युवा लेखक चंदन पाण्डेय ऐसे लेखकों में हैं जो विभिन्न मसलों पर अपनी स्पष्ट राय समय-समय पर जाहिर करते रहे हैं. इस बार उन्होंने फांसी और उसको लेकर चल रही राजनीति पर लिखा है- जानकी पुल.
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दाग का एक पयाम है :
” कुछ देख रहे हैं दिल-ए-बिस्मिल का तड़पना
कुछ गौर से क़ातिल का हुनर देख रहे हैं.”
आतंकी मीडिया का भय, लोकतंत्र के शवासन वाली राजनीति या कूटनीति या जनता का अन्धराष्ट्रवाद – इन तीनों में से कोई ऐसी वजह इतनी मजबूत नहीं दिखती जिसे किसी के जान पर बनने दिया जाए. कसाब का अपराध निदनीय और दण्डनीय, दोनों, था. उसकी कार्र्वाई, आज की चालू परिभाषा में, देश की सम्प्रभुता पर हमला थी, जैसे सत्यजीत राय की फिल्मों के बारे में कहा जाता है कि वो देश को बदनाम कर नाम कमाते थे. मेरा मधुर तर्क यह है कि जिस देश की आबरू एक फिल्म मात्र से मिट्टी में मिल जा रही हो, उसे मिट्टी में मिलने देना चाहिए. बावजूद इसके, पता नहीं क्यों, ऐसा महसूस हो रहा है कि कांग्रेस ने मृत्युदंड वाली सजा का फायदा उठा लिया. कहा यों जाए, अपने नफे के लिए, हत्या की सत्ताकेद्रित परिभाषा को जरा हिला डुला कर देखें तो, अपराधी के नाम से मशहूर किए गए एक इंसान की हत्या कर दी.
कोई पूछेगा – क्यों ?
अपनी बुलन्द राय यह है कि सजाए-मौत पर तत्काल रोक लगनी चाहिए. बिना किसी लाग लपेट के. आप कैद / उम्र कैद की सजा को कठिन कर दें, बेशक. परंतु अगर फाँसी वाले सजा को ध्यान में रख कर बात करें तो पायेंगे कि देश की सम्प्रभुता पर हमला जितना ही निन्दनीय अपराध राष्ट्राध्यक्ष, प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री आदि की हत्या है. इसी देश की अदालत ने स्वर्गीय श्री राजीव गान्धी की हत्या के लिए तीन तमिल युवकों को आरोपी ठहराया, उन्हें सजाए-मौत मिली, उनकी अपील दर अपील खारिज होती गई, राष्ट्रपति ने भी क्षमा नहीं दी और अंतत: अक्टूबर 2011 के किसी तारीख को उनके फाँसी की तारीख तय हुई. भला हो तमिल जन मानस का जिसने अपने प्रचंड विरोधी स्वभाव के कारण उन्हें फाँसी पर चढ़ने ही नहीं दिया. सरकार बहादुर को मुँह की खानी पड़ी. हू-ब-हू यही किस्सा पंजाब में बेअंत सिंह के हत्यारोपी बलवंत सिंह रजवाना पर भी दुहराया गया. उसके मौत का, गालिबन, वह दिन 30 मार्च 2012 तय हुआ था पर लोगों ने उसे फाँसी नहीं चढ़ने दिया तो फिर नहीं ही चढ़ने दिया. सरकार बहादुर, एकदम मुहाविरे की मानिद, धूल चाट गई. क्यों ऐसा हो सका, क्या इसका अर्थ यह नहीं कि कांग्रेस सरकार के लिए उसके पूर्व प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री का कोई मोल नहीं. सामंती शब्दों में, अपने अग्रणी नेताओं का बलिदान व्यर्थ जाने दिया ?
आज दु:ख इस बात का है कि फाँसी की सजा का फायदा कांग्रेस ने वोट बैंक की राजनीति के लिए उठा लिया. गुजरात का चुनाव नजदीक है. शीतकालीन सत्र में विरोधियों को चुप करना है. वोटबैंक की राजनीति अगर सकारात्मक कारणों के लिए है तो एक बार विचार किया भी जा सकता है पर फाँसी देकर, हत्या कर, यह राजनीति करना कहाँ तक उचित है ?
यह सारी बातें इसलिए कहना पड़ रहा है क्योंकि भारत में फाँसी की सजा सामान्यत: गरीब या कमजोर तबके के अपराधियों को होती है. अगला निशाना अफजल गुरु होगा. उस पर सारे आरोप साबित भी नहीं हो पाए हैं. वह अपराधी है या नहीं, यह एक विवेचनीय मुद्दा है पर जिन कानूनों का सहारा लेकर आज तक कोई रसूख वाला सजायाफ्ता न हुआ, उन्हीं कानूनी जाल में अफजाल पर सारे आरोप साबित नहीं हो पाए हैं, फिर भी, संसद जैसी जगह पर हमले के आरोप में उसे, आनन-फानन शब्दयुग्म को अर्थ देने मात्र के लिए, फाँसी की सजा सुना दी गई है. यह तय है कि ये सरकारें वैसे किसी भी बहुसंख्यक को कभी भी फाँसी की सजा नहीं सुना पाएगी जिसके साथ गलत या सही कोई राजनीतिक पार्टी जुड़ जाए. धनंजय, जो ईश्वर को मानते हैं उनके ईश्वर धन्नजय की आत्मा को शांति दें, के साथ अगर कोई दल आ गया होता तो उसका जघन्य अपराध भी शायद ये सरकार माफ कर देती.
फाँसी की सजा बन्द हो,इस विशाल उम्मीद के साथ एक छोटी पर वस्तुपरक उम्मीद यह कि, इन बदमाश सरकारों का अगला निशाना कहीं अफजल न हो. अपराधियों से कोई सहानुभूति हो न हो, घृणा तो बिल्कुल नहीं. सजा हो, अपराध स्वीकार हो और सर्वाधिक वीभत्स सजा – अकेले कोठरी में जीवन काटने की सजा, अगर दे ही दी जाए किसी को, तो वो किसी मृत्यु से कम नहीं होगी.
कसाब की इस लगभग जीत पर ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ी एक कथा याद आ रही है : एक आदमी को सजाए मौत हुई. कयामत के दिन उससे उसकी आखिरी इच्छा पूछी गई. उसने बताया, अपनी पत्नी से मिलना चाहता हूँ. तत्पर लोग पत्नी लिवा लाए. पत्नी अपूर्व सुन्दरी थी. उसके गले मिलते ही, जब तक लोग कुछ समझ पाते, पति ने पत्नी की हत्या कर दी. अधिकारी ने वजह जाननी चाही. सजायाफ्ता ने बताया, मैं नहीं चाहता था कि मेरी मृत्यु के बाद मेरी पत्नी किसी और के साथ रहे, अब मैं सुकुन से मर सकूँगा. अधिकारी ने गौर से सजायाफ्ता के जवाब सुने, फिर, क्योंकि वह समझदार अधिकारी था, उसने सजायाफ्ता की सजा बदल दी, उसके कान काट लिए और उसे देश निकाला दे दिया गया. चूँकि अब वो मरना चाहता था पर उसे मारने वाला कोई नहीं था.
in bichhoo jaise sawalon ko kam hi log chhone ka sahas karte hai' aur aapne itni sadgi se is pr likha hai yeh attitude kamal ka hai,khaskar is daur me.chota ir bahut hi sargarbhit! chandan iske liye badhaai!
in bichhoo jaise sawalon ko kam hi log chhone ka sahas karte hai' aur aapne itni sadgi se is pr likha hai yeh attitude kamal ka hai,khaskar is daur me.chota ir bahut hi sargarbhit! chandan iske liye badhaai!
भाई चन्दन जी, आपकी कहानियों से भी ज़्यादा सम्मोहक है ये बयान। बहुत तार्किक बातें बहुत सरल शब्दों में।
बहुत सारगर्भित बात कही है चंदन ने। सत्ताधीन तो भुना ही रहे हैं, तुर्रा यह कि मीडिय भी उन लोगों की बातें सुनवा रहा था जिनके घर वाले इस हादसे में मरे। मेरी समझ में नहीं आता है कि अगर आपको अपनों के मरने का दु:ख है तो आप दूसरों की फ़ाँसी पर कैसे इतने खुश हो सकते हैं। कैसे आप अपनों के लिए संवेदनशील हो सकते हैं और दूसरों के लिए असंवेदनशील? क्या संवेदना भी अस्लेक्टिव होती है? या तो आप संवेदनशील है या फ़िर नहीं हैं।
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