टों के बारे में भी जितनी बात यहाँ गहनता लिए दिखती है उतनी वहाँ नहीं दिखती। लेखक ने इस ओर गंभीरता से इशारा किया है कि इसका कारण साहित्यकारों की स्वतंत्रता और लेखनी की ईमानदारी है।

अंत में इतना समझा जा सकता है कि साहित्यिक स्रोतों के ज़रिए तथ्यों को खंगाला जा सकता है, क्रमवार सजाया जा सकता है, इतिहास में सेंध लगायी जा सकती है, क़िस्सों के आख्यानों में छिपे संकेतों को डिकोड किया जा सकता है, कल्पना में छिपे यथार्थ तक पहुँचा जा सकता है, इतिहास को सत्य के बहुत क़रीब से जिया जा सकता है, पुनर्रचित किया जा सकता है।

लेखक को इस श्रमसाध्य शोधपरक विश्लेषण और पुनर्पाठ के लिए अशेष बधाई !

 
      

About Prabhat Ranjan

Check Also

ज्योति शर्मा की नई कविताएँ

आज पढ़िए ज्योति शर्मा की कविताएँ । इन कविताओं में स्त्री-मन का विद्रोह भीतर ही …

25 comments

  1. I’m extremely impressed with your writing abilities as neatly as with the format in your
    blog. Is that this a paid theme or did you customize it your self?

    Anyway stay up the excellent quality writing, it’s rare to see a great blog like this one these days..

  2. Yourwritingexudesconfidence

  3. A masterful blend of facts and analysis.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *