आज जोहरा सहगल ने अपने जीवन का शतक पूरा कर लिया. उनके जीवन और कला के सफर पर दिलनवाज ने एक नजर डाली है- जानकी पुल.
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कई सितारों को मैं जानता हूं
कहीं भी जाऊं मेरे साथ चलते हैं..
(शायरी के एक संस्करण से)
उत्तरांचल के मुमताज़उल्लाह खान रोहिला पठान परिवार में ज़ोहरा उर्फ साहबज़ादी ज़ोहरा बेग़म का जन्म 27 अप्रैल,1912 को हुआ. सात बच्चों के परिवार में ज़ोहरा तीसरी संतान थीं। खेलने के दिनों में अम्मी नतीक़ा बेग़म की मौत का सदमा मिला। अम्मी की दिली ख्वाहिश थीं कि बेटियां जरूर पढे, ज़ोहरा और उनकी बहनों उच्च शिक्षा लेकर नतीक़ा बेग़म का ख्वाब पूरा किया।
कुछ भी हो हौसला टूटा नहीं
क्या हुआ जो रात का साथ छूटा नहीं।
ख्वाब की राह युं आसान नहीं थी । अब्बा चाहते थे कि बेटियां जल्दी अपने–अपने घर चलीं जाए ,तो अच्छा होगा। लेकिन हाजरा आपा के असफल विवाह से सीख लेकर ज़ोहरा ने कैरियर को तरजीह दी। भाई जकाउल्लाह के मशवरे(महिला पायलट) को आलाकमान (अब्बा) से अस्वीकार हो जाने बाद अभिनय की ओर रूझान हुआ। पृथ्वी थियेटर्स, मुंबई के साथ गुज़रे 14 वर्ष ने ज़ोहरा के व्यक्तित्व पर गहरा प्रभाव डाला । लाहौर में स्वयं द्वारा स्थापित ‘नृत्य स्कूल’ के कडवे अनुभव झेलने बाद मुंबई आकर नई अभिनय यात्रा शुरू की । पृथ्वी में रहकर अभिनय की बारिकियां सीखीं , पृथ्वीराज कपूर से विशेषकर बहुत कुछ सीखने को मिला। पृथ्वीराज सामान्यत: क्लास नहीं लिया करते थे, सीखने के लिए पृथ्वीराज ‘अभिनय’ को गुरू मान लिया और कडी मेहनत से कला साधना की ।
मेहनत के सिलसिले ‘मंसूर’ का शेर ।
दुआएं तुमको न दूंगा ऐश व इशरत की
कि ज़िंदगी को ज़रुरत है कडी मेहनत की ।
पृथ्वीराज में ज़ोहरा को एक योग्य शिक्षक मिल गया था। उच्चारण एवं स्वाभाविक अभिनय को सीखने के साथ एक नज़रिए से जीवन व्यतीत करने की प्रेरणा मिली। योग्य कलाकार होने के साथ एक संवेदनशील नागरिक होना कला की वास्तविक साधना है । आज भी ज़ोहरा आपा के मन में पृथ्वीराज के प्रति अपार श्रधा है। वह कहती हैं कि पृथ्वी जी से योग्य रंगमंच कलाकार मिलना बहुत मुश्किल है। पृथ्वी कहा करते थे कि वह स्वयं में कुछ नहीं, उन्होनें स्वयं को कुम्हार की गीली मिटटी कहा । वह जिसे कुम्हार आवश्यकता अनुसार सांचे में ढालता है । ज़ोहरा खुद को उसी अभिनय सम्राट की प्रेरणा प्रतिछाया मानती हैं ।
प्रेरणा संदर्भ में जनाब ‘बशीर बद्र’ का एक कलाम देखें ।
यह एक पेड है आ इससे मिलके रो लें
यहां से तेरे मेरे रास्ते बदलते हैं ।
कम ही लोग जानते हैं कि ज़ोहरा आपा ने ‘नृत्यांगना’ तौर पर कैरियर की शुरूआत की थी, जर्मनी की एक डांस एकेडमी में तीन वर्ष प्रशिक्षण लेकर स्वदेश लौटीं और सन 1935 में ‘उदयशंकर नाट्य दल’ का हिस्सा बनीं । श्री उदयशंकर से उनकी पहली मुलाक़ात जर्मनी प्रवास दौरान हुई, उस समय उदयशंकर का दल एक कार्यक्रम के सिलसिले में वहां आया हुआ था । ऐसे ही एक प्रस्तुति में ज़ोहरा आपा उदयशंकर से मिली ,जिसके बाद वह इस ग्रुप की सदस्य हो गईं । जिंदगी मे नयी सुबह के सिलसिले में ‘हाफिज़ जालंधरी’ का यह कलाम देखें।
हवा भी खुशगवार है,गुलों पर निखार है
तरन्नुमें हज़ार है,बहार पुरबहार है ।
नृत्य एवं अभिनय में से अभिनय को अधिक पसंद करती हैं, कैरियर के एक पडाव पर आकर नृत्य कहीं पीछे छूट गया ,पर जब रिश्ता था तो एक शिददत थी । अभिनय उनका सबसे प्रिय क्षेत्र रहा है, दर्द भरे एवं हांस्य किरदारों में सबसे अधिक संतुष्ट होती हैं ।दोनों ही परिस्थितियां कलाकार से विशेष दक्षता की मांग करती हैं। ज़ोहरा आपा का सफर में ऐसे चुनौतीपूर्ण किरदारों की कमी नहीं ।
ज़ोहरा आपा ने जिंदगी में बहुत सी बातें लीक से हटकर की। चित्रकार कामेश्वर सहगल के साथ प्रेम विवाह भी कुछ ऐसा ही था। सात वर्ष जूनियर के साथ विवाह को सामान्य घटना नहीं कहा जा सकता । कामेश्वर से ज़ोहरा की पहली मुलाक़ात ‘उदयशंकर एकेडमी,अल्मोडा में हुई , उस समय वहां वह एक नृत्य शिक्षिका थीं । कामेश्वर जी की एक पेंटिंग ने ज़ोहरा का दिल जीत लिया, वह पहली नज़र का प्यार था ।
विषय पर ‘फिराक’ का यह कलाम :
बडा करम है यह मुझ पर अभी यहां से ना जाओ
बहुत उदास है यह घर ,अभी यहां से ना जाओ ।
दो वर्ष के रूमानी जज्बात बाद दोनों विवाह सूत्र में बंध गए । लेकिन कामेश्वर के आसमयिक निधन से प्रेम कहानी का दुखद अंत हुआ,पति की असामयिक मौत ने आपा को अंतरतम तक हिला दिया था, आत्महत्या की घटना एक बडी विपदा होती है ।जिंदगी थम सी गई थी । बकौल मखमूर सईदी :
ना रास्ता ना कोई डगर है यहां
मगर सब की किस्मत सफ़र है यहां ।
बिटिया किरण और सुपुत्र पवन की जिम्मेदारियों ने उन्हें जीने का हौसला दिया । ज़ोहरा आपा ने विलाप को भीतर दबाए रखा और इसके बल से अभिनय में संवेदनशील अभिव्यक्तियां प्रस्तुत की ।
इस सदर्भ में ‘दाग़ देहलवी’ का कलाम बरबस याद आता है :
गुज़र गया वो ज़माना कहें तो किससे कहें
ख्याल दिल को मेरे सुबह –शाम किसका था।
90 के दशक में एक बार फिर ज़ोहरा पीडा,बहुत पीडा में थी, कैंसर हो गया था । इस मुश्किल घडी में ज़ोहरा ने स्वयं को समझाया। सच ही है विधवा हो्ने के बाद ‘कैंसर’ से संघर्ष कोई बडी चुनौती नहीं थी । हुआ भी ऐसा ही कुछ: एक साहसी ,जुझारू, हौसलापरस्त महिला से कैंसर हार गया । जीवन की कठिन चुनौतियों का उन्होने बडी हिम्मत से सामना किया।
अहमद फराज कहीं कह भी गए हैं …
ख्वाब मरते नही
ख्वाब तो रोशनी हैं, नवां हैं, हवा हैं।
ज़ोहरा के पास अभिनेत्रियों जैसी कोई ‘ग्लेमरस’ छवि नहीं थी, ऐसे में खुद को स्थापित करने के लिए विशेष दक्षता दरकार थी । कहा जाता है कि मंच पर आने वाला कलाकार (महिला कलाकार) यदि सुंदर हो तो खेल आधा बन जाता है, तात्पर्य यह कि पचास फीसद काम पूरा । शेष पचास के लिए ज्यादा मेहनत नहीं करनी पडती। लेकिन ज़ोहरा आपा को यह सौभाग्य प्राप्त नहीं था। खूबसूरत न होने के मलाल को उन्होने हावी नहीं होने दिया । भवसागर को सिर्फ और सिर्फ अभिनय सहारे पार किया। वह ‘खूबसूरत’ नहीं लेकिन एक ‘अविस्मरणीय’ महिला जरूर हैं ।
फिराक़ भी कहते हैं…
लाखो मुसाफिर चलते है,मंज़िल पहुंचते है दो एक
अय– अहले–ज़माना कद्र करो, नायाब ना हो कामयाब है हम !
ज़ोहरा सहगल के भावपूर्ण चेहरे में जहान की सारी संवेदनाएं आज भी सहज व्यक्त होती हैं।जब भी कोई अभिनय प्रस्ताव आता है तो उसे ज़ाया नहीं करतीं। आपा को आज भी काम में वही आनंद आता है । शाहिद नदीम का
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kon kahta hai aapa khubsurt nahi hai, unka utsaah aur mukurahat kee khobsurat nayikaon ko maat deta hai