युवा आलोचक सुरेश कुमार के लेख हम सब पढ़ते रहे हैं और उनकी दृष्टि के क़ायल भी रहे हैं। उनका यह लेख पाखी पत्रिका के जनवरी-फ़रवरी 2021 के अंक में प्रकाशित हुआ था। इस लेख को पत्रिका की तरफ़ से देश विशेषांक प्रतियोगिता में पुरस्कृत भी किया गया है। जिन लोगों ने न पढ़ा हो वे यहाँ पढ़ सकते हैं-
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14 अगस्त 1931 को बाबा साहेब डा.अंबेडकर पहली बार जब महात्मा गांधी से बंबई के मणि भवन मिले थे तब डा.अंबेडकर ने गांधी जी से बड़ी संजीदा आवाज में कहा था कि ‘मेरी कोई मात्र भूमि नहीं है।’ यह सुनकर महात्मा गांधी अंदर तक हिल गये थे। इस कथन के पीछे डा.अंबेडकर की पीड़ा और चिंता को महसूस किया जा सकता है। इस कथन से उनका अशाय था कि इस देश में दलितों के लिये कोई जगह नहीं है। दलित देश की सार्वजानिक संपत्ति का इस्तेमाल नहीं कर सकते हैं। यहां तक कि दलित न तो सवर्णों के कुएँ और तलाबों से पानी भर सकते हैं, और न तो हिंदुओं के मन्दिर की चौखट पर पैर रख सकते थे। दलित जिस देश के मूल बांशिंदे हैं उसी देश में उन्हें नागरिक की हैसियत से नहीं बल्कि अछूत के तौर पर देखा जाता है। डा.अंबेडकर ने यह बात भले ही बीसवीं सदी के तीसरे दशक में कहीं थी लेकिन आजादी के बाद भी दलितों को सामाजिक भेदभाव और अपने ही देश में बहिष्कृत और उपेक्षित होने का दंश महसूस करना पड़ रहा है।
बीसवीं सदी के आठवें और नवें दशक में दलित लेखकों और चिंतकों ने अपने चिंतन और साहित्य में यह सवाल उठाया कि इस देश में जमीन से लेकर संस्थाओं और संसाधनों पर तथाकथित सवर्णों का वर्चस्व और कब्जा है। फिर, दलितों का इस देश में क्या है? दलित विमर्श के विलक्षण सिद्धांतकार और लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि ने ‘सदियों का संताप’ कतिवा संकलन में एक बड़ी मारक और तल्ख कविता लिखी है। उनकी इस कविता का नाम ‘ठाकुर का कुआं’ है। ओमप्रकाश वाल्मीकि ने यह कविता बीसवीं सदी के आठवें दशक में लिखी थी। इस विमर्शकार ने बड़ा ही मारक सवाल उठाया था कि देश मे सारे संसाधनों पर तो तथाकथित ऊँची जाति वालों का कब्जा है फिर, देश के भीतर दलितों का क्या है? ओमप्रकाश वाल्मीकि अपनी कविता ‘ठाकुर का कुआं’ में सवाल उठाते है– ‘चूल्हा मिट्टी का/ मिटटी तालाब की/ तालाब ठाकुर का।/ भूख रोटी की/ रोटी बाजरे की/ बाजरा खेत का/ खेत ठाकुर का।/ बैल ठाकुर का/ हल ठाकुर का/ हल की मूठ पर हथेली अपनी/ फसल ठाकुर की।/ कुआँ ठाकुर का/ पानी ठाकुर का/ खेत-खलिहान ठाकुर के/ गली-मुहल्ले ठाकुर के/ फिर अपना क्या?/ गाँव? शहर? देश?’ इस कविता के में वहीं सवाल उठाया गया जिस सवाल को डा.अंबेडकर ने करीब सौ साल पहले गांधी जी के सामने उठाया था। यह उच्च श्रेणी की मानसिकता वाले समाज को बड़ी गहनता और गंभीरता से मनन करना चाहिये कि एक सदी के बीत जाने पर दलितों को लेकर उनका रवैया और नजरिया क्यों नहीं बदला है? ओमप्रकाश वाल्मीकि जिन सवालों को अपनी कविता में उठा रहे हैं उस यक्ष प्रश्न से उन्नति की चाह रखने वाले सवर्ण समाज के बुद्धिजीवियों को टकराना होगा। 21वीं सदी का प्रथम दशक बीत जाने पर दलितों के पास आज भी जमापूंजी के नाम पर सामाजिक बेदख़ली और अपमान के सिवा आखिर क्या है ?
देश को आजादी मिले सात दशक बीत चुके हैं लेकिन दलितों की सामाजिक भागीदारी और समानता का प्रश्न अभी हल नहीं हो सका है। सवर्ण समाज के चेतन और अवचेतन मन में जातिवादी मानसिकता समय-समय पर दलितों को अहसास करवाती रहती है कि उनके लिये दलित की उपस्थिति केवल अछूत और गुलाम की है। कुछ सवर्ण उन्हें लोकतंत्र वाली व्यवस्था में भी मनुकाल की याद दिलाने के लिये सदैव तत्पर रहते हैं। यह नई नहीं पुरानी ही व्याख्या है कि जातिगत गोलबंदी ने दलितों पर बड़ा जुल्म और अत्याचार ढाया है। देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था और संविधान की समुचित प्रणाली होने के बाद भी दलितों को बेदखल और वंचित होने का दंश सहना पड़ता है। यह उच्च श्रेणी की मानसिकता वाला समाज आजादी के सात दशक बीत जाने पर भी दलितों के लिये शोषण और भय मुक्त वातावरण का निर्माण नहीं कर सका है। पिछले दशकों में घटी घटनायें इस ओर इशारा करती हैं कि 21वीं सदी में भी दलितों के साथ कमोबेश वैसे ही व्यवहार किया जाता है जैसा कभी मनुकाल में उनके साथ होता था। ओमप्रकाश वाल्मीकि अपनी एक दूसरी कविता में सवाल करते हैं कि ‘यदि तुम्हें, धकेलकर गांव से बाहर कर दिया जाय/पानी तक न लेने दिया जाय कुएं से/दुत्कारा-फटकारा जाय/चिलचिलाती दोपहर में/कहा जाय तोड़ने को पत्थर/काम के बदले/दिया जाय खाने को जूठन/तब तुम क्या करोगे?’ ओमप्रकाश वाल्मीकि की इस कविता का पाठ दलितों की गहरी पीड़ा और उनकी स्थिति की हौलनाक सच्चाई को सामने रखता है। कविता सवाल करती है कि दलितों के साथ जैसा सलूक सवर्णों ने किया है यदि वहीं व्यवहार सवर्ण समाज के साथ होता तो उनकी स्थिति क्या होती? लोकतंत्रवादी तकाजा तो यही कहता है कि किसी व्यक्ति से जातिगत और लैगिंक आधार पर भेदभाव करके उसे समाज से बेदख़ल नहीं किया जा सकता है। लेकिन बड़ी दिलचस्प बात है कि यहां का तथाकथित उच्च श्रेणी वाला समाज लोकतंत्र और संवैधानिक मूल्यों को ताक पर धकेलकर दलित और स्त्रियों के साथ भेदभाव भरा बर्ताव करके अपनी सांमती और जातिवादी ठसक को संतुष्ट करता है। कुछ सवर्णों के भीतर मौजूद सामंती और जातिवादी मूल्य दलितों को जमीन और देश से बेदखल करने का काम करते हैं। इस मानसिकता के चलते समता और समानता की दिवारों में तो दरार पडी ही और दलितों से मनुष्य होने की गरिमा भी छीन ली गई।
देश को आजादी मिलने पर यह मान लिया गया था कि संविधान और लोकत्रंत की रोशनी में सवर्ण समाज अपनी जातिगत मानसिकता का बहिष्कार करके समता की मिशाल पेश करेगें। और, जातिवादी आग्रह से मुक्त होकर दलितों के साथ समानता की भावभूमि पर पेश आयेगे। दिलचस्प बात यह है कि संविधान और ज्ञान-विज्ञान की रोशनी में भी तथाकथित उच्च श्रेणी जाति के जामे को उतार कर फेंक नहीं सका है। वह जाने और अंजाने में दलित और स्त्रियों को समानता का अधिकार देने के विरुद्ध खड़ा हो जाता है। 21वीं सदी में भी यहां का उच्च श्रेणी की मानसिकता रखने वाला समाज दलितों के साथ वैसे ही पेश आता है, जैसे मनुकाल में दलितों के साथ पेश आया जाता था। देश को विभाजित करने में वर्णवादी संरचना ने बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। डा. अंबेडकर हिंदू समाज को चार मंजिलों वाली इमारत कहा करते थे। वर्णगत व्यवस्था का दर्शन भेदभाव और असमानता के ढांचे का समर्थन और विस्तार करता है। वर्णवादी व्यवस्था के मूल में दलितों को बेदख़ल और बहिष्कृत करने का दर्शन निहित होता है। इस व्यवस्था ने दलितों की अस्मिता और वाजूद के माइने ही बदल कर रख दिये थे। सवर्णों के तिरष्कार और जुल्म को देखकर बीसवीं सदी के नवें दशक में दलित कवि मलखान सिंह को कहना पड़ा कि ‘मैं आदमी नहीं हूँ स्साब/जानवर हूँ/दो पाया जानवर/जिसकी पीठ नंगी है।’ वर्णवादी व्यवस्था जहां सवर्णों को अधिकार देने की बात करती है, वहीं दलित और स्त्रियों की स्वतंत्रता का दायरा सीमित करने की वकालत भी करती है। वर्णगत और जातिगत की आपसी सांठगांठ ने दलितों को मानवीय गरिमा और देश के सार्वजनिक संसाधनों से वंचित कर और उन्हें पशुओं को श्रेणी में स्थापित करने का काम किया था।
सवर्णवादी मानसिकता ने दलितों को हमेशा देश और गांव की परिधि से बाहर धकेलने का प्रयास किया है। अपने ही देश में बेदख़ल होकर दरबदर होने की पीड़ा दलितों से ज्यादा और कौन महसूस कर सकता है। बीसवीं सदी के आठवें दशक में दलित लेखकों ने सामाजिक भेदभाव के साथ बेदख़ली के सवाल को अपने लेखन में बड़ी शिद्दत से उठाया है। दलित साहित्य के बड़े कवि मलखान सिंह कहते हैं कि अपने ही देश में दलित अनामी है। उनकी पहचान सवर्णों ने दलित और अछूत की निर्मिति कर दी है। इस कवि का कहना था कि यहां दलित व्यक्ति को इनसान नहीं बल्कि अछूत के तौर पर देखा पहचाना और देखा जाता है। उसकी जाति देखकर गांव से बेदखल कर दिया जाता है। दलित को मान-सम्मान और अपमान जाति के आधार पर ही निर्धारित होता है। इस देश में दलित समाज की हैसियत और स्थिति क्या है? मलखान सिंह की कविता ‘फटी बंडी’ की इन पंक्तियों से लगाया जा सकता है-‘मैं अनामी हूँ/अपने ही इस देश में/जहाँ-जहाँ भी रहता हूँ/आदमी मुझे नाम से नहीं/जाति से पहचानता है और/जाति से सलूक करता है।’ यह दलित जीवन के बेदख़ली का यर्थाथ है। संवैधानिक और लोकतंत्र में भी दलित को अपनी अस्मिता और पहचान के लिये संघर्ष करना पड़ रहा है। सवर्ण समाज के विचारकों और हुक्मरानों का बड़ी गंभीरता से मनन करना चाहिये कि एक दलित कवि को आखिर नवें दशक में यह क्यों कहना पड़ा कि वह अपने ही देश में ‘अनामी’ है? यह पहले ही कहा जा चुका है कि वर्णवादी व्यवस्था ने समाज में कई फाड़ कर डाले है। इसका पूरा दर्शन भेदभाव और श्रेष्ठता पर टिका हुआ है। इस व्यवस्था के तरफदारों ने इनसानों में तो भेद डाला ही बल्कि कुआं से लेकर मरघट तक बांट डाले। इसे बड़ी विड़बना क्या होगी कि दलितों ने देश और गांव को संवारने और निखारने में खून-पसीना एक कर देते है, लेकिन मरने के बाद दलित के शव को सवर्ण समाज के लोग चिता पर से यह कहकर उठवा देते हैं कि यह सवर्णों का मरघट है, यहां दलित समाज के शव को जलाया नहीं जा सकता है। इससे पता चलता है कि तथाकथित सवर्णों के मन में दलितों को लेकर अभी कुछ खास बदलाव नहीं हुआ है।
दलित लेखकों का अनुभव और सृजन बताता है कि दलितों के साथ अन्याय और भेदभाव समाज के सभी हलकों से होता है। दलित चाहे गाँव में रहे या फिर शहर में जाति का दानव उनका पीछा नहीं छोड़ता है। सवर्णवादी और सामन्ती मानसिकता दलितों को दास और गुलाम के तौर पर देखना पसंद करती है। मनु महाराज की बताई परिभाषा से जैसे दलित ऊपर उठने का प्रयास करता है तो सवर्ण समाज के सामंतों द्रारा उन्हें सबक सिखा दिया जाता है। सवर्णों का अन्याय और जुल्म दलितों को मनुकाल वाली व्यवस्था में ले जाकर धकेल देता है। दलितों को गाँव और शहर दोनों मुहाने पर सामाजिक अपमान और बेदख़ल होने का दंश झेलना पड़ता है। कवि मलखान सिंह की एक बड़ी मशहूर कविता ‘एक पूरी उम्र’ है। इस कविता में बताते हैं कि दलित व्यक्ति को पूरी उम्र भय के माहौल में काटनी पड़ती है। नवें दशक में लिखी गई इस कविता में दलित समाज की हौलनाक बेदखली को महसूस किया जा सकता है-‘यकीन मानिए, इस आदमखोर गांव में, मुझे डर लगता है, बहुत डर लगता है।/लगता है कि अभी बस अभी, ठकुराइसी मैड़ चीखेगी, मैं अधशौच ही, खेत से उठ आऊँगा।/कि अभी बस अभी, हवेली घुड़केगी, मैं बेगार में पकड़ा जाऊँगा।/कि अभी बस अभी, महाजन आएगा, मेरी गाड़ी की भैंस, उधारी में खोल ले जाएगा।/कि अभी बस अभी बुलावा आएगा, खुलकर खाँसने के-अपराध में प्रधान, मुश्क बाँध मारेगा, लदवाएगा डकैती में, सीखचों के भीतर उम्र भर सड़ाएगा।’ हिंदी लेखक गाँव को अपने लेखन में भले ही स्वर्ग बताते आ रहे हो लेकिन हकीकत यह है कि गाँव में दलितों पर खूब जोर जुल्म होता है।
सवर्ण मानसिकता दलितों को यह अहसास करवाती रहती है कि देश के बाशिन्दे नहीं बल्कि उनके दास हैं। 21वीं सदी में भी देश के सभी हलकों में तथाकथित उच्च श्रेणी की मानसिकता रखने वाले लोग दलितों के साथ न तो बैठ सकते हैं, और न तो उनके साथ सहभोज कर सकते हैं, न तो दलितों की प्रगति को सहन कर सकते हैं। तथाकथित सवर्ण तबका संविधान में प्रदत्त दलित अधिकारों की खुलकर मुखालफ़त करता है। वह अपनी नाकामी का ठीकरा दलितो के आरक्षण पर फोड़ता दिखाई देगा। यहां अभिव्यक्ति की आजादी का मुद्दा बुद्धिजीवी उठाते मिल जायेगे। लेकिन दलितों की अभिव्यक्ति उन्हें बर्दाश्त नहीं है। जबकि दलितों के पास ही सबसे ज्यादा कहने और बताने के लिये होता है। दिलचस्प बात यह है कि दलित की समस्या पर विचार करने के लिये दलित की नहीं सवर्णों की राय ली जाती है। यहां तक दकियानूसी का आलम देखिये कि दलितों के लिखे साहित्य को तथाकथित सवर्ण बुद्धिजीवियों ने साहित्य ही नहीं माना। जब दलितों के लिखे साहित्य को साहित्य नहीं माना गया, तब दलितों ने कहा कि यदि उच्च श्रेणी के लोग हमारे साहित्य को साहित्य नहीं मानते हैं तो अब हम अपने साहित्य को ‘दलित साहित्य’ का नाम देते हैं। उच्च श्रेणी की मानसिकता दलितों को यह महसूस ही नही करवाती हैं कि इस मुल्क में दलित भी इनसान हैं। वरिष्ठ चिंतक और लेखक श्यौराज सिंह बेचैन के संग्रह ‘भोर के अँधेरे में’ में ‘सवाल’ नाम से एक बड़ी मारक कविता संकलित है। कविता इस परिदृश्य पर बात करती है कि स्वराजवादी व्यवस्था में मनुष्य नहीं वर्ण और जाति ही सर्वोच्च है। श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ अपनी कविता में सवाल करते हैं कि दलितों के हिस्से में मान-सम्मान नहीं बल्कि अपमान और दमन ही आया है। कविता की इन पंक्तियों को देखिये–‘स्वराज से भी बढ़कर थी/उनकी वर्ण सर्वोच्चता/पेशवाई की तबाही थी अछूत के घर/सछूत के लिए तो हर रात दीवाली थी/और हर दिन अच्छा दिन था/यदि कुछ नहीं था तो अछूत का/यदि कुछ नहीं है तो दलित का/समता का सवाल आज भी/मुँह फाड़े है कल भी मुँह फाड़े था?’
21वीं सदी में भी आकर सवर्ण मानसिकता को यह पसंद नहीं है कि दलित उनके सामने सिर उठाके चले। यदि दलित इस घेरे को तोड़ने का प्रयास करते हैं तो सामंती सवर्णों द्वारा उन्हें सबक सिखा दिया जाता है। इससे बड़ी विड़ाबना और क्या हो सकती है कि दलित समाज के दूल्हे को घोड़ी पर चढ़ने के लिये कानून के सामने गुहार लगानी पड़ती है। क्योंकि दबंग जाति के लोगों को दलित दूल्हे का घोड़ी पर चढना बर्दाश्त नहीं हैं। दलितों पर सवर्णों का अत्याचर और दमन देखकर संसद को कानून तक बनाना पड़ा है। इसके बाजजूद भी दलितों पर जुल्म और दमन थमने का नाम नहीं ले रहा है। दलित साहित्य के जानेमाने कवि असंगघोष की एक मशहूर कविता ‘समरसता नहीं, समानता’ है। यह कविता दलितों पर हो रहे जोर-जुल्म और बेदख़ल होने की पीड़ा को बड़ी शिद्दत से सामने रखती है। असंगघोष कविता में सवाल करते हैं कि लोकतंत्र और संविधानवादी व्यवस्था में भी सवर्णवादी मानसिकता के लोग दलित दूल्हे को घोड़ी पर बैठने नहीं देते हैं । कवि असंगघोष बताते हैं कि सवर्णों के सामने दलितों को अपने पैर के चप्पलों को हाथ में उठाकर नंगे पांव गुजरना पड़ता है। दलित समाज की बेदख़ल होने के राग को कविता की इन पंक्तियों में महसूस किया जा सकता है –‘तुम्हारे घर/गाँव के/मुख्य मार्ग पर हैं/गाँव की चौपाल पर कब्जा है तुम्हारा/तुम्हारे घर में कोई ब्याह हो, तो/वह पूरे गाँव का ब्याह कहाता है और/हमारे बच्चों का ब्याह/ब्याह नहीं, दक्खिन टोले का शोर है।/हमारे दूल्हे घोड़ी पर चढ़/गाँव के गली-कूचों में ढोल-बाजों के साथ/घूम-फिर/बिंदोली भी नहीं निकाल सकते/हमारे स्त्री-पुरुष तुम्हारे घरों के सामने से/पाँवों में चप्पल-जूते पहन कर/नहीं निकल सकते, उन्हें अपने ही चप्पल-जूतों को/अपने हाथों में उठा,/या काँधे पर लटके थैले में रख/निकलना अनिवार्य है/यह सारे नियम-कायदे/तुम्हारे ही बनाये हुए हैं/देश में/यह गणतंत्र है या राजतंत्र!’
देश के किसी भी इलाके में चले जाइये तो पता चलेगा कि परिधि पर सवर्णों का कब्जा है और परिधि के बाहर गली कूचे और नालों के किनारे दलितों की बस्तियों का जमावड़ा नजर आयेगा। शहर और गाँव दोनों स्थानों में उन्हें किनारे धकेलन दिया जाता है। जबकि देश के नियंताओं का स्वप्न था कि लोकतंत्र और संविधानवादी व्यवस्था में दलितों और स्त्रियों को केन्द्र में लाया जायगा। जबकि देश निर्माताओं की सोच के विपरीत दलितों को केन्द्र में लाने के बजाय उन्हें हाशिये पर धकेला जा रहा है। सी.बी. भारती दलित साहित्य के प्रमुख कवि हैं। इस कवि की एक बड़ी मारक कविता ‘घर’ है। यह कविता ‘लड़कर छीन लेंगे हम’ संग्रह में संकलित है। इस कविता में सवाल उठाया गया है कि दलित अपना श्रम और पसीना बहाकर ऊँची-ऊँची इमारतें बनाते हैं लेकिन उन्हें परिधि के बाहर स्थान निर्धारित कर दिया गया है। सी.बी. भारतीय की कविता ‘घर’ में दलित जीवन की खौलती सच्चाई को महसूस किया जा सकता है- ‘घर…/ घर ही तो नहीं है उन बेघरों का/बनाया जिन्होंने/अपना अशियाना फुटपाथों पर/रेलवे लाइन की पटरियों पर/ बजबजाते गन्दे नालों के किनारे/कुछ के पास घर हैं भी तो उन मलिन बस्तियों में/झुग्झी-झोंपड़ी के रुप में/जहाँ न प्रकाश/न ही जहाँ शिक्षा/मलमूत्र व्ययन के साधन नहीं वहाँ/ मच्छरों की दुनिया’ जब तक यह समाज जाति के मकड़जाल से मुक्त नहीं होगा तब दलितों को बेदख़ल का दंश सहना पडे़गा। सी.बी. भारती अपनी एक और कविता ‘जमीन’ में बताते हैं कि उच्च श्रेणी का तबका संसाधनों के बँटवारे पर अपना एकाधिकार समझता है। कविता सवाल उठाती है कि दलित अपने ही देश में उपेक्षित और बहिष्कृत हैं। सी. बी. भारतीय की कविता में बेदख़ल होने का मार्मिक राग महसूस किया जा सकता हैं- सबके लिये जैसे हैं-/यह सूरज/यह चन्द्रमा/और तारे/और सबके लिये हैं-यह धप/यह चांदनी/ और झिलमिल प्रकाश/क्यों नहीं है वैसे ही/यह धरती सबके हिस्से में बराबर/क्यों नहीं वैसे ही/इसे भोगने का समान हक़ सभी को/क्यों कर दिये गये बेदख़ल/कुछ लोग/क्यों छीन ली गई धरती/इनके पुश्तैनी बाशिन्दों से।’
अब हम इस लेख की समाप्ति की ओर जा रहे हैं तो पाते हैं दलित साहित्यकारों ने देश में ही उपेक्षित और बेदख़ल होने का सवाल बड़ी गहराई और शिद्दत से उठाया है। अपने ही देश में सवर्णवादी मानसिकता के चलते बेघर और बेदखल है। जब तक सवर्ण समाज के लोग जाति के दायरे से मुक्त नहीं होंगे तब तक दलितों को सामाजिक बराबरी का दर्जा प्राप्त नहीं होगा। सवर्ण समाज के नागरिकों और बुद्धिजीवियों को जातिवाद की मुख़ालफ़त में गोलबंद होकर दलितों का साथ देना पडे़गा। तभी देश में समता और समानता कायम होगी। उच्च श्रेणी वाले समाज को ‘जाति’ का नहीं मनुष्यता का दामन थाम कर दलित अधिकारों के पक्ष में पहलकदमियां करनी होगी। सवर्ण समाज के चिंतको, लेखकों और संपादकों को जाति को लेकर ‘गैर आलोचनात्क’ सिद्धांत नहीं अपनाना है। यदि कोई तथाकथित सवर्ण दलितों के साथ जातिवादी मानसिकता से पेश आता है तो सबसे पहले उसका विरोध सवर्ण नागरिकों और लेखकों को करना चाहिए।
लेखक संपर्क -8009824098
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लेखक ने काफी बेहतर ढंग से सच्चाई को उभारा है, दरअसल समाज में जातीय दुराग्रह, छुआछूत जैसी संकीर्ण स्थिति इतनी भयानक है, कि पता नहीं कब तक उसमें संतोषजनक परिवर्तन आएगा …