वरिष्ठ शिक्षाविद प्रेमपाल शर्मा ने शिक्षा को लेकर राजनीतिक पार्टियों, ख़ासकर ‘आप’ से अपील की है. उनका यह सवाल महत्वपूर्ण है कि चुनावों में शिक्षा कोई मुद्दा क्यों नहीं बन पाता है? इससे शिक्षा कोलेकर प्रेमपाल जी के सरोकारों का भी पता चलता है- जानकी पुल
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‘आप’ से अपील
चुनाव सिर पर हैं लेकिन शिक्षा में सुधार का मुद्दा किसी की प्राथमिकता में नहीं हैं। दिल्ली के चुनाव के वक्त आप पार्टी के संकल्प पत्र में पहली बार प्रमुखता से इसे उठाया गया था पर आजाद भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था के बीच जितनी तेजी से ‘आप’ आये उतनी ही तेजी से चले भी गये । हर मायने में एक खेल की सी स्वस्थ स्पर्धा लिये । फिर भी शिक्षा, स्कूल के कुछ कामों में बेहतरी के लिए ‘आप’ की कुछ झलक मिली । जैसे- अपने संकल्प पत्र के अनुरूप सरकारी स्कूलों पर पूरा ध्यान देना और उसी अनुपात में तथाकथित निजी उर्फ पब्लिक स्कूलों की मनमानी के खिलाफ कुछ कदम उठाना । शिक्षा के मसले को इससे पहले किसी भी पार्टी ने कभी इतने व्यवस्थित मंसूबे के साथ अपने संकल्प–पत्र या घोषणा–पत्र में शामिल नहीं किया था । पांच सालों में पांच सौ सरकारी स्कूल खोलने का संकल्प ‘आप’ ने किया । यानि कि हर वर्ष सौ सरकारी स्कूल । जिस अनुपात में दिल्ली पर जनसंख्या का दबाव बढ रहा है और सरकार से समानता के रास्ते पर बढ़ने की जो उम्मीद की जाती है उसका इससे बेहतर विकल्प नहीं हो सकता और इसीलिए दिल्ली में सरकार बनने के तीसरे दिन ही सरकारी स्कूलों को ठीक करने के काम की शुरूआत हो गई । वालंटियर्स ने स्कूलों का निरीक्षण किया और मोटा-मोटी जो खामियां दिखाई दीं मसलन बच्चों के बैठने के समुचित इंतजाम, पानी, पंखे की व्यवस्था, साफ-सफाई, लड़कियों के लिए टायलेट, शिक्षकों की पर्याप्त संख्या आदि-आदि । इसी रफ्तार से बढ़ने की जरूरत, अपेक्षा थी वरना पहले तो कमेटी बनने में ही महीनों लग जाते हैं, फिर कमेटियों के निरीक्षण चलते हैं, फिर रिपोर्ट पर बहस और तब तक पांच साल पूरे हो जाते हैं । ऐसी ढिलाई के चलते सरकारी स्कूल बंद होते चले गये और उसी अनुपात में निजी स्कूल बढ़ते गये । ‘आप’ ने पहला कदम तो उठाया ।
दूसरा कदम जो दिल्ली की जनता को भाया वह था निजी स्कूलों में दाखिले की प्रक्रिया को आसान करना । शुरूआती कदम रहा- फार्म की कीमत । शिक्षा खुलेआम एक धंधा बन चुकी है । फार्म पांच सौ, हजार या उससे भी ज्यादा का होता है । क्या कीमत होगी तीन पन्नों की ? लेकिन दशकों तक ये मनमानी चलती रहीं । दिल्ली की कोई पार्टी कभी इसके खिलाफ बोली ? ‘आप’ के इशारों से ही निजी स्कूल रास्ते पर आने के लिए तैयार हो गये । खुशकिस्मती की बात यह रही कि उन्हीं दिनों दाखिले के लिए बनाए जाने वाले कानूनों की जो प्रक्रियाएं पिछले पांच-सात सालों से चल और टल रही थीं, कुछ आपका असर, कुछ न्यायालयों की दखलअंदाजी का कि वह भी ‘आप’ के सत्ता संभालते ही लागू हो गईं । संस्थाएं सत्ता का आदेश आंखों से ही समझ जाती हैं । दाखिले के लिए सबसे महत्वपूर्ण घटक माना गया घर से स्कूल की दूरी, उसके बाद भाई-बहन का वहां पढ़ना । क्या इतनी बुनियादी बात के लिए भी जनता को सड़कों पर आने की जरूरत होनी चाहिए ? सैमिस्टर प्रणाली या तीन से चार साला पाठ्यक्रम करते वक्त तो आपको अमेरिका, इंग्लैंड की दुहाई देते हो, नन्हें-मुन्ने बच्चों के दाखिले को आप जंगल-राज की दया पर छोड़ देते हो । क्या हर बच्चे का अधिकार नहीं है कि वह नजदीक के स्कूल में जाए ? क्या जिस स्कूल को सरकार ने मुफ्त में इतनी महंगी जमीन दी है, उनकी ऐसी हेठी कि वे ठगाई भी करें और दाखिले में दुत्कारें भी ? काश ! ‘आप’ की उम्र कुछ और लम्बी होती तो दूसरा कदम भी सार्थक नतीजे तक पहुंच जाता वरना गांगुली समिति से लेकर न जाने कितनी बार न्यायालयों का हस्तक्षेप हुआ और फिर भी राजनीतिक सत्ता के प्रांगण में फलने-फूलने वाले इन स्कूलों का दंभ बढ़ता ही जा रहा है ।
लेकिन इन बुनियादी कदमों के अलावा ‘आप’ से कुछ और भी अपेक्षाएं थीं या हैं । उनमें सबसे पहले है अपनी भाषाओं में पढ़ने-पढ़ाने की सुविधा । दिल्ली क्योंकि हिन्दी भाषी क्षेत्र में है इसलिए यह जरूरी बनता है कि न केवल सरकारी स्कूलों में बल्कि निजी स्कूलों में भी बच्चों के सामने दोनों भाषाओं में पढ़ने-पढ़ाने का विकल्प उपलब्ध रहे । सिर्फ विकल्प से काम नहीं चलेगा ऐसी व्यवस्था हो कि अंग्रेजी माध्यम के लिए कोई जोर-जबरदस्ती न की जाए । ‘आप’ ने तो सत्ता संभालने से पहले ही जनता की राय जानने के अभूतपूर्व उदाहरण पेश किये हैं तो क्या कानूनन स्कूल के स्तर पर इन शिक्षक,अभिभावकों या बच्चों की राय के कोई मायने नहीं होते ? कहने की जरूरत नहीं कि दिल्ली में ही अंग्रेजी के दबाव में कई बार मासूमों की पिटाई होती रहती है । एक घटना में तो चार वर्ष पहले एक गरीब परिवार की बच्ची की मौत भी हो गई थी क्योंकि उसे टीचर ने इतना डांटा और मारा कि बच्ची को अस्पताल में भर्ती होना पड़ा और अंतत: जान चली गई । जिन गरीबों के मां-बाप को अंग्रेजी नहीं आती, जो झुग्गी-झोपडि़यों के परिवेश में रहते हैं वहां कौन उन्हें अंग्रेजी में होमवर्क कराएगा ? क्या जीने की तरह अपनी भाषा में पढ़ने-पढ़ाने का भी मूल अधिकार नहीं होना चाहिए ? क्या दिल्ली में कोई ऐसा सर्वेक्षण हुआ है कि निजी स्कूलों में कितने बच्चे अपनी भाषा हिन्दी माध्यम में पढ़ रहे हैं ? हो सकता है कि बहुत निराशाजनक स्थिति हो क्योंकि शायद ही किसी निजी स्कूल में हिन्दी माध्यम का विकल्प बचा हो । क्या दुनिया भर में कोई ऐसा देश हो सकता है जहां स्कूली शिक्षा में अंग्रेजी इतनी क्रूरता से लादी जा रही हो ? आम आदमी के साथ खड़े होने का दावा करने के लिये यह सबसे बड़ी चुनौती है।
लेकिन यहां तो सरकारें दशकों से बजाए इन निजी स्कूलों में अपनी भाषा में पढ़ने-पढ़ाने की सुविधा के उल्टे उन्हीं की तर्ज पर सरकारी स्कूलों में भी अंग्रेजी माध्यम करने की कोशिश शुरू कर चुकी हैं इस दुश्प्रचार की आंधी में उड़ते हुए कि सरकारी स्कूलों में बच्चे कम होने का कारण अंग्रेजी का कम होना है । दिल्ली के कुछ सरकारी स्कूलों में पहली कक्षा से अंग्रेजी की शुरूआत हो भी गयी है लेकिन उसके परिणाम बच्चों के विकास पर बहुत खतरनाक साबित हो रहे हैं । ‘आप’ से अपील है कि इसे तुरंत रोका जाये।
पिछले कुछ वर्षों से दक्षिण के राज्य अपनी भाषा को जानने और पढ़ने पढ़ाने के लिये बड़े सकारात्मक ढंग से प्रयत्नशील हैं। कर्नाटक सरकार ने अपने स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों को कन्नड़ सीखना अनिवार्य बनाया है। यूं मामला सुप्रीम कोर्ट की बड़ी बेंच के विचारार्थ अधीन है लेकिन संदेश साफ है। तमिलनाडू तो और भी आगे है जहां तमिल माध्यम से स्कूलों में विज्ञान पढ़ने वाले लगातार बढ़ रहे हैं। यदि तमिलनाडू सरकार तमिल माध्यम से पढ़़ने वाले विज्ञान के विद्यार्थियों के लिए इंजीनियरिंग और मेडिकल में दाखिले करा सकती है तो दिल्ली सरकार क्यों नही ? इंद्रप्रस्थ, अम्बेडकर विश्वविद्यालय या दिल्ली के दूसरे इंजीनियरिंग कॉलेजों में तमिलनाडू की तरह बारहवीं क्लास के नंबरों के आधार पर दाखिला मिलने लगे तो बहुत सारे सरकारी स्कूलों के गरीब और हिन्दी माध्यम से पढ़ने वाले बच्चों को इसका फायदा वैसे ही मिलेगा जैसे कोठारी आयोग की सिफारिशों को लागू करने से प्रशासनिक सेवाओं की भर्ती में मिला था ।
कॉलेज, विश्वविद्यालय की शिक्षा के माध्यम पर भी बिना वक्त खोये विचार की जरूरत है । दिल्ली में लगभग अस्सी कॉलेज हैं लेकिन पिछले दो दशक से हिन्दी माध्यम से पढ़ने वाले बच्चे लगातार कम हो रहे हैं । याद रखिए इनमें से ज्यादातर बच्चे उत्तर प्रदेश,बिहार जैसे राज्यों से हिन्दी माध्यम में पढ़कर आए हैं और दिल्ली पहुंचकर मजबूरी में उन्हें अंग्रेजी माध्यम लेना पड़ रहा है । सामाजिक विषयों जैसे- इतिहास, राजनीति शास्त्र, दर्शन शास्त्र अंग्रेजी में माध्यम लेने पर उनकी गति नहीं चल पाती और नतीजतन बड़ी संख्या में फेल भी हो रहे हैं । पिछले वर्ष इतिहास विषय में असफल घोषित किये गये सैंकड़ों विद्यार्थियों ने दिल्ली विश्वविद्यालय के उपकुलपति के यहां धरना भी दिया था । बावजूद इसके विश्वविद्यालय ने हिन्दी माध्यम में पढ़ने-पढ़ाने के बारे में कोई कदम नहीं उठाया । शिक्षाविद दौलत सिंह कोठारी समिति ने 1976 में जब सिविल सेवा परीक्षा में अपनी भाषाओं में उत्तर देने की छूट की सिफारिश की थी तब उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय के आंकड़ों का सहारा लेते हुए यह लिखा था कि इतिहास, भूगोल, अर्थशास्त्र, राजनीति शास्त्र में हिन्दी माध्यम से पढ़ने वाले छात्रों को यदि प्रशासनिक सेवाओं में उत्तर लिखने की छूट नहीं दी जाती तो यह उनके साथ अन्याय होगा । सत्तर के दशक में यदि बीस प्रतिशत छात्र हिन्दी में कर सकते थे तो क्या इनकी संख्या और नहीं बढ़नी चाहिए थी ? लेकिन उच्च शिक्षा में अपनी भाषाओं की प्रगति उल्टी दिशा में चल रही है । सत्तर के दशक में जब भारतीय प्रशासनिक सेवाओं में अपनी भाषाओं में लिखने की छूट दी गई तो हिन्दी माध्यम में मौलिक किताबें भी सामने आई । गरीब, पिछड़े और पहली पीढ़ी के साक्षर नौजवान लगातार आई.ए.एस. आदि परीक्षाओं में सफल होते गये हैं । हालांकि देश की दूसरी राष्ट्रीय परीक्षाओं वन सेवा, इंजीनियर सेवा,चिकित्सा सेवा सहित न्यायिक सेवाओं में अभी भी अंगेजी के साथ-साथ हिन्दी और दूसरी भाषाओं का विकल्प नहीं है । स्टाफ सलेक्शन कमीशन,बैंक या दूसरी परीक्षाओं में भी अंगेजी के बराबर ही हिन्दी को तरजीह दिए जाने की जरूरत है । शिक्षा, संस्कृति और प्रशासन के सारे प्रश्न इससे हल हो जायेंगे ।
हर तीसरे वर्ष हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनाने की बात उठती रहती है। एक दल तो दशकों तक इस बाजे को बजाता रहा कि उनका नेता संयुक्त राष्ट्र में हिन्दी में बोला वहीं दूसरे दल के पिछलग्गू और उनके ढोलची भी विश्व हिन्दी सम्मेलन के नाम पर हर बार एक नई विदेश यात्रा के ख्वाब में डूबे रहते हैं। देश में हिन्दी को फैलाने का काम कुछ फर्जी समीतियों, राजभाषा विभाग पर छोड़ दिया गया है जिनका व्यथा कथा का सार यह है कि हम और क्या कर सकते हैं। यह भी कि यदि हिन्दी फैल गई तो राजभाषा विभाग भी बंद हो जायेगा तो हम अपने पैरों पर कुल्हाड़ी क्यों मारे। दिल्ली का एक गिरोह जब-तब हिन्दी की संस्थाओं की बदोलत उपलब्ध धन के बूते विश्व कविता की कुलांचे भरता रहता है। विश्वविद्यालय और स्कूलों में से गायब हिन्दी का पक्ष उन्हें भी नहीं दिखता। शायद ही दुनिया में भाषा के नाम पर ऐसा नाटक कहीं देखने को मिले। आपसे अपील है कि इस नाटक को बंद कर हिन्दी को स्कूलों, कॉलेजों में उसकी जगह दिलायें। संयुक्त राष्ट्र की चिंता में पतला होने की जरूरत नहीं है।
स्कूलों में केवल शिक्षक ही नहीं चाहिये पुस्तकालय भी उतने ही अनिवार्य है जितना टायलेट, पानी या पंखे की व्यवस्था। शरीर के अंगों की तरह स्कूल नामक संस्था के लिए सभी अनिवार्य हैं। लेकिन दिल्ली समेत हिन्दी प्रदेशों के स्कूलों में न पुस्तकालय काम कर रहे हैं, न प्रयोगशालाएं। समझने की जरूरत है कि पुस्तकालय बच्चों को शिक्षक की तरह बेहतर बनाने में बहुत मददगार होंगे। वैज्ञानिक चेतना बनाने में विज्ञान के पाठ्यक्रमों को सहज, सरल और स्कूल के प्रयोगशालाओं से जोड़ने की जरूरत है। समाज में फैल रहे धर्म, जाति को नष्ट करने में वैज्ञानिक चेतना रामबाण साबित होगी।
‘आप’ से उम्मीद इसलिए है कि इसके अग्रिम पंक्ति के नेताओं में अपनी भाषाओं के प्रति एक आत्मविश्वास की झलक दिखी है । आपका संकल्प पत्र पहले हिन्दी में आया अंग्रेजी में बाद में । मीडिया और दूरदर्शन के चैनलों की बहस, बातचीत में भी कई जाने-माने अंग्रेजी के पत्रकार प्रश्न अंग्रेजी में करते थे और जवाब सहज, सरल हिन्दी में मिलता था । इसका असर होता था कि अंग्रेजी का पत्रकार खुद हिन्दी में उतर आता था भाषा, शिक्षा, संस्कृति के सभी मुद्दों पर हमें आप से उम्मीद है । ‘आप’ से अपील में सभी दल और संगठन शामिल हैं । । क्योंकि शिक्षा, संस्कृति के प्रश्न हम सभी के हैं ।
दिनांक : 17/4/14
प्रेमपाल शर्मा
96, कला विहार अपार्टमेन्टस,
मयूर विहार,फेज–1 एक्सटेंशन, दिल्ली–91
टेलीफोन नं– 22744596 (घर)
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