आज राजेंद्र यादव का जन्मदिन है. उनके ऊपर बहुत आत्मीय संस्मरण लिखा है युवा लेखिका कविता ने. जानकी पुल की ओर से उनको शतायु होने की कामना के साथ- मॉडरेटर.
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अब जबकि मैं उनसे बहुत दूर आ गई हूं, उन्हें उनकी यादों के जरिये समझने का यह एक अच्छा मौका है और इस निर्जन में पूरा का पूरा नहीं तो बहुत हद तक सुखकर भी. पर मैं क्या करूं इन स्मृतियों का जो दृश्यों की तरह चली आती हैं, उनकी ही भाषा में कहूं तो एक के बाद एक धकापेल और बेतरतीब. और मेरी कलम हर बार उठने के बावजूद थमी रह जाती है, वहीं की वहीं… कोई तो क्रम हो, कोई तो सिर-पैर. पर इतना सलीका ही सीख लें तो स्मृतियां स्मृतियां हीं कहा हो.
यादें बहुत सारी हैं. हां, यादें हीं. हालांकि उन्हें यादें या कि स्मृतियां कह कर संबोधित करते हुये कलम थरथराती है जुबां की तरह… स्मृतियां तो उनकी होती है जो… पर राजेंद्र जी हैं और हमेशा रहें हमारे भीतर यही प्रार्थना हमेशा गूंजती है.
कई बार गुस्सा आता है कि मुझे तो उनसे बात भी नहीं करनी. आखिर मैं ही क्यों फोन करूं उन्हें. सिवाय मेरे जन्मदिन और नववर्ष के वे क्यों नहीं करते मुझे फोन… इतने-इतने लोगों को तो कितनी-कितनी बार फोन, मैसेज… राकेश मेरे गुस्से की आग में घी डालते है, अपने सोशल नेटवर्किंग के जरिये मिले खबरों से. फलां से उन्होंने कहानियां मांगी… फलां की कहानी पर उसे फोन किया… यह कहा.. फलां को आजकल हमेशा फोन…
मेरा गुस्सा सातवें आसमान पर है… मैं कभी नहीं करूंगी उन्हें फोन… इसी बीच राकेश ने उन्हें फोन लगा दिया है… मैं न न करते हुये फोन हाथ में ले लेती हूं… कविता…. जी… कैसी है… मैंने तो सोचा था कि आप हमेशा की तरह यह कहेंगे कि फोन क्यों नहीं करती, कहां मर गई तो यही कहूंगी कि हां मर गई… अरे नाराज है क्या… चल मुझे माफ कर दे मेरी मां… मेरा गुस्सा क्षण भर में पता नहीं कहां चला जाता है. हिदायतों की फेहरिश्त न जाने कहां से निकलने लगती है… आपको खांसी हो रही है, पाईप तो ज्यादा नहीं पी रहे आजकल… आपकी तबीयत तो ठीक है न..? क्या हुआ…? अरे तुमसे किसने कह दिया…राकेश ने बताया कि आज आप दफ्तर भी नहीं गये… कुछ काम था… डॉक्टर के यहां भी जाना था… मुझे मालूम है आजकल वे घुटने के बेइंतहां दर्द से परेशान हैं, लेकिन खुद के दर्द की दास्तान जो सुनाये वह राजेन्द्र यादव नहीं हो सकते… वे बात बदल देते हैं क्या लिखा… उपन्यास का क्या हुआ…
…दिल्ली आये महीनों हो गये हैं. हंस बहुत पहले से पढ़ती रही हूं लेकिन हंस के दफ्तर जाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही. एक दिन हिम्मत कर के फोन करती हूं…मेरी आशा के विपरीत फोन पर खुद राजेन्द्र जी हैं… अपना नाम बताने के बाद मिलने के लिये समय मांगती हूं… उत्तर मेरे लिये निराशाजनक है… उन्हें प्रसार भारती जाना है, आज नहीं मिल सकते… उन्होंने कल बुलाया है.. मैं उदास मन से फोन रखती हूं…कल तो… मुझे अखबारों के दफ्तर लेख पहुंचाने जाना है… फिर न जाने कब…
उस कल से भी पहले का एक पल आ धमकता है मेरी स्मृतियों में. एक दृश्य मेरी आंखों के आगे से गुजरते-गुजरते थम जाता है. साहित्य कादमी के वार्षिकोत्सव में लंच टाईम में वे भीड़ से घिरे हैं. हंस रहे हैं… ठहाके लगा रहे हैं. मैं सोचती हूं बल्कि ठानती हूं मन ही मन कि आज बल्कि अभी तो उनसे बात करनी ही है मुझे. मैं धकेलती हूं भीड़ में खुद को जो उन्हें चारों तरफ से घेरे हुये है. मैं खड़ी रहती हूं भीड़ के छंटने का इंतजार करती हुई. अब इक्का-दुका लोग बच गये हैं बस… जी,मेरा नाम कविता है… कहो कविता जी क्या कहना है… वे अपनी प्रचलित छवि के विपरीत कुछ निस्पृह से हैं… मैं मुज़फ्फरपुर की हूं… पिछले छ: महीने से दिल्ली में हूं… वे थोड़े सजग होते हैं… फिलहाल क्या कर रही हो?… बस फ्री लांसिंग…हंस लगातार पढ़ती रही हूं… उनके चेहरे पर एक अविश्वास है (बाद में जाना कि उनसे मिलने वाले सभी लोग तो पहली बार ऐसा ही कहते हैं).. वे पूछते हैं कोई रचना जो इधर के अंकों में अच्छी लगी हो…मैं बताती हूं, फलां और धीरे-धीरे जैसे मेरी हिचकिचाहट की अर्गलायें खुलने लगती हैं… एक के बाद एक कई कहानियों की चर्चा… राजेंद्र जी के चेहरे का अविश्वास अब प्रसन्नता में बदल सा रहा है… मेरा आत्मविश्वास थोड़ा और खुलता है… मैं एक सवाल पूछती हूं, जब हंस मेंपिछले डेढ़-दो साल से यह घोषणा लगातार छप रही है कि कॄपया नई कहानियां न भेजें फिर भी कई कहानियों में हाल-फिलहाल की घटनाओं का जिक्र कैसे मिल जाता है… वे हंसते हुये कहते हैं, ऐसा है कविता जी कि बातें फिर होंगी, आप हंस के दफ्तर भी आ सकती हैं… अभी तो आप यह आइस्क्रीम खा लीजिये.. मैं बहुत देर बाद अपने हाथ में पड़े आइस्क्रीम का प्लेट देखती हूं जो पिघल कर अब बहे या तब की हालत में है… मैं झेंप कर उनके पास से चल देती हूं.
मैं जानती हूं कि राजेन्द्रजी की स्मृति में हमारी यह मुलाकात कहीं है ही नहीं… आखिर हो भी कैसे.. ऐसी सभा-गोष्ठियों में न जाने कितने लोग रोज उनसे मिलते हैं. उन्हें तो शायद हंस में मेरा पहली दफा जाना भी याद नहीं जब उनके कहने पर मैने उन्हें अपनी दो लघुकथायें सुनाई थी जिसमें उन्होंने एक रख भी ली थी जो बाद में स्त्री विशेषांक में छपी भी. राजेन्द्रजी के भीतर जो बात बैठ जाये वह आसानी से जाती नहीं. उन्हें बहुत दिनों तक यह लगता रहा कि मैं उनके यहां सबसे पहले अपने मित्र समरेन्द्र सिंह (पत्रकार) के साथ गई थी और उसे पसंद भी करती थी लेकिन राकेश की खातिर उसे छोड़ दिया. जबकि सच तो यह है कि समरेन्द्र तब राकेश के ही मित्र थे और उसी के माध्यम से मैं उन्हें जानती थी. पता नहीं अपनी इस भ्रांति से वे अबतक भी मुक्त हो पाये हैं या नहीं.
