Home / Uncategorized / 2023 की यादगार भारतीय अंग्रेज़ी पुस्तकें

2023 की यादगार भारतीय अंग्रेज़ी पुस्तकें

2023 में प्रकाशित भारतीय अंग्रेज़ी की कुछ प्रमुख पुस्तकों पर यह लेख लिखा है चर्चित युवा लेखक किंशुक गुप्ता ने। आप भी पढ़ सकते हैं-

=============================

 

 रोमन स्टोरी’ज, झुंपा लाहिड़ी

झुंपा लाहिड़ी भारत मूल की लेखिका हैं जो अपनी कहानियों के लिए जानी जाती हैं। अपने पहले संग्रह द इंटरप्रेटर ऑफ़ मैलडीज़ के लिए उन्हें पुलित्ज़र पुरस्कार से नवाजा जा चुका है। लाहिड़ी के कथा-साहित्य में प्रवासी होने का अनुभव मुख्य बिंदु है—अलगाव, अफ़सोस, अन्यता, सतत (अ)जुड़ाव का अहसास, घर की तलाश। हालांकि रोमन स्टोरी’ज में लेखिका उन्हीं सब सवालों, एहसासों और समस्याओं से टकराती हैं, यह सब रोम के इर्द-गिर्द ही घटता है। झुंपा रोम में बहुत समय तक रही हैं, बल्कि इस संग्रह की मूल कहानियां इतालवी भाषा में ही लिखी गई थीं जिनमें से कुछ का अंग्रेज़ी अनुवाद लाहिड़ी ने खुद ही किया है। दो बातें इस संग्रह के साथ महत्त्वपूर्ण हैं: पहली, जैसा क्लीशे बन गया है, इन कहानियों में रोम एक चरित्र है, और शायद सबसे प्रमुख, क्योंकि यह कहानियां दक्षिणपंथी शक्तियों से प्रभाव से बढ़ते जीनोफोबिया, इस्लामोफोबिया, एंटी-इमिग्रेशन नीतियों से शहर के बदलते चरित्र को दर्शाती हैं। पहली कहानी में एक प्रवासी लड़की छुट्टी मनाने वाले परिवार को देखकर अपने अकेलेपन को भरने की कोशिश करती है। वह बताती है जब वे शहर में रहते थे, और पिता गुलदस्ते बनाते थे, तब एक बाइक सवार ने देर रात में कम फूल होने के कारण उन्हें इतने घूसे मारे कि  लड़की कहती है—मेरे पिता बिल्कुल बूढ़ों जैसे हकला कर बोलते हैं। उनका बोला हुआ केवल मुझे और मेरी मां को ही समझ आता है। कुछ लोग तो उन्हें गूंगा भी समझ लेते है। दूसरी कहानी में स्कूटर पर एक हत्यारा सड़क पर चलती हुई महिला को यह कहकर गोली मार देता है जाकर उन गंदी टांगों को धोओ!’ यहां पर टांगों का गंदा होना न केवल अन्यता को दर्शाता है बल्कि उस अन्यता के प्रति असहिष्णुता को भी रेखांकित करता है। यही इस संग्रह की दूसरी खास बात है—लाहिड़ी अपने लेखन में कभी इतनी पॉलिटिकल नहीं दिखाई दीं। ये पॉलिटिकल एंडरटोन्स ही उनके लेखन कर्म का विकास दर्शाता है।

जैपनीज़ मैनेजमेंट, इंडियन रेजिस्टेंस, नंदिता हक्सर एंड अंजली देशपांडे

नंदिता हक्सर और अंजली देशपांडे ज़मीन से जुड़े लोगों की कहानी कहते हैं। G-20 के लिए होते दिल्ली के नवीनीकरण में जिस तरह बस्तियों और झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले लोगों को विस्थापित किया गया, उस क्रूरता, बेबसी और छटपटाहट का अहसास हमारे दिमाग में तरोताजा है। इंस्टाग्राम पर एक यूजर ने ए.आई. की मदद से उन सभी चित्रों को बनाया जिसमें इन झोपड़ियों को एक हरी तिरपाल से ढक दिया गया। भारत जैसे देश का सौंदर्यशास्त्र, जो अभी भी गरीबी, भुखमरी और शोषण जैसे आंतरिक विकारों से लड़ रहा है, इतना सुथरा, सुलझा और सौष्ठवपूर्ण कैसे हो सकता है? इस सौंदर्यशास्त्र का व्याकरण अलहदा होगा जिसके गढ़ने की कल्पना सरकारों और पूंजीपतियों से नहीं की जा सकती। केवल जिम्मेदार नागरिकों, गंभीर अध्येताओं और समाजशास्त्रियों से इसकी उम्मीद लगाई जा सकती है। मारुति की मानेसर फैक्ट्री में आले दर्जे के अफसर की मौत के कारण वहां पर काम करते तमाम कार्यकर्ताओं को जेल में डाल दिया गया। यह एक तरह का विच हंट था जिसमें बड़ी संख्या में वहां पर काम करने वाले मजदूरों को जेल में भर दिया गया। तमाम मुकदमे अभी तक चल रहे हैं। हैरत की बात यही है कि अभी तक इन मजदूरों की आवाज़ को कहीं पर दर्ज़ नहीं किया गया। हक्सर और देशपांडे न केवल उन आवाज़ों को, टूटे सपनों को, और बिखरी आवाज़ों को संग्रहित करती हैं, बल्कि बिना किसी विरोधाभास के सच का सर्जिकल निरीक्षण करती हैं। इससे पहले इस मुद्दे पर आई किताबों में मजदूरों को ही कसूरवार ठहराया गया। यह किताब उस पूरे कथानक को दूसरी दिशा में मोड़ती है। इस तरह यह किताब एक इत्तर सच, एक इत्तर इतिहास को गढ़ने में कामयाब होती है।

स्मोक टू एशेज, अमिताव घोष

अमिताव घोष की किताब स्मोक टू एशेज को केवल कथेतर कह देना किताब की व्यापक संभावनाओं को संकुचित करना होगा। आइबिस त्रयी की तीनों पुस्तकों के बाद आई यह किताब न केवल अफ़ीम की खेती के द्वारा भारतीय पूर्वांचल किसानों पर होते जुल्म की परतों को उघाड़ता है, बल्कि अफ़ीम की यात्रा के साथ साथ देशों की जियोपोलिटिक्स और राजनैतिक संबंधों की भी व्याख्या करता चलता है। घोष एक जगह लिखते हैं कि अतीत की छाप वर्तमान पर गहरी होती है जिसे बहुत हद तक मिटाया नहीं जा सकता। वे ‘बिमारू’ राज्यों की विपन्नता को आज भी अफीम की खेती और सैन्य टुकड़ी के बेस पूर्वांचल से पंजाब स्थानांतरण को मानते हैं। वे एक दूसरा महत्त्वपूर्ण निरीक्षण भी करते हैं: चीन को जिस तरह से हम चेतना का ब्लाइंड स्पोट मानने को आदी हो गए हैं, वे इसका कारण इतिहास के एकरेखीय चित्रण को मानते हैं। गुआंजोऊ से लौटकर कोलकाता में एक दिन चाय पीते हुए अचानक उनके दिमाग में कौंधता है: किस तरह चा, चाय का कप, यहां तक की परोसे जाने वाली तश्तरी में भी चीन विद्यमान है। अफ़ीम युद्ध से जुड़े अनेक सपनों, सरोकारों और संभावनाओं का मानीखेज चित्रण इस किताब में मिलता है।

द गैलरी, मंजू कपूर

मंजू कपूर उस लेखकीय व्यग्रता से दूर रहती हैं जिससे सोशल मीडिया के लेखक ग्रसित रहते हैं। वह उस विज़िबिलिटी से भी मुतासिर नहीं दिखाई पड़तीं जो किसी भी लेखक में दो किताबों के बीच अप्रासंगिक न होने के डर से उपजती है। पचास साल की प्रौढ़ उम्र में लेखन में प्रवेश करने वाली कपूर अपनी नायिकाओं के चित्रण के लिए जानी जाती हैं। ‘डिफिकल्ट डॉटर्स’ और ‘ए मैरिड वुमन’ जैसे उपन्यासों में उनकी आंतरिकता, ऊहापोह और विरोधाभासों का विश्वसनीय और सटीक चित्रण मिलता है। द गैलरी भी एक मध्यमवर्गीय महिला मीनल की कहानी है जो वैचारिक तौर पर स्वतंत्र है, चंडीगढ़ से फाइन आर्ट्स की डिग्री लिए हुए है, और जिसकी शादी गोल्फ लिंक्स में रहने वाले खानदानी रईस पति से हो जाती है। जब उनकी बेटी पैदा होती है, तब एक नेपाली आया उनके घर में आती है जिसकी खुद की एक बेटी है। जहां मीनल कला की दुनिया में अपने को स्थापित करने और एक ऐसी पति के साथ जीवन बांटने की कोशिश कर रही है जो भावनात्मक तौर पर ठंडा है; उसी के समकक्ष कथानक में निम्नमध्यम वर्ग की आकांक्षाएं हैं, बराबरी करने की वह तीव्र इच्छा है जो कहीं-न-कहीं उस रईसी और अभिजात्य को देखकर बढ़ती ही है। इस अपूर्णता का एहसास किस तरह से उनके मानस पर असर डालता है और उन्हें किस हद तक उसे भरने पर मजबूर करता है, यही कहानी के मजबूत भाग हैं। साथ-साथ घर्षण है उन चार स्त्रियों का—जिनके बीच चाहे क्षणिक ईर्ष्या के भाव ज़रूर उपजें, पर ये केवल स्थूल तौर पर ही दिखाई पड़ते हैं। सूक्ष्म तौर पर एक-दूसरे का साथ उन्हें वह सहारा देता है जो जीवन जीने के एहसास को व्यापक मायने देता है।

सकीना’स किस, विवेक शानबाग

घाचर घोचर—जो अपने नाम में ही मध्यमवर्गीय उथल-पुथल को चरितार्थ करता है—से विवेक शानबाग ने भारतीय अंग्रेजी उपन्यास में महत्त्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज की थी। किस तरह एक शांत मध्यमवर्गीय परिवार को दो शक्तियां डिगा सकती हैं—पैसा और पत्नी। सकीना’स किस में भी बैंगलोर में रहने वाला वैसा ही एकल मध्यमवर्गीय परिवार है। इस बार जो शक्तियां उसकी सतह को हिला देती हैं वह पहले से व्यापक हैं—देश के बदलते स्वरूप के साथ शक्तिशाली होती असहिष्णुता और गुंडा-राज। इस दंपति की बेटी अपने ताऊजी के पास किसी दूर-दराज के गांव में घूमने गई है जहां पर उससे संपर्क नहीं साधा जा सकता। जब उसके स्कूल के दोस्त उसके लिए पूछते हुए आते हैं तो पहले तो पिता टाल देते हैं पर जब उन लड़कों के पिता अगले दिन आते हैं और कहानी में कुछ टटपूंजीए नेता भी शामिल हो जाते हैं, तब वे डर जाते हैं। लड़की को फोन किया जाता है पर तब पता चलता है कि वह वापिस आने की बस में दो दिन पहले ही बैठ गई थी। सब परेशान हैं। मां-बाप उसे ढूंढते गांव जाते हैं जहां कुछ और रहस्य उनका इंतजार कर रहे हैं।

