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उदय प्रकाश को साहित्य अकादमी पुरस्कार

खबर आई है कि हमारे दौर के सबसे चर्चित लेखक उदयप्रकाश को साहित्य अकादेमी का पुरस्कार मिल गया है. जानकी पुल की ओर से उनको बधाई. इस अवसर पर प्रस्तुत हैं उनकी कुछ कविताएँ.

१.
आंकड़े
अब से तकरीबन पचास साल हो गए होंगे
जब कहा जाता है कि गांधी जी ने अपने अनुयायियों से कहीं कहा था
सोचो अपने समाज के आख़िरी आदमी के बारे में
करो जो उसके लिए तुम कर सकते हो
उसका चेहरा हर तुम्हारे कर्म में टंगा होना चाहिए तुम्हारी
आंख के सामने

अगर भविष्य की कोई सत्ता कभी यातना दे उस आख़िरी आदमी को
तो तुम भी वही करना जो मैंने किया है अंग्रेजों के साथ

आज हम सिर्फ अनुमान ही लगा सकते हैं कि
यह बात कहां कही गई होगी
किसी प्रार्थना सभा में या किसी राजनीतिक दल की किसी मीटिंग में
या पदयात्रा के दौरान थक कर किसी जगह पर बैठते हुए या
अपने अख़बार में लिखते हुए
लेकिन आज जब अभिलेखों को संरक्षित रखने की तकनीक इतनी विकसित है
हम आसानी से पा सकते हैं उसका संदर्भ
उसकी तारीख और जगह के साथ

बाद में, उन्नीस सौ अड़तालीस की घटना का ब्यौरा
हम सबको पता है

सबसे पहले मारा गया गांधी को
और फिर शुरू हुआ लगातार मारने का सिलसिला

अभी तक हर रोज़ चल रही हैं सुनियोजित गोलियां
हर पल जारी हैं दुरभिसंधियां

पचास साल तक समाज के आख़िरी आदमी की सारी हत्याओं का आंकड़ा कौन छुपा रहा है ?
कौन है जो कविता में रोक रहा है उसका वृत्तांत ?

समकालीन संस्कृति में कहां छुपा है अपराधियों का वह एजेंट ?


२.
ताना बाना
हम हैं ताना हम हैं बाना ।
हमीं चदरिया, हमीं जुलाहा, हमीं गजी, हम थाना ।

नाद हमीं, अनुनाद हमीं, निश्शब्द हमीं, गंभीरा
अंधकार हम, चांद-सूरज हम, हम कान्हा, हम मीरा ।
हमीं अकेले, हमीं दुकेले, हम चुग्गा, हम दाना ।

मंदिर-मस्जिद, हम गुस्र्द्वारा, हम मठ, हम बैरागी
हमीं पुजारी, हमीं देवता, हम कीर्तन, हम रागी ।
आखत-रोली, अलख-भभूती, रूप घरें हम नाना ।

मूल-फूल हम, स्र्त बादल हम, हम माटी, हम पानी
हमीं यहूदी-शेख-बरहमन, हरिजन हम ख्रिस्तानी ।
पीर-अघोरी, सिद्ध औलिया, हमीं पेट, हम खाना ।

नाम-पता ना ठौर-ठिकाना, जात-धरम ना कोई
मुलक-खलक, राजा-परजा हम, हम बेलन, हम लोई ।
हम ही दुलहा, हमीं बराती, हम फूंका, हम छाना ।

हम हैं ताना, हम हैं बाना ।
हमीं चदरिया, हमीं जुलाहा, हमीं गजी, हम थाना ।


३.
एक अकेले का गाना
धन्य प्रिया तुम जागीं,
ना जाने दुख भरी रैन में कब तेरी अंखियां लागीं।

जीवन नदिया, बैरी केवट, पार न कोई अपना
घाट पराया, देस बिराना, हाट-बाट सब सपना ।
क्या मन की, क्या तन की, कहनी अपनी अंसुअन पागी ।

दाना-पानी, ठौर ठिकाना, कहां बसेरा अपना
निस दिन चलना, पल-पल जलना, नींद भई इक छलना ।
पाखी रूंख न पाएं, अंखियां बरस-बरस की जागी ।

प्रेम न सांचा, शपथ न सांचा, सांच न संग हमारा
एक सांस का जीवन सारा, बिरथा का चौबारा
जीवन के इस पल फिर तुम क्यों जनम-जनम की लागीं ।

धन्य प्रिया तुम जागीं,
ना जाने दुख भरी रैन में कब तेरी अंखियां लागीं ।



कविता कोश से साभार 





 
      

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5 comments

  1. अच्छा है जी….

  2. BAHUT BAHUT BADHAI UDAY JI KO….SAHITYA AKADEMI NE DER AAYAD DURUST AAYAD WALA KAAM KIYA HAI…YAH PAHLE HI MIL JAANA THA UNHEIN…EK BAR FIR MERI BADHAI.

  3. अभी तक हर रोज़ चल रही हैं सुनियोजित गोलियां
    हर पल जारी हैं दुरभिसंधियां

    पचास साल तक समाज के आख़िरी आदमी की सारी हत्याओं का आंकड़ा कौन छुपा रहा है ?
    कौन है जो कविता में रोक रहा है उसका वृत्तांत ?

    समकालीन संस्कृति में कहां छुपा है अपराधियों का वह एजेंट ?

    बहुत ही कटु पर यथार्थ अभिव्यक्ति! आभार जानकी पुल का

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