स्मृतियां कुछ आगे बढ़ती हैं… हंस आने-जाने का सिलसिला शुरु हो गया है… अखबारी लेखन के समानांतर मैं कहानियां भी लिखती रहती हूं… यह लिखना मेरे लिये अपने पिता के गुम हो जाने के अहसास को भूलकर उनके पास होने जैसा है, अपने अकेलेपन और अभाव को भरने जैसा कुछ. लेकिन उन कहानियों को जब राजेन्द्र जी ने ‘हंस’ के दफ्तर में लौटाया तब यही लगा था कि वे नहीं खुद पापा ही मुझसे पूछ रहे हैं.. कहानी बुनना तो तुमको आता है लेकिन इन कहानियों में तुम कहां हो..? हां, उस दिन पापा बेतरह याद आये थे, यथार्थ और सच्चाइयों के आग्रही वे पापा जो बचपन में परिकथाओं के बदले जीवन जगत से जुड़ी छोटी-छोटी कहानियां सुनाते और पढ़ने को उत्प्रेरित करते थे. एक के बाद एक मेरी कई शुरुआती कहानियां इसी सवाल के साथ लौटती रहीं. ‘सुख’ वह पहली कहानी थी जिसे अपने भीतर के सारे भय से लड़कर लिखा था और वह हंस (फरवरी, 2002) में प्रकाशित हुई थी. मैं जीत गई थी अपने इस भय से कि मैं पहचान ली जाऊंगी या कि अपनी कहानियों में खोजी जाऊंगी… अब लगता है यदि राजेन्द्र जी ने वे कहानियां जो बाद में अन्यत्र छपीं, नहीं लौटाई होती तो पता नहीं कब मैं अपने उस भय से मुक्त हो पाती.
पिता की कमी, घर से दूरी सबका खामियाजा मैंने राजेन्द्र जी से ही चाहा है. अपनी पहले मुलाकात से ही, पिता जैसी ठहाकेदार हंसी, पाईप, किताबों आदि से उनमें मुझे पापा का चेहरा दिखाई पड़ता है. अगर मायके का सम्बन्ध स्त्रियों के अधिकार भाव,बचपने और खुल कर जीने से होता है तो मैं कह सकती हूं ‘हंस’ मेरा दूसरा मायका है. इतना ही नहीं, राकेश के लिये असली ससुराल और सोनसी के लिये ननिहाल भी.
स्मृतियां थोड़ा और खिसकती हैं… मैं एक बजे के आस-पास ‘हंस’ पहुंच जाती हूं. पांच बजे के बाद चल देती हूं. राजेन्द्र जी के ही कमरे में उनकी एक पुरानी कुर्सी और टेबल पर उनकी तरफ पीठ किये दिन भर कहानियां पढ़ती रहती हूं, आते-जाते लोगों के ठहाकों, मजलिसों से बेखबर. वहां आने वालों में से कुछ लोगों को दिक्कतें है तो कुछ को हैरत… ऐसे कोई कैसे… लेकिन सौ साल की हिन्दी की महत्वपूर्ण कहानियों के चयन का यह काम जिसमें मैं राजेन्द्र जी और अर्चना जी का सहयोग कर रही हूं, है ही इतना बड़ा कि चाहते न चाहते मुझे उन ठहाकेदार गोष्ठियों के बीच रह कर भी वहां नही रहने देता. कहानियां पढ़ने के बाद चयन के लिये खूब बहसें होती हैं… मैं समृद्ध हो रही हूं कहानियों के उस संसार से गुजरते हुये और राजेन्द्र जी लगातार कई माह तक उसके एवज में एक निश्चित राशि मुझे देते रहते हैं… मै नहीं जानती वे पैसे राजेन्द्र जी ने अपनी जेब से दिये या कि हिन्दी अकादमी की तरफ से कारण कि एक मनचाही भूमिका नहीं लिख पा सकने की राजेन्द्र जी की विवशता के कारण वह चयन आजतक अप्रकाशित है. अक्सर राजेन्द्रजी मुझे पांडवनगर छोड़ते हुये अपने घर चले जाते हैं. खाना खा कर आई होने के बावजूद अपने खाने का कुछ हिस्सा खिलाये बिना नहीं मानते वे. बाद में मैं भी अपना खाना वहीं लाने लगी हूं. उनके आसपास होने वाले कई लोगों की तरह कुछ विशिष्ट होने की अनुभूति या कि भ्रम कुछ-कुछ मुझे भी होने लगा है.
उस दिन अचानक आकाश में ढेर सारे बादल हैं.. मैं साढ़े चार बजे ही उठ खड़ी होती हूं… लगता है तेज बारिश होगी, छतरी भी नहीं है… रुक तो, मैं छोड़ दूंगा…. मैं रुक जाती हूं… बारिश हो रही है धारदार… हम निकलने ही वाले हैं कि उनके कई मित्र और परिचित चले आते हैं… मौसम सुहाना है और बातों ही बातों में रसरंजन का कार्यक्रम तय होजाता है… मैं सब को नमस्कार करती हूं, चलने को होती हूं. राजेन्द्रजी कुछ नहीं कहते. बाहर बारिश हो रही है जोरदार. मेरी आंखों के आंसू भी उसी गति से बह रहे हैं… बस स्टॉप तक, घर तक की यात्रा में, घर पर भी. सोचती हूं बार -बार कि इतना क्यों रो रही हूं, आखिर ऐसा हुआ क्या है.. कुछ भी तो नहीं पर आंसू हैं कि रुक ही नहीं रहे…
स्मृतियां कुछ पीछे खिसक रही हैं. शायद सन २०००. राजेन्द्र जी का जन्मदिन इस बार आगरे में ही मनना है, उनके सम्मान में गोष्ठी भी है… तू भी चलेगी?… बिना सोचे समझे हां कह देती हूं… निकलना सुबह-सुबह ही है… सुबह..? मै चौंकती हूं… साढ़े चार-पांच के आसपास… देर रात तक जगे रहने की अपनी आदत और मजबूरी के कारण उतनी सुबह मुझसे उठा नहीं जाता अमूमन, पर उनसे कुछ भी नहीं कहती…. सुबह राकेश के बार-बार उठाये जाने के बावजूद जगना मेरे लिये बहुत भारी है. किसी तरह उठ कर चली जाती हूं, बस. गाड़ी राजेन्द्र जी की नहीं है, ड्राइवर भी किशन नहीं… मैं राजेन्द्र जी के साथ पीछे बैठी हूं. आगे दूसरे सज्जन. मेरी बोझिल आंखें कब नींद में डूब गई मुझे पता नहीं. नींद जब खुलती हैं, देखती हूं मैं राजेन्द्र जी के पांव पर सिर रखे सो रही हूं. हड़बड़ा कर उठना चाहती हूं… वे कहते हैं सो जा, इतनी चैन से तो सो रही थी. अभी आगरा पहुंचने में एक-सवा घंटे और लगेंगे… मैं दुबारे सो जाती हूं.
सोचें तो बहुत अजीब सा लगता है, पर मेरे लिये कुछ भी तो अजीब नहीं था. वह एक पुरसुकून और निश्चिंत नींद थी. मैं अपनी ज़िंदगी के बहुत कम निर्द्वन्द्व नींदों में से उसे गिनती हूं… ऐसी नींद शायद ही कभी आई हो फिर. पर उठने के बाद मन में एक ग्लानि थी कि राजेन्द्र जी के जिस पांव को तकिया बनाये मैं सो रही थी वह उनका वही पैर था जिसमें उन्हें तकलीफ रहती है. और बाद में फिर… कुछ प्रगतिशील कहे जाने वाले लोगों की व्यंग्योक्तियां जिसने इन मीठी स्मृतियों के साथ बहुत कुछ कटु भी जोड़ दिया.
मेरी ज़िंदगी का वह दौर बहुत सारी अनिश्चितताओं और मुश्किलों से भरा था. निश्चित आय का स्रोत नहीं. हां लिखने और छपने केलिये जगहें थी, और काम भी इतना कि सारे असाइन्मेंट पूरे कर लिये जायें तो रहने-खाने की दिक्कत न हो. पर फ्री-लांसिग के पारिश्रमिक के चेकों के आने का कोई नियत समय तो होता नहीं, जल्दी भी आये तो तीन महीने तो लग ही जाते थे. लेकिन उस पूरे समय राजेन्द्र जी का साथ मेरे लिये इन अर्थों में भी एक बड़ा संबल था कि उस ढाई-तीन वर्षों के कठिन काल-खंड में उन्होंने मुझे किसी न किसी ऐसे प्रोजेक्ट में लगातार शामिल रखा जिससे मुझे नियमित आर्थिक आमदनी भी होती रही. और सिर्फ मैं ही नहीं, मेरी जानकारी में ऐसी मदद उन्होंने कई लोगों की है और अब भी करते हैं. हिन्दी अकादमी के उपर्युक्त आयोजन के अलावा राजेन्द्र जी के साक्षात्कार, पत्रों और लेखों की किताबों का संयोजन-संपादन उसी समयावधि की उपलब्धियां हैं.
यह मेरी ‘उलटबांसी’ कहानी से जुड़ा प्रकरण है. तब मैं महाराष्ट्र में रहती थी. छुट्टियों में दिल्ली आने के पहले तब मैने राजेन्द्र जी को पढ़ाने कि लिये वह कहानी जल्दी-जल्दी साफ की थी. वे दिन शायद मेरी चुप्पी के होंगे. राजेन्द्र जी से जब भी बात होती वे नई कहानी भेजने को कहते. अब यह अलग-अलग बात है कि कोंच-कोंच कर लिखवाई गई कहानी भी यदि उन्हें नहीं पसन्द आये तो वे उसे बे हील-हुज्जत लौटाने से भी नहीं चूकते. पहली दृष्टि में तो राजेन्द्र जी ने ही इसे बकवास करार दिया… बूढ़ी मां अचानक शादी कैसे कर सकती है, कौन मिल जायेगा उसे?.. वह बूढ़ी नहीं है, प्रौढ़ा है. और गर पुरुषों को मिल सकती है कोई, किसी भी उम्र में तो फिर औरत को क्यों नहीं?.. होने को तो कुछ भी हो सकता है, तू मेरी मां हो सकती है, यह (राकेश) तेरा पिता हो सकता है… लिख डाल एक और कहानी… बातें खिंचती-खिंचती लम्बी खिंच गई थी और जो भी उस दिन हंस के दफ्तर में आता उस बहती गंगा में हाथ धो डालता. मेरे भीतर उस दिन बहुत कुछ टूट-बिखर रहा था… क्या मुझे कहानी लिखना छोड़ देना चाहिये..? बाद में मैंने वह कहानी अरुण प्रकाश जी को पढ़ाई थी. कहानी उन्हें पसंद आई थी. उन्होंने मेरा मनोबल भी बढ़ाया. सोचा था कहानी उन्हीं को दूंगी लेकिन टाईप होने के बाद राजेन्द्र जी ने कहानी दुबारा पढ़ने को मांगी. उन्हें पुन: कहानी दे कर मैं अभी घर तक लौटी भी नहीं थी कि उनका फोन आ गया था ‘मुझे कहानी पसंद है, मैं रख रहा हूं किसी और को मत देना. पर एक आपत्ति अब भी है मेरी…कहानी से एक पात्र सिरे से नदारद है… वह कौन है.. कहां मिला, कैसे मिला कुछ भी नहीं… मुझे उसकी जरूरत नहीं लगती.. कहानी मां और बेटी के बदलते संबंधों की है… मैंने तर्क दिया था, अपूर्वा के भीतर की स्त्री अपनी मां के निर्णय में उसके साथ है. लेकिन उसके भीतर की बेटी अपने पिता की जगह पर कैसे किसी और को देख कर सहज रह सकती है. इसलिये बेहतर है वह अपनी मां के नये पति के बारे में ज्यादा दिलचस्पी न दिखाये. राजेन्द्र जी भी अंतत: मान गये थे. आज उन्हें यह मेरी कहानियों में शायद सबसे ज्यादा पसन्द है. देखें तो मूल में वह प्रतिवाद एक पुरुष का, पुरुष दृष्टि का था, जिससे जूझ कर अन्तत: वे उस कहानी को स्वीकार सके थे. हो राजेन्द्र जी अपने भीतर के पुरुष से लगातार संघर्ष करते हैं और उसे संशोधित भी.. उनकी यही खासियत उन्हें औरों से अलग बनाती है.
अब सोचती हूं तो सबकुछ बहुत मेलोड्रामेटिक लगता है, पर सच तो सच है. होता यूं रहा है कि जब भी मै राजेन्द्र जी से दुखी हो कर ‘हंस’ से निकली हूं पता नहीं क्यों उस दिन किसी फिल्मी दृश्य की तरह बारिश भी खूब हुई है, आकाश से भी और मेरी आंखों से भी. वह चाहे ‘उलटबांसी’ प्रकरण हो या फिर अमृत लाल नागर कहानी प्रतियोगिता वाली बात. ‘मेरी नाप के कपड़े’मेरी उन थोड़ी सी कहानियों में से है जो राजेन्द्र जी को एक झटके में पसंद आई हैं. यह शीर्षक भी उन्हीं का दिया हुआ है. इस कहानी के उक्त प्रतियोगिता में पुरस्कृत होने पर मैं खुश थी, वर्षों तक. लेकिन उस दिन जैसे अचानक ही मेरी उस खुशी पर तुषारापात सा हो गया था जब मैत्रेयी जी के लिये कोई कागज की तलाशते हुये एक साधारण सा मुड़ा-तुड़ा कागज मेरे हाथ लग गया था, जिसमें उस प्रतियोगिता के निर्णायकों के निर्णय दर्ज थे. मुझे अब याद नहीं कि उस दिन मैत्रेयी जी का वह इच्छित कागज मिला था या नहीं पर उस साधारण से कागज ने जैसे मेरे पांव तले कि जमीन खिसका दी थी. कुल तीन पृष्ठों के निर्णयों में हर पन्ने पर १०-१० कहानियों की सूची थी. मेरे लिये पहले दो पन्ने अपरिचित हस्तलिपियों में थी जबकि तीसरे पन्ने की लिखावट राजेन्द्र जी की थी जो तीसरे निर्णायक का निर्णय था और उनके अस्वस्थ होने के कारण राजेन्द्र जी ने जिसे फोन पर लिख लिया था (राजेन्द्र जी के अनुसार). मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं था कि उस प्रतियोगिता में पुरस्कृत पहली कहानी, जिसे बाद में राजेन्द्र जी ने अपना वीटो लगा कर बाद में द्वितीय कर दिया था, पहले दो निर्णयकों की सूची में वरीयता क्रम में काफी नीचे थी या कि थी भी नहीं.. मैं दुखी हुई थी, मेरे भीतर स्थापित राजेन्द्र जी की प्रतिमा जैसे सहसा विखंडित हो गई थी… आवेश में मैं लड़ पड़ी थी उनसे. अपने कागज छुये जाने के कारण वे बेतरह नाराज हुये थे मुझसे… पुरस्कारों-सम्मानों की हकीकतें बहुत पहले से सुनती रही थी, लेकिन उस दिन अपनी आंखों से देख कर जैसे हमेशा-हमेशा के लिये पुरस्कारों से भरोसा उठ गया. मैं अब तक नहीं समझ पाई कि खुद पुरस्कारों को ठुकराने और उससे एक दूरी बनाये रखने वाले व्यक्तिने एक छोटे से पुरस्कार के निर्णय के क्रम में ऐसा क्यों और किस सोच के तहत किया?
मैं यह भी जानती हूं कि यदि राजेन्द्र जी की जगह कोई दूसरा व्यक्ति होता तो न मैं उससे इस मुद्दे पर यूं लड़ पाती और ना हीं उस प्रकरण को इस तरह सार्वजनिक तौर पर बता सकने का साहस ही. मैंने सच को सच कहने का यह साहस उन से ही सीखा है. मूर्ति पूजा में मेरी बहुत आस्था नहीं है, खास कर किसी जीते जागते व्यक्ति को महान या कि साधु बना कर पूजने में. यह कोई श्रद्धांजलि नहीं है. और राजेन्द्र जी को तो ठेठ श्रद्धांजलियों की परंपरा से भी चिढ़ रही है. धो-पोंछकर और काट-छील कर हर किसी को एक ही सांचे में घोंट-पीस कर महान बना देने के जिस राक्षसी षडयंत्र के खिलाफ वे लगातार लड़ते रहे हैं, उसी की रोशनी ने मुझमें सहमति-असहमति का यह विवेक पैदा किया है. एक ऐसा विवेक जो तत्कालीन दुखों और कभी कभार के घोर वैचारिक असहमतियों को रिश्तों की मधुरता की राह में कभी आड़े नहीं आने देता. शायद यही कारण है कि उनकी पितृ छवि और लेखक-संपादक के प्रति मेरी निष्ठा लगातार बनी हुई है और हर टूट-फूट के बावजूद मुझसे जुड़ा हर रिश्ता उनसे समान आत्मीयता और अपनत्व के साथ जुड़ा हुआ है और वे उन रिश्तों से. सच कहूं तो राजेन्द्र जी के संबंध में मेरी दृष्टि एकलव्यीय रही है. मैं ने अपने भीतर के
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