चित्तकोबरा, मृदुला गर्ग; अनुवाद मृदुला गर्ग

मृदुला गर्ग का चित्तकोबरा जब से प्रकाशित हुआ है तब से सुर्खियां बटोरता रहा है। हालांकि इसका अंग्रेज़ी समेत तमाम भाषाओं में अनुवाद हो चुका है, परंतु स्पीकिंग टाइगर से छपा इस साल आया अनुवाद खास है—इसका अनुवाद गर्ग ने खुद ही किया है। हालांकि अश्लील घोषित कर जेल में बंद करने वाली बात अब पुरानी हो गई है, आज के समय में जब विचारों के स्वतंत्र आदान-प्रदान को सेंसर किए जाने के क्रम में हम आगे बढ़ रहे हैं, यह तथ्य बहुत महत्त्वपूर्ण हो जाता है। गर्ग का मानना है कि उपन्यास कहीं-न-कहीं आदमी के अहम और वर्चस्व पर चोट करता है। एक विवाहित स्त्री का संभोग के दौरान अपने पति को केवल एक वस्तु में रिड्यूस कर देना किसी के गले नहीं उतरता। इसमें एक बात और जोड़ी जा सकती है—शायद समाज प्रेम का दैहिक, उच्वासित, और स्वतंत्र रूप देखकर घबरा जाता है। तभी वह ‘खिसियानी बिल्ली खंबा नोचे’ जैसा बर्ताव करने लगता है।

 

 

 

ऑन द एज, रुथ वनिता

भारतीय साहित्य में समलैंगिक रिश्तों की पहली विस्तृत पड़ताल रुथ वनिता और सलीम किदवई द्वारा संपादित पुस्तक ‘सेम सेक्स लव इन इंडिया’ में मिलती है। लिटरेरी हिस्ट्री की इस किताब ने न केवल समलैंगिक स्वीकार्यता को बढ़ाया, बल्कि इस तथ्य को पुख़्ता तौर पर सामने रखा कि समलैंगिकता कोई विदेशी आयातित परिघटना नहीं, बल्कि भारतीय मानस-चेतना का अविभाज्य अंग है। ऑन द एज पुस्तक उसी कड़ी में नया आयाम जोड़ती है। वनिता अपनी लम्बी भूमिका ने हिंदी साहित्य की पारिस्थितिकी का संज्ञान लेती हैं और इसमें आते बदलाव को रेखांकित करने की कोशिश करती हैं। हिंदी में चाहे नामवर सिंह जैसे आलोचक जो इसे ‘अप्राकृतिक’ और ‘अस्वाभाविक’ और कुछ दूसरे जो इसे ‘भारत में एच. आई. वी. फैलाने का अमेरिका द्वारा रचा षड्यंत्र’ मानते हैं, उस कूढ़मगजी से बात आगे तो बढ़ी है, लेकिन कितनी—यही सवाल यह किताब पूछती है।

 

 

 

 

रुकोगी नहीं राधिका, उषा प्रियम्वदा;

अनुवाद डेजी रॉकवेल

मां के आकस्मिक देहांत के दुख से राधिका उबर भी नहीं पाती है जब पिता अपनी ही स्टूडेंट से विवाह का प्रस्ताव रख देते हैं। राधिका नहीं जानती क्या करे। वह जीवन से, जीवन की इन जटिल स्थितियों से लड़ना तो चाहती है पर आत्म हीनता के कारण एस्केपिस्म ही एकमात्र तरीका है। पत्रकार डैन के साथ वह अमेरिका तो चली जाती है, पर हर जगह अपने पिता की छवि को देखने की बलवती इच्छा उसे घेरे ही रहती है। जीवन कुछ समय ठीक-ठाक चलता है पर फिर उसे सब कुछ रीता हुआ, उबाऊ और खाली लगने लगता है। वह घर वापिस तो लौटती है, उसके चारों तरफ़ घर परिवार के लोगों की प्यार, अक्षय जैसे पुरुष का साथ होने की संभावना है, पर इलेक्ट्रा कॉम्प्लेक्स से ग्रसित राधिका का केंद्रबिंदु उसके पिता द्वारा पूर्ण स्वीकार है। साठोत्तरी का यह उपन्यास जब लिखा गया था तब अपने समय से आगे का था। आज लगभग चार दशकों के अंतराल के बावजूद इस उपन्यास के डेज़ी रॉकवेल द्वारा अंग्रेजी अनुवाद की खासी चर्चा और सराहना उसी बात को पुष्ट करती है।

