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प्रीत के अंत और शुरुआत शब्द ज्यादा नहीं देते साथ

अपने कथ्य और शिल्प में विशिष्ट प्रेम रंजन अनिमेष की कवितायें हर बार कुछ नया रचने की कोशिश करती हैं । ‘मिट्टी के फल’ और ‘कोई नया समाचार’ के बाद उनका नया कविता संग्रह ‘संगत’ हाल ही में प्रकाशन संस्थान से आया है। पिता के जीवन के अंतिम वर्षों के दौरान उनके साथ के जैसे गहन आत्मीय एवं मर्मस्पर्शी चित्र प्रस्तुत संग्रह में हैं वे हिंदी कविता में दुर्लभ हैं। यह आज के सयाने जमाने में एक सीधे सरल किंतु जीवन मूल्यों के साथ और जीवन मूल्यों के लिए जीने वाले सहृदय मनुष्य का वृत्तांत भी है। डायरी, संस्मरण, आत्मकथा या आत्मकविता- ये कवितायें सारे खानों, साँचों और हदों को तोड़ती हुई अपनी एक अनूठी सृष्टि रचती हैं। इन कविताओं में पिता की जितनी जीवंत उपस्थिति है उतनी ही सप्राण मौजूदगी है माँ की। उम्र की सीढ़ी पर एक साथ चढ़ते हुए दोनों का जीवन संघर्ष कितना एक और कितना अलग इसकी करुण मार्मिक निशानदेही करती हैं ये कवितायें। कुछ शब्दों में कहें तो यह मनुष्यता का बेहद हार्दिक और मर्मपर्शी अभिलेख है जो कविता के फलक को और विस्तृत करता हुआ उसे अंतस के नये उजास से भरता है। प्रस्तुत हैं अनिमेष के इस कविता संग्रह से कुछ कवितायें- जानकी पुल. 
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१.
सोत 
पिता की उम्र के बारे में
बात होती
तो माँ कहती
इनकी अम्मा बोलती थीं
तीन साल के थे
जब धरती डोली थी
फिर पल्लू मुँह में खोंस हँसती
तीन साल में ही
धरती डोला दिया…
किसी स्‍त्री की जिंदगी में
कितनी होती हँसी ऐसी
जिंदगी अगर वह
सचमुच होती जिंदगी…
२.
अनिवार
रात दिन जुटी रहती
उनकी देखभाल में माँ
इसके बिना
कठिन होता
जी पाना
स्‍त्री का
होना जरूरी
जीवन को सेने सँजोने
बचाने
बढ़ाने के लिए
बचपन और बुढ़ापा
एक से मासूम एक जैसे लाचार
दोनों को चाहिए
वही दुलार वही सँभार वही सरोकार
क्या एक स्‍त्री को
अपने आखिरी वक्त में
मिलेगी
एक स्‍त्री…
बात 
ऐसे ही बैठे रहते
गाल पर हाथ दिये
कुछ नहीं कहते
उन्हें देखने आयीं मौसी
निहार रहीं
मैं तो इन्हें अब भी
उसी रूप में देखता हूँ
जब बोलते थे
पिताजी कहा करते
उसी रूप में
जैसा पहली बार देखा होगा
जब खत किताबत होती थी
पाती में रचे जाते गीत छंद
सन केश सलटाती
मौसी सुनातीं कोई बंद
वही रूप यानी किसी बिसरे गीत का मुखड़ा
साली आयी हैं
कुछ तो बात कीजिये
हम बढ़ावा देते
क्या करें अब
बस
हो गयी बात
हँसते वे सकुचाते
जैसे ठिठके पहले पहल
प्रीत के अंत और शुरुआत
शब्द ज्यादा नहीं देते साथ
छोड़ देते हाथ…
४.
सूचक
पुराना हो चला है
चलता है
तो आवाज करता
यह पंखा
और यह रेडियो
एक हल्की घरघराहट
लगी रहती इसमें लगातार
बजते गीत के आरपार
फिर गीत नहीं
उस विचलन पर टिक जाता ध्यान
उसी तरह होने लगी है आजकल
इस जीवन के भी
चलने की आवाज
अच्छा यंत्र उसे माना जाता
जिसके चलने का
न चले पता…
 ५.
संगत
जहाँ तहाँ
हो जाता
पहुँच पाते कहाँ
ठिकाने
गोबर की तरह
उठाती माँ
कपड़े से रगड़ रगड़
फिर पोंछती
सच्चा संगी
वही
जो वक्त आने
जरूरत पड़ने पर
हो जाये भंगी…
६.
अपूर्ण अविराम
हर शाम
अंतिम प्रणाम
हर भोर
नयी नकोर
एक नया जन्म
नयी टेक
नयी कथा
अपूर्ण अविराम…
७.
भोर के लिए
सवेरा हो गया?
पूछते सरे शाम
क्या सुबह शाम का
भेद मिट गया
यह रात से
डर है
या भोर के लिए
इस उम्र में
जागी
एक नयी ललक
नयी बेचैनी
यह छटपटाहट ही तो
चीरती धुंध को
ले जाती अँधेरे से रोशनी तक
सुबह होती है
और कैसे…
                                                                                                                                            
८. 
बोहनी
उसे क्या पता
सुबह सुबह
पूछने आ गयी
फेरीहारिन
मेथी धनिया पुदीना
कुछ लेना है क्या
नहीं
कुछ नहीं
आज के लिए था
एक ही सौदा
वह हो गया
सौदा एक जीवन का
९.
अनमन
पिता मुक्त होकर चले गये
तो माँ को भी
मुक्ति मिल गयी
अब हर घड़ी
किसी को देखने अगोरने की
माया नहीं
हम बेटों में से
किसी के यहाँ
मन मरजी
आ जा सकती
मेरे पास आयी
तो मैंने आँखें बनवा दीं
जो दिनों से पक गयी थीं
ऑपरेशन के बाद
जाँच के लिए डॉक्टर ने
अक्षर पढ़वाये
वह सब पढ़ गयी
बस सबसे नीचे के
दो छोटे अक्षर
छोड़कर
म और न
मन ही रह गया
मैंने हँसकर कहा
जैसा अकसर होता
स्‍त्रियों में
इतना अपनापन
कि छूट जाता
अपना मन…

 
      

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8 comments

  1. BEHAD MARMIK KAVITAYEN.PREMRANJAN ANIMESH HAMARE SAMAY KE EK ATYANT SAMVEDANSIL KAVI HAIN.YE KAVITAYEN PADHKAR BAHUT YAD AAYE PITA AUR MAA.KALAWANTI,RANCHI

  2. प्रेम जी,
    निर्जीव शब्दों में प्राण फूंक कर आप उन्हें जीवन-रूपी मंच पर किरदार अदा करते पात्रों में सहज ही बदल देते हैं.
    आपकी कवितायें, रिश्तों की शाश्वत जीवन्तता को परिलक्षित ही नहीं कभी-कभी पारिभाषित भ़ी करतीं हैं. खासकर, उन्हें भारतीय परिवेश के अनुसार वैसे ही लिखकर जैसे हम सभी महसूस करते हैं अपने दैनिक जीवन में.
    ऊपर की कविताओं में एक पिता, पत्नी , पुत्र और साली के मध्य का जो सहज वार्तालाप आपने प्रस्तुत किया है वह निश्चित रूप से और कुछ नहीं रिश्तों की रंग-बिरंगी डोर से बुनी और उसमें से झाँकतीं हमारे रग-रग में रची-बसी हमारी अपनी 'जिजीविषा' ही है.
    बहुत बहुत धन्यवाद!

  3. प्रीत के अंत और शुरुआत
    शब्द ज़्यादा नहीं देते साथ
    ______________________________

    प्रेमरंजन उन कवियों में से हैं जिनके यहाँ छोटी छोटी अनुभूतियों से बडे अर्थों की कविताएँ बन जाती है।

  4. उम्दा कविताएं हैं..
    मेरी बधाइयाँ.
    प्रांजल धर

  5. रिश्तों के डोर को इतनी बारीकियों से पकड़ना , समझना सचमुच अदभुत है | आपकी कवितायेँ दूसरों को भी रिश्तों के अहमियत को समझने में मदद करती हैं |
    ऐसे ही अच्छी कविताओं से हमें हमेशा आनंदित करते रहें | बहुत बधाई …..

  6. "…क्या एक स्त्री को
    अपने आखिरी वक़्त में
    मिलेगी
    एक स्त्री…"

    "…स्त्रियों में
    इतना अपनापन
    कि छूट जाता
    अपना मन…"

    पिता के हालात से माँ को समझना, माँ की नजरों से पिता को देखना…बुढ़ापे में स्त्री-पुरूष के संग को समेट लेना. पिता के अंतिम समय को पल-पल जीना. माँ के बुढ़ापे को झांक लेना.
    बहुत सुंदर कविताएं हैं प्रेमरंजन की.

  7. उस दिन के बाद से
    बाहर से लौटकर जब भी
    उतारता हूँ कमीज अपनी

    घर में भर जाती

    गंध पिता के पसीने की

  8. प्रेमरंजन अनिमेष मेरे प्रियतर युवा कवियों में हैं और आप के पन्ने पर उनके संकलन से कुछ स्फूर्तिदायी कवितायेँ पढना- हिन्दी की रूढ़ होती कविता के घिसे-पिटे विषयों से कुछ दूर जाने का अवसर भी! पिता के विगत सान्निध्य के बहाने यह तेज़ी से खोती हुई पारिवारिक-ऊष्मा का पुनर्वास है…प्रिय अनिमेष …लगातार कुछ अच्छा लिखने के लिए मेरा स्नेह! प्रभात जी एक मेहनती मजदूर की तरह 'जानकी-पुल' की नींव को मज़बूत करते जाने का आप का यों सम्पादकीय श्रम व्यर्थ नहीं जा रहा!

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