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खोया हुआ आदमी

यह लेख लिखा है महेश चंद्र सकलानी ने। श्री सकलानी मूलतः टिहरी के रहने वाले हैं और उ प्र पॉवर कॉर्पोरेशन, शक्ति भवन, लखनऊ से महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। वे कविताएँ भी लिखते हैं और उनका एक कविता संग्रह प्रकाशित है। अप उनके विचार पढ़िए-

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कोविड-19 ने संसार के सामने अभूतपूर्व स्थिति खड़ी कर दी है। ऐसा नहीं है कि यह पहली बार हुआ हो। ऐसा समय-समय पर छोटे-बड़े पैमाने पर कभी आंशिक तो कभी पूर्णता में होता रहा है। पर मनुष्य या कहें आदम से बने आदमी ने विपत्ति का निदान ढूँढकर या उसे समय बीतने के साथ भुलाकर फिर से अपनी दम्भ वाली राह पकड़ी। कुत्ते की पूंछ टेढ़ी की टेढ़ी रह गई। आज जब उसकी सारी शक्ति सारा ऐश्वर्य उसका ही मुंह चिढ़ा रहा है तो वह फिर से इस फिराक में है कि इस बीमारी का भी वैक्सीन या कोई अन्य उपचार ढूंढकर जोर-शोर से फिर वहीं रफ्तार पकड़ ले जिसकी न तो उसको कोई मंजिल मालूम है और न ही जिसको अंजाम देने में वह अपने होशो-हवास में नजर आता है।

 आखिर मनुष्य है क्या? उपनिषदों में खोजा गया मनुष्य या फिर वह आदमी जो एक वायरस के डर से अपने ही खोल में सिमटा है। मनुष्य की खोज ही बन्द हो गयी तो मनुष्य में छिपी हुई वह दैवीय शक्ति आदमी में ढलते-ढलते एक सुविधा भोगी, स्वार्थी, संवेदनहीन और शोषक, पुतले में बदलती गयी जो अपनी-अपनी शक्ति और सामर्थ्य के अनुसार आज आतंक का पर्याय बन गयी है। कहने में बात कड़वी तो जरूर है, पर सच हमेशा कड़वा होता है। तथाकथित सम्भ्रान्त परिवेश में सत्य को मीठे तक ही सीमित रखे जाने की सलाह अंत में प्रवंचना के पंख लगाकर ऊंची उड़ान भरने लगती है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण मानवता के समक्ष आज पैदा हुई चुनौती है। एक ओर हथियारों की होड़ और भौतिक विषमता की खाई तैयार है। भूख से बिलखते और अपने जीने के लिए संघर्ष करते अपार जनसमूह और प्राणियों की विवशता है तो दूसरी ओर मां की तरह पूजी जाने योग्य धरती और उसकी अद्भुत धरोहर आदमी के अदम्य भोग की बलि चढ़कर उसकी ही बलि लेने को तैयार है।

 इसके लिए कौन जिम्मेदार है? कदाचित् वह मानसिकता जो अपने बल, बुद्धि और दूसरों पर प्रभुत्व जमाने की ललक के चलते पनपती रही है। जिससे वैज्ञानिक आविष्कारों और बौद्धिक सम्पत्ति के अधिकारों के रहते स्वहितकारी बाजार व्यवस्था की आड़ में एक भिन्न अभिजात्य वर्ग उठा है। जिसके लिए प्रकृति के सभी संसाधन जाने अनजाने घुमा फिराकर खुद ही प्रस्तुत हो जाते हैं और उनसे वंचित हुए वर्ग का किसी को भी कोई ध्यान नहीं रहता। फलस्वरूप प्रकृति के जीवनदायी/प्राणरक्षक संसाधन भी अपने बचाव की खामोश चीत्कार करते रहते हैं पर देखने वालों की आँखों में अर्थव्यवस्था की पट्टी बंधी रहती है।

 भारत के संदर्भ में यह स्थिति कुछ मामलों को छोड़कर भिन्न रही है। यहाँ पर राजनीतिक और जीवनमूल्यों के प्रति विस्तारवादी सोच का अभाव रहा। फलस्वरूप सीमावर्ती राज्यों ने बाहरी आक्रमणों का बहादुरी से सामना किया। किन्तु हृदय प्रदेश में पलते राजनीतिक अन्तर्विरोधों के रहते अंततः विदेशी आक्रांता ईसापूर्व शताब्दियों से समय-समय पर अपना प्रभाव दिखाने लगे। ‘सगच्छध्वं संवदध्वं स वो मनांसि जानताम’ के दर्शन के अनुसार सारे विश्व को एक परिवार मानने वाला जनमानस भ्रमित हो गया।

 औपनिवेशिक काल के बाद राजनीतिक तौर पर देश स्वतंत्र हुआ पर लगभग ढाई हजार वर्ष के उत्तर वैदिक काल में शिक्षा-पद्धति, सामाजिक संरचना और जीवन-दर्शन में नकारात्मक बदलाव के कारण परिस्थितिजन्य मानसिक परतंत्रता की बेड़ियां इतनी रूढ़ हो चली थी कि उसे विभाजन के बाद पश्चिमी भोगवाद की चमक में अपने मूल स्वरूप का ज्ञान ही नहीं रहा। वह भूल गया कि वह विश्व को चमत्कृत कर देने वाली एक महान जीवनशैली की परम्परा का ध्वजवाहक है और नये परिदृश्य में उसे अपने लिए एक नयी भूमिका गढ़नी है। सुदूर मध्य-पूर्व एशिया से उभरे बर्बर विस्तारवाद और अपनी औपनिवेशिक आकांक्षाओं से विकसित पश्चिमी भोगवाद के बीच कूटरचित विभाजन ने एक ऐसे इंडिया को जन्म दिया जिसकी मौलिक पहचान खो गई थी।

 वह मानस जो ब्रह्माण्ड के रहस्यों के छोटे से अंश की अपने अन्दर उपस्थिति के अनुभव से एक गहरी खोज में व्यस्त था, उससे प्राप्त अपनी समृद्धि और शक्ति से सारे संसार को चकित करने की स्थिति में था, इस प्रकार प्राप्त अपने स्वान्तः सुखी ऐश्वर्य से वंचित हो गया। न केवल उसकी खोज ही रूकी अपितु उसके द्वारा स्थापित सामाजिक, राजनीतिक और आध्यात्मिक मान्यतायें विकृत होकर विभाजनकारी अन्तर्विरोध में बदल गई। नारी स्वतंत्रता और समता के परिवेश में ज्ञान के उच्चतम पायदान पर पहुंची हुई महिलाओं (यथा लोपमुद्रा, गार्गी, मैत्रेयी इत्यादि) के स्थान पर बनी व्यवस्था कालान्तर में अनेक कुरीतियों यथा बाल विवाह, पर्दाप्रथा, सती प्रथा आदि को समेटे हुए नारी परतन्त्रता के गहरे दलदल में फंस गई। यही स्थिति सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर भी रही। अभिरूचि अथवा कौशल आधारित वर्ण व्यवस्था विदेशी कुटरचित नीतियों के रहते कुत्सित जाति व्यवस्था में व विश्वबन्धुत्व की पोषक जनप्रिय राजा अथवा गणराज्य  व्यवस्था निहित स्वार्थी राजतंत्रों में तब्दील हो गयी। पूरे परिदृश्य में सकारात्मक एवं नकारात्मक कारक स्वयं में पूर्ण और सशक्त ग्राम-ईकाई की व्यवस्था रही जिसने समग्रता मे ढांचे के सनातनी अस्तित्व को बनाये रखा। नकारात्मक इस दृष्टि से कि ग्राम ईकाई राजनीतिक तौर पर जागरूक नहीं रही जिसके कारण केन्द्रीय स्तर पर परिवर्तन होते रहे आसानी से और सकारात्मक यूं कि उस ईकाई के जीवन दर्शन में काल के प्रवाही थपेड़ों को स्वयंस्फूर्त तरीके से सहन करने की सामथ्र्य रही।

 इस पृष्ठभूमि में मध्य से अंतिम चालीस और पचासवें दशक में गर्भस्थ या पैदा हुई पीढ़ी जिसने स्वतंत्रता आंदोलन के दौर में जन सामान्य से उभरे जागृत चेतना के प्रवाह को अपने प्रारम्भ में महसूस किया देखते-देखते घूमते पहिये के तिलिस्म से राकेट, बेतार के तार से सूचना प्रौद्योगिकी, मामूली टीके से आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के युग में तो संक्रमित हुई पर भारत भूमि के परिप्रेक्ष्य में उसकी सोच स्वर्णिम युग के सकारात्मक पक्ष की ओर निर्देशित नहीं की गई बल्कि संयोग से या जान बूझकर उभरती हुई शक्तियों के प्रभाव में विकृत रूप में ही रहने दी गई और उसमें तथाकथित भोगवाद की चासनी डालकर  आदम से आदमी बनी आसुरी प्रवृत्ति को पनपने का भरपूर मौका दिया गया। हालत यह हो गई कि अपनी परम्परायें, पर्व त्यौहार सामाजिक रीतियों का बाहरी स्वरूप जैसा और जितनी गुलामी के दौर में विकृत हो गया था, उस पर स्वतंत्रता प्राप्ति पर आरम्भ नये युग के साथ कोई परिवर्तन नहीं किया गया और यदि इसके लिऐ कोई आवाज उठी या कोई चिन्तन उभरा तो उसको राज्य की ओर से हतोत्साहित किया गया। नतीजा यह हुआ कि आन्दोलन के समय से जिस चेतना के अंकुर ने एक नये मन्त्रदृष्टा राष्ट्र का आधार बनना था वह लगातार विकृतियों के दलदल में कुंठित होकर दिशाहीन हो गया।

 वर्ष 2014 में राष्ट्रवादी मौलिक नेतृत्व के उदय से ही सम्भव हुआ कि हम उस ओर देखने की समझ कर गौरवान्वित हेाने का उपक्रम कर सकें। यद्यपि जनमानस में उस स्वर्णिम युग के पुनरूद्धार होने की चाह अंतःप्रवाह के रूप में विद्यमान तो थीं पर विकृतियों के रहते, विस्तारवादी और विभाजनकारी प्रवृत्तियों के राजनीति में हावी रहते उसे दिशा और नेतृत्व नहीं मिल पाया। अब जब कि नियति ने देश को एक ऐसा सशक्त नेतृतव दिया है जो बदली हुई परिस्थितियों में अपने मौलिक स्वरूप को आत्मसात कर विविधता और लम्बी गुलामी के दौर से गुजरकर छद्म स्वतंत्रता के परिधान में लिपटी मानसिक गुलामी के दोष का अपकार कर उस मनुष्य को पुनः प्राप्त कर सके जो काल के थपेड़ों से इस भारतभूमि में कहीं खो गया था। वह मनुष्य जो आदमी बनकर अनेक प्रकार के भेद निहित स्वार्थ और मनमोहक नारों के साथ अपने तादात्म्य से मानवीय भावों से दूर होकर एक दिशाहीन यात्रा की ओर बढ़ रहा है। उसी मनुष्य केा पाने का नेतृत्व इस समय अपेक्षित है। इसलिए भी कि कोविड-19 के साथ ही जीवन चर्या और चिंतन में सुधार होने की पूरी गुंजाइश है। और यह श्रीकृष्ण की धरती पर रास्ते से भटके हुये लोगों की अनुवंशीय धरोहर का एहसास कराकर सही रास्ता दिखाने से ही सम्भव है और इसके लिये भारत भूमि में पर्याप्त पोषक तत्व हैं। आवश्यकता है बस यह कि जो है उसे महसूस किया जाय।

 जो है उसे महसूस कर विदेही जनक की स्थिति प्राप्त करना आसान तो नहीं है पर भूमि और अनुवंशीय प्रभाव को ध्यान रखते हुये इतना कठिन भी नहीं है कि उसे अपना लक्ष्य न बनाया जा सके। आवश्यकता है एक दृढ़ संकलप की और उस दृष्टि की जो विस्तारवादी तत्वों के उदय से राजनीतिक और उसके बाद मानसिक परतंत्रता के कारण हमसे बिछुड़ गई। हमें अपने पूर्वजों के उसी तिलिस्म में लौटना होगा जिसके सृजन से उन्होंने हमें और विश्व को अद्भुत सृजन का उपहार दिया। ऐसा जीवन दर्शन दिया जो सभी सीमाओं को तोड़कर एक खुशहाल विश्व की ओर कदम बढ़ाता है।

 ब्रह्माण्ड की उस एकल शक्ति से जुड़ने का योग जो जीवन के प्रत्येक पक्ष को अपने भीतर आत्मसात करके आनन्दमयी जीवन क्षेत्र में प्रवेश का द्वार खोलता है। आज हम सक्षम नेतृत्व की बदौलत सारे संसार में ‘योगा’ से अप्रभ्रंशित ‘योग’ को स्वास्थ्य और जीवन शैली में ‘अंतराष्ट्रीय योग दिवस’ के रूप में स्थापित करके महत्व दिलाने में सफल तो हुये हैं किन्तु योग की अनन्त शक्ति को ध्यान में रखकर हमें उस दिशा में वेदों-उपनिषदों से जुड़कर और गहरे उतरने की तरफ बढ़ना चाहिये। इस समय यह इसलिये भी आवश्यक है कि हमें दिग्भ्रमित करने के लिए आभासीय जगत ;टपतजनंस ॅवतसकद्ध का जिन्न हमें निगलने को तैयार है और पहले से दलदल में फंसी हुई हमारी मानसिकता के सामने आज ही ऐसा अवसर है कि उससे बाहर निकलकर ठोस धरातल पर खड़े होकर हम अपनी अस्मिता को पायें। यदि इस समय हम चूक गये तो एक राष्ट्र के रूप में हमारा पिछड़ना अवश्यम्भावी है। अदम्य महत्वाकांक्षा लिये हमारा पड़ोसी देश और पहले से ही विभाजनकारी शक्तियों से संघर्षरत हमारा जनमानस जीवनदायी प्राणवायु की ओर उन्मुख है ताकि वह चेतना के मौलिक स्वरूप को प्राप्तकर बदली हुई परिस्थतियों में पुनः अपना गौरव प्राप्त कर सके। कोविड-19 के साथ पैदा हुई रिक्ति और वर्तमान में उपलब्ध सशक्त मन्त्रदृष्टा नेतृत्व के रहते हुये एक नये राष्ट्र के रूप में उदय का यह स्वर्णिम अवसर है।

 सतही तौर पर ऊपर जो भी लिखा गया है उसका उद्देश्य समझ में नहीं आता है। ठीक है, सभी तो अपने-अपने अनुसार राष्ट्र के उत्कर्ष में अपना योगदान दे रहे हैं फिर क्या अलग अपेक्षित है? यहां पर एक बात बारीकी से ध्यान देने लायक है। जैसा कि पहले कहा गया है मध्य चालीस और पचास के दशक में पैदा हुये लोग, जिनमें से एक लेखक भी शामिल हैं, ऐसे दौर से गुजरे हैं जो सामान्य तौर पर घोर नैतिक पतन का और अपवाद स्वरूप उच्चस्थ नैतिक मूल्यों का साक्षी रहा है। इसका निहितार्थ यही हुआ कि हमारे खून में प्रकाश की ओर बढ़ने का गुण तो है पर सन 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के साथ

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 राजनैतिक तौर पर उस धरातल के अभाव ने जो वर्ष 1982 से पा्ररम्भ होकर अंततः वर्ष 2014 में ठोस रूप ले सका, एक ऐसी अकर्मण्य, उदासीन, दिशाहीन, विभाजनकारी और रूग्ण मानसिकता को जन्म दिया जिसके लिये अपना सुख और स्वार्थ ही सर्वोपरि है। इस माहौल में उभरती हुई लगभग तीन पीढ़ियाँ या तो अपने अतीत को उपेक्षा की दृष्टि से देखती हैं या उसके महिमामंडल से अपनी पीठ ठोक कर ही अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेती हैं। इस बिन्दु पर आभासी जगत ;टपतजनंस ॅवतसकद्ध का धुआँ उनकी सेाच को न केवल कोई दिशा ही नहीं लेने देता वरन वर्तमान में सकारात्मक सोच की ओर किये जा रहे प्रयासों की ओर भी उदासीन रखता है। फलस्वरूप हताशा, कुंठा, अकेलापन, अपराध और नकारात्मक मानसिक पक्ष की ओर उसका प्रवाह हो जाता है। वे अपने परिवार, वृहद परिवार, समाज और राष्ट्र से नहीं जुड़ पाते हैं और न ही उसके प्रति उनका कोई सरोकार बन पाता है।

 पिछले साठ-सत्तर वर्षों में राष्ट्र एक ठोस मौलिक केन्द्रीकृत धरातल न बनने के कारण पिछड़ गया है। आवश्यक है कि अविलम्ब कुप्रबन्ध से प्रभावित पीढ़ी को उदय होते हुये नये भारत की ओर आकर्षित किया जाय। यहां पर ‘लोकल इज वोकल’, ‘मेक इन इंडिया’ इत्यादि का दर्शन शीघ्रतिशीघ्र हृदयंगम किया जाना चाहिये। उस आदमी की खोज की जानी जरूरी है जो कहीं खो गया है। ‘खोया हुआ आदमी’ शीर्षक की कविता में यही वेदना उभरकर आती हैः-

खोया हुआ आदमी, सोया है या जागा है खुद से ही क्यों भागा है मुठ्ठी में दुनिया है, हाथों में माया है फिर भी क्यों खुद से भरमाया/घबराया है जाति में खोया, पाति में खोया रूप, रंग, अंग-ढंग में खोया बारह सौ साल की नींद में सोया भूल गया जो उसने है खोया पूर्वजों के अभिमान को खोया अपने मिट्टी की शान को खोया अब तो जागे सूरज उग आया है स्वागत में उठा धरा माँ सरमाया है खोया हुआ आदमी सोया है या जागा है।   अपनी अस्मिता को खोने का दंश सहने वाली पीढ़ी ने ही आज देश को एक समर्थ और सक्षम नेतृत्व दिया है। यह इस शक्ति को ठोस धरातल देने के प्रयोजन में लगी संस्थाओं और व्यक्तियों की मेहनत का ही परिणाम है। किन्तु विस्तारवादी, विभाजनकारी और बाजार केन्द्रित अन्तर्राष्ट्रीय और उसके समर्थक अन्तर्विरोधी वर्ग का प्रयास है कि पहले से अस्थिर धरातल को यथास्थिति रहने दिया जाय ताकि उनके अपने-अपने स्वार्थ पूरे होते रहें।  मध्य एशिया में प्रत्येक दृष्टि से महत्वपूर्ण ‘जम्बू द्वीपे भारत खण्डे’ नामक भूखण्ड। जिसे कुटिल बुद्धि विलास से ‘इंडिया’ या ‘हिन्दुस्तान’ बनाया गया है, पुनः भारत होने के अपने गौरव को हासिल न कर सकें।

 क्योंकि जैसा कि प्रधानमंत्री जी का कहना है कि 130-35 करोड़ का यह देश अपूर्व क्षमता और संभावनाओं से भरा हुआ है। आवश्यकता है एक से प्रारम्भ हुई एक सौ तीस-पैंतीस करोड़ तक पहुंचने की यात्रा के पथिक इकाई मनुष्य की उस खोज को प्रारम्भ करने की जो बहुत पहले परिस्थितिवश बंद कर दी गई थी। जटिल संरचना वाला मनुष्य जिसे शरीर विज्ञान स्थूल अंगों से प्रारम्भ कर न्यूरोफिजिक्स के बहुत गहरे रहस्य तक देख कर हाथ मलता रह जाता है, उसी मनुष्य को इस भूमि से निकले वेद-उपनिषद पूरे ब्रह्माण्ड से जुड़ी ऊर्जा तरंग का स्वामी मानती है जो अनन्त शक्ति का स्त्रोत है। वह मनुष्य रोग, शोक इत्यादि व्याधियों से परे है।

 अफसोस है कि सामान्य तौर पर हमारी आज की पीढ़ी इस तथ्य से अनभिज्ञ है। इसलिए कि उसे ऐसा माहौल ही नहीं मिल सका जिससे उसे अपने अंदर विद्यमान अद्भुत शक्ति का अंदाजा हो सके या उस वातारण से उसमें उस शक्ति का संचार हो। विभाजनकारी वातावरण ने उसे विभाजित व्यक्तित्व का उपहार दिया जो केवल अपने सुरक्षा कवच में कैद रहकर एक शेाषण उन्मुख व्यवस्था को पोषित  करता है। जिसे शारीरिक सौष्टव के लिए जिम और उससे जुड़े उत्पादों, शक्तिवर्द्धक पेयों और स्वस्थ रहने के लिए अंग्रेजी दवाईयों पर ज्यादा भरोसा है। वह नहीं जानता कि मन को नियंत्रित रखने, प्रकृतिस्थ रहने, प्रकृति प्रदत्त वनस्पतियों, औषधियों, संयमित जीवनचर्या और वृहद परिवार तथा समाज से जुड़ाव रखने से वह अपने भीतर ही शांति और संतोष का अक्षुण्ण स्त्रोत पा सकता है। जिसे पहचानने पर भी वह भौतिक जगत में समान रूप से सफलता की सीढ़ियां चढ़ सकता है। आवश्यकता केवल दृष्टिकोण बदलने की है। जड़ों से जुड़ा हुआ वृक्ष ही आंधी, तूफानों में अडिग रह सकता है।

 इस प्रकार मनुष्य बनने की प्रक्रिया में निम्न से मध्य और उच्चस्थ श्रेणियों की परिधि में आने वाले लाभार्थियों का स्वाभाविक तौर पर जैसा कि वर्तमान में अंशतः दिखता भी है, उन तथ्यों से अवगत होना आवश्यक है जो अभी तक या तो तोड़-मरोड़कर प्रचारित किये गये या प्रकाश में नहीं लाये गये ताकि समग्रता में भारत भूमि का गौरव पृष्ठभूमि मकोविड-19 ने संसार के सामने अभूतपूर्व स्थिति खड़ी कर दी है। ऐसा नहीं है कि यह पहली बार हुआ हो। ऐसा समय-समय पर छोटे-बड़े पैमाने पर कभी आंशिक तो कभी पूर्णता में होता रहा है। पर मनुष्य या कहें आदम से बने आदमी ने विपत्ति का निदान ढूँढकर या उसे समय बीतने के साथ भुलाकर फिर से अपनी दम्भ वाली राह पकड़ी। कुत्ते की पूंछ टेढ़ी की टेढ़ी रह गई। आज जब उसकी सारी शक्ति सारा ऐश्वर्य उसका ही मुंह चिढ़ा रहा है तो वह फिर से इस फिराक में है कि इस बीमारी का भी वैक्सीन या कोई अन्य उपचार ढूंढकर जोर-शोर से फिर वहीं रफ्तार पकड़ ले जिसकी न तो उसको कोई मंजिल मालूम है और न ही जिसको अंजाम देने में वह अपने होशो-हवास में नजर आता है।

 आखिर मनुष्य है क्या? उपनिषदों में खोजा गया मनुष्य या फिर वह आदमी जो एक वायरस के डर से अपने ही खोल में सिमटा है। मनुष्य की खोज ही बन्द हो गयी तो मनुष्य में छिपी हुई वह दैवीय शक्ति आदमी में ढलते-ढलते एक सुविधा भोगी, स्वार्थी, संवेदनहीन और शोषक, पुतले में बदलती गयी जो अपनी-अपनी शक्ति और सामर्थ्य के अनुसार आज आतंक का पर्याय बन गयी है। कहने में बात कड़वी तो जरूर है, पर सच हमेशा कड़वा होता है। तथाकथित सम्भ्रान्त परिवेश में सत्य केा मीठे तक ही सीमित रखे जाने की सलाह अंत में प्रवंचना के पंख लगाकर ऊंची उड़ान भरने लगती है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण मानवता के समक्ष आज पैदा हुई चुनौती है। एक ओर हथियारों की होड़ और भौतिक विषमता की खाई तैयार है। भूख से बिलखते और अपने जीने के लिए संघर्ष करते अपार जनसमूह और प्राणियों की विवशता है तो दूसरी ओर मां की तरह पूजी जाने योग्य धरती और उसकी अद्भुत धरोहर आदमी के अदम्य भोग की बलि चढ़कर उसकी ही बलि लेने को तैयार है।

 इसके लिए कौन जिम्मेदार है? कदाचित् वह मानसिकता जो अपने बल, बुद्धि और दूसरों पर प्रभुत्व जमाने की ललक के चलते पनपती रही है। जिससे वैज्ञानिक आविष्कारों और बौद्धिक सम्पत्ति के अधिकारों के रहते स्वहितकारी बाजार व्यवस्था की आड़ में एक भिन्न अभिजात्य वर्ग उठा है। जिसके लिए प्रकृति के सभी संसाधन जाने अनजाने घुमा फिराकर खुद ही प्रस्तुत हो जाते हैं और उनसे वंचित हुए वर्ग का किसी को भी कोई ध्यान नहीं रहता। फलस्वरूप प्रकृति के जीवनदायी/प्राणरक्षक संसाधन भी अपने बचाव की खामोश चीत्कार करते रहते हैं पर देखने वालों की आँखों में अर्थव्यवस्था की पट्टी बंधी रहती है।

 भारत के संदर्भ में यह स्थिति कुछ मामलों को छोड़कर भिन्न रही है। यहाँ पर राजनीतिक और जीवनमूल्यों के प्रति विस्तारवादी सोच का अभाव रहा। फलस्वरूप सीमावर्ती राज्यों ने बाहरी आक्रमणों का बहादुरी से सामना किया। किन्तु हृदय प्रदेश में पलते राजनीतिक अन्तर्विरोधों के रहते अंततः विदेशी आक्रांता ईसापूर्व शताब्दियों से समय-समय पर अपना प्रभाव दिखाने लगे। ‘सगच्छध्वं संवदध्वं स वो मनांसि जानताम’ के दर्शन के अनुसार सारे विश्व को एक परिवार मानने वाला जनमानस भ्रमित हो गया।

 औपनिवेशिक काल के बाद राजनीतिक तौर पर देश स्वतंत्र हुआ पर लगभग ढाई हजार वर्ष के उत्तर वैदिक काल में शिक्षा-पद्धति, सामाजिक संरचना और जीवन-दर्शन में नकारात्मक बदलाव के कारण परिस्थितिजन्य मानसिक परतंत्रता की बेड़ियां इतनी रूढ़ हो चली थी कि उसे विभाजन के बाद पश्चिमी भोगवाद की चमक में अपने मूल स्वरूप का ज्ञान ही नहीं रहा। वह भूल गया कि वह विश्व को चमत्कृत कर देने वाली एक महान जीवनशैली की परम्परा का ध्वजवाहक है और नये परिदृश्य में उसे अपने लिए एक नयी भूमिका गढ़नी है। सुदूर मध्य-पूर्व एशिया से उभरे बर्बर विस्तारवाद और अपनी औपनिवेशिक आकांक्षाओं से विकसित पश्चिमी भोगवाद के बीच कूटरचित विभाजन ने एक ऐसे इंडिया को जन्म दिया जिसकी मौलिक पहचान खो गई थी।

 वह मानस जो ब्रह्माण्ड के रहस्यों के छोटे से अंश की अपने अन्दर उपस्थिति के अनुभव से एक गहरी खोज में व्यस्त था, उससे प्राप्त अपनी समृद्धि और शक्ति से सारे संसार को चकित करने की स्थिति में था, इस प्रकार प्राप्त अपने स्वान्तः सुखी ऐश्वर्य से वंचित हो गया। न केवल उसकी खोज ही रूकी अपितु उसके द्वारा स्थापित सामाजिक, राजनीतिक और आध्यात्मिक मान्यतायें विकृत होकर विभाजनकारी अन्तर्विरोध में बदल गई। नारी स्वतंत्रता और समता के परिवेश में ज्ञान के उच्चतम पायदान पर पहुंची हुई महिलाओं (यथा लोपमुद्रा, गार्गी, मैत्रेयी इत्यादि) के स्थान पर बनी व्यवस्था कालान्तर में अनेक कुरीतियों यथा बाल विवाह, पर्दाप्रथा, सती प्रथा आदि को समेटे हुए नारी परतन्त्रता के गहरे दलदल में फंस गई। यही स्थिति सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर भी रही। अभिरूचि अथवा कौशल आधारित वर्ण व्यवस्था विदेशी कुटरचित नीतियों के रहते कुत्सित जाति व्यवस्था में व विश्वबन्धुत्व की पोषक जनप्रिय राजा अथवा गणराज्य  व्यवस्था निहित स्वार्थी राजतंत्रों में तब्दील हो गयी। पूरे परिदृश्य में सकारात्मक एवं नकारात्मक कारक स्वयं में पूर्ण और सशक्त ग्राम-ईकाई की व्यवस्था रही जिसने समग्रता मे ढांचे के सनातनी अस्तित्व को बनाये रखा। नकारात्मक इस दृष्टि से कि ग्राम ईकाई राजनीतिक तौर पर जागरूक नहीं रही जिसके कारण केन्द्रीय स्तर पर परिवर्तन होते रहे आसानी से और सकारात्मक यूं कि उस ईकाई के जीवन दर्शन में काल के प्रवाही थपेड़ों को स्वयंस्फूर्त तरीके से सहन करने की सामथ्र्य रही।

 इस पृष्ठभूमि में मध्य से अंतिम चालीस और पचासवें दशक में गर्भस्थ या पैदा हुई पीढ़ी जिसने स्वतंत्रता आंदोलन के दौर में जन सामान्य से उभरे जागृत चेतना के प्रवाह को अपने प्रारम्भ में महसूस किया देखते-देखते घूमते पहिये के तिलिस्म से राकेट, बेतार के तार से सूचना प्रौद्योगिकी, मामूली टीके से आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के युग में तो संक्रमित हुई पर भारत भूमि के परिप्रेक्ष्य में उसकी सोच स्वर्णिम युग के सकारात्मक पक्ष की ओर निर्देशित नहीं की गई बल्कि संयोग से या जान बूझकर उभरती हुई शक्तियों के प्रभाव में विकृत रूप में ही रहने दी गई और उसमें तथाकथित भोगवाद की चासनी डालकर  आदम से आदमी बनी आसुरी प्रवृत्ति को पनपने का भरपूर मौका दिया गया। हालत यह हो गई कि अपनी परम्परायें, पर्व त्यौहार सामाजिक रीतियों का बाहरी स्वरूप जैसा और जितनी गुलामी के दौर में विकृत हो गया था, उस पर स्वतंत्रता प्राप्ति पर आरम्भ नये युग के साथ कोई परिवर्तन नहीं किया गया और यदि इसके लिऐ कोई आवाज उठी या कोई चिन्तन उभरा तो उसको राज्य की ओर से हतोत्साहित किया गया। नतीजा यह हुआ कि आन्दोलन के समय से जिस चेतना के अंकुर ने एक नये मन्त्रदृष्टा राष्ट्र का आधार बनना था वह लगातार विकृतियों के दलदल में कुंठित होकर दिशाहीन हो गया।

 वर्ष 2014 में राष्ट्रवादी मौलिक नेतृत्व के उदय से ही सम्भव हुआ कि हम उस ओर देखने की समझ कर गौरवान्वित हेाने का उपक्रम कर सकें। यद्यपि जनमानस में उस स्वर्णिम युग के पुनरूद्धार होने की चाह अंतःप्रवाह के रूप में विद्यमान तो थीं पर विकृतियों के रहते, विस्तारवादी और विभाजनकारी प्रवृत्तियों के राजनीति में हावी रहते उसे दिशा और नेतृत्व नहीं मिल पाया। अब जब कि नियति ने देश को एक ऐसा सशक्त नेतृतव दिया है जो बदली हुई परिस्थितियों मेें अपने मौलिक स्वरूप को आत्मसात कर विविधता और लम्बी गुलामी के दौर से गुजरकर छद्म स्वतंत्रता के परिधान में लिपटी मानसिक गुलामी के दोष का अपकार कर उस मनुष्य को पुनः प्राप्त कर सके जो काल के थपेड़ों से इस भारतभूमि में कहीं खो गया था। वह मनुष्य जो आदमी बनकर अनेक प्रकार के भेद निहित स्वार्थ और मनमोहक नारों के साथ अपने तादात्म्य से मानवीय भावों से दूर होकर एक दिशाहीन यात्रा की ओर बढ़ रहा है। उसी मनुष्य केा पाने का नेतृत्व इस समय अपेक्षित है। इसलिए भी कि कोविड-19 के साथ ही जीवन चर्या और चिंतन में सुधार होने की पूरी गुंजाइश है। और यह श्रीकृष्ण की धरती पर रास्ते से भटके हुये लोगों की अनुवंशीय धरोहर का एहसास कराकर सही रास्ता दिखाने से ही सम्भव है और इसके लिये भारत भूमि में पर्याप्त पोषक तत्व हैं। आवश्यकता है बस यह कि जो है उसे महसूस किया जाय।

 जो है उसे महसूस कर विदेही जनक की स्थिति प्राप्त करना आसान तो नहीं है पर भूमि और अनुवंशीय प्रभाव को ध्यान रखते हुये इतना कठिन भी नहीं है कि उसे अपना लक्ष्य न बनाया जा सके। आवश्यकता है एक दृढ़ संकलप की और उस दृष्टि की जो विस्तारवादी तत्वों के उदय से राजनीतिक और उसके बाद मानसिक परतंत्रता के कारण हमसे बिछुड़ गई। हमें अपने पूर्वजों के उसी तिलिस्म में लौटना होगा जिसके सृजन से उन्होंने हमें और विश्व को अद्भुत सृजन का उपहार दिया। ऐसा जीवन दर्शन दिया जो सभी सीमाओं को तोड़कर एक खुशहाल विश्व की ओर कदम बढ़ाता है।

 ब्रह्माण्ड की उस एकल शक्ति से जुड़ने का योग जो जीवन के प्रत्येक पक्ष को अपने भीतर आत्मसात करके आनन्दमयी जीवन क्षेत्र में प्रवेश का द्वार खोलता है। आज हम सक्षम नेतृत्व की बदौलत सारे संसार में ‘योगा’ से अप्रभ्रंशित ‘योग’ को स्वास्थ्य और जीवन शैली में ‘अंतराष्ट्रीय योग दिवस’ के रूप में स्थापित करके महत्व दिलाने में सफल तो हुये हैं किन्तु योग की अनन्त शक्ति को ध्यान में रखकर हमें उस दिशा में वेदों-उपनिषदों से जुड़कर और गहरे उतरने की तरफ बढ़ना चाहिये। इस समय यह इसलिये भी आवश्यक है कि हमें दिग्भ्रमित करने के लिए आभासीय जगत ;टपतजनंस ॅवतसकद्ध का जिन्न हमें निगलने को तैयार है और पहले से दलदल में फंसी हुई हमारी मानसिकता के सामने आज ही ऐसा अवसर है कि उससे बाहर निकलकर ठोस धरातल पर खड़े होकर हम अपनी अस्मिता को पायें। यदि इस समय हम चूक गये तो एक राष्ट्र के रूप में हमारा पिछड़ना अवश्यम्भावी है। अदम्य महत्वाकांक्षा लिये हमारा पड़ोसी देश और पहले से ही विभाजनकारी शक्तियों से संघर्षरत हमारा जनमानस जीवनदायी प्राणवायु की ओर उन्मुख है ताकि वह चेतना के मौलिक स्वरूप को प्राप्तकर बदली हुई परिस्थतियों में पुनः अपना गौरव प्राप्त कर सके। कोविड-19 के साथ पैदा हुई रिक्ति और वर्तमान में उपलब्ध सशक्त मन्त्रदृष्टा नेतृत्व के रहते हुये एक नये राष्ट्र के रूप में उदय का यह स्वर्णिम अवसर है।

 सतही तौर पर ऊपर जो भी लिखा गया है उसका उद्देश्य समझ में नहीं आता है। ठीक है, सभी तो अपने-अपने अनुसार राष्ट्र के उत्कर्ष में अपना योगदान दे रहे हैं फिर क्या अलग अपेक्षित है? यहां पर एक बात बारीकी से ध्यान देने लायक है। जैसा कि पहले कहा गया है मध्य चालीस और पचास के दशक में पैदा हुये लोग, जिनमें से एक लेखक भी शामिल हैं, ऐसे दौर से गुजरे हैं जो सामान्य तौर पर घोर नैतिक पतन का और अपवाद स्वरूप उच्चस्थ नैतिक मूल्यों का साक्षी रहा है। इसका निहितार्थ यही हुआ कि हमारे खून में प्रकाश की ओर बढ़ने का गुण तो है पर सन 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के साथ राजनैतिक तौर पर उस धरातल के अभाव ने जो वर्ष 1982 से पा्ररम्भ होकर अंततः वर्ष 2014 में ठोस रूप ले सका, एक ऐसी अकर्मण्य, उदासीन, दिशाहीन, विभाजनकारी और रूग्ण मानसिकता को जन्म दिया जिसके लिये अपना सुख और स्वार्थ ही सर्वोपरि है। इस माहौल में उभरती हुई लगभग तीन पीढ़ियाँ या तो अपने अतीत को उपेक्षा की दृष्टि से देखती हैं या उसके महिमामंडल से अपनी पीठ ठोक कर ही अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेती हैं। इस बिन्दु पर आभासी जगत ;टपतजनंस ॅवतसकद्ध का धुआँ उनकी सेाच को न केवल कोई दिशा ही नहीं लेने देता वरन वर्तमान में सकारात्मक सोच की ओर किये जा रहे प्रयासों की ओर भी उदासीन रखता है। फलस्वरूप हताशा, कुंठा, अकेलापन, अपराध और नकारात्मक मानसिक पक्ष की ओर उसका प्रवाह हो जाता है। वे अपने परिवार, वृहद परिवार, समाज और राष्ट्र से नहीं जुड़ पाते हैं और न ही उसके प्रति उनका कोई सरोकार बन पाता है।

 पिछले साठ-सत्तर वर्षों में राष्ट्र एक ठोस मौलिक केन्द्रीकृत धरातल न बनने के कारण पिछड़ गया है। आवश्यक है कि अविलम्ब कुप्रबन्ध से प्रभावित पीढ़ी को उदय होते हुये नये भारत की ओर आकर्षित किया जाय। यहां पर ‘लोकल इज वोकल’, ‘मेक इन इंडिया’ इत्यादि का दर्शन शीघ्रतिशीघ्र हृदयगम किया जाना चाहिये। उस आदमी की खोज की जानी जरूरी है जो कहीं खो गया है। ‘खोया हुआ आदमी’ शीर्षक की कविता में यही वेदना उभरकर आती हैः-

खोया हुआ आदमी, सोया है या जागा है खुद से ही क्यों भागा है मुठ्ठी में दुनिया है, हाथों में माया है फिर भी क्यों खुद से भरमाया/घबराया है जाति में खोया, पाति में खोया रूप, रंग, अंग-ढंग में खोया बारह सौ साल की नींद में सोया भूल गया जो उसने है खोया पूर्वजों के अभिमान को खोया अपने मिट्टी की शान को खोया अब तो जागे सूरज उग आया है स्वागत में उठा धरा माँ सरमाया है खोया हुआ आदमी सोया है या जागा है।   अपनी अस्मिता को खोने का दंश सहने वाली पीढ़ी ने ही आज देश को एक समर्थ और सक्षम नेतृत्व दिया है। यह इस शक्ति को ठोस धरातल देने के प्रयोजन में लगी संस्थाओं और व्यक्तियों की मेहनत का ही परिणाम है। किन्तु विस्तारवादी, विभाजनकारी और बाजार केन्द्रित अन्तर्राष्ट्रीय और उसके समर्थक अन्तर्विरोधी वर्ग का प्रयास है कि पहले से अस्थिर धरातल को यथास्थिति रहने दिया जाय ताकि उनके अपने-अपने स्वार्थ पूरे होते रहें । मध्य एशिया में प्रत्येक दृष्टि से महत्वपूर्ण ‘जम्बू द्वीपे भारत खण्डे’ नामक भूखण्ड। जिसे कुटिल बुद्धि विलास से ‘इंडिया’ या ‘हिन्दुस्तान’ बनाया गया है, पुनः भारत होने के अपने गौरव को हासिल न कर सकें।

 क्योंकि जैसा कि प्रधानमंत्री जी का कहना है कि 130-35 करोड़ का यह देश अपूर्व क्षमता और संभावनाओं से भरा हुआ है। आवश्यकता है एक से प्रारम्भ हुई एक सौ तीस-पैंतीस करोड़ तक पहुंचने की यात्रा के पथिक इकाई मनुष्य की उस खोज को प्रारम्भ करने की जो बहुत पहले परिस्थितिवश बंद कर दी गई थी। जटिल संरचना वाला मनुष्य जिसे शरीर विज्ञान स्थूल अंगों से प्रारम्भ कर न्यूरोफिजिक्स के बहुत गहरे रहस्य तक देख कर हाथ मलता रह जाता है, उसी मनुष्य को इस भूमि से निकले वेद-उपनिषद पूरे ब्रह्माण्ड से जुड़ी ऊर्जा तरंग का स्वामी मानती है जो अनन्त शक्ति का स्त्रोत है। वह मनुष्य रोग, शोक इत्यादि व्याधियों से परे है।

 अफसोस है कि सामान्य तौर पर हमारी आज की पीढ़ी इस तथ्य से अनभिज्ञ है। इसलिए कि उसे ऐसा माहौल ही नहीं मिल सका जिससे उसे अपने अंदर विद्यमान अद्भुत शक्ति का अंदाजा हो सके या उस वातारण से उसमें उस शक्ति का संचार हो। विभाजनकारी वातावरण ने उसे विभाजित व्यक्तित्व का उपहार दिया जो केवल अपने सुरक्षा कवच में कैद रहकर एक शेाषण उन्मुख व्यवस्था को पोषित  करता है। जिसे शारीरिक सौष्टव के लिए जिम और उससे जुड़े उत्पादों, शक्तिवर्द्धक पेयों और स्वस्थ रहने के लिए अंग्रेजी दवाईयों पर ज्यादा भरोसा है। वह नहीं जानता कि मन को नियंत्रित रखने, प्रकृतिस्थ रहने, प्रकृति प्रदत्त वनस्पतियों, औषधियों, संयमित जीवनचर्या और वृहद परिवार तथा समाज से जुड़ाव रखने से वह अपने भीतर ही शांति और संतोष का अक्षुण्ण स्त्रोत पा सकता है। जिसे पहचानने पर भी वह भौतिक जगत में समान रूप से सफलता की सीढ़ियां चढ़ सकता है। आवश्यकता केवल दृष्टिकोण बदलने की है। जड़ों से जुड़ा हुआ वृक्ष ही आंधी, तूफानों में अडिग रह सकता है।

 इस प्रकार मनुष्य बनने की प्रक्रिया में निम्न से मध्य और उच्चस्थ श्रेणियों की परिधि में आने वाले लाभार्थियों का स्वाभाविक तौर पर जैसा कि वर्तमान में अंशतः दिखता भी है, उन तथ्यों से अवगत होना आवश्यक है जो अभी तक या तो तोड़-मरोड़कर प्रचारित किये गये या प्रकाश में नहीं लाये गये ताकि समग्रता में भारत भूमि का गौरव पृष्ठभूमि में रहे। कला, संगीत, साहित्य, खेल, स्थापत्य, शौर्य और इतिहास के गौरवशाली अतीत समान्य जन की जानकारी में नहीं आ पाये ताकि अपनी अस्मिता के जागरण की उपेक्षाकर राष्ट्र का जनमानस दिशाहीन होकर या तो बाजारू फार्मूले का अनुसरण करे अथवा कुंठित होकर समय का दुरुपयोग करे। जीवन के मार्गदर्शक ग्रन्थों यथा श्रीमद्भागवत गीता, रामायण ओर महाभारत इत्यादि लोकप्रिय तो हुये पर एकात्म जीवन दर्शन के अभाव में उनका प्रभाव व्यक्तित्व निर्माण में नहीं पड़ा। फलस्वरूप विश्वगुरू के पद पर प्रतिष्ठित एवं सम्मानित देश ने अपने महत्व को कम कर दिया। कोविड-19 से उत्पन्न हुई रिक्ति उस भावना केा पुनः प्रतिष्ठित कर विश्व समुदाय का नेतृत्व करने में सक्षम हो सकती है। बशर्ते प्रत्येक देशवासी इसके लिए संकल्पबद्ध हो।

कला, संगीत, साहित्य, खेल, स्थापत्य, शौर्य और इतिहास के गौरवशाली अतीत समान्य जन की जानकारी में नहीं आ पाये ताकि अपनी अस्मिता के जागरण की उपेक्षाकर राष्ट्र का जनमानस दिशाहीन होकर या तो बाजारू फार्मूले का अनुसरण करे अथवा कुंठित होकर समय का दुरुपयोग करे। जीवन के मार्गदर्शक ग्रन्थों यथा श्रीमद्भागवत गीता, रामायण ओर महाभारत इत्यादि लोकप्रिय तो हुये पर एकात्म जीवन दर्शन के अभाव में उनका प्रभाव व्यक्तित्व निर्माण में नहीं पड़ा। फलस्वरूप विश्वगुरू के पद पर प्रतिष्ठित एवं सम्मानित देश ने अपने महत्व को कम कर दिया। कोविड-19 से उत्पन्न हुई रिक्ति उस भावना केा पुनः प्रतिष्ठित कर विश्व समुदाय का नेतृत्व करने में सक्षम हो सकती है। बशर्ते प्रत्येक देशवासी इसके लिए संकल्पबद्ध हो।

 खोया हुआ आदमी (सृजन का तिलिस्म) सिद्धान्त की नहीं व्यवहार में प्राप्त की जाने वाली विद्या है जो अन्यथा यथार्थ के प्रति सुषुप्तावस्था को जगाने की ओर एक संकेतक है। यह लेख इसी दिशा में एक वरिष्ठ नागरिक का अकिंचन प्रयास है।

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