फायर ऑन द गैंजेंस, राधिका आयंगर

पेशे से पत्रकार राधिका अयंगर की किताब फायर ऑन द गैंजेस एक बार फिर बनारस की ओर रुख करती है। बनारस ने सालों से लेखकों, विचारकों और चिंतकों का ध्यान आकर्षित किया है—जैसे मौत ने किया है। पर जहां मौत का तिलिस्म है, मौत पर बात करने में एक अभिजात्य छाप है, वहीं मृत्यु का दूसरा गर्हित पक्ष भी है। वह पक्ष है डोम समुदाय का। अछूत समझा जाने वाला यह समुदाय अर्थियां जलाने का काम करता है। और तमाम दूसरे छोटे-मोटे काम कर अपने पेट पालने की जद्दोजहद में लगा है। राधिका का नैरेटिव नॉनफिक्शन इन्हीं सब पक्षों को उघाड़ने की कोशिश करता है। जिस तरह से गंगा आरती को भव्य रूप देकर सैलानियों का ध्यान खींचने की कोशिश सरकार कर रही है, क्या उसी तर्ज़ पर डोम समुदाय के लिए कोई काम किया जा रहा है? तब अच्छे दिनों की कल्पना क्या सिर्फ उन ही वर्गों तक सीमित है जिनके दिन पहले से ही अच्छे थे? राधिका तमाम साक्षात्कारों के माध्यम से यह दिखाने में सफल होती हैं कि किस तरह एक समुदाय गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा के मकड़जाल में फंसा रहता है जिससे बाहर निकलने की कोशिश में उसे कितनी प्रत्यक्ष और परोक्ष दमनकारी शक्तियों का सामना करना पड़ता है।

द बेस्ट पॉसिबल एक्सपीरिएंस, कार्तिक इंजाम

कार्तिक इंजाम का पहला कहानी संग्रह ‘द बेस्ट पॉसिबल एक्सपीरिएंस’ प्रवास के अनुभवों को केंद्र में रखता है। कार्तिक तेलंगाना में पले-बढ़े, अमेरिका में कंप्यूटर इंजीनियरिंग करने गए जहां वे लेखन से टकरा गए। जिस तरह पहले संग्रह लेखकीय जीवन के करीब होते हैं, इस संग्रह की अनेक कहानियां परिजनों की मृत्यु पर आधारित हैं। पहली कहानी में भाई की मृत्यु—और भयावह आफ्टर इफेक्ट्स—को दिखाने के लिए अब्सर्डिस्ट प्लॉट का प्रभावी प्रयोग मिलता है। पात्रों के आंतरिक ऊहापोह को प्रत्यक्ष रूप से जाहिर न करने पर भी यह कहानी मृत्यु से उपजे शोक, पश्चाताप, कुछ न कर पाने की बेचैनी को जिस प्रभावी ढंग से संप्रेषित कर पाने में सफ़ल होती है, वह एक सक्षम कथाकार की निशानी है। ‘द प्रोटोकॉल’ जैसी कहानी ग्रीन कार्ड मैरिज को संदर्भ में रखती हैं। सिटिजनशिप के लिए विदेशी नागरिकों से कुछ समय के लिए शादी ग्रीन कार्ड मैरिज कहलाती हैं। हालांकि विषय के हिसाब से यह कोई नया प्लॉट नहीं—और यही इस कहानी के साथ सबसे बड़ा जोखिम भी यही था—लेकिन दोनों पात्रों, खासकर पुरुष पात्र के मन का चित्रण—पहले उस अश्वेत महिला के प्रति आश्चर्य, अजीब-सा नकार और फिर धीरे-धीरे उसके प्रति बढ़ता रुझान—ही इस कहानी को मामूली नहीं रहने देता।

 
      

About Prabhat Ranjan

Check Also

‘मंथर होती प्रार्थना’ की समीक्षा

पिछले वर्ष ही सुदीप सोहनी का काव्य-संग्रह ‘मन्थर होती प्रार्थना’ प्रकाशित हुआ है । इस …

2 comments

  1. This piece was a delightful discovery.

  2. Kinshuks appraisal of recent books in English is soul stirring. I hope the young generation would look out for the books and read them

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *