महेश वर्मा की ताजा कविताएँ यहाँ प्रस्तुत हैं. हिंदी के इस शानदार कवि की कविताओं से अपनी तो संवेदना का तार जुड़ गया. पढ़कर देखिये कहीं न कहीं आपका भी जुड़ेगा- प्रभात रंजन
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पिता बारिश में आएंगे
रात में जब बारिश हो रही होगी वे आएंगे
टार्च से छप्पर के टपकने की जगहों को देखेगें और
अपनी छड़ी से खपरैल को हिलाकर थोड़ी देर को
टपकना रोक देंगे
ओरी से गिरते पानी के नीचे बर्तन रखने को हम अपने बचपन में दौड़ पड़ेंगे
पुराना घर तोड़कर लेकिन पक्की छत बनाई जा चुकी
हमारे बच्चे खपरैल की बनावट भूल जायेंगे
पिता को मालूम होगी एक एक शहतीर की उम्र
वे चुपचाप हिसाब जोड़ लेंगे मरम्मत का
वह बारिश की कीमत होगी जो हमारी ओर से चुपचाप वे चुकायेंगे
उनका छाता, रेनकोट और बरसाती जूता
छूने की अब भी हमारी हिम्मत नहीं है
न उनके जैसा डील किसी भाई को मिला है
मां उस सूखे रेनकोट को छू रही है.
पिता आयेंगे .
मातृभाषा
यह मेरे चोट और रूदन की भाषा है।
इतनी अपनी है कि शक्ति की भाषा नहीं है।
यह मैं किसी और भाषा में कह ही नहीं पाता
कि सपनों पर गिर रही है धूल
तहखाने में भर रही रेत में सीने तक डूबने
का सपना टूटने को है डर में, अंधेरे में और प्यास में तो
यह एक हिन्दी सपने के ही मरने की दास्तान है.
मैं अपने आत्मा की खरोंच इसी भाषा के पानी से धो सकता हूँ
यहीं दुहरा सकता हूँ जंगल में मर रहे साथी का संदेश
मेरी नदियों का पानी इसी भाषा में मिठास पाता है
मैं अपने माफीनामे, शोकपत्र और प्रेमगीत
किसी और भाषा में लिख नहीं सकता.
इसी भाषा में चीख सकता हूँ
इसी भाषा में देता हूँ गाली.
पुकारु नाम
पुकारु नाम एक बेढंगा पत्थर है
एक अनाजन पक्षी का पंख, बेकीमत का मोती
बचपन के अकारण बक्से में संभाल कर रखा हुआ.
इसे जानने वाले सिर्फ तेरह बचे संसार में
सबसे ज़ोर से पुकारकर कहीं से भी बुला लेने वाले पिता
नहीं रहे पिछली गर्मियों में
कभी उन्हीं गर्मियों की धूप पुकारती है पिता की आवाज़ में
घर लौट जाओ बाहर बहुत धूप है
धूप से आगाह करती धूप की आवाज़
पुकारु नाम बचपन की बारिश का पानी है
जिसे बहुत साल के बाद मिलने वाला दोस्त उलीच देता है सिर पर
और कहता है बूढ़े हो रहे हो
मैं उसके बचपन का नाम भूल चुका प्रेत हूँ
मैं उसके सिर पर रेत डाल दूता हूँ कि तुम अब भी वैसे ही हो
जवान और खू़बसूरत.
हम विदा के सफ़ेद फूल एक दूसरे को भेंट करने का मौका ढूंढ रहे हैं
एक पुरानी उदासी का पुकारु नाम हमारी भाषा में गूंजने लगता है
राख़
ढेर सारा कुछ भी तो नहीं जला है इन दिनों
न देह, न जंगल, फिर कैसी यह राख़ हर ओर ?
जागते में भर जाती बोलने के शब्दों में,
क़िताब खोलो तो भीतर पन्ने नहीं राख़ !
एक फुसफुसाहट में गर्क हो जाता चुंबन
राख़ के पर्दे,
राख़ का बिस्तर,
हाथ मिलाने से डर लगता
दोस्त थमा न दे थोड़ी सी राख़ ।
बहुत पुरानी घटना हो गई कुएँ तालाब का पानी देखना,
अब तो उसको ढके हुए हैं राख़ ।
राख़ की चादर ओढ़कर, घुटने मोड़े
मैं सो जाता हूँ घर लौटकर
सपनों पर नि:शब्द गिरती रहती है- राख़ ।
इन कविताओं की भाषा जितनी सहज और सरल है तासीर उतनी ही गूढ़ और संवेदनशील, कवि की व्यथा और दर्द शीशे की तरह पारदर्शी। महेशजी की कविताओं की विशेषता है वो जल्दी से पाठक का साथ नहीं छोड़ती।
मां उस सूखे रेनकोट को छू रही है.
पिता आयेंगे
मैं अपने माफीनामे, शोकपत्र और प्रेमगीत
किसी और भाषा में लिख नहीं सकता.
इसी भाषा में चीख सकता हूँ
इसी भाषा में देता हूँ गाली.
घर लौट जाओ बाहर बहुत धूप है
धूप से आगाह करती धूप की आवाज़
मैं सो जाता हूँ घर लौटकर
सपनों पर नि:शब्द गिरती रहती है- राख़
महेशजी को एक बार सुन चुका हूं शायद भारत भवन में परंतु यह सांद्रता, यह ठहराव वहां नहीं महसूस कर पाया था। शायद सुनने और पढ़ने में फर्क आ जाता है। शिरीष भाई की बातों से सहमत। महेश जी को हार्दिक बधाई। और कविताएं पढ़ने की इच्छा हो रही है। प्रभात भाई को धन्यवाद, हमेशा की तरह एक बार फिर हसीन पंक्तियां मुहैया कराने के लिए।
मैं अपने माफीनामे, शोकपत्र और प्रेमगीत
किसी और भाषा में लिख नहीं सकता.
इसी भाषा में चीख सकता हूँ
इसी भाषा में देता हूँ गाली.
sundar pankthiyam .Mathrubhasha par isse achi kavitha ho nahi sakthi. baaki ki kavithayeim bhi Achi lagi. badhayi mahesh ji ko
महेश की कविताओं का स्वर बहुत गाढ़ा होता जा रहा है। अब उसमें फंस जाना होता है। वह देर तक लिपटा रहता है। हमारा यह साथी कवि अपनी विनम्रता, सलीके और कहन के जरिए बहुत ऊंचा उठ गया है हमारे लिए, जबकि कविताएं बहुत शोर मचाने लगी हैं आजकल वह चुपके से एक ठहरी हुई बात कहता है और धीमे-धीमे पकने देता है, उस बात में कोहराम नहीं, रोशनी होती है। सलाम महेश। प्रभात शुक्रिया।