यूँ तो हिंदी में ‘बनारस’ पर कई कविताएँ लिखी जा चुकी हैं। फिर भी, हर नया कवि उस शहर की ओर आकर्षित होता है। हर एक आँख उस शहर को अपनी नज़र से देखती है। हर एक दिल उस शहर को अलग तरह से महसूस करता है। अपना अनुभव बयान करता है। बनारस, किसी के लिए इश्क़ है तो किसी के लिए महज़ उन्स। लेकिन उपासना के बनारस का रंग और ही है। आज जो कविताएँ आप पढ़ने जा रहे हैं, उनमें बनारस तो है ही। साथ में, एक कवि की स्मृति और आत्म-स्वीकृति भी है। और लिखने का अंदाज़ ऐसा, जैसे हंसते हंसते आँसू निकल आए। उन आँसुओं को शब्दों में ढाल कर कुछ शक्लें तैयार की गई हैं। उन्हें पहचानने की कोशिश कीजिए, पढ़िए उपासना झा की कविताएँ – त्रिपुरारि
उगते सूर्य को अर्घ्य देकर ही
बैशाख के किसी अनमने दिन में
सूर्य के साथ उदित हुआ था प्रेम
भीड़भाड़ और ट्रैफिक जाम में फंसा हुआ
उस शहर ने मुझे ऐसे ठग लिया था
कि सब तरफ़ हरा ही नज़र आता था
हमने बिताए एक शहर में रहकर
जाने कितने असंख्य क्षण काटे गए
तुम्हारा कंधा चूम लेने की हसरत
लेकिन ‘चाहना भी चूमना ही है’
कहकर जिस तरह तुमने देखा था
आत्मा पर उसका स्पर्श अब भी है
बनारस वह आदिम इच्छा भी है
जिसने जला रखा है प्रेमियों को सृष्टि के आरंभ से
उम्र के उन बरसों की नादानी
या ये भी कि नदियों में भी होती है
उनदिनों हर चीज़ नशा होती थी
गोदौलिया की भाँग और रथयात्रा की ठंडई
और कैंट पर खाये गये अमरुद
गला सूख जाने से जो याद आये
बनारस वही कलेजे की फाँस है…
चली गयी है मंडुआडीह की तरफ़
उसमें गुम हैं हज़ार मुस्काने
क़ैद हैं जाने कितनी जवानियाँ, जिन्दगानियां
बजरडीहा में धुन है धागों के रंगों की
उसी शहर में उठती है विदा की धूम
मणिकर्णिका के मरघट पर, अनवरत
दिनरात जपते हैं बौद्ध-भिक्षु
मुझमें एक ऐसा प्राचीन शहर
उदासियाँ उसी तरह गुंथी हुई है
जैसे जब मैं सपनों की बात लिखना चाहूँ
तो लिख जाती हूँ भरी हुई आँखे
जैसे बरसात के मौसम में किसी भी क्षण
छलकने को तैयार रहती है गंगा
जब मैं लिखना चाहूँ तुम्हारे चेहरे पर
कागज पर उतर जाता है तुम्हारे होंठो का चुप
जिसने जोड़े रखा है तुम्हें मुझसे अबतक
उनदिनों जब तुम पूछते थे कि
अस्सी घाट की सीढ़ियां, गंगा का तल
और अब सोचती हूँ तो लगता है
अस्सी की कितनी सीढियां डूब गई
बनारस कितना पुराना हो गया…
दुःख-सुख की कई अवस्थाओं में से
जितना जिए जाने में बाधक नहीं था
तुम्हें उतना भुला दिया गया था
स्वर्ग- सब सुन्दर याद रखकर
भोर के स्वप्नों में बहुधा
ने उतना ही ठगा है भीरुता को
जितना ‘हम ने क्यों नहीं समझा’
रहता है सुरक्षित व्याप्ति में
पुल के उस पार, अनामंत्रित
स्मृति है- केवल भंग आवृत्ति
स्वप्नों के धुँधले रास्ते पर
चलने लगती हैं कुछ अबूझ पीड़ाएँ
जो खींचती है एक बारीक महीन रेखा
अकेले होने और अकेले पड़ जाने के बीच
अपने को समझाने के कई तरीकों में
हम सृष्टि के नियम एक बार फिर दुहरा लेते हैं
‘जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च’
न कोई स्वर है न कोई सुगंध
सब कठोर है प्रस्तर पिंडो सा
जिसे होना चाहिए था नये जन्मे
दुनिया की सबसे कठोर वस्तु भी हो सकता है
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