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प्रचण्ड प्रवीर से प्रभात रंजन की बातचीत

हिन्दी के सबसे प्रयोगशील लेखकों में प्रचण्ड प्रवीर का नाम प्रमुखता से आएगा। कभी भूतनाथ के नाम से लिखने वाले प्रचण्ड ने आईआईटी से इंजीनियरिंग की पढ़ाई की। उपन्यास, कहानियों में तो अपने प्रयोग के लिए जाने ही गये, रस सिद्धांत और विश्व सिनेमा पर उनकी किताब अपने ढंग की इकलौती किताब है। संस्कृत-परंपरा हो या विश्व साहित्य की परंपराएँ प्रचण्ड उन सबके ऊपर पूरे अधिकार के साथ बोल और लिख सकते हैं। जिस दौर में सब कैरियर के पीछे भागते हैं प्रचण्ड ने साहित्य के लिए अपने कैरियर को लगातार दांव पर लगाया है। उनसे यह बातचीत कई लंबी संगतों का परिणाम है। बहुत दिनों बाद किसी के साथ बातचीत करके ऐसा आत्मिक संतोष का अनुभव हुआ- प्रभात रंजन 

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१.  प्रचण्ड जी, आप अपने जमाने के लेखकों से इतना अलग क्यों लिखते हैं? लेखन और समकालीनता को आप किस तरह देखते हैं?

उत्तर :   जी, इतना निश्चित है कि मैंने विविधता के साथ किताबें लिखने का प्रयास किया है। बहुधा ये प्रयास प्रतिष्ठित कृतियों से प्रेरणा लेते हुए प्रयोगधर्मिता के साथ उपस्थित हैं। ‘अल्पाहारी गृहत्यागी’ उपन्यासिका है, वहीं ‘अभिनव सिनेमा’ रस सिद्धान्त और विश्व सिनेमा को लेकर लेखमाला है। ‘जाना नहीं दिल से दूर’ कहानी संग्रह है, वहीं ‘उत्तरायण-दक्षिणायन’ में राशियों को लिखी गयी प्रयोगात्मक कहानियाँ हैं। ‘कल की बात’ की तीनो कड़ियों में विशिष्ट प्रकार की लघु कथाएँ हैं जिसकी नवीनता और प्रयोगधर्मिता के कारण कोई-कोई ही उसे साहित्य मानता है। मेरी समझ से लिखने वाले अपनी यात्रा तय करते हैं। हो सकता है कि मेरा रास्ता अन्य से भिन्न हो। कितना अलग है, इसकी पुष्टि तो तुलनात्मक अध्ययन से ही हो सकती है, जिसमें मेरी व्यक्तिगत रुचि नहीं है।
लेखन और समकालीनता के समय में मैं वही विचार रखता हूँ जो नाट्य और अन्य कलाओं के लिए मुख्य रसवादी विचार हैं। काश्मीरी आचार्य अभिनवगुप्त ने अभिनवभारती में रसविघ्नों में ‘स्वगत-परगत देशकालादि विशेषावेश’ (भावक का नाटक देखते समय देश-काल विशेष के आवेश में उसे अपना या पात्रों का सुख-दु:ख समझना) गिनते हैं। जहाँ काव्य और कला देश-काल में ही स्थित होते हैं, वहीं उनका प्रयोजन देश-काल का अतिक्रमण करना होता है। यहाँ एक गम्भीर समस्या है। जहाँ एक ओर पात्रों का देश-काल में स्थित होना है, वहीं दूसरी ओर काव्यार्थ को देश-काल को पार कर जाना है। उदाहरण के लिए आज के जमाने में ‘नमक का दारोगा’ नहीं है, किन्तु भ्रष्ट से पराजित होना तदुपरान्त उसी से पुरस्कृत होना देश-काल का अतिक्रमण है।
समकालीन लेखन के बारे में मेरा जानकारी सीमित है। देखा जाए तो ऐसा जान पड़ता है कि हिन्दी साहित्य में बीते दस-पंद्रह साल गद्य लेखन पर पद्य लेखन की विजय का दौर है। गम्भीर गद्य लेखन चर्चा में कम नज़र आते हैं और छुट-पुट कविता-अकविता बहुत चर्चित हैं। बहुत आसान है एक-दो कविता संग्रह लिख कर कवि बन जाना और उसे बढ़ावा देने वाली अपनी समझ से (वह चाहे ठीक हो या खराब हो, उसकी बात नहीं करते अभी) चर्चा में ला ही देते हैं। इसका कारण भी स्पष्ट है वह पाठकों में परिष्कृत रुचि का अभाव। छोटी-मोटी कविता पढ़ने में अधिक से अधिक से पाँच मिनट लगेंगे। लम्बी कहानी और उपन्यास पढ़ने के लिए बहुत समय चाहिए। क्या आपको नहीं लगता कि हमारी समकालीनता अधीरता, व्यग्रता और त्वरित निर्णय देने का दूसरा नाम है?
समकालीन साहित्य में दूसरी सबसे बड़ी खराबी है कि उसने साहित्य को ही बेदखल कर दिया है। अब सारा लेखन राजनैतिक है। देवीप्रसाद जी ऐसा उद्घोष करते हैं कि कोई लेखक अराजनैतिक नहीं हो सकता है। यह बात कुछ हद तक ठीक है किन्तु यह राजनीति के बृहद अर्थ में लागू होता है जहाँ सबके हित की बात हो। हमारा समकालीन राजनैतिक लेखन पार्टी पॉलिटिक्स की जूतमपैजार को लेकर है। यहाँ ‘अन्य’ विचारधारा का निषेध है, अस्वीकार्य है, यहाँ तक कि प्रतिबन्ध भी है। प्रियवंद जी ने कहीं कहा था कि केवल वाम प्रतिबद्धता वाले लेखक ही छपें और उनकी रचनाएँ ही घर-घर बाँटे जाएँ। हमारे समय की कुप्रस्थापना – साहित्य में जीवन होना चाहिए – ने ऐसी रचनाओं का प्रतिपादन किया जो कि आलोच्य भी नहीं है।
समकालीन साहित्य में गद्य के लिए स्तरीय मंचो का अभाव है। तद्भव पत्रिका दो-तीन साल में ही कोई एक रचना छापेगी। ‘आलोचना पत्रिका’ अब कहानियों पर विचार नहीं करती। ‘समालोचन वेब पत्रिका’ घोषित रूप से व्यङ्ग्य प्रकाशित नहीं करती। कुछ कविता विशेष पत्रिकाएँ हैं, कुछ आलोचना विशेष पत्रिकाएँ हैं। कुछ विचारधारा प्रतिबद्ध पत्रिकाएँ हैं जो किसी भी तरह के पारम्परिक विचार-विमर्श का निषेध करती हैं। कई पत्रिकाएँ पाँच हजार से अधिक शब्द की कहानियाँ नहीं प्रकाशित कर सकती हैं। साढ़े चार सौ पेज के उपन्यास पढ़ने का धैर्य कहीं बचा नहीं नज़र आता। इंटरनेट के दौर में लम्बी कहानियाँ और तीखे व्यङ्ग्य सुलभ से रूप से कहाँ प्रकाशित हो सकते हैं? एक बड़ी प्रिंट पत्रिका ने मेरी एक कहानी छापने के लिए शर्त रखी थी कि उसमें से उपनिषद् के संस्कृत श्लोक का उद्धरण हटा दें। वह इसलिए क्योंकि वे उपनिषद् को मानव-विरोधी, जन-विरोधी समझते हैं। क्या यह वैचारिक स्तरहीनता नहीं है? मेरी रचना वहाँ नहीं छपी और लगता है ऐसी पत्रिकाओं में कभी रचना भेजूँगा भी नहीं।
कहने का अर्थ है हमारी समकालीनता प्रतिबद्धता के नाम पर कट्टरता, समन्वयन की अपेक्षा विखण्डन, वैचारिकी की जगह वैचारिक अनुसरण में अधिक यकीन करती है। इसका परिणाम हम देखते हैं रचनाओं में हास्य, व्यङ्ग्य, विनोद, चंचलता, उल्लास और आनन्द का अभाव। देखने वाली बात यह है कि सिनेमा में ये सब स्वीकार्य है लेकिन हिन्दी साहित्य में नहीं? क्या यह साहित्य का दायित्व नहीं? या केवल यही दायित्व बचा है कि किसी पार्टी का झण्डा उठा कर प्रदर्शन करना। वह काम तो राजनैतिक पार्टियाँ कर ही रही हैं। उनके पास की किराये की भीड़ साहित्यकारों के समर्थन या विरोध से नहीं घटने-बढ़ने वाली। जो ऐसा भ्रम पाल लें कि साहित्य से हम सरकार बदल लेंगे, उनके दिवास्वप्न पर क्या कह सकते हैं! हाँ, यदि कोई राजनैतिक पार्टी का सदस्य है और यह सब करता है तो करे। पूरी स्वतंत्रता है। लेकिन पूरे साहित्य को इसी के रङ्ग में रङ्ग देना मेरी समझ से हमारे साहित्य समाज के पतन का द्योतक है।
समकालीन साहित्य में नवीनता का तिरस्कार करना भी एक लक्षण समझा जा सकता है। मैंने राशियों को ले कर ‘उत्तरायण’और ‘दक्षिणायन’ नाम से कथा संग्रह लिखे। मैं जितने हिन्दी के आलोचक को जानता हूँ और जो मुझे सहृदय लगते हैं, सभी को मैंने अपनी पुस्तकें भिजवायीं। बहुतों ने नहीं पढ़ी। कुछ कहना था कि यह अपाठ्य हैं। कुछ को प्रयोगधर्मिता को ले कर एतराज है। कुछ का मानना था कि यह बहुत परिश्रम साध्य काम है। दरअसल समकालीन आलोचना विषय-विस्तार से घबराती है और कटु सत्य यह है कि बहुत से आलोचकों में सामर्थ्य का अभाव है। उदाहरण के तौर पर हिन्दी में यशदेव शल्य जैसे गम्भीर विचारक हुए। उन्होंने अपना पूरा जीवन केवल हिन्दी में लिखने में लगाया। उनके दर्शन से प्रभावित हो कर, अम्बर्टो एको के उपन्यास ‘फूको का पेण्डुलम’ को श्रद्धान्जलि स्वरूप मैंने ‘मकर’ नाम की लम्बी कहानी लिखी है जो ‘उत्तरायण’ की पहली कहानी है। लेकिन समस्या है कि उसे पढ़ेगा कौन? किसी को दर्शन समझ नहीं आता। बतौर हिन्दी समाज हम कृतघ्न है कि जो यशदेव शल्य, गोविन्द चन्द्र पाण्डे जैसे विचारकों का मूल्याङ्कन भी नहीं करना चाहते। उन्हें पढ़ना-समझना नहीं चाहते। यह काम हिन्दी का ही तो है। संस्कृत पढ़ने वाले दर्शन, भारतविद्या, सङ्गीत और न जाने क्या-क्या पढ़ते हैं। हिन्दी साहित्य समाज को ‘प्रत्ययवाद’ और ‘भातिवाद’ ही नहीं पता। जो लोग बौद्ध धर्म का झण्डा बुलन्द करते हैं उनमें कई लोग को ‘प्रतीत्यसमुत्पाद’ नहीं समझ में आता। आलोचना ही साहित्य को प्रतिष्ठित करती है। जहाँ आलोचना ही दयनीय स्थिति में हो, वहाँ साहित्य क्या होगा?
हो सकता है कि जैसा कुछ लोग का मानना है, ‘मकर’ आपठ्य हो, दोनों कथा-संग्रह बकवास हों, किन्तु इतनी आलोचना भी सार्वजनिक रूप से प्रकाश में नहीं आती। वहीं यह कोई कविता की ६०-७० पेज की किताब होती तो सम्भव था कि ५०-६० समीक्षाओं का जुगाड़ हो जाता। यही समकालीनता का सार है।

२, मुझे याद आता है कि आप शुरू में अपने नाम से नहीं भूतनाथ के नाम से लिखते थे। भूतनाथ प्रचण्ड प्रवीर कैसे बने?

उत्तर:    रहने दो हे देव! अरे यह मेरे मिटने का अधिकार!
प्रश्न तो यह होना चाहिए कि प्रचण्ड प्रवीर भूतनाथ क्यों नहीं बन पाया। बताता हूँ।
जहाँ तक मेरी जानकारी है श्रीहर्ष और बाण भट्ट से पहले किसी संस्कृत कवि ने अपने बारे में नहीं लिखा। विद्वानों का कहना है कि कालिदास का भी मूल नाम कुछ और था। छद्म नाम से लिखने का मैं पुरजोर समर्थन करता हूँ और इसे भारतीय प्राचीन परम्परा से गृहीत समझता हूँ। ‘जाना नहीं दिल से दूर’ में संगृहीत ‘समीक्षा’ कहानी, जो पहले गिरिराज किराडू और राहुल सोनी की ‘प्रतिलिपि’ में ‘भूतनाथ’ के सौजन्य से प्रकाशित हुयी थी, उसमें मैंने इसकी विवेचना भी की है। इसके पीछे कई कारण हैं।
पहला तो यह लेखन को लेखक के ‘बायोडाटा’ से नहीं जाना जाना चाहिए। आलोचक और समीक्षक की यह मजबूरी है वह लेखन का स्रोत ढूँढें इसलिए वह अनावश्यक रूप से लेखक के जीवन में ताक-झाँक करते हैं। क्या लेखक होने की यह सजा है कि उसकी निजता का हनन हो? दूसरी बात यह है कि इससे बहुत कुछ मिलने वाला नहीं होता। इस बात को सिद्ध करने के लिए फ्रांसिसी लेखक मार्सेल प्रूस्त ने अपना विश्वविख्यात आत्मकथात्मक उपन्यास – ‘इन सर्च आफ लॉस्ट टाइम’ – लिख दिया। यह उपन्यास ऊपरी तौर से आत्मकथात्मक लगता है किन्तु यही बात मुख्य नहीं है। फ्रांस के साहित्यिक आलोचक रोलां बार्थ (१९१५ – १९८०) ने लेखक की मृत्यु की घोषणा की। वागीश शुक्ल ने अपनी पुस्तक ‘शहंशाह के कपड़े कहाँ हैं’ में अभिनवगुप्त और नाट्यशास्त्र के पहले अध्याय के हवाले से यह सिद्ध करते हैं कि भारतीय परम्परा में ‘पाठक/भावक की मृत्यु’ पहले मानी जाती है।
लेकिन कालिदास ने बेनामी काव्य-संग्रह क्यों नहीं लिखे? उत्तर है ब्राण्डिंग के लिए। जो कि किसी भी नाम का मूल उद्देश्य है – एक तरह का सन्दर्भ। किसी को यदि ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ अच्छी लगे तो वह ‘रघुवंशम्’ भी पढ़ ले। दोनों रचनाओं का सामान्य (कॉमन) सूत्र लेखक का नाम है, जो कि वास्तविक हो यह आवश्यक नहीं है।
मैं आज भी ‘भूतनाथ’ नाम से ही लिखना और छपना चाहता हूँ लेकिन पत्रिकाओं के सम्पादक और प्रकाशक मेरा साथ नहीं देते। हार्पर कॉलिंस ने मेरे पहले उपन्यास के अनुबन्ध के समय उसे मेरे मूल नाम से प्रकाशित करने की शर्त रखी। राजकमल प्रकाशन से बात बिगड़ जाने के कारण मैं जल्दी छपना चाहता था, इसलिए मान गया। बाद में मेरी प्राथमिकता वेब पत्रिकाओं में छपने की थी। ‘जानकीपुल’ और ‘समालोचन’ ने उसी नाम पर छापा जिससे मेरी पहली किताब आयी थी। कारण भी यही था कि ब्राण्डिंग के अभाव में रचना कम पढ़ी जाएगी। लेकिन मुझे लगता है मूल नाम से लिखने से भी बहुत कम ही लोग मेरा लिखा पढ़ते हैं। इसलिए मेरी स्थिति में मूल नाम से लिखना निर्रथक है।
आज के समय लोग को यह लगता है कि आप छद्म नाम से लिख कर अपनी जिम्मेदारी से भाग रहे हैं। दरअसल ऐसा नहीं है। यदि कोई लेख ऐसा विद्वेषपूर्ण होगा तो क्या कोई सम्पादक इसे प्रकाशित करेगा?
लेखक का मूल नाम से छपना हमारे समय में हर व्यक्ति की महत्वाकांक्षा, यश की अदम्य लालसा की प्रतीक है। लेखक या कवि अपने कवि-कर्म के एवज में समाज से अपनी स्वीकार्यता चाहता है। यह स्वीकार्यता की चाह स्वयं को ले कर मानी हुयी विशिष्टता से उत्पन्न है। निश्चित रूप से लेखक में कुछ विशिष्टता है, लेकिन इस अहं-तुष्टि से समाज को क्या मिलेगा? आज के शब्दों में यदि बात केवल ब्राण्डिंग की ही है तो छद्म नाम में क्या बुराई है?

३.  अपने पहले उपन्यास ‘अल्पाहारी गृहत्यागी’ को आप किस तरह से देखते हैं? किस तरह से याद करते हैं? क्या आप मानते हैं कि वह एक साहित्यिक उपन्यास है?

उत्तर:    पहली प्रकाशित कृति निश्चय ही हर किसी के लिए महत्त्वपूर्ण होती है। यह और बात है कि अंग्रेजी के कुछ साभ्रान्त लेखकों ने यह स्वीकारा है कि उनकी पहली कृति अपरिपक्व थी और प्रकाशित करने योग्य नहीं थी। पर प्रकाशकों ने उन्हें छाप दिया।
लेखन की सामान्य प्रवृत्तियों पर तुलसीदास कह गए हैं – निज कबित्त केहि लाग न नीका। सरस होउ अथवा अति फीका॥ जे पर भनिति सुनत हरषाहीं। ते बर पुरुष बहुत जग नाहीं॥
अपना लिखा सबको अच्छा लगता है ही। लेकिन दूसरों के लिखे कि प्रशंसा करने वाले जग में कम ही होते हैं। लेकिन मैं दूसरों के विचारों पर ध्यान देना पसन्द करता हूँ। सन् २०१० में प्रकाशित ‘अल्पाहारी गृहत्यागी’ को साहित्यिक कृति मानने वाले में सबसे पहले हैं – डॉ. हरीश त्रिवेदी। उन्होंने २०१४ में इस उपन्यास को पढ़ा था और बाद में ‘साखी’ पत्रिका में छपे एक लेख में इसकी चर्चा भी की थी। तब मुझे नहीं पता था कि वे कितने बड़े आलोचक हैं। इसके बाद ज्ञानरञ्जन ने २०२० में इस उपन्यास को पढ़ कर बहुत प्रशंसा की थी। मेरे गुरु वागीश शुक्ल और स्वर्गीय विष्णु खरे – दोनों को इस उपन्यास में कई कमियाँ नज़र आयी थीं। विष्णु खरे भाषा की अशुद्धियों को ले कर कठोर थे और उनका मानना था कि उपन्यास में कोई केन्द्रीय भाव नहीं उभर पा रहा जो कि किसी भी उपन्यास में होना चाहिए। वागीश शुक्ल के अनुसार उपन्यास का अन्त वह प्रभाव नहीं छोड़ता जितनी अपेक्षा शेष कथ्य से हो रही थी। प्रयाग शुक्ल को यह पुस्तक बहुत पसन्द आयी थी। कृष्ण कल्पित तथा चेतन क्रान्ति ने भी किताब को पसन्द किया था।
हाँ, बाद में विश्वविद्यालय में कार्यरत और ‘पेशेवर आलोचक’ बनने की इच्छा रखने वाले एक सज्जन इसे लुग्दी हिन्दी और ‘नई वाली हिन्दी’ की श्रेणी में रखते दिखे। मैं इसे अपमान की तरह लेता हूँ। न तो इस उपन्यास की भाषा फुटपाथी है, न ही अंग्रेजी से मिली, न ही अपशब्दों से भरी, न ही श्लील और अश्लील के विवेक से रहित कि इसे ‘नई वाली हिन्दी’ कही जाए।
निश्चित रूप से ‘अल्पाहारी गृहत्यागी’ एक साहित्यिक कृति है। मुझे नहीं पता अगर हिन्दी में किसी ने आज तक ‘डॉन किशोते’ और मारखेज के ‘एकान्त के सौ साल’ वैसी साहित्यिक श्रद्धान्जलि दी है जैसी उस पुस्तक में है। यह पुस्तक हिन्दी आलोचकों के लिए भी चुनौती है। ‘अल्पाहारी गृहत्यागी’ की आलोचना के लिए ‘डॉन किशोते’ का सम्यक अध्ययन करना पड़ेगा। इतनी मेहनत कौन करना चाहेगा और क्यों करना चाहेगा, खास कर जब आप किसी दल में या किसी एजेण्डे में फिट नहीं होते?
एक प्रतिष्ठित समाचार पत्र के सम्पादक ने सहानुभूतिपूर्वक कहा था कि इस पुस्तक का यह अपराध है कि यह ‘हार्पर कॉलिंस’ से प्रकाशित हुयी और साथ ही लोकप्रिय भी हो गयी। मुझे लगता है कि उनके कथन में सच्चाई है। जब तक कि उपन्यास में ‘शोषक-शोषित’ और हिन्दी विभाग के चर्चित विमर्श न हो, रोना-धोना न हो, वह उपन्यास हो कैसे सकता है? बिना राजनैतिक एजेंडे का उपन्यास किसके काम का है?

४. हिन्दी में गंभीर और लोकप्रिय का विभाजन बहुत गहरा है। इसको आप किस तरह से देखते हैं?

उत्तर:    मैं इसे अकादमिक संकीर्णता समझता हूँ। थोड़ा अधिक आशय स्पष्ट करता हूँ। प्रश्न यदि ऐसा हो कि जो हिन्दी में गम्भीर है वह लोकप्रिय क्यों नहीं है? बीसवीं सदी के दुरूह लेखक काफ्का, कामू, बोर्हेज, ज्वायस, बेकेट – सभी पढ़े ही जाते हैं और पीढ़ियों ने उन्हें पढ़ा है। वहाँ लोकप्रियता का अर्थ ‘हेरोल्ड रॉबिन्स’ या ‘जेफरी आर्चर’ की तरह बिकाऊ होना नहीं है बल्कि लोक में, जनमानस में, वर्षों तक समादृत होना है। हम लोकप्रियता का अर्थ केवल ‘दैशिक’ विस्तार देखते हैं यानी कि बिक्री संख्या, कई भाषाओं में अनुवाद आदि। लोकप्रियता का दूसरा आयाम ‘कालिक’ है जो कि अधिक कठिन है। कालिक विस्तार आनुपूर्वी होने के कारण अधिक गम्भीर है। इस तरह ‘जेफरी आर्चर’ को कालिक लोकप्रियता मिलेगी इसमें महती संदेह है।
हमारी भाषा में ‘कामायनी’, ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’, ‘त्यागपत्र’ गम्भीर भी हैं, लोकप्रिय भी तथा समादृत भी। अब एक असहज कर देने वाला प्रश्न मैं पूछता हूँ कि हिन्दी के पिछले २५ साल में १० महत्त्वपूर्ण उपन्यास के नाम गिना दीजिए। यही प्रश्न आप हिन्दी के बहुत से आलोचकों और प्राध्यापकों से कीजिए। क्या कोई सामान्य (कॉमन- उभय) नाम सामने आ सकेंगे? जिसे हम गम्भीर कह के मान दे रहे हैं वह लोकप्रिय तो है ही नहीं, समादृत भी नहीं है।
अब हम आते हैं उस लोकप्रिय साहित्य की तरफ, जैसे वेदप्रकाश शर्मा, गुलशन नन्दा आदि जिनका दैशिक या क्षैतिज विस्तार अधिक था। मेरी दृष्टि से उनका कवि कर्म साहित्यिक दृष्टि से श्रेष्ठ नहीं प्रतीत होता है। किन्तु उनमें कुछ ऐसे तत्त्व हो सकते हैं जो कि साहित्य की दृष्टि से बहुमूल्य हों। उनका अन्वेषण करना चाहिए। उदाहरण के लिए बङ्गाली निर्देशक ऋत्विक घटक फुटपाथी किताबों को ध्यान से पढ़ते थे कि कोई नई बात मिल जाए। अमरीकी फिल्म निर्देशक आर्सन वेल्स की प्रसिद्ध फिल्म –‘टच आफ एविल’ इसी महत्वाकांक्षा से बनी थी कि महान निर्देशक एक साधारण और लोकप्रिय उपन्यास से भी एक अविस्मरणीय और प्रशंसनीय फिल्म बना सकते हैं और उन्होंने ऐसा कर दिखाया।
समस्या यह है कि हिन्दी का अधिकांश ‘गम्भीर लेखन’ भी विश्व-स्तरीय व उत्कृष्ट नहीं है। कहने का अर्थ यह है कि जिसे हम गम्भीर मानते हैं, प्राय: न तो वह संस्कृत साहित्य की ऊँचाइयों तक पहुँचता है, न ही वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा के योग्य होता है। ईमानदारी से पूछा जाए तो हिन्दी में क्या ‘वार एण्ड पीस’ या ‘ब्रदर्स कारामाजोव’ के स्तर का कुछ है? क्या प्रेमचन्द में दर्शन की वह ऊँचाइयाँ हैं जो उनके समकालीन ‘काफ्का’ में थी? वह तो अशिक्षा, वैमनस्य, कुरीतियों और स्वतंत्रता की लड़ाई में ही खप गए। वे उसमें बहुत सफल रहे। हम सब प्रेमचंद के ऋणी हैं, किन्तु यह भी सत्य है कि दार्शनिकता या शाश्वतता उनका अभीष्ट कभी रहा नहीं। उदाहरण के लिए प्रेमचन्द साहित्य में काफ्का की तरह ‘विधि’ के स्वरूप पर प्रश्न-चिह्न लगाना, या फिर स्वातन्त्र्य, सत्य आदि दार्शनिक प्रतिपत्तियाँ अपने वैभव में कभी प्रकट नहीं होती। वे साधारण निष्पक्ष दण्ड-नीति, सदाचारी व्यवहार से, मानवीय करुणा से संतुष्ट हो जाते थे। क्या हिन्दी में बोर्हेज जैसी विद्वता का दर्शन होता है, जो इतिहास, दर्शन, साहित्य सब एक साथ साध ले? कुछ गम्भीर विद्वानों के बारे में कहा जाता है कि वे मौखिक परम्परा के थे। वे मरणोपरान्त सारा ज्ञान अपने साथ ले गए और विवेचना के लिए कम छोड़ा। इससे आने वाली पीढ़ियों को क्या मिला? यूट्यूब व्याख्यान? कई बड़े लेखकों पर विदेशियों की नकल का सीधा-सीधा आरोप लगा। इस आलोचना के साथ ही हमें यह भी याद रखना चाहिए कि प्रेरणा और नकल में अन्तर है।
दूसरी ओर ‘चन्द्रकान्ता’ और ‘चन्द्रकान्ता सन्तति’ के महान चुम्बकीय गुण को रामचन्द्र शुक्ल क्या, हिन्दी में बिरले ही कोई देखता है। यहाँ तक कि राजेन्द्र यादव भी उसे वामपन्थी चश्मा लगा कर टेढ़ी निगाह से देखते हैं। चन्द्रकान्ता का उत्कृष्ट विमर्श हमें वागीश शुक्ल की पुस्तक ‘चन्द्रकान्ता (सन्तति) का तिलिस्म’ में मिलता है, वह भी अमरीकी विश्वविद्यालयों में शोध के क्रम में एक कड़ी के तौर पर। (देखें मेरा लेख – https://samalochan.blogspot.com/2020/02/blog-post_4.html )
दरअसल हिन्दी आलोचना में वह विवेक और सजगता प्रकाश में नहीं आती जो असाधारण लोकप्रियता के पीछे असाधारण और उपयोगी तत्त्व ढूँढ सके और असाधारण गम्भीरता के अलोकप्रिय रह जाने पर मोर्चा ले सके। इसका बहुत बड़ा कारण है बदलते समय में हिन्दी के प्राध्यापकों का पिछड़ापन और दयनीय आत्म-संतुष्टि। एक तरफ हिन्दी के सामने विश्वनीयतता का सङ्कट और पाठक का अभाव है, दूसरी ओर हम अभी भी प्रिंट पत्रिकाओं की सीमित संख्या से संकुचित हैं या फेसबुक की लड़ाइयों के मारे हुए हैं। होना यह चाहिए था कि जानकीपुल और समालोचन जैसे कम से कम बीस ब्लॉग या वेबसाइट होते और वह उच्च स्तरीय चिन्तन से कुछ निकाल कर हिन्दी की जनता के सामने लाते।
आज की आलोचना व्यक्तिपरक है। वह किसी और ऊपर उठाने और किसी को नीचे गिराने में लगी है। हिन्दी के बृहद समाज के शिक्षण, अभिरुचियों के संस्कार बोने, विचारों के परीक्षण और परिष्करण के लिए कोई योजना नहीं है। पिछले बीस सालों में साधारण लोकप्रियता का भी कोई उपन्यास नहीं आया। यदि इतने बड़े हिन्दी संसार में २०-३० हजार की संख्या को बड़ी संख्या माने तो हम पर लानत है। जब तक पुस्तक के अनुवाद को बुकर नहीं मिला तब तक ‘रेत-समाधि’ की क्या स्थिति थी, सब को पता ही है। उस पुस्तक की बिक्री यह सङ्केत करती है कि आज भी किताबें लाखों में बिक सकती हैं और पढ़ी जा सकती हैं। पर हमारे यहाँ सम्यक और विश्वसनीय तंत्र नहीं है।
विडम्बना है कि हिन्दी पुस्तकों के पाठक मराठी, बाङ्गला और मलयालम के पाठकों से भी कम हैं। किन्तु जिस तरह बॉलीवुड की साधारण और प्रायोजित फिल्मों की चर्चा होती है, हर तरह की पुस्तक की चर्चा होनी चाहिए। यहाँ तक कि ‘नई वाली हिन्दी’ की भी, ‘कुमार विश्वास’ की भी – भले ही आप उसे योग्य न समझें। मेरी समझ में लोकप्रिय को हेय समझ कर तिरस्कार करना संकीर्णता है, कम से कम उसकी सम्यक निन्दा करनी चाहिए। यह स्पष्ट करना चाहिए कि आप उसे हेय क्यों समझ रहे हैं। अंतत: जिसे आप हेय कह रहे हैं वह समाज में तो जा ही रहा है न। उसके क्षैतिज विस्तार पर आँख मूँद लेने से कैसे काम चलेगा?

५. कहा जा रहा है कि डिजिटल दुनिया, आभासी संसार ने हिन्दी की दुनिया को निर्णायक रूप से बदल दिया। इसके प्रभावों को आप किस तरह से देखते हैं?

उत्तर :   डिजिटल दुनिया ने हमारे समाज पर गहरा प्रभाव डाला है। पिछले पंद्रह सालों में ई-कॉमर्स, परिवहन, सामान का क्रय-विक्रय, राजनीति बयानबाजी, राजनैतिक कार्यकर्ताओं के काम करने का तरीका बहुत कुछ बदला है। हिन्दी की दुनिया क्या, मुझे लगता है हर तरह का साहित्य इससे प्रभावित हुआ होगा। यह बदलते समय का एक आयाम मात्र है।
याद कीजिए कि अस्सी के दशक के अंत में अज्ञेय की चिन्ता था कि दूरदर्शन से समाज कैसे बिगड़ जाएगा। मुझे लगता है प्रेमचंद के समय सिनेमा और बाद में रेडियो को ले कर भी ऐसी चिन्ता रही होगी। हालाँकि उन बदलावों का स्वरूप प्रचार-प्रसार का विस्तार था। डिजिटल दुनिया का प्रभाव मनुष्य के कर्तृत्व क्षमता के विस्तार का है। अब जो कोई चाहता है वह लेखक, कवि, विचारक, नर्तक, अदाकार, मॉडल सब कुछ बन सकता है। पहले फिल्मों के लिए ‘टैलेंट हंट’ का कार्यक्रम होता था। मिस वर्ल्ड आदि प्रतियोगिता उन्हीं का छिपा हुआ रूप हैं। लेकिन अंतत: इनसे निकले कलाकारों को मौका अवश्य मिलता था किन्तु टिकते कितने हैं?
एक पक्ष देखा जाए तो हिन्दी संसार में ‘संजय चतुर्वेदी’ और ‘कृष्ण कल्पित’ की षड्यंत्र के स्तर पर उपेक्षा की गयी। डिजिटल माध्यम से उनके कवि कर्म प्रकाश में आए। शैलजा पाठक फेसबुक की ही देन हैं, जिन्होंने अपना पाठक वर्ग बनाया। गौर कीजिएगा यहाँ सफलता कवियों को अधिक मिली है और उसकी तुलना में गद्यकारों को कम।
प्रश्न यह उठता है कि कोई कवि पहले है या माध्यम उसे कवि के रूप में प्रकाशित कर रहा है। यदि माध्यम उसे कवि के रूप में प्रकाशित कर रहा है तो इससे केवल इतना सा हो रहा है कि कविकर्म प्रकाश में आ रहा है। इसमें समस्या यह है कि इस माध्यम को कवियों ने अपनाया और लोकप्रियता पायी। ज्यादा पुरानी बात नहीं है कि एक कवि ने कई स्त्रियों के नाम से महीने भर के अन्दर कई कविताएँ लिख कर अपनी उपस्थिति दर्ज की। वह कवि अपने बचाव में यह कहेगा कि उससे पहले उसे कोई पूछ नहीं रहा था, अब जमाना पूछने लगा है।
इस उपक्रम का अर्थ बस इतना है कि कवि कर्म का अंतिम उद्देश्य ‘प्रकाशित होना’, ‘लोकप्रिय होना’ ही है। मेरी समझ से कवि कर्म का उद्देश्य समाज में मूल्यों का उन्नयन, उनका वाहन और ज्ञान का परिष्कार होना चाहिए। इस क्रम में माध्यम की शुचिता भी होनी चाहिए नहीं तो विश्वसनीयता खो जाती है। प्रकाशित तो बहुत कुछ है, लोकप्रिय तो बहुत कुछ है, विश्वसनीय कौन है? यह तो आलोचना तय करती है, काल तय करता है। हमारे समय के जो सबसे बड़े कवि माने जाते हैं, उनकी उपस्थिति सोशल मीडिया पर सार्वजनिक विनोद का विषय है। देखा जाय तो यह वही विचार है कि कवि को व्यक्तिगत रूप से जान कर हम कवि कर्म तक पहुँचेंगे। लेकिन ऐसा सोचना बेवकूफी है। हम सभी मनुष्य हैं और इसी नाते सबकी मनुष्यगत कमजोरियाँ सोशल मीडिया पर ज्यादा नुमाया हुयी हैं।
हम पहले से ही विश्वसनीयता के सङ्कट के मारे हुए हैं और सोशल मीडिया ने रही-सही विश्वसनीयता को भी नष्ट कर दिया है। वैसे भी ‘शर्ली एब्डो’ की विचारधारा – कुछ भी पूज्य नहीं है, कुछ भी श्रेष्ठ नहीं है, कुछ भी आदरणीय नहीं है – हमने लगभग अपना ली है। इसी के तहत सबका अनादर करना, खिल्ली उड़ाना, पूर्वाग्रहों से लैस हो कर हर बहस में अपनी उपस्थिति दर्ज कराना आम ही है।
डिजिटल दुनिया का दूसरा स्वरूप है रचना की सार्वभौमिक उपलब्धता। हमने कई दुर्लभ किताबें मुफ्त में पढ़ी जो पहले लगभग अप्राप्य थीं। अब यह सम्भव है कि एक आदमी नौकरी भी करे और इंटरनेट से महत्त्वपूर्ण ग्रंथ बिना पुस्तकालय गए अपनी सुविधा से पढ़ सके। पहले पठन-पाठन के लिए बहुत समय निकालना पड़ता था जो कि अब कम गया है।
रचना की सार्वभौमिक उपलब्धता का दूसरा स्वरूप है कविता की सहज सुलभता। यहाँ पर भी गद्य पिट जाता है। अभी भी हिन्दी की उत्कृष्ट रचनाएँ इंटरनेट पर सुलभ नहीं है। जब लेखन से आय नाममात्र की है, तो क्यों नहीं सारा लेखन कर्म विकिपीडिया पर नि:शुल्क उपलब्ध करा दिया जाए? समकालीन लेखन के लिए यह निरर्थक इसलिए है कि उपलब्धता प्रश्न नहीं है, प्रतिष्ठा प्रश्न है। विश्वसनीयता, शुचिता, ज्ञान, विवेक – ये मुख्य तत्त्व हैं जिनका डिजिटल माध्यम से कोई लेना देना नहीं है।

६. जिस तरह से ऑडियो बुक, यूट्यूब वीडियो के माध्यम से साहित्य का विस्तार हो रहा है क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि आने वाले समय में हिन्दी एक बार फिर बोलचाल की भाषा रह जाएगी? हिन्दी पढ़ने वाले तो रहेंगे लेकिन वे शायद अकादमिक उद्देश्य से ही हिन्दी पढ़ें।

उत्तर :   ऑडियो बुक और यूट्यूब वीडियो लिखने-पढ़ने का विकल्प की तरह प्रस्तुत हैं पर वे लिखने-पढ़ने को स्थानापन्न नहीं कर सकते। भाषा व्यवहार की चार मूल अवधारणाएँ हैं – सुनना, बोलना, पढ़ना और लिखना। पढ़ने-लिखने में श्रम लगता है, पर इसका अर्थ यह नहीं कि पढ़ना-लिखना विलुप्त हो जाएगा। लिपि के विकास से पहले साहित्य बोल-सुन कर ही संरक्षित किया जाता था। लेकिन लिपि के बाद उसमें ऐसा परिवर्तन आया है कि मानव सभ्यता उससे मुक्त नहीं हो सकती चाहे कितना भी आर्टिफिशयल इंटेलिजेंस क्यों न आ जाए। शिक्षण और व्यवहार का माध्यम भाषा के पढ़ने-लिखने वाले आयामों में रहेगा। यह और प्रश्न है कि भाषा क्या केवल संकेतन व्यापार है? क्या भाषा चार्ल्स सैंडर्स पियर्स (१९३९-१९१४) और फर्दिनान्द द सस्यूर (१८५७-१९१३) के ‘सेमियोटिक’ तक ही सीमित है?
भाषा का कार्य संकेतन व्यापार तक ही सीमित हो जाए, तो भाषा जल्दी पीछे छूटेगी। मुझे लगता है कि यदि आज हिन्दी को राजकीय परश्रय न मिले (जैसे कि न्यायालय, थाने, सरकारी दफ्तर आदि में हिन्दी का प्रयोग), उस स्थिति में हिन्दी आज उतनी ही तेजी से पीछे छूट जाएगी जितनी तेजी से हमने स्मार्टफोन को अपनाया है। हम हिन्दी को छोड़ कर तेजी से विदेशी भाषाओं और बोलियों पर चले जा सकते हैं।
वैसे भारत बहुभाषी देश है और यहाँ के निवासी हमेशा से कई भाषाओं में पारंगत रहे हैं। प्राचीन काल में अपभ्रंश, प्राकृत और संस्कृत तो विद्वता की पहचान थी। संस्कृत नाटक में केवल २५% प्रतिशत के आसपास संस्कृत होती थी शेष अन्य भाषाओं में। ह्वी शान्ताराम की फिल्म, शायद ‘गीत गाया पत्थरों ने’ में आप देखेंगे तो वहाँ पर एक छोटे बच्चे के माध्यम से उनकी परिकल्पना है ऐसा भारत जहाँ के निवासी कई भारतीय भाषाओं में प्रवीण हों। पर इंटरनेट ने इस परिकल्पना को पूरी तरह अनुपयोगी और महत्त्वहीन बना दिया।
देखा जाय, संस्कृत केवल पिछले १७५ साल में मुख्य पाठ्यक्रम से बेदखल कर दी गयी है। बहुत सम्भव है कि आने वाले ५० साल में हिन्दी का भी यही हाल हो। आज उच्चतर शिक्षा का सर्वमान्य माध्यम अंग्रेजी ही तो है। क्या कोई हिन्दी में एमबीए या एमबीबीएस कर सकता है? हिन्दी रोमन लिपि में लिखी जाएगी और पूरा भारत अंग्रेजी सहित बहुत-सी भाषाओं में काम चलाएगा।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के समय पढ़े लिखे लोग ही कम थे। अपनी भाषा में बोलते थे सो उन्हें ‘नागरी’ की राजनैतिक आवश्यकता थी कि कमसे कम न्यायालय में इस भाषा में अर्जी तो दी जा सके। भारत में साक्षरता उस समय के मुकाबले बहुत बढ़ गयी है। हमें भाषा, अर्थव्यवस्था और राजनीति का आन्तरिक सम्बन्ध समझना चाहिए। जब तक लोग हिन्दी में बोलते रहेंगे और अपनाते रहेंगे तब तक हिन्दी रहेगी। हिन्दी में बोलने वाले वो हैं जो कि अब भी हिन्दी में ही किसी तरह का व्यवहार करते हैं। भारतेन्दु के जमाने में अनपढ़ और कृषक जनता हिन्दी और सम्बन्धित बोलियों में थी। अब तो खेती भी घाटे का सौदा है। गाँव में भी सभी अपने बच्चों को अंग्रेजी स्कूल में पढ़ा रहे हैं ताकि कॉरपोरेट में नौकरी मिले। माँ-बाप बच्चे से अंग्रेजी में बात करते हैं और उसी में गर्व महसूस करते हैं। ऐसे में यदि आशा करें कि निकट भविष्य में कॉरपोरेट का हिन्दीकरण होगा, तो बेमानी बात है। उसकी चाभी अंग्रेजीदाँ साभ्रान्त लोग के हाथ में हैं जो हिन्दी को हेय दृष्टि से देखते हैं। भारतीय वामपंथ को यदि भारत की परम्परा से इतनी घृणा नहीं होती तो वहाँ कुछ उम्मीद की जा सकती थी, लेकिन सच्चाई है कि वहाँ की भी चाभी भूरे अंग्रेजों के पास है जो कि ज्ञान का समस्त उत्स पश्चिम में देखते हैं और काव्य के प्रतिमान लैटिन अमरीका के साहित्य और अफ्रीकी कवियों में ढूँढते हैं। उन्हें संस्कृत से ही नहीं समस्त भारतीय ज्ञान परम्परा से घृणा है। वे बौद्ध दर्शन को भी विदेशी चश्मे से पढ़ेंगे और जानेंगे।
लेकिन हम हिन्दी को बचा कर करेंगे क्या? यह विचारणीय है। जिन कारणों से हिन्दी को बचाना चाहिए, क्या वे कारण और प्रतिबद्धता हमें साहित्य में बची नज़र आती है? अपभ्रंश और प्राकृत की तुलना में संस्कृत के फिर भी बचे रहने का बड़ा कारण उसका विपुल और उच्च कोटि का साहित्य है। यहाँ तक कि बौद्ध आचार्य जैसे कि वसुबन्धु, नागार्जुन, धर्मकीर्ति ने भी अपने ग्रंथ संस्कृत में ही लिखे। हम विदेशी विचारक हाइडेगर और हुसर्ल को चाव से पढ़ते हैं, उन्हें इतना मान देते हैं जिन्होंने अपनी मातृभाषा में लिखा। हिन्दी में ऐसा कौन शोधार्थी है जो ‘यशदेव शल्य’ के दर्शन को पढ़े और उसे हिन्दी की मुख्यधारा में स्थापित करे? यशदेव शल्य ने हिन्दी में नागार्जुन की ‘मूल माध्यमिक कारिका’ का खण्डन किया है, जो कि अत्यन्त मौलिक और महत्त्वपूर्ण है। यह कुछ उस तरह का काम है कि जैसे कोई स्पिनोज़ा का खण्डन उसके तर्कों से कर दे। हिन्दी के पक्षधर यह कह कर कन्नी काट लेंगे कि यह दर्शन का विषय है, हिन्दी का नहीं। क्या यह भाषा की दुर्दशा नहीं है कि कोई विश्व स्तरीय काम आपकी भाषा में हुआ है और आपकी कोई जिम्मेदारी ही नहीं है।
यह सोचना भी खुद को भुलावे में रखना होगा कि आर्टिफिशियल इंटिलेजेंस से लैस अत्याधुनिक अनुवाद करने मशीन हिन्दी के शिक्षण को मजबूत करेंगे। सोचने वाली बात है कि चैटजीपीटी जैसे एलएलएम (लार्ज लैंग्वेज मॉडल) के लिए अंग्रेजी का वृहद संसार है। वह अन्य भाषाओं में क्यों न आएगी? किसी भाषा में विस्तार के लिए एलएलएम की मूलभूत ज़रूरत क्या है? वाक्य में प्रयुक्त शब्दों के सन्दर्भ के लिए, उसकी लाक्षणिकता और व्यञ्जकता के लिए। जैसे-जैसे हिन्दी भाषा के दस्तावेज इंटरनेट पर आएँगे, एलएलएम मजबूत होगा। साथ ही यह बात मत भूलिए कि कितना भी एलएलएम (लार्ज लैंग्वेज मॉडल) सिद्धहस्त हो जाए, शक्ति की कुञ्जी मशीन के मालिकों के हाथ में ही रहेगी। उनके बनाए नियमों से ही सही-गलत का विवेक होगा। इसका एक उदाहरण देता हूँ। भारतीय परम्परा से हिन्दी भाषा छात्र अभी भी अपनी प्रशंसा नहीं करते। आज के दौर में नौकरी के इंटरव्यू में यह मानक बन गया है आप अपनी विशेषताएँ और न्यूनताएँ बताएँ। मैं जानता हूँ  कुछ ऐसे भारतीय प्रोफेसर को जो कि अमरीका में इसी संकोच से अपनी नौकरी पक्की न करवा सके क्योंकि आत्मप्रशंसा हमारे मूल्यों में नहीं है। इसलिए भारतीय परम्परा के शील से भूषित कई छात्र निर्लज्ज नहीं हो पाते, एमबीए करने में उन्हें कठिनाई का सामना करना पड़ता है। मुझे लगता है कि आधुनिक पश्चिम के लिए भौतिक संतोष कोई मूल्य नहीं है। यह समझ लीजिए भाषा जाएगी तो मूल्य भी जाएँगे। मूल्य जाएगा तो विवेक भी जाएगा। विवेक गया तो आत्महीनता और भय उत्पन्न होगा। भय ही सर्वनाश कर देगा।
एक सत्य यह है कि भाषा के अध्ययन से हमने तर्कशास्त्र को बेदखल करके केवल गणित और तर्कशास्त्र के लिए छोड़ दिया है, जबकि तर्क में भाषा का वैभव पूरी तरह खिल कर आता है। इसका सीधा परिणाम है कि हिन्दी साहित्य समाज कुतर्कियों और अशिष्टों से भरा है। सेमियोटिक, खास कर ‘सस्यूर’ और ‘चार्ल्स सैंडर्स पियर्स’ के प्रशंसित कार्य पाणिनी के ‘अष्टाध्यायी’ से प्रेरणा लेते हैं। मुझे जानकारी नहीं इसलिए आपसे पूछता हूँ कि क्या विश्वविद्यालयों के हिन्दी विभाग में ‘अष्टाध्यायी’ और ‘आधुनिक सेमियोटिक’ पढ़ने-पढ़ाने की परम्परा है? हिन्दी वाले एलएलएम का कितना प्रयोग कर रहे हैं और उससे क्या कर रहे हैं?
भाषा जब तक ज्ञान, विज्ञान, विचार, सौन्दर्य, लालित्य जैसे आयाम नहीं समेटेगी तो उस भाषा का क्या करना? फिर आप ‘गैंग्स आफ वासेपुर’ जैसी रद्दी फिल्में हर हफ्ते देखिए, फेसबुक पर उसकी समीक्षा लिखिए और उसी तरह की गाली-गलौज से सुसज्जित ‘नई वाली हिन्दी’ को अपने जीवन में प्रेम से अपनाइए और साल भर में भूल जाइए। इसके साथ ही हम सबको मिलकर समवेत स्वर में एक प्रतिष्ठित स्वर्गीय कवि की तरह विलाप करना चाहिए कि हाय, हम इस भाषा में क्यों लिखते-पढ़ते हैं?
यह मूर्खता और कृतघ्नता की पराकाष्ठा है।

 

७. लेखक को समकालीनता से किस तरह का सम्बन्ध रखना चाहिये? क्या आज भी कोई मरणोत्तर कीर्ति के लिए लिख सकता है?

उत्तर :   मुझे पता नहीं कि मरणोपरान्त ख्याति पाने वाले लेखक जैसे फ्रैंज काफ्का, विलियम ब्लेक, एमिली डिकिन्सन, हरमन मेलविल ने मरणोत्तर कीर्ति या केवल कीर्ति के लिए अपनी रचनाएँ लिखीं थीं। महान अमरीकी उपन्यास ‘मोबी डिक’ ने तो हरमन मेलविल के लेखन के कैरियर को बरबाद कर दिया। साथ ही मुझे नहीं लगता कि चेखोव, टॉलस्टॉय, दोस्तोयेवस्की, हैंस क्रिश्चियन एण्डरसन जैसे अति प्रसिद्ध लेखकों ने कीर्ति की कामना में कुछ रचा होगा। क्या जयशङ्कर प्रसाद ने कीर्ति के लिए ‘कामायनी’ लिखी होगी? सीधी बात है कि काव्य पहले है और उसके बाद उसकी गुणवत्ता और उसके प्रभाव से कीर्ति होती है। आज संसार जिन भी साहित्यकार या वैज्ञानिक का ऋणी है किसी ने ख्याति या कीर्ति पाने के लिए काम नहीं किया।
देखिए उपरोक्त महान लेखकों ने अपने समय में ही रह कर रचा-लिखा। यह चार्ल्स डिकेंस का ही प्रभाव था कि बच्चों के श्रम के लिए इंग्लैण्ड में सख्त कानून लाए गए। अपने समय का फ्रांस ‘बाल्जाक’ के साथ-साथ ‘विक्टर ह्यूगो’ का ऋणी रहा।
अगर कीर्ति ही चाहिए तो मरने की क्यों प्रतीक्षा करनी? रील्स बनाइए, यूट्यूबर बनिए, इन्फ्लुएंसर बनिए। बॉलीवुड के दरवाज़े खुले हैं वहाँ किस्मत आजमाइए। बहुत से प्रतिभाशाली लेखक लेखन छोड़ कर स्क्रिप्ट राइटिंग का धंधा करते हैं। ख्याति भी मिल रही है। यदि उसमें कुछ बुरा नहीं है, आपके मन को रुचता है तो वहाँ कोशिश कीजिए। अगर वहाँ कोशिश नहीं करनी है तो शायद यह विचार है कि हल्दी लगे न फिटकरी और रंग चोखा ही चोखा। बैठ कर कुछ लिखेंगे और हमारी लॉटरी लग जाएगी। ऐसा सोचना लिखने के अपने संघर्ष को नकारना ही नहीं, बल्कि लेखन को अपमानित करने जैसा है।
इसका साम्य आप विज्ञान और गणित में देखिए। एक से बढ़ कर एक महान वैज्ञानिक और गणितज्ञ – जिन्होंने बीसवीं सदी में दुनिया बदल दी, कितनी ख्याति है उनकी? उनके क्षेत्र में ही उनके लोग उन्हें जानते हैं। बस इतना ही। यह सच है कि लेखन में कीर्ति मिलती है, कम से कम गणित और विज्ञान की अपेक्षा अधिक। फिर भी हम उनके त्यागपूर्ण जीवन से सीख सकते हैं। अपने काम के प्रति लगन सीखिए उनसे, जिन्हें विज्ञान का और ‘कन्फर्मिस्ट’ कह कर खारिज करने की परिपाटी हिन्दी में चल रही है। यह अपनी मूर्खता, अकर्मण्यता और अज्ञानता को ढँकने का एक तरीका मात्र है। जहाँ विज्ञान में उत्कृष्टता के पैमाने बहुत हदतक वस्तुनिष्ठ हैं – जैसे पेपर का प्रकाशित होना, बहुतों द्वारा आपके शोध/खोज/आविष्कार का प्रयोग करना, सार्वजनिक जीवन में उसकी उपयोगिता आदि। साहित्य में यह वस्तुनिष्ठता नहीं है और होनी कठिन है। फिर भी यह तो हम मानते हैं कि टैगोर जितना रचने के लिए बहुत कुछ पढ़ना-करना पड़ेगा। यश की लिप्सा लिए कोई ‘प्रसाद’ या ‘निराला’ नहीं बन जाता। इस लिप्सा से मुक्त हो कर ही कोई ‘महादेवी वर्मा’ हो सकती है। कीर्ति किसको मिलेगी यह कहना बहुत मुश्किल है। कम से कम उतना ही मुश्किल जितना कि ‘जैनेन्द्र कुमार’ होना।
आपके प्रश्न की कई तहें हैं। समकालीनता का अर्थ भी बहुआयामी है। जैसा कि वागीश शुक्ल दावा करते हैं कि ‘चन्द्रकान्ता’ की पृष्ठभूमि महमूद गजनवी के समय की है। विशुद्ध फंतासी वाला उपन्यास इस समकालीनता में था कि वह राष्ट्रगौरव व हिन्दी प्रेम जगा सके। ‘वार एण्ड पीस’ जैसे बड़े कई उपन्यास अपने समय से ५०-६० साल ही पीछे जाते हैं और समकालीन विमर्श में जुड़ते हैं।
दरअसल समकालीनता का अर्थ जो संभवतया आप कहना चाहते हैं वह है कालगत ‘साहित्य विमर्श’ का दौर। यह फाइन आर्ट्स (पेंटिग) से बहुत प्रभावित वाद है। पेंटिंग में रोमांटिक मूवमेंट, इम्प्रेशनिस्ट मूवमेंट, दादा मूवमेंट आदि कई वाद चले। साहित्य के आलोचक आधुनिक, उत्तरआधुनिक आदि विमर्श की व्याख्या करते हैं। ये क्या ज़रूरी है कि सभी अपने समय के आंदोलनों से प्रभावित हो कर जुड़ें? इस तरह कहने का अर्थ हुआ कि आज हमें साहित्य में दस महिला विमर्श, पाँच दलित विमर्श, चार आदिवासी विमर्श की कविताएँ और कहानियाँ चाहिए। तकरीबन यही हिन्दी पत्रिकाओं का सच्चा हाल है कि साहित्यिक आरक्षण के तहत हम रचनाएँ देखते हैं, पढ़ते हैं और पुरस्कारों में उसकी वकालत करते हैं। अगर यही है तो इसको और विस्तार देना चाहिए। चार गैर हिन्दी भाषी कवि, पाँच मुसलमान कवि, तीन जैन कवि, नौ बौद्ध कवि, कुछ लक्षद्वीप के कवि, कुछ अंडमान निकोबार के कवि, दो सूरीनाम और मारीशस के कवि, एक कनाडा की लेखिका, एक अमरीकी प्राध्यापक, एक लंदन की अनुवादक-आलोचक – इन सबकी रचनाओं को आरक्षण दे कर पढ़िए और उन्हें ही पुरस्कृत कीजिए।
इसमें कोई विशेष आपत्ति नहीं है। कीजिए। लेकिन इससे मिल क्या रहा है? कौन पढ़ रहा है? हिन्दीभाषी जनता इस तमाशे से कब की ऊब कर हिन्दी रचना से कन्नी काट चुकी है। अकादमिक महत्त्व और कॉलेज के शोधार्थी के सिवा किसको हिन्दी की पड़ी है? ‘हमलोग’, ‘बुनियाद’ और ‘धर्मयुग’ वाले दिन लद गए। अब रील्स वाली जनता बची है। कवि रील्स बना रहे हैं और लोग शेयर कर रहे हैं। बस यही बच गया है साहित्य।
समकालीनता के प्रश्न को लेकर एक अच्छा उदाहरण है जैनेन्द्र कुमार की ‘सुनीता’ का। बहुतों की दृष्टि में यह समय से पहले की रचना थी। मेरा मानना है कि समय से पहले या समय के बाद का कुछ नहीं होता। अपने समय में धंस कर ही लेखक ने ठीक समय पर ही लिखा, लेकिन ‘समय’ को इतना ही समझ सकते हैं कि ‘समय पर सहृदयता’ नहीं मिलती। ‘सुनीता’ के विचारों को ओशो का पूर्ववर्ती घोषित कर सकते हैं, किन्तु विचार तो शाश्वत ही होते हैं। धरती पर क्या नहीं हुआ है? ग्रीक दर्शन, भारतीय दर्शन, श्रमण परम्परा – सब देखिए। सभी ने अपने समकाल पर कुछ न कुछ ऐसा कहा और किया कि आज भी प्रासंगिक लगता है। हमारे समकाल में हम कितना काल जीत पाएँगे, यह विचारणीय है। एक उत्तर आएगा कि सरकारें बदल कर हम अपनी समकालीन उपस्थिति को संगत ठहराते हैं। जो इतने से संतुष्ट हो सकते हैं उन्हें यही मुबारक।
आपके प्रश्न का स्पष्ट उत्तर तो यह है कि समकालीन विमर्श से प्रायोजित रचनाओं से सम्बन्ध नहीं रखना चाहिए। जो स्वत: स्फूर्त हों, जिनमें साहित्य के गुण पहले हों, जो साहित्य के नियम पर पहले खरे उतरे – जैसे कि आंतरिक लय, भाषा, नवीनता, भाव, उच्च स्तर का चिन्तन – उसकी परवाह करनी चाहिए। यहाँ प्रतिपक्षी का कुतर्क होगा कि यह सब हममें हैं, आप नहीं देख पा रहे। हम ही नए युग के ग़ालिब है, आपको क्या मालूम।
कुतर्कों की काट सम्यक आलोचना से की जा सकती है। किन्तु हमारी समकालीनता अशिष्ट और असभ्य है। समाज के तौर पर हम गाली दे कर अपनी बात शुरू करते हैं। हम पहले किसी को दलित विरोधी, स्त्री विरोधी, पूँजीवादी, फासीवादी, वामपंधी, जातिवादी आदि कहेंगे, बाद में उससे कोई संवाद करेंगे। इस समकालीनता का आलम यह है कि रचनाकारों को क्लार्क गेबल और मर्लिन मुनरो के अवतार मान कर उनके छाया-चित्र उपलब्ध कराए जाते हैं। पाठकों के अपरिहार्य और अव्यवहित दीक्षा-संस्कार की आकस्मिक आवश्यकता के लिए उनके फोन नम्बर सर्वसुलभ करा दिए जाते हैं। उसके बाद तमाम तरह के अशिष्ट लोग रात-बेरात बिना किसी अभिवादन या उचित समय या उपलब्धता पूछे बिना फोन करके दीक्षा-याचना के नाम पर अपनी आलोचकीय महत्ता बताना प्रारम्भ कर देते हैं। यदि कोई इस खराब परिपाटी का विरोध करे तो वह जन-विरोधी हो जाता है। इस तरह की निकृष्ट और अशोभनीय समकालीनता से पूरी तरह बचना चाहिए।
दूसरी प्रमुख बात मैं यह समझता हूँ कि किसी प्रयासरत लेखक को समकालीन लेखन बिलकुल नहीं पढ़ना चाहिए। यह काम केवल वरिष्ठ लेखकों और आलोचकों पर छोड़ना चाहिए। अव्वल बात तो यह है कि जिसे सही मायने में ‘लेखक’ या ‘कवि’ कहा जाए वह हिन्दी में कुछ ही हैं। मैं लेखक या कवि उसे ही मानता हूँ जिसने काव्य-सिद्धि की हो और जिसे लोक-सिद्धि भी मिली हो। काव्य-सिद्धि आलोचक तय करेंगे और लोक-सिद्धि भाषा के पाठक तय करेंगे। ईमानदारी की बात यह है कि मैं भी लेखक नहीं हूँ क्योकि मेरी काव्य सिद्धि संदिग्ध है और लोक-सिद्धि नगण्य। व्यवहार के स्तर पर आप मुझे ‘प्रयासरत लेखक’ कह सकते हैं इस आशा के साथ कि किसी समय में शायद मैं भी ‘लेखक’ हो जाऊँ।
थोड़ा अधिक स्पष्ट करूँ तो प्रयासरत लेखक को जानने-समझने के लिए अनन्त आकाश खुला है। यह भी कोई गारंटी नहीं है कि बहुत कुछ पढ़ने और जानने से कोई अच्छा कवि या लेखक हो सकता है। रामकृष्ण परमहंस जैसे आत्मज्ञानी कवि नहीं थे और कालिदास को पढ़ कर कोई कालिदास नहीं बन जाता। फिर भी, बहुत से सारी प्रतिष्ठित कृतियाँ समझ को कुछ सीधी करती हैं। आमतौर पर जो यह मान के बैठ जाएँ कि एमए या पीएचडी करने से हमने बहुत कुछ जान लिया, वे तो स्वयं को धोखे में ही रखते हैं। बहुत से प्रयासरत कवि/लेखक ज्ञान से बचना चाहेंगे और कहेंगे कि हम ‘भाव’ प्रधान हैं। लेकिन अंतत: भाव ज्ञान से और ज्ञान भाव से प्रभावित होते ही हैं।
इसलिए किसी भी प्रयासरत लेखक को कीर्ति या मरणोत्तर कीर्ति के लक्ष्य के बजाय यह समझना चाहिए कि प्रतिष्ठित और कालजयी कृतियों में ऐसी कौन-सी बातें हैं जो उन्हें कीर्त दिलाती हैं। हो सकता है यह उपक्रम उन्हें समकालीनता में और कालान्तर में भी ख्याति दिला दे।

८. प्रचण्ड जी, आपके लेखन की तरफ़ वापस लौटते हैं। अभी आपका उपन्यास आया है ‘मिटने का अधिकार’। मुझे यह प्रेम के दर्शन का उपन्यास लगा और हिन्दी के कुछ क्लासिक उपन्यासों की परम्परा का लगा, जैसे ‘सुनीता’। आप स्वयं इस उपन्यास को किस तरह से देखते हैं?

उत्तर:    यह उपन्यास ‘महादेवी वर्मा’ और ‘मीना कुमारी’ को समर्पित है। दोनों को ही हम प्रेम और पीड़ा के लिए याद करते हैं। अगर यह हिन्दी के उपन्यासों की परम्परा की कड़ी है, तो निश्चितरूपेण अच्छी बात है। हम कब तक विदेशी उपन्यासों की तर्ज पर या आयातित विमर्श पर चलेंगे? इसी कारण मुझे जैनेन्द्र कुमार बड़े मौलिक लगते हैं। मौलिक शब्द का अन्वय ‘मूल’ यानी जड़ से जुड़ा है साथ ही इसकी अर्थच्छाया ‘नवीनता’को लेकर है। वही मौलिक है जो नवीन भी है और जड़ से भी जुड़ा है।
मिटने का अधिकार स्पष्ट रूप से पुनर्जन्म से सम्बन्धित है। आधुनिक हिन्दी में कर्मफलवाद और पुनर्जन्म को दुत्कारा जाता है। कोई बात नहीं। लेकिन मैं बस इतना ही ध्यान दिलाना चाहता हूँ कि सांख्य-योग, न्याय-वैशेषिका, मीमांसा-वेदान्त, जैन-बौद्ध, शैव-वैष्णव – सभी दर्शनों ने केवल ‘चार्वाक’ को छोड़ कर पुनर्जन्म और कर्मफल को माना है। इसकी सिद्धता को एक पल के लिए हटा के देखें तो इसका हल्का सा अनुमोदन हम इम्मेनुएल काण्ट (१७२४-१८०४) के दर्शन में देखते हैं जहाँ काण्ट का मानना है कि अजर-अमर आत्मा को मानना नैतिकता के लिए एक तार्किक आवश्यकता है। दोस्तोयेवस्की की प्रमुख चिन्ता थी कि अगर ईश्वर को नहीं मानेंगे तो हर कुछ के लिए छूट मिल जाएगी। हर कुछ मतलब व्यभिचार, बलात्कार, चोरी-हत्या, यहाँ तक कि आत्महत्या भी। अस्तित्वादियों ने नैतिकता की व्याख्या के लिए जो भी उपकरण अपनाए, वे सब स्वच्छन्दता, निराशा, घृणा के अतिरिक्त क्या देते हैं यह विचारणीय है। पुनर्जन्म के प्रश्न को आस्तिकता और नास्तिकता में समेट देना वैचारिक बेईमानी है, क्योंकि नास्तिक (यहाँ अनीश्वरवादी के अर्थ में) दर्शन जैसे सौगत (बौद्ध) और अर्हत (जैन) भी पुनर्जन्म को मानते हैं। वे ऐसा क्यों मानते हैं? दूसरे शब्दों में हज़ारों साल से भारतीय विचारक पगलाए हुए थे और इक्कीसवीं सदी में आप इतने बड़े वैज्ञानिक पैदा हुए, इतनी समझ रखने वाले हैं जो बुद्ध, दिङ्नाग, वसुबन्धु, भर्तृहरि, महावीर, पतञ्जलि सबके पितामह सिद्ध हो गए हैं? जिनको अपने तर्क पर गुमान हो पहले वह बौद्धों और शैवों का तर्क और प्रत्युत्तर पढ़े-सुने फिर अपनी जमीन तलाशें कि आप महानुभाव कितने पानी में हैं।
‘मिटने का अधिकार’ स्त्री-पुरुष विषयक प्रेम के सम्बन्ध में एक वैचारिक प्रयास है। प्रेम में डूब कर कोई मर जाना चाहता है तो कोई अनचाहे मर जाता है। मैं इस उपन्यास को गहरी वैचारिक असफलता की तरह देखता हूँ। मुझे प्रेम से मुक्त होने का कोई ओर-छोर नहीं दिखता। न ही उसकी भुक्ति में कोई विशिष्ट बात नज़र आती है। ग़ालिब का एक शेर है – मिरे दिल में है ग़ालिब शौक़-ए-वस्ल ओ शिकवा-ए हिजरां/ ख़ुदा वह दिन करे जो उस से मैं यह भी कहूँ वह भी। यह आम सा लगने वाला शेर इतना मामूली नहीं है। क्योंकि जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है हम देखते हैं कि किशोरावस्था में एक-दूसरे के लिए मर जाने वाले युगल शादी के दस-पंद्रह साल बाद एक-दूसरे को मारने को उतारू हो जाते हैं। इस ग़लतफहमी में नहीं रहना चाहिए कि ऐसा कुछ अभागों के साथ हुआ, हमारे साथ थोड़े ही कोई मनमुटाव होगा। हम तो बेहद पाक-साफ और नेक-सच्चे हैं।
क्या रमण की इच्छा का ऐसा स्वरूप होता है कि वह सृष्टि के साथ संहार, मिलन के साथ जुदाई, वस्ल के साथ हिजरां की हमेशा सोचे? स्त्री-पुरुष प्रेम सम्बन्ध इतना जटिल है कि इसकी गुत्थी सुलझाए नहीं सुलझती। नोबल विजेता ‘विस्लावा सिम्बोर्स्का’ की एक प्रसिद्ध कविता है न – ‘सच्चा प्रेम’। उसकी आखिरी पंक्तियाँ है कि जिन्हें सच्चा प्यार नहीं मिला उन्हें कहने दीजिए कि कोई सच्चा प्यार-व्यार नहीं होता। उनका ऐसा विश्वास उन्हें जीने और मरने में सहायता देगा।
‘मिटने का अधिकार’ कुछ अभागे लोग के बारे में हैं जिन्हें सच्चा प्यार मिलता तो है पर वे स्वीकार नहीं कर पाते। बहुत से लोग प्रेम का प्रतिकार देना नहीं जानते। प्रेम करना नहीं जानते। मैं वासना पीड़ित लोग की बात नहीं कर रहा। उनकी बात नहीं कर रहा जो प्रेम-याचना करते फिरते हैं और असफल हो कर हिंसक हो उठते है। बल्कि उनकी बात कर रहा हूँ जिन्हें प्रेम बहुत मिलता है पर वे अपनी खुशनसीबी को नहीं पहचान पाते। क्यों नहीं पहचान पाते, यह ही विचार का विषय है। किसी को इतना प्रेम क्यों मिल जा है, किसी को एकदम नहीं। ऐसी दुनिया क्यों है? पीड़ा का उपचार शायद कोई पाठक ढूँढ निकाले। शायद उपन्यास के कथ्य से ही या अपने अनुभव से। प्रार्थना है कि ईश्वर पाठकों के साथ वैसा न करे जैसा पात्रों के साथ हुआ। उपन्यास की यात्रा पाठक के विमर्श और स्वस्थ आचरण से पूरी होगी, वरना लाखों अधूरी कृतियों की तरह वह भी अधूरी ही रहेगी।

९. आज कल आप क्या लिख रहे हैं?

उत्तर:    यूँ तो मेरा कवि कर्म अभी तक घोर असफलता का ही है। इसी क्रम में मैं एक और असफलता की ओर अग्रसर हूँ। मैंने ११ मुख्य उपनिषदों पर कहानियाँ लिखने का बीड़ा उठाया है। इसमें ‘ईश’, ‘प्रश्न’, ‘मुण्डक’, ‘तैत्तिरीय’ समालोचन वेब पत्रिका पर, ‘कठ’ पहल-१२४ में, ‘केन’ तद्भव-४० में प्रकाशित हो चुकी है। ये कहानियाँ लम्बी हैं और विस्तार माँगती हैं।
प्रसंगवश बताता हूँ कि एक बार परेशान हो कर मैंने अपने गुरु जी से कहा कि मुझे इस काम में बहुत चुनौतियाँ मिल रही हैं। समझ नहीं आता कि क्या करूँ, कैसे करूँ? उन्होंने एक बड़ी मार्के की बात कही। उन्होंने कहा था, ‘प्रचण्ड जी, उपनिषद् इसलिए तो नहीं रचे गए कि आप उन पर एक दिन कहानियाँ लिखेंगे।‘
खैर अभी ‘छान्दोग्य’ और ‘बृहदाराण्यक’ पर दो उपन्यासिका लिखनी होगी। उपनिषद् में बहुत से विचार हैं। इस मामले में मैं कृष्ण कल्पित जी के ‘रेख्ते के बीज’ से सहमत हूँ कि शब्दकोश मात्र से ही हज़ारों कहानियाँ लिखी जा सकती हैं। मैं तो फिर भी उन ग्रंथो पर गौर कर रहा हूँ जो कम से कम २५०० साल से भारतीय ज्ञान परम्परा में बहुत ऊँचे समझे जाते हैं और जिनमें विचार काव्यात्मक रूप से बिखरे हैं। हालाँकि मुझे लगता है कि मेरा प्रयास निर्रथक है और मेरी असफलता निश्चित है। फिर भी निश्चित असफलता से खिन्न नहीं हूँ और मुझे आशा है कि मेरी अस्तित्वगत निर्रथकता मेरे प्रयास से कुछ कम होगी। संभवतया उसी से संतुष्ट हो जाऊँ।

१०. आपने भारतीय ज्ञान परम्परा की बात की। उस संदर्भ में यह बताइए कि भारतीय ज्ञान परम्परा की जब आप बात करते हैं तो आपके ध्यान में बहुलता की परम्परा रहती है या आप इसको एकरैखीय रूप में देखते हैं?

उत्तर:    परम्परा स्वयं में बहुलता की ओर ही इंगित करती है। हमारे यहाँ दार्शनिक धाराओं में भी मठिकाएँ होते थै। आपके प्रश्न के संदर्भ में एक बहुत सुन्दर उदाहरण हम बौद्ध दर्शन से समझ सकते हैं। बौद्ध दर्शन की मुख्य शाखाओं – सौत्रान्तिक, वैभाषिक, माध्यमिक और विज्ञानवाद (योगचार) में आपस में ही बहुत मतभेद है। वहाँ कौन सा एकरैखीय चिन्तन है? विज्ञानवादियों को स्वयं को स्थापित करने के लिए सौत्रान्तिकों से कड़ी टक्कर लेनी पड़ी। वेदान्त ने भले ही भारतवर्ष में अपना झण्डा भले गाड़ा तो क्या ‘नव्य-न्याय’ दर्शन प्रकाश में नहीं आया? न्याय दर्शन या योग दर्शन विलुप्त तो नहीं हो गया। स्वयं वेदान्त दर्शन भी कई प्रकार के हैं – द्वैत, अद्वैत, द्वैताद्वैत, शुद्धाद्वैत, द्वैताद्वैत, विशिष्टाद्वैत, अचिन्त्यभेदाभेद आदि। सजातीय होने के कारण समानता है पर आपस में भेद भी है।
विजातीय परम्परा भेद में बहुत वैचित्र्य सामने आता है। उदाहरण के लिए जैन दर्शन में काल को स्वतंत्र तत्त्व मानते हैं, काश्मीर शिवाद्वयवाद में वह तत्त्व तो है पर अद्वयवाद के कारण मूल तत्त्व में ही निहित है। (अधिक जानकारी के लिए देखें मेरा लेख- भारतीय दर्शन में काल चिन्तन – https://samalochan.com/kaal-chintan/)। स्वयं काश्मीर शिवाद्वयवाद स्पन्द, कुल, क्रम, प्रत्यभिज्ञा आदि दर्शनों का समन्वयन सरीखा है।
दार्शनिक प्रतिपत्तियाँ इतनी आसान नहीं कि आप पचास-साठ साल की उम्र में भी कोई निर्णायक व अन्तिम उत्तर दे सकें। जैसा कि मैंने अभी ‘काल’ का उदाहरण दिया, आज तक वैज्ञानिकों-दार्शनिकों के पास इसका कोई निश्चित और सर्वमान्य हल नहीं है। कई भारतीय ज्ञान परम्परा नास्तिक बौद्ध विचारकों को बड़े सम्मान से देखती हैं और जैनियों के सिद्धान्तों से बहुत प्रभावित रही हैं। किन्तु इन दर्शनों के अवयवों को स्वयं में समाहित करते हुए उनका खण्डन भी करती हैं। आपका सवाल प्रच्छन्न रूप से इस तरह का है कि इतनी बहुलता तो आप मान ही रहे हैं तो क्यों नहीं आप ‘चार्वाकवादी’ हो जाएँ या किसी एक परम्परा विशेष के पैरोकार हो जाएँ?
इसका उत्तर यह है कि मैं आचार्य बृहस्पति के ‘चार्वाक दर्शन’ को भोगवादी मानता हूँ और औपनिषदिक परम्परा की दृष्टि से उसे श्रेयस नहीं समझता। प्रेयस पर श्रेयस की श्रेष्ठता विचारणीय है। बहुत विस्तार में जाने की अपेक्षा आपके प्रश्न का उत्तर यह है कि आज हमारे ऊपर दायित्व है कि हम एक साथ षड् दर्शन, बौद्ध दर्शन, जैन दर्शन, व्याकरण दर्शन, चार्वाक दर्शन, शैव-वीरशैव, वैखानस-पाञ्चरात्र दर्शन, भक्ति दर्शन – सभी मत के उत्तराधिकारी के रूप में प्रस्तुत हों और फिर अपने विवेक से, सम्यक निरीक्षण से, यह परखते हुए कि उनमें कोई अंतर्विरोध तो नहीं, बौद्धिक शुचिता से वह चुने जिसमें स्वयं के और समाज के कल्याण की दिशा मिले।
यहाँ हमें विनम्रता से परम्परा को समझना चाहिए न कि उद्दण्डता से उनका माखौल उड़ाना चाहिए। ज्ञान परम्पराओं को बनने में सैकड़ों साल लगे। कई धुरन्धर तर्कशास्त्रियों ने, वैयाकरणों ने जीवन की जटिलताओं को समझने और व्याख्यायित करने में अपना समस्त जीवन लगा दिया। हम यह सोच के बैठे के हम छोटे से जीवन काल में सबसे अधिक बुद्धिमान पैदा हुए हैं तो क्यों नहीं आप पुराने विचारों को तर्क-वितर्क कर छिन्न-भिन्न कर देते हैं। आप कहेंगे कि हमारे पास समय नहीं है। चलिए, किसी भी विचार व्यवस्था को काटने के लिए बहुत दूर जाने की ज़रूरत नहीं। एक छोटा-सा काम करते कि बारुक स्पिनोजा (१६३२-१६७७) के दर्शन (उनकी छोटी-सी किताब – एथिक्स) को उसी के तर्कों की पृष्ठभूमि से खारिज कर के देख लेते हैं। पिछले ३५० साल में तो दुनिया में कोई कर नहीं पाया है। हाँ यह सच है कि स्पिनोज़ा के दर्शन के खण्डन के प्रयास में बहुत से दार्शनिकों ने जतन से नए सिद्धान्त प्रतिपादित किए। आप भी ऐसा कुछ कर पाएँ तो प्रशंसनीय कृत्य होगा।
कहने का अर्थ यह है कि परम्परा में चीजें बहुत मेहनत से, बड़े जतन से बनायी और सहेजी गयी हैं। उसकी बहुलता और विपुलता से हम लाभान्वित हो सकते हैं। हो सकता है वहीं से कोई नया रास्ता मिले। कम से कम इतना निश्चित है कि हमारी मूर्खताएँ कम होती जाएँ। बर्टोल्ट ब्रेख्त की लोकप्रिय उक्ति है – ‘विज्ञान (सायंस) का उद्देश्य असीम प्रज्ञा देना नहीं है बल्कि अनन्त गलतियों पर अंकुश लगाना है।‘ मैं समझता हूँ यह ज्ञान परम्पराओं का प्राथमिक उद्देश्य है।

११. आपने ‘मिटने का अधिकार’ उपन्यास में जन्मजन्मांतरों में प्रेम और समर्पण के भाव का अवगाहन किया है। प्राचीन और मध्यकालीन भारतीय साहित्य परम्परा में चित्रित प्रेम मूलतः शृंगारिक प्रेम ही दिखाई पड़ता है। आप आधुनिक युग के कथाकार हैं। प्रेम का मूलतत्व आपके अनुसार क्या है? क्या यह भौतिक काम का उदात्त भाव में रूपांतरण है?

उत्तर :   शृङ्गार रस का स्थायीभाव ‘रति’ है। मैंने अभिनवगुप्त की व्याख्या के संदर्भ में इसकी विवेचना अपनी पुस्तक ‘अभिनव सिनेमा’ में की है। अभिनवगुप्त ‘सम्भोग’ और ‘विप्रलम्भ’ को शृङ्गार के भेद मानने के बजाए उसे शृङ्गार की दो अवस्थाएँ कहते हैं। वे उदाहरण देते हैं कि काली गाय और सफेद गाय से ‘गाय के होने’ में कोई अन्तर नहीं पड़ता, उसी तरह हर तरह के शृङ्गार में मिलना और बिछुड़ना लगा रहता है। नाट्यशास्त्र में ही पुरुषार्थ की दृष्टि से शृङ्गार के भेद देखे गए हैं – १. मुख्य रूप से ‘काम’ २. गौण रूप से अर्थ ३. गौण रूप से धर्म। मैं समझता हूँ इस महती विश्लेषणीय सङ्केत की भारतीय ज्ञान परम्परा में कुछ अनदेखी कर दी गयी है।
बाणभट्ट की ‘कादम्बरी’ को विश्व का प्रथम उपन्यास माना जाता है। उस पर हिन्दी के मूर्धन्य विद्वान वासुदेव शरण अग्रवाल की टीका में से एक टिप्पणी को मैं इस सन्दर्भ में आवश्यक समझता हूँ और इसे उद्धृत करता हूँ: –
    “काम के दो रूप हैं — उच्च रूप प्रेम है, सामान्य रूप वासना है। विषयवासना या स्त्री के प्रति रागान्धता को बाण ने अलीक काम अर्थात मिथ्या काम कहा है। मानस के भावों का स्वरूप जल के समान होता है। जल का गुण स्नहेन है। ऐसे ही मन भी स्नेह गुण से युक्त है। वह स्नेह जल जब ऊपर की ओर बहता है तो उसे श्रद्धा कहते हैं। ‘श्रद्धा’ पूज्य गुरुजनों के प्रति होती है। छोटों के प्रति स्नेहभाव ‘वात्सल्य’ कहलाता है। यहाँ भावजल का ऊपर से नीचे की ओर प्रवाह होता है। जब वह भावजल बराबर वालों के प्रति बहता है तो उसे ‘स्नेह’ कहते हैं, जैसे सखा या मित्रों के प्रति। श्रद्धा, वात्सल्य और स्नेह जब एक ही व्यक्ति के लिये समर्पित हों तो उसे काम कहते हैं। काम का क्षेत्र नारी है। कामभाव एक व्यक्ति के प्रति होता है। वही जब समष्टि के लिये अर्पित हो जाये तो वह प्रेम बन जाता है। भौतिक स्थूल रूप की आसक्ति वासना है। वासना बन्धन या शृंखला है, जो स्वार्थ के लिये होती है। जहाँ प्रेम ऊर्ध्वगामी है, वहीं वासना अधोगामी है। प्रेम नित्य है, वासना अनित्य है। प्रेम का फल आनन्द है, कामवासना का अनिवार्य फल शोक है। उस शोक से मुक्ति ही मन की पुन: सहज स्वच्छता या आनन्द भाव में स्थिति है। प्रेम शापमुक्त, बन्धनहीन चित्ततत्त्व की आनन्दमयी स्थिति है।”
मैं भारतीय परम्परा के इस विवेचन को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण समझते हुए ‘रति’ के स्वरूप को बड़ों के प्रति ‘श्रद्धा’, छोटों के प्रति ‘वात्सल्य’, मित्रों के प्रति ‘स्नेह’ को भी शृङ्गार के अर्थ में लेता हूँ, यदि वह रस की अवधारणा पर खरा उतरे। यहाँ हमें ‘रति’ और ‘शृङ्गार’ के भेद को ध्यान में रखना चाहिए।
यह निश्चित है कि ‘मिटने का अधिकार’ का कथानक भौतिक (लौकिक) काम से जुड़ा है। उपन्यास में यह ‘समष्टि’ के लिए अर्पित नहीं होता। न ही कथानक में कहीं भी प्रेम देह से मुक्त होता है। मैं समझता हूँ कि वासुदेव शरण अग्रवाल की ‘कादम्बरी’ के सन्दर्भ में की गयी व्याख्या बहुत स्पष्ट तरीके से भारतीय विचार का पुनर्कथन है। परम्परा में यह माना जाता है कि मरणासन्नत बाण भट्ट के कहे अनुसार उनके पुत्र ‘पुलिनभट्ट’ ने कादम्बरी को पूरा किया। ‘कादम्बरी‘ में तीन जन्मों की कथा है। वहाँ लक्ष्मी और चन्द्रमा जैसे देवता कथानक में पात्र बन कर उतरते हैं। दिव्यता और अलौकिकता के आलोक में दार्शनिक कथ्य स्वीकार्य हो जाता है।
आधुनिक गद्यकार के साथ अलग तरह की चुनौतियाँ हैं। थियोडोर एडोर्नो (१९०३-१९६९) ने आधुनिकता के सन्दर्भ में शायद ऐसा कहा था कि आधुनिकता मानव की अस्तित्व मूलक समस्याओं को भौतिक (सार्वजनीन) अनुभवों से सुलझाने का उपक्रम है। आधुनिकता में हम पाप-पुण्य, देवी-देवता, स्वर्ग-नर्क, मोक्ष जैसी अवधारणाओं को तिलाञ्जलि दे देते हैं। इसलिए महान स्पेनी उपन्यास ‘डॉन किशोते’ विश्व का पहला आधुनिक उपन्यास माना जाता है।
एक अवान्तर प्रश्न यह भी उठ सकता है कि आधुनिक या उत्तर आधुनिक बने रहना आपकी मजबूरी क्यों हैं? पहले इसका उत्तर देता हूँ। हम कलावाद और जनवाद का बहुत शोर सुनते हैं। इसका अर्थ कहा जाता है कि कलावाद केवल कला के लिए और जनवाद जनता के लिए। मैं समझता हूँ यह बहुत बड़ा और अन्यथा सरलीकरण है। जिसे आप कलावाद कह रहे हैं, वहाँ सर्जक अपनी कला के लिए पूर्ण स्वतंत्रता की माँग कर रहा है किन्तु वह भी ‘शिल्प’ या ‘काव्य’ की संगति के आधार पर ही। कोई कलाकार नियम ही तोड़ सकता है, संगति और सार्थकता नहीं। कला की आन्तरिक संगति और सार्थकता प्रेक्षक से ही गृहीत होगी। अज्ञेय कहते थे कि वह अज्ञात पाठक के लिए लिखते हैं। उनका यही आशय था कि कलाकार प्रेक्षक की कल्पना तो करता है किन्तु उसे किसी तरह सीमाबद्ध नहीं करता। उसकी भावक प्रतिभा पर प्रश्नचिह्न नहीं लगाता। उसकी सीमाओं से बाधित हो कर नहीं रचता। वहीं जब हम जनवाद कहते हैं तो इसका आशय यह है कि कथ्य के ‘साधारणीकरण’ अधिक से अधिक जिम्मेदार होना। अब इसका भोण्डा रूप यह होगा कि कुछ खास चलन को (ट्रेण्ड को) जनता की अभिरुचि समझ कर कुछ गढ़ना शुरु कर देना। दोनों ही वादों में, काव्यार्थ या कला में निहित अर्थ की तीक्ष्णता और उष्णता उनके संसरण या संप्रेषण से पूर्व है। हर कालखण्ड में ‘साधारणीकरण’ के कुछ उपकरण प्रदत्त हैं। यदि हम सब कुछ अपने मन का ईजाद करेंगे तो हर किताब के साथ ‘विवृत्ति’, ‘कारिका’ और ‘विमर्शनी’ भी लिखनी पड़ सकती है। जयशङ्कर प्रसाद ने कई बार अपने लेखों, नाटकों और कविताओं को स्पष्ट करने के लिए ऐसा किया भी। लेकिन वे जयशङ्कर प्रसाद थे। यहाँ हम प्रयासरत हैं और कदाचित असफल। कुछ और असफलता मिलेगी तो दुस्साहस और बढ़ेगा। फिलहाल जान बाकी है।
आपके प्रश्न का केन्द्रीय बिन्दु है कि प्रेम का मूल तत्त्व क्या है? मैं समझता हूँ पूरा उपन्यास इसकी वैचारिकी है। एक सरल उत्तर यह है कि हम प्रदत्त भारतीय दर्शन को मान लें कि हमें देह से ऊपर उठना चाहिए। स्वयं को चेतना समझना चाहिए – विज्ञानवादी बौद्धों की तरह, षड् दर्शन की तरह, या जैनियों की तरह। इसका सीधा अर्थ यह है कि हम प्रदत्त विचार के अनुसार प्रेम को शाश्वत और आनन्ददायी मानें। इस तरह हम कहें कि आनन्द ही उसका मूल तत्त्व है जो प्रेम में परिलक्षित होता है।
मीर तक़ी मीर का शेर है – इश्क़ ही इश्क़ है जहाँ देखो, सारे आलम में भरा रहा है इश्क़। सूफी मत में अचिन्त्यभेदाभेद की तरह ‘भाव’ की सर्वोच्च प्रधानता मानते हैं। चैतन्य महाप्रभु के दर्शन में लौकिक शृङ्गार से अलग दिखाने के लिए प्रेमाभक्ति को उज्ज्वल रस कहते हैं। इसलिए सावधनी बरतने की ज़रूरत है कि मीर जैसे शायरों के ‘इश्क़’ को हम लौकिक प्रेम की संगति में न समझें।
लौकिक प्रेम में सारे आलम में ‘इश्क़’ होने की बात नहीं बनती। यह कुछ ऐसा है कि कण-कण में भगवान हैं, पर क्या कण-कण से हम वर माँगते फिरते हैं? एक दूसरा तरीका है कि हम यह देखें कि हमारे अनुभव में प्रेम के साथ क्या-क्या आ रहा है? हम पाते हैं कि संशय, उपालम्भ, वचन पालन, मर्यादा निर्वाह, वैचारिक विषमता। इन सबके साथ प्रेम का सामञ्जस्य कैसे हो रहा है? कल्पना कीजिए कि आपकी प्रेमिका गुप्त जीवन में चोरनी या जेबकतरी निकले या किसी के साथ घोर अनुचित व्यवहार कर आपके सामने आए। सारा प्रेम एक अनैतिक आचरण पर स्वाहा हो जाएगा, कम से कम एक गहरा कुठाराघात होता। यदि ऐसा नहीं होता है तो आपकी नैतिकता पर प्रश्न चिह्न लग जाएगा। बकौल ग़ालिब – वफ़ा कैसी कहाँ का इश्क़ जब सर फोड़ना ठहरा / तो फिर ऐ संग-ए-दिल तेरा ही संग-ए-आस्ताँ क्यों हो।
सहज प्रश्न है कि बिना धर्म पालन के, बिना कर्त्तव्य निर्वाहन के, बिना उच्च स्तर के जीवनमूल्यों के कैसा प्रेम? और यह प्रश्न केवल काम भाव वाले सम्बन्ध में नहीं है, बल्कि सभी तरह के ‘रति’ रूप में हैं। इस अर्थ में प्रेम पुरुषार्थ से मुक्त नहीं है बल्कि उसी में अनुस्यूत है। इसलिए शृङ्गार को ‘पुरुषार्थ चतुष्टयी’ के आलोक में ही समझना चाहिए। उपरोक्त भक्ति को कई विद्वान पञ्चम पुरुषार्थ मान कर उसकी कोटि भिन्न रखते हैं। अब पुरुषार्थ क्या है, यह एक अलग प्रश्न है। (इसकी विवेचना के लिए मेरा लेख देखें – नैतिक दृष्टियाँ और पुरुषार्थ – https://samalochan.com/prachand-praveer/ )।

१२. अंतिम सवाल आप किसके लिए लिखते हैं?

उत्तर:    इस मामले में मैं सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ का अनुगामी हूँ। उनका ही कथन दुहराना देना चाहता हूँ। मैं अज्ञात पाठक के लिए लिखता हूँ। इसका अर्थ यह नहीं है कि मेरा कविकर्म दुरूह है। ‘उत्तरायण-दक्षिणायन’ की कुछ कहानियाँ और ‘अभिनव सिनेमा’ किसी को कठिन लग सकते हैं, वहीं ‘अल्पाहारी गृहत्यागी’, ‘जाना नहीं दिल से दूर’, ‘कल की बात’ की शृङ्खला में ‘षड्ज’, ‘ऋषभ’ और ‘गान्धार’ सरल भाषा में है और मेरी समझ से हर हिन्दी जानने वाला व्यक्ति उसे पढ़ कर आनन्दित हो सकता है।
लेखन के साथ अच्छी बात यह है कि इसमें ‘फिल्म’ या ‘नृत्य’ या ‘सङ्गीत सभा’ की तरह बहुत पैसा नहीं लगा होता। केवल पठन-पाठन-लेखन के लिए समय चाहिए। इसमें कोई भी संलिप्त हो सकता है – अमीर-गरीब, स्त्री-पुरुष, बालक-वृद्ध, बिना किसी विशेष आर्थिक अनुदान के (अब तो इंटरनेट पर बहुत कुछ नि:शुक्ल उपलब्ध है)। इसलिए लोक-सिद्धि न भी हो तो संसार के लिए किसी के लिए भी कोई विशेष हानि नहीं है। कुछ नहीं तो रचना के समय कारयित्री प्रतिभा का आनन्द तो निरपवाद प्रस्तुत है ही। रही बात मेरी, तो हो सकता है कि कोई समानधर्मा कभी हो, क्योंकि काल निरवधि है और पृथ्वी विपुल है।

 
      

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