अभी हाल में एक गंभीर और प्रिय कवि प्रेम रंजन अनिमेष की कहानी पढ़ी ‘पंचमी’. प्रेम कहानियां तो मैंने बहुत पढ़ी हैं, कुछ लिखी भी हैं, लेकिन इस कहानी में कुछ अलग बात है. क्या है आप खुद पढ़िए. बसंत की इस अप्रत्याशित रूप से ठंढी भोर में एक अप्रत्याशित-सी कहानी. पहले ही बता दूँ प्रेम की टीस की तरह ही कहानी कुछ लंबी है. लेकिन पढ़ने में पता ही नहीं चलता कि सचमुच कोई लंबी कहानी पढ़ रहे हैं – जानकी पुल.
पंचमी
( एक स्मृति उत्सव )
पाँचवें महीने की पाँचवीं तारीख थी । सहसा उसे याद आया । आज से पाँच साल पहले इसी दिन उसका प्यार उससे अलग हुआ था । पाँचवाँ प्यार जिसने जीवन के पाँच साल उसका साथ दिया था । इन सभी मुहब्बतों के बावजूद वह उतना ही सीधा सच्चा मासूम बना और बचा रहा जैसा इनके पहले था । आबाद इस जमाने में तो कोई बिरला ही होता है पर यह था कि किसी प्यार ने उसे बरबाद नहीं किया था । कहानी में आ रहा यह ‘वह’ भला कौन है ? यह सर्वनाम कुछ काम वाम करता है या अब तक उतना ही नाकाम है ! कहानीकार के तौर पर अब तक इसे जाहिर नहीं किया । बताने की जरूरत भी नहीं क्योंकि कहानी की सेहत को इससे ज्यादा फर्क नहीं पड़ता ! बहरहाल… आयें चलें आगे और कहानी का सूत्र पकड़ें । तो उसे ध्यान आया कि पाँच का यह कैसा अद्भुत सुयोग है ! अहसास हुआ बल्कि गहराया कि यह पाँच उसके जीवन में कितना खास है ! और लगा इसे तो मनाना चाहिए । पाँच साल पहले पाँचवें महीने की पाँचवीं तारीख को बिछड़े पाँचवें प्यार की पुण्यतिथि । बेहतर तरीके से । कुछ अलग अनूठे ढंग से ! और हो सके तो पाँच दिनों तक । अभी समय था । अच्छा हुआ कि सुबह सुबह खयाल आ गया । सोच विचार कर तय किया उसने कि अपने उस प्यार की याद में अगले पाँच दिन तक रोजमर्रे से हटकर रोज पाँच अनोखे यादगार काम अंजाम देगा । दिमाग पर और जोर डालकर कुछ ऐसा खाका बनाया । पहले दिन पाँच शहर के पाँच अनजान जगहों पर जाकर पाँच अनजान लोगों से मुलाकात करेगा । दूसरे दिन पाँच अनजान लोगों के साथ खाना खायेगा और तीसरे रोज पाँच अनजान लोगों की मदद करेगा । जुदा हुए प्यार के इस यादगार ‘उत्सव’ के चौथे और पाँचवें दिन की योजना फिलहाल जहन में नहीं आ पायी थी । सोचा आगे सोच लेगा… ।
पहला दिन – पाँच अनजान लोगों से मुलाकात
सबसे पहला काम उसने किया कि 25 रुपये वाला बस का दैनिक पास यानी दिन भर का टिकट निकाल लिया । प्यार से जिसे सारा दिन मारा मारा फिरने का अनुज्ञापत्र भी कहा जा सकता था । अब वह इधर से उधर… उधर से किधर… इस नगर के अनजान कोनों में कहीं जा सकता था किराये में बिना कुछ और खर्च किये । वे इलाके कौन कौन से होंगे यहाँ… जिधर अब तक कभी नहीं गया ? सोच के घोड़े दौड़ने के लिए छोड़े । कोई चाबुक फटकारे बिना पीठ पर । किस बस में बैठे और बैठकर बस वाले को क्या कहे ? ये सारे सवाल यह झिझक और संकोच शुरुआत करने तक होती है । पता था । एक बार यात्रा आरंभ कर देने के बाद रास्ते आगे खुलते जाते हैं जिन्हें प्रस्थान बिंदु पर खड़े खड़े देखना मुश्किल होता है । राम कृष्ण के नाम पर तो मुहल्ले तकरीबन देश के हर शहर में हैं । उसी तरह एम जी रोड राजेंद्रनगर नेहरूनगर इंदिरानगर राजीवनगर… ! यहाँ पर रामनगर वह अब तक नहीं गया था । पहला ठिकाना उसे रखा जा सकता था । उधर कैसे कैसे और किस बस से जायेगा पूछ लिया । बस ने बाजार में उतार दिया । अब वहाँ किस अनजान से मुलाकात करे…? कुछ देर सिर को सहलाता रहा । फिर आगे बढ़कर भीड़ में पुकारा – बिट्टू ! ओ बिट्टू ऽ !!
आवाज से कुछ चेहरे फिरे । पर आवाज की ओर बढ़े नहीं । वे बिट्टू नहीं थे । वह भीतर से कुछ भारहीन महसूस करने लगा । जैसे जमीन पर हवा के पाँव रोप कर खड़ा हो । शायद पहली ही जगह से खाली और मायूस लौटना पड़ेगा !
बिट्टू ! ओ बिट्टू ऽ !! लौटने से पहले उसके भीतर किसी ढीठ ने फिर दुहराया । इस बार जरा खोखले स्वर में । जैसे नीचे सिर झुकाये कोई हवाई फायरिंग कर रहा हो । आँख चुराकर फिरने को था कि रुकना पड़ा । कोई बढ़ रहा था उसकी ओर । एक बूढ़ा सरदार । हाथ में लाठी । सादी मैली पगड़ी । बिट्टू क्या उसके बेटे या बेटी का नाम था…?
– बिट्टू मेरा नाम है ! उसने पास आकर कहा ।
– ओहो ! मैं… म्मैं असल में अपने दोस्त को ढूँढ़ रहा था । उसने इसी समय आने को कहा था । यहीं… । उसने सकपकाते और अपने को सँभालते कहा ।
– मैं भी दुश्मन नहीं किसी का… । वह हँसा । …जब एक बिट्टू तुम्हारा दोस्त है तो हर बिट्टू तुम्हारा दोस्त हुआ । बिट्टू होते ही हैं ऐसे । चलो तुम्हारा बिट्टू जब तक आता है दो बातें मेरे बिट्टू से करते हैं ।
– आपका बिट्टू !
– मेरा बिट्टू मैं ! वह फिर हँसा । चले थोड़ी देर बैठते हैं उधर । तब तक शायद वह भी आ जायेगा जिसका इंतजार मैं कर रहा ।
वह तो चाहता ही यही था ।
– क्या सच में आप बिट्टू…. ? इतने बड़े आदमी का नाम… जरा अटपटा लगता है ।
– बड़ा कहाँ ! छोटा आदमी हूँ मैं । वह तीसरी बार हँसा । …और मेरा कोई और नाम है ही नहीं बिट्टू के सिवा । बचपन से अब तक ।
फिर वह अपने बारे में बताने लगा । बँटवारे के समय उसका परिवार सरहद उस पार से चला था और बिछड़ते जाने के एक लंबे और इम्तिहान लेने वाले सफर में आखिर अपने को अकेला इधर आने वाली गाड़ी में पाया । तब न कोई यह छोटा नाम पुकारने वाला था न बढ़ती उम्र के साथ कोई और नाम देने वाला ! बिट्टू ! जिसका इंतजार वह कर रहा था उसने आकर आवाज दी सरदार को । हँसता उसकी पीठ थपथपाता बूढ़ा बिट्टू चला गया । आँखें कुछ नम कर । यह मुलाकात तो खैर दिल भरने वाली मुलाकात थी । एक प्यार की यादगार में शुरू किये इस स्मृति पर्व की कुछ वैसी ही शुरुआत !
अब ? ज्यादा सोचना नहीं पड़ा । बुद्ध कालोनी ! नाम खट से उछलकर होंठों पर आया । वो बस देखो जा रही है… । पीछे वाले कंडक्टर ने आगे जाती बस की ओर हाथ दिखाया । दौड़कर सवार हो गया वह । वहाँ किससे मिलना था ? श्यामल से !
कालोनी पहुँचा तो सोचाघर जाकर मिलते हैं ! सामने जो अपार्टमेंट था उसकी तरफ रुख किया । फाटक के पास बैठे चैकीदार ने टोक दिया – किधर जाना है ? नाम तो था एक जहन में । बस नाम ही ।
– वो… श्यामल जी के यहाँ ।
– कौन श्यामल ? सिन्हा ?
– हाँ हाँ ।
– जर जमीन का काम है जिसका ?
– आँ हाँ ! मकान नंबर थोड़ा भूल रहा हूँ ।
– सीधे जाकर बाँयें । आखिर में । 208 । नाम लिखा होगा ।
फ्लैट तक जाने में कठिनाई नहीं हुई । घंटी बजाते कुछ तरंगें जरूर महसूस हुईं । पर अपने को सहज किया । बस मुलाकात की बात है ।
दरवाजा जिसने खोला शायद श्यामल वही हो ऐसा अनुमान किया । कैसे ? चेहरा थोड़ा मटमैला सा था ।
– जी ! श्यामल जी… !
– हाँ में ही हूँ । काम क्या है ?
– क्या बैठ सकता हूँ… ? उसने निवेदन किया ।
– बैठो । कहो ! श्यामल जी भी बैठ गये । …बोलो क्या कुछ फ्लैट व्लैट चाहिए… ? किराये पर कि खरीदना है ?
– हाँ… नहीं… । किराया नहीं ।
– खरीदना है ! किधर ? बजट कितना है ? लोन से लेना है कि ऐसे ?
– वो दरअसल मेरे चचाजी हैं । यहाँ तबादले पर आने वाले हैं । उनको किसी परिचित से हवाला मिला आपका । मैं यहाँ रहता हूँ इसलिए मुझे कहा कि मिलकर जरा बात करूँ । फिर खुद भी आयेंगे… जब आयेंगे ।
– करते क्या हैं ?
– चाचाजी ? जी । वो… बीमा कंपनी में हैं ।
– ओ !
फिर श्यामल ने – जैसे साड़ी की दुकान वाला एक के बाद एक नयी साडि़यों की रंगों की झाँस फैैला नाक में दम कर दे – जानकारियों का पुलिंदा सामने रखना शुरू कर दिया । इस तरह कि उस धाराप्रवाह को थामना दूभर था । आदमी से मिलने आया था व्यवसायी से सामना हो गया… उसने सोचा ।
…दूसरे सब इस लाइन में दूसरे की नहीं सोचते । पर मैं किसी अपने ग्राहक को दूसरा नहीं सोचता । वही बताता हूँ जिसमें कुछ भी लाग लपेट न हो । जिसे खुद लेना हो तो चुनता वैसा ! बाकी से धंधा मेरा अलग है । हर तरह से साफ… ।
सिर्फ मतलब की बात होगी तो मुलाकात क्या होगी… लगा उसे । सौदे खरीदारी की पूछपेख बहुत हो चुकी थी । इसलिए बात को मोड़ने की कोशिश की ।
– यह नाक के पास क्या हो गया है ? कबसे… ? उसने उँगली से उधर इशारा किया ।
वह थोड़ा अचकचाया । पल दो पल के लिए । फिर हँसा – फोड़ा है भाई !
– कितने दिन हो गये ?
– अरे माँ तो कहती थी बचपन से कि मेरी तो नाक पर ही फोड़ा है । गुस्सा बहुत आता था न ! खूब पिनपिनाता था इसलिए । लेकिन यह… इधर हुआ । कुछ वक्त से परेशान कर रहा ।
– फोड़ा है इसीलिए फोड़ा नहीं करते इसे ! भूल से भी । माँ कहा करती थी मेरी । आपने लेकिन लगता है हाथ लगा दिया था इसे । इसीलिए भकंदर जैसा हो गया । वैसे इसका एक बहुत सहज इलाज है । मुझे पता है । एक पत्ता है… ।
– कहाँ ? नासूर की तकलीफ से निजात की किरण दीखते श्यामल की उत्सुकता जगी ।
– पौधे पर ! और वह पौधा नीचे ही होना चाहिए । आते समय अहाते में लगा कि मैंने देखा था । चलिये अभी चलकर देखते हैं !
– चाय पी लो । फिर चलेंगे ! कहा आतिथेय ने । अब बात कुछ मुलाकात सी बन रही थी ।
– नहीं नहीं । धन्यवाद ! उसकी जरूरत नहीं । अभी यह फोड़ा जरूरी है । मतलब इसका उपाय । उस पत्ते को खाली तीन दिन पीस कर लगा लेने से पूरा सफाया हो जायेगा । फोड़ा तो फोड़ा…
– नाक बची रहेगी न ?
– आँ हाँ ! बेशक । वो तो लाजिमी है… । उसके बिना काम कैसे चलेगा ! रखनी ही होगी… ।
नीचे उसने पौधे की पहचान करायी । श्यामल ने फिर उसका मोबाइल नंबर लिया और अपना दिया ।
– लगाकर देखूँगा मैं ! रात को थोपकर सो जाऊगा । वैसे तुम्हें कैसे मालूम हुआ इसके बारे में ? तफ्शीश की श्यामल ने ।
– वो… एक बंगाली साथी था मेरा… ! फिर एक कहानी बनायी और सुनायी । तुरंत । और उतनी ही फुर्ती से साथ वाले ने भी तीन चार फ्लैटों का आगा पीछा बता दिया । …उन्हें बताकर बताने से आपको बताऊँगा ! कह कर ली आज्ञा । अगली अनजान मुलाकात के लिए ।
दरगाह और गुरुद्वारा हर जगह होता है । यहाँ इन दोनों ठिकानों की तरफ कभी नहीं गया था । बुद्व के इलाके से निकला तो खयाल आया । पहले दरगाह को जाने वाली बस पूछे । नयी या पुरानी ? बताने वाले ने पूछा । नया है वह तो पुरानी जगह जाये ! सोचा । बस का नंबर मिल गया । औेर उस नंबर की बस भी । वहाँ जाकर पहली तरकीब लगायी । सामने के नाके पर जहाँ बत्ती अभी लाल थी खड़े होकर आवाज दी – करन ! ओ करन ! अबकी भी सुनकर पलटा नहीं कोई । खुद पलटने से पहले मुड़कर आवाज लगायी । फिर एक बार – …करन ऽ… किरन ऽ ऽ !!
नाम तो मिलने वाला था ! सहज और आसान । लेकिन यहाँ नहीं होगा कोई अभी । दिलासा देकर खुद को वापस चलने को था कि कंधे पर हाथ पड़ा ।
– क्या है रे ! आवाज आदमी और औरत के बीच की थी । जैसे एक के गले से निकल कर दूसरे में हो जा फँसी । देखकर पुष्टि हो गयी । … कह मुझे क्यों आवाज दे रहा है । वो भी दिन दहाड़े… ! ऐसा वैसा कैसा काम है रे ? साँवली रंगत पर गहरी लाली फैली हुई थी ।
– तुम्हें नहीं … वो मैंने किसी और को… । इस बार वह सचमुच हड़बड़ा गया ।
– आवाज दे ही दी तो घबड़ाता काहे को है प्यारे ! और कौन होगा । एक साथ करन और किरन । अपने सिवा ! कह न काम है क्या । सीधा कहने का । नहीं घबड़ाना । अभी हो जायेगा । अब्भी का अब्भी । फुल गारंटी । दिन में हमारी जबान मर्द की जबान होती है और काम भी वैसा इच…
– काम नहीं । बस मिलना था… ।
– मिलना क्या । बता बता ! कैसा वाला ?
– कुछ नहीं । बस कुछ बात… ।
– वही तो ! कुछ बात है मैं समझ सकती । सकता । हा हा । वह हँसा । …अरे कह ना ! कह भी दे । चल ! पैसे कौड़ी की फिक्र न कर । जितने टेंट में होंगे वही तो जायेंगे । हाल अहवाल देखकर लगता तो नहीं होंगे ज्यादा । फिर काहे को डरता… । जा लौटने का बस भाड़ा भी माफ किया ।
– नहीं ! उसके लिए तो पास है अपने पास ! सीधपन में सच सच निकल गया मुँह से । फिर सँभलकर कहा – बस कुछ बात करनी थी ! बस एक छोटी सी
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अंत दुखात्मक है…
लेकिन लेखक की मर्ज़ी!
अनिमेष जी को बहुत बधाई…