युवा शायर सीरीज में आज पेश है नज़ीर ‘नज़र’ की ग़ज़लें – त्रिपुरारि ======================================================
ग़ज़ल-1
वो शे’र सुन के मिरा हो गया दिवाना क्या
मैं सच कहूँगा तो मानेगा ये ज़माना क्या
कभी तो आना है दुनिया के सामने उसको
अब उसको ढूँढने दैरो-हरम में जाना क्या
ख़ुशी के वास्ते जद्दो-जहद बहुत की है
पड़ेगा वैसे मुझे दर्द भी कमाना क्या
सुना है काम चलाते हो तुम बहानों से
उधार दोगे मुझे भी कोई बहाना क्या
तुम्हारी यादों की गर्मी है सर्द रातों में
लिहाफ़ ऐसे में अब ओढ़ना-बिछाना क्या
जलेगा जितना भी दुनिया को रौशनी देगा
चराग़े-इल्मो-हुनर है इसे बुझाना क्या
तबाह करने पे आये तो फिर नहीं सुनती
वो नर्मरौ है नदी का मगर ठिकाना क्या
ग़ज़ल-2
अंतर्मन में जब बलवा हो जाता है
रो लेता हूँ मन हल्का हो जाता है
कैरम की गोटी सा जीवन है मेरा
रानी लेते ही ग़च्चा हो जाता है
रोज़ बचाता हूँ इज्ज़त की चौकी मैं
रोज़ मगर इस पर हमला हो जाता है
कैसे कह दूँ अक्सर अपने हाथों से
करता हूँ ऐसा, वैसा हो जाता है
पीछे कहता रहता है क्या-क्या मुझको
मेरे आगे जो गूंगा हो जाता है
उसकी शख्सियत में मक़नातीस है क्या
जो उससे मिलता उसका हो जाता है
उस दम महँगी पड़ती है तेरