2016 का युवा साहित्य अकादेमी पुरस्कार नीलोत्पल मृणाल के उपन्यास ‘डार्क हॉर्स’ को दिया गया है. यह युवा रचनाशीलता के लिए बहुत बड़ी घटना है. एक अनाम से प्रकाशन शब्दारम्भ से प्रकाशित एक लगभग गुमनाम से लेखक की किताब को पुरस्कृत किया जाना संस्थाओं के ऊपर भरोसा बढाने वाला है. उस संस्था पर जो मठाधीशी का गढ़ रहा है. बहरहाल, डार्क हॉर्स का एक अंश- मॉडरेटर
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“अरे कल से कहाँ हैं मनोहर लाल जी, फोनवो नहीं लग रहा था आपका, अजी संतोष जी का एडमिशन करवा दिये हैं, बधाई दे दीजिये और पार्टी का तय कर लीजिये” रायसाहब ने इस जोश के साथ बताया जैसे भारत को यूएन सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता दिला कर आ रहें हों. “अरे हम तो अभी ईंहां साला लाल किला में हैं महराज, चचा को घुमाने लाये हैं, एम्स में किडनी दिखाए हैं अब अपने पूरा दिल्ली देखेंगें, साला बताइए ई सौंवा बार आ गए हम लाल किला, अभी हुमायूँ के कब्बर पर जाना है और गांधी जी के भी. फिर कहे हैं कि कुतुबमीनार और इंडिया गेट दिखाओ. साला हम त गाँव के लोग को दिल्ली पर्यटन कराने में ही आधा साल गँवा देते हैं. एकदम पूरा दिल्ली का जनरल नालेज पढ़ कर आये हैं ई, एको गो चीज नय छोड़ रहे हैं. ऐसा लगता है जैसे कम्बोडिया का सुल्तान आया है भारत भ्रमण पर. ऊपर से इनका प्रश्न त आप जानबे करते हैं, एकदम पढ़ाई भी कल से छूटा हुआ है रायसाहब, अब ई चचा जायें तबे त कुछ काम का बात हो. अच्छा सुनिए न ऊ पार्टी दो दिन बाद का रख लीजिये न, चचवा का परसों ट्रेन है, धरा देते हैं तब कपार फ्री होगा थोड़ा, हेडेक हो गया है साला” मनोहर ने एक साँस में अपनी पूरी वेदना कह डाली.
दिल्ली रहने वाले छात्र अपने गाँव इलाके के लोगों के लिए एक गाड की तरह थे. दिल्ली आये परिचितों को दिल्ली परिभ्रमण कराना उनके सामाजिक दायित्वों में था. एक ही जगह पर कई बार जाना और हर बार अलग—अलग लोगों के साथ नए जोश के साथ जाना निश्चित रूप से बड़ा कष्टकारी था. आपको ऐसा दिखाना होता था कि आप भी उनके साथ पहली बार ही उस स्थान पर आये हैं और आपको भी उनके जैसे ही सामान उत्साह और रुचि के साथ चीजों को देखना होता था, नहीं तो साथ वाला बुरा भी मान सकता था. घूमने-फिरने के साथ ऐसे लोग चोर बाजार और पालिका बाजार में खरीददारी का भी अटल कार्यक्रम ले के आते थे. ऐसे लोगों के साथ पीछे-पीछे दुकान दर दुकान घूमना जीवन के सबसे खराब क्षणों मेंसे एक होता था किसी भी छात्र के लिए. चोर बाजार और पालिका बाजार दिल्ली से बाहर के बिहार यूपी के लोगों के लिए सबसे लोकप्रिय और जाना पहचाना बाजार था.
रायसाहब से बात कर मनोहर वापस लाल किले के मुख्य गेट पर खड़े अपने चाचा के पास पहुँचा. “का हुआ, बहुत जल्दी में तो नहीं हो, किसका फोन था” चाचा ने लाल किले में प्रवेश में हो रही देरी पर खीझते हुए कहा. “नहीं कोई बात नहीं है,ऊ सर का फ़ोन था कि इतना इम्पोर्टेंट टॉपिक चल रहा है और हम क्लास नहीं जा रहे हैं, त हम बोल दिए कि सर कल भर छुट्टी दे दीजिए, हमारे चाचा आये हैं, हॉस्पिटल में हूँ” मनोहर ने मन ही मन कुढ़ते हुए कहा.“ठीक है त, अब चलोगे भीतरवा?” चाचा ने बढ़ते हुए कहा. दो मिनट कतार में चलते हुए दोनों लाल किले के अन्दर पहुँच गए. “भाई, बहुत पुराना है यार ई तो” चाचा ने एक नजर किले के चारों ओर घुमाते हुए कहा. सुनते ही मनोहर ने मन में चिढ़ते हुए कहा, “हाँ चचा आप तनी देर आये, जिस साल हम आये थे शुरू-शुरू में तब एकदम नया था” मनोहर ने चाचा की लगभग लेते हुए कहा. “केतना साल पहले बे, कोनो आजे का बना है का, अच्छा छोड़ो, देखो ये यहीं से झंडवा फहराते है न मनमोहन सिंह?” चाचा ने ऊँगली से इशारा करते हुए कहा. “हाँ, नेहरु जी भी यहीं से फहराए थे” मनोहर ने मुंह बिचका कर कहा. चाचा लाल किले का एक-एक कोना घूम-घूम कर ऐसे देख रहे थे जैसे इसे खरीदने का बैना करने आये हों. दीवारों को छूकर देख रहे थे, खम्भों को ऊँगली से खोद कर लाल बलुआ पत्थर की क्वालिटी भी देखी, क्योंकि उनका भी मोतिहारी में छड़ सीमेंट का धंधा था, सो ये पुराने जमाने की प्लास्टर की भी विशेषता देखना चाह रहे थे. थोड़ी देर घूमने के बाद वो ठीक मुख्य बरामदे के पास जहाँ कभी मुग़ल बादशाह का तख्ते-ताउस रखा जाता था, वहां बैठ गए और ऊपरी जेब से खैनी की डिब्बी निकाली. “चलो जरा यहाँ खैनी खा लें, यादे रहेगा कि लाल किला में बैठ के खैनी खाये थे कबो” चाचा ने चहुंकते हुए कहा. “चाचा गार्ड देख लेगा त मना करेगा, जहाँ—तहाँ थूकिएगा तो जुर्माना लग जाएगा, बाहर खाइएगा चलिए न” मनोहर ने टोकते हुए कहा. “बेटा जब हम सातवीं में थे तब से खाते हैं, बाप त मने नहीं कर सका, अब गार्ड करेगा हो? अरे कोय नहीं देखेगा, खाने दो, कहीं नहीं थूकेंगे” चाचा ने निश्चिन्त करते हुए कहा. फिर दोनों जाँघों के बीच हाथ को घुसेड़ इतनी सफाई के साथ खैनी बनाया और खा लिया कि एक झलक में तो मनोहर को भी पता नहीं चला. अक्सर ऐसे धुरंधर खैनीबाज इस तरह का हुनर ख़ास तौर पर रखते हैं, क्योंकि माँ, बाप, चाचा, मामा से नज़र बचा के रोज़ खैनी खाने का अभ्यास उनको बचपन से होता है. उसमें भी मनोहर के चाचा तो सातवीं कक्षा से ही खैनी खाते थे, उनका एक लम्बा अनुभव था. उन्होंने स्वभ्यास से घंटों खैनी को बिना थूके होंठ में दबाये रखने की क्षमता भी विकसित कर ली थी. ये क्षमता ऐसे स्मारकों, मंदिरों या समाधियों में घूमने-फिरने के दौरान खूब काम आती थी, जैसे आज आयी थी. मनोहर का इस तरह खैनी खाने से रोकना चाचा को थोड़ा खटक गया था. उनसे रहा नहीं गया सो उन्होंने खैनी की डिब्बी जेब में डालते हुए कहा “बेटा, खैनी रटाने, बनाने और खिलाने के बहाने ही तो रिश्ते बनते हैं, भला तुम्हारे शहर के आइसक्रीम में ये क्षमता कहाँ है”.
चाचा ने अनजाने में ही एक दार्शनिक वाले अंदाज़ में गजब की बात कह डाली थी. वास्तव में, खैनी में लोगों को जोड़ने की अदभुत क्षमता होती है. एक अनजान व्यक्ति भी किसी अजनबी से बेहिचक खैनी मांग सकता था और दूसरा बड़े आत्मीयता से रगड़कर उसे खिलाता था. इस दौरान दो अजनबियों के बीच हुई बातचीत से वे अजनबी नहीं रह जाते थे. गाँवों में तो खैनी और गांजा को चौपालों को जोड़े रखने वाला फेविकोल ही जानिए.
चाचा ने फिर उचक के कहा “सुनो मनोहर एक बात कि हम कहीं खैनी खा के थूकेगें नहीं, लेकिन अगर गलती से मानो थूक भी दिए तो दो सौ रुपये का जुर्माना दे कर ही न जाएंगे. किसी के बाप का कुछ लेकर तो नहीं न जाएंगे. खैनी की थूक पर रुपया न्योछावर करने का साहस कोई बिहारी ही कर सकता था.” “हो गया चाचा, अब छोड़िये भी, आप त खैनी पुराण चालू कर दिए” मनोहर ने कहा.
लगभग दो घंटे तक लाल किले में बिताने के बाद अब उनका अगला पर्यटन स्थल था राजघाट. राजघाट का खुला वातावरण चाचा को बड़ा अच्छा लगा. अन्दर गांधीजी की समाधि पर पहुँच चाचा उसे बड़े ध्यान से देखने लगे. इधर-उधर देखा और मौका देख समाधि को छू कर प्रणाम किया. मोतिहारी से आए आदमी का गांधी से एक विशेष लगाव बन जाना लाजिमी था, आखिर पहला सत्याग्रह चंपारण में ही तो किया था गांधीजी ने. चाचा बड़े देर तक तीनकठिया नील किसान की भांति एकटक समाधि को देखे जा रहे थे मानो कह रहे हों “फेर चंपारण चलियेगा का बापू?” मनोहर मन ही मन सोच रहा था कि, अब जल्दी से चलें चाचा नय त देख तो ऐसे रहें हैं जैसे समाधि कोड के अस्थिकलश मोतिहारी ले जाने का प्लान बना रहे हों. राजघाट से निकलते ही चाचा ने अपने अर्जित इतिहास के ज्ञान का पिटारा खोला “आदमी बहुत फिट थे ये गाँधीजी, एतना कुछ किया देश के लिए बस एक ठो मिस्टेक कर दिया ई आदमी, पाकिस्तान बनवा दिए, यही एगो गलती कर दिए ई” चाचा ने गाँधीजी की ऐतिहासिक गलती के प्रति अपनी ताजी सहानुभूति के साथ कहा. मानो ऐसी ही रोज मिलने वाली सहानुभूति के तेल से राजघाट की समाधि का चिराग जला रहता था.
गाँधीजी के साथ ये कैसी एक अजीब विडम्बना आज तक रही थी कि जिस देश ने इन्हें बापू कहा, उसी अपने देश ने इन्हें सबसे कम पढ़ा था, इनके बारे में सबसे कम जानना चाहा था. हैरी पॉटर और चेतन भगत को दिन रात एक करके पढ़ने वाली पीढ़ी ने कभी गाँधीजी के लिए समय नहीं निकाला और गाँधीजी जैसे और भी कई व्यक्तित्वों के बारे में उनकी जानकारी केवल पीढ़ी दर पीढ़ी एक दूसरे से सुनी किस्से कहानियों के सहारे ही थी और उनकी सारी धारणाएँ भी इसी पर आधारित होती थीं. हिन्दुस्तान में लगभग हर साक्षर, पढ़ा लिखा टाइप आदमी गाँधीजी को पाकिस्तान के बनने का शाश्वत कारण मानता था, और यह फैन्सी ऐतिहासिक ज्ञान खूब प्रचलन में था. ये अलग बात थी कि उनमें कुछ लोग मनोहर के चाचा की तरह सहानुभूति रखते थे और कुछ तो सीधे नफरत करते थे. इस देश ने जितना मार्क्स को पढ़ा, समझा और अपने में गूंथा-ठूंसा, उतना अगर गाँधीजी को पढ़ा समझा होता तो शायद पीढ़ियों का सबक कुछ और होता.
मनोहर ने राजघाट से सटे शक्ति स्थल, किसान घाट, एकता स्थल, समता स्थल, वीर भूमि आदि के भी दर्शन चाचा को करा दिए. “चाचा अब जेतना कब्बर और समाधि था दिल्ली में, आप सब देख लिए, कुछ छूटा नहीं है, सोनिया जी, और वाजपेयी जी या मनमोहन जी त अभी खैर ठीके हैं. दस-पंद्रह साल में फेर कभी आइएगा त घुमा देंगे” मनोहर ने हाँफते हुए कहा. साथ ही मनोहर ने मन ही मन पूरे प्रतिशोध के साथ सोचा “और अगर ई बीच आपका किडनी फेल हो गया त उपरे भेंट करिएगा छूटा बचा से”. “चलो अब साँझ हो जाएगा, डेरा चलते हैं, कल लोटस टेम्पल, इंडिया गेट और कुतुबमीनार बाकी रह गया है” चाचा ने अगले दिन के कार्यक्रम की घोषणा करते हुए कहा. “चचा अरे लोटस टेम्पुल तो मेट्रो जब बन रहा था, तबे टूट गया, अब कहाँ है लोटस टेम्पुल, वहां से मेट्रो का पुल बना कर पार कर दिया न” मनोहर ने कार्यक्रम को छोटा करने की उम्मीद से एक भयंकर झूठ बोला. “हाय टूट गया, ई साला दिल्ली में रस्ता नय था क्या पुल बनाने का, अबे टेम्पुल टूट गया, कौनो बवाल नहीं हुआ?” चाचा ने बड़े हैरत से पूछा. “बवाल काहे का, कौनो मंदिर या मस्जिद थोड़े टूटा था, ई टेम्पुल-फेम्पुल में का बवाल होगा ई देश में” मनोहर ने व्यंग वाले लहजे में कहा. “
शाबाश नीलू ! देहरादून आओ कभी
बहुते बढ़िया। कल निलोत्प्ल ने बताया कि किताब फिर ऑनलाइन उपलब्ध हो जायेगी। फिर पूरा पढ़ेंगे।
गज्जब! मुखर्जी नगर की पृष्ठभूमि वाले दूसरे उपन्यास 'लूजर कहीं का'(पंकज दुबे) की याद दिलाता हुआ अंश HILARIOUS और दिलचस्प है। इसे पढ़ कर उपन्यास पढ़ने की इच्छा है। उम्मीद है किताब अपने नाम के अनुरूप ही dark horse साबित होगी।
waah kuchh ansh ne hi utsah jaga diya man me ki ye pustak padhi jaye .. eddam sahaj varnan ..badhayi lekhak ko 🙂
बढिया लिखा गया है…
अद्भुद रचना
Very good
Generally I don’t read article on blogs, however I would like to say that this write-up very compelled me to try and do so! Your writing style has been surprised me. Thanks, very nice post.