इस बार पंद्रह जनवरी को मैं श्रीराम राघवन की फ़िल्म ‘मेरी क्रिसमस’ देखने गया था। थ्रिलर विधा के मास्टर हैं। उनकी फ़िल्में ‘जॉनी गद्दार’ और ‘अंधाधुन’ बहुत पसंद आई थीं। यह फ़िल्म भी बहुत अच्छी लगी। ख़ासकर ऐसा क्लाइमेक्स तो सोचा भी नहीं था। लेकिन हॉल में इस फ़िल्म को देखते हुए मैंने महसूस किया कि लोग अब ऐसी फ़िल्में नहीं देखना चाहते जिसमें दिमाग पर अधिक ज़ोर देना पड़ता हो। कुछ लोग इंटरवल में ही चले गये। कुछ थोड़ी देर के बाद गये। बहुत थोड़े से लोग हॉल में रह गये थे। दिलचस्प बात यह है कि ‘मेरी क्रिसमस पर यह टीप निवेदिता सिंह ने मुझे उसी दौरान भेजा जब मैं फ़िल्म देख रहा था। निवेदिता पहले भी फ़िल्मों पर अच्छा लिखती रही हैं। ओएमजी फ़िल्म पर लिखी उनकी समीक्षा बहुत पसंद की गई थी। अब यह टिप्पणी पढ़िए- प्रभात रंजन
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मेरी क्रिसमस निर्देशक श्रीराम राघवन ने कटरीना कैफ़ और विजय सेतुपति के बीच रोमांस की केमिस्ट्री क्रियेट करते हुए एक मर्डर मिस्ट्री को सुलझाने की कोशिश की है। सबसे पहले स्क्रीन पर दो मिक्सर ग्राइंडर दो अलग अलग चीजें पीसते हुए दिखते हैं । एक में मसाला तो दूसरे में दवाइयों के टेबलेट पिसते हुए देखकर फ़िल्म के ससपेंस का थोड़ा बहुत अंदाजा तो लग ही जाता है उसके बाद फ़िल्म शुरू होती है इंट्रोडक्शन के बाद। अल्बर्ट (विजय सेतुपति) सात साल बाद अपने घर वापस लौटता है। घर में उसके अलावा दूसरा कोई नहीं । एक माँ थी जिसकी मौत अल्बर्ट के वापस आने से पहले हो चुकी होती है जिसकी जानकारी उसके पड़ोसी (टीनू आनंद) से मिलती है। क्रिसमस की रात वह घर में अकेले रहने की बजाय मुंबई शहर. .अरे माफ़ करना बॉम्बे शहर घूमने के लिए निकलता है जहां उसकी मुलाक़ात होती है मरिया (कटरीना कैफ़) और उसकी बेटी (परी महेश्वरी) से। इत्तेफ़ाक कुछ ऐसा बनता है कि अल्बर्ट को मरिया के साथ उसके घर आना पड़ता है जहाँ दोनों अपने पास्ट जीवन ले बारे में एक दूसरे से आधा- अधूरा कुछ शेयर करते हैं। साथ ड्रिंक करते हैं , डांस करते हैं और बेटी को घर में सुलाकर थोड़ी देर के लिए दोनों बाहर जाते हैं। कुछ देर बाहर साथ घूमने के बाद दोनों जब लौटते हैं तो जो कुछ दिखता है वह कल्पना से परे होता है। कुर्सी पर मरिया के पति की लाश पड़ी होती है। पुलिस के डर से अल्बर्ट अपना अधूरा सच जो छुपा रहता है उसे बताता है और पुलिस से बचने के लिए वहाँ से निकल जाता है।मर्डर कैसे होता है, कौन करता है यही फ़िल्म का सस्पेंस है । लेकिन फ़िल्म यहीं ख़त्म नहीं होती इसलिए इन दोनों की मुलाक़ात दोबारा होती है और इस बार साथ में तीसरा रोनी फर्नांडिस (संजय कपूर) भी होता है। कहानी फ़िर से दोहरायी जाती है। सारी घटनाएं बिल्कुल वैसे ही घटती है जैसे अल्बर्ट के साथ घट चुकी होती है फ़र्क बस इतना है कि रोनी अल्बर्ट की तरह भागने की बजाय पुलिस को फोनकर घटना (मर्डर) की जानकारी देता है। मर्डर की गुत्थी कैसे सुलझती है यह सब जानने के लिए दर्शकों को फ़िल्म देखने के लिए जाना पड़ेगा। ‘ द नाइट इज़ डार्कस्ट बिफोर द डॉन’ फ़िल्म का सार भी यही है । फ़िल्म देखते हुए कई बार दर्शक डर से सिहर उठते हैं। फ़िल्म अच्छी है, भरपूर ड्रामा है, थ्रिलर है लेकिन फर्स्ट हाफ इतनी स्लो है कि ऐसे दर्शक जिनको थ्रिलर फ़िल्में अधिक पसंद नहीं वह थियेटर छोड़कर जा भी सकते हैं क्योंकि ऐसी फ़िल्मों और ऐसे ग्रे शेड चरित्रों से कनेक्ट होने में थोड़ा समय लगता है और 30 सेकंड रील देखने के दौर में दर्शकों से इतने धैर्य की अपेक्षा करना बेमानी है। इंटरवल के बाद फ़िल्म तेजी से आगे बढ़ती है और उस समय दर्शक एक सेकंड के लिए भी फ़िल्म को मिस करने की स्थिति में नहीं रहता। फ़िल्म कई सारे टर्न एंड ट्विस्ट से भरी है। फ़िल्म में राधिका आपटे सरप्राइज एलिमेंट की तरह आती हैं। कुछ मिनट की भूमिका लेकिन ज़रूरी। पुलिस के रोल में विनय पाठक, संजय कपूर की पत्नि की भूमिका में अश्विनी कलसेकर, गूंगी बच्ची की भूमिका में परी महेश्वरी ने अपना रोल बढ़िया तरह से निभाया है लेकिन कटरीना बेहतरीन हैं। क्रिमिनल होने के बावजूद भी विजय सेतुपति की मासूमियत हमारे दिल में उसके लिए एक सोफ्ट कॉर्नर को बनाए रखती है। फ़िल्म को लिखा है श्रीराम राघवन, पूजा लढा सुरति ने। अरिजित विश्वास और अनुकृति पांडे ने। निर्माता हैं रमेश तोरानी, संजय राउतराय और केवल गर्ग। कुलमिलाकर अगर आपको थ्रिलर फ़िल्म पसंद है तो आपको फ़िल्म देखकर मजा आएगा..
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