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देश छूटकर भी कहाँ छूट पाता है

वरिष्ठ लेखिका सूर्यबाला के उपन्यास ‘कौन देस को वासी: वेणु की डायरी’ की यह समीक्षा समीक्षा लिखी है मधु गुप्ता ने। मधु गुप्ता इंदिरा गांधी महिला महाविद्यालय में लगभग पैंतीस वर्ष तक अध्यापन के बाद स्वतंत्र लेखन कर रही हैं। आप राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित इस उपन्यास की समीक्षा पढ़िए-

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आज़ लगातार अपनी व्यर्थ की विवशताओं और उत्तरदायित्वों के मध्य रात्रि के निविड़ एकान्त में पूरी गहनता के साथ सूर्यबाला का कालजयी उपन्यास ‘कौन देस को वासी, वेणु की डायरी पढा़’। दस वर्ष की अटूट लगन व कठोर परिश्रम की उपज है यह उपन्यास। अनवरत बहती भावधारा और सुंदर भाषा में एक विस्तृत वैश्विक फलक को समोये यह स्वयं में साहित्य की अनूठी कृति है। बहुत सहजता व सुकुमारता से कथ्य की निरंतरता बनाए रखते हुए सूर्यबाला ने पौर्वात्य-पाश्चात्य की सभ्यता और संस्कृति के द्वन्द्व को बहुत गहनता और कलात्मकता से उकेरा है।

भारत वर्सेज अमेरिका,भावप्रवणता वर्सेज यथार्थवादिता, सम्मिलित परिवार वर्सेज एकल परिवार की वैयक्तिकता के अहम प्रश्नों का निरीक्षण करता हुआ यह उपन्यास पाठक को अपने साथ बहाता ले चलता है।

इस सम्पूर्ण उपन्यास का कथानक एक निम्न मध्यवित्त परिवार के इर्द-गिर्द घूमता है, जिसमें माता-पिता के साथ साथ विशाखा, वेणु, वृन्दा, वसु नाम की चार संतान हैं। परिवार की मां एक अत्यन्त संवेदनशील, उदार, वात्सल्यमयी, और स्नेहिल महिला हैं जिन्होंने हर संबंध की गरिमा बनाकर रखा है। समस्त परिवार उन्हीं के कारण एक सूत्र में बंधा हुआ है। सारा परिवार आपसी लगाव और जुड़ाव से गुंथा हुआ है। अभाव के मध्य भी भाव का अभाव नहीं है।

घर का लाडला वेणु अत्यन्त मेधावी छात्र है और सबकी आशाओं का केन्द्र है। महत्वकांक्षी माता-पिता अपने सीमित साधनों में कतर ब्योंत करके उसे अपनी जमानिधि में से रुपए निकलवा कर एम.एस. करने के लिए अमेरिका भेजने का निश्चय करते हैं।

घर का एक मात्र लाल महत्वाकांक्षाओं के महाअभियान पर जो जा रहा है…सारा परिवार उसके जाने की यथासंभव तैयारी में जुट जाता है। बिछुड़ने की व्यथा को न दिखा पाने की होड़ा-होड़ी में सारा परिवार अभिनय पर उतर आया है, और अन्ततः भरे मन से वेणु हवाई जहाज से नयी धरती को थहाने के लिए निकल पड़ता है…।

उपन्यास का नायक वेणु माधव शुक्ला भारतीय सभ्यता और संस्कृति में रचा-पगा, अत्यन्त संवेदनशील और मेधावी युवा है। अमेरिका में वह अपने जैसे ही अन्य छात्रों के साथ बेसमैंन्ट में रहकर, स्वयं अपनी रोजी-रोटी का जुगाड़ कर बहुत जल्दी स्वयं समर्थ बन जाता है। उसके अन्य मित्र भी इस संघर्ष में शामिल हैं। शीघ्र ही अपने घर बहुत से उपहार और डाॅलर लेकर जाता है। धन तो उस घर की आवश्यकता भी है और अभाव से निकलने का साधन भी, जिससे वह वृन्दा का विवाह धूमधाम से कर पाता है। भारतीय परिवार की कन्या मेधा से विवाह करवा कर वापस अमेरिका जाता है।

मेधा-एक एकल परिवार की बहुत व्यवहारिक, अपने अधिकारों के प्रति अतिरिक्त सजग, रोमांटिक व आधुनिकतम स्त्री का प्रतिनिधित्व करती है। उसका अमेरिका के प्रति झुकाव, भौतिक वस्तुओं को एकत्रित करने का उत्साह, शीघ्रातिशीघ्र अमीर बन जाने की अदम्य लालसा है। इसके बावजूद वह अपने पति से प्यार करती है, नौकरी करके आत्मनिर्भर बनाकर दो बच्चों के साथ पति को यैलो स्लिप मिलने के बाद भी हिम्मत नहीं हारती है, और अपने अकूत प्रयासों से घर का खर्च चलाने में कामयाब होती है।

अन्य प्रमुख पात्र हैं पिता प्रभाकर; निम्न मध्यवित्त परिवार में ब्याही विशाखा; वेणु के अप्रतिम योगदान के कारण उच्च मध्य वर्ग में ब्याही वृन्दा; भाई-भाभी के व्यवहार से दुखी आत्मनिर्भर बनी, अपनी राह खुद बनाने वाली छोटी बहन वस; वेणु के मित्र और दोस्त कात्यायनी—उपन्यास को आगे बढ़ाने में योगदान देने वाले गौण पात्र—सबका निर्वहन लेखक ने बहुत खूबसूरत तरीके से किया है।

इस उपन्यास के सुदीर्घ अवधि में सृजन के मूल में लेखिका की बहुत बड़ी चिंता, बहुत वृहद कन्सर्न अपना देश है। बहुत बड़ी विडंबना है कि देश की प्रतिभा निर्यातित होकर अन्य देशों को समृद्ध कर रही है और प्रतिकार में उस देश की खंडित परम्पराओं को हम अनायास ही आयातित करके अपनी समृद्ध आस्थाओं से दूर हो रहे हैं। लेखिका मानती है कि अमेरिका में यदि भारत बसता है तो वह अपने संस्कार और संस्कृति से उस देश को समृद्ध करता है, परन्तु अमेरिका यदि भारत में बसता है तो हमारी संस्कृति छीज जाएगी, हमारा अवमूल्यन होता चला जाएगा और हम धन से चाहे सम्पन्न हो जाएं,अपनी मानसिक और भावनात्मक व आध्यात्मिक शक्ति से विपन्न हो जाएंगे।

लेखिका का मानसिक कष्ट यह जान पड़ता है कि नई पीढ़ी की आकांक्षाओं में सिर्फ और सिर्फ बहुत सारा धनोपार्जन ही है ताकि एक बेहतरीन जिन्दगी जी सकें,जबकि अमेरिका गए अनेक प्रवासी डाॅलर के लिए भीतर ही भीतर अनेक संग्राम लड़ते हैं, कैरम की गोटियों को छिटका देने वाली स्थितियां हैं पर निर्मम चाहतें भी हैं।

‘लालसाओं के चक्रवात में फंसे जब हम अपनी धरती छोड़ते हैं,

तो कब तक और कितनी वह छूट पाती है हमसे? अपने देश में रहते हुए हम क्यों नहीं कर सकते उसे महिमा मंडित?’ पूरे उपन्यास का सारांश हैं ये प्रश्न-भरी पंक्तियां। भारत और अमेरिका दो ध्रुवांत देश… दोनों देशों के मूल में एक ध्रुआंत भिन्नता। एक विकासशील, दूसरा पूर्ण विकसित; एक की सामाजिकता में परिवार में जुड़ाव पूज्य, दूसरे में वैयक्तिकता, खंडित परिवार, अपने तक सीमित जीवनचर्या का चरम। इन दो भिन्न संस्कृतियों और सभ्यताओं के बीच फंसी नई पीढ़ी का केवल भौतिक उपलब्धियों को अपना प्राप्य मान लेना कहां तक सही है? मात्र ये उपलब्धियां, बदले में प्राप्त संत्रास, लालसाओं का घना जंगल, आंतरिकता और वाह्य भौतिकता का द्वंद्व…..इस असह्य कष्ट को अभिव्यक्त करता लेखक का लेखकत्व। पूरे उपन्यास में यह दुख विभिन्न मनःस्थितियों से प्रकट होता है…मन की गहनतम आन्तरिकता को ठकठकाता हुआ।

उपन्यास की भाषा लेखिका के सूक्ष्मतम भावों की अनुगामिनी है। भाषा व लेखन शैली में अजस्र प्रवाह, अनुपम सौंदर्य व सौष्ठव है।भाषा पात्रों के सूक्ष्म मनोभावों की संवाहिका है

उपन्यास का अन्त बहुत सुखद और सुंदर है –

“तो यह खुशी मैं तुम्हें बांट रहा हूं मां! बहुत छोटी-सी सही, पर इस खुशी में मैं और मेधा बराबर से शरीक हैं। तुम्हीं ने तो सिखाया है,किसी एक पल का साथ,किसी एक पल की भी खुशी,नगण्य नहीं हुआ करती।कभी कभी तो ये उम्रभर उजाला किते रहती है। हमारे मन की दुनिया आलोकित रहती है -इन कन्दीलों से…इस पूरे विश्व में हम कहीं रहें-किसी जाति, धर्म,वर्ण के नाम से-क्या फर्क पड़ता है,सिवा इसके कि हम कितने मनुष्य बने रह पाए हैं…।”

मधु गुप्ता

 
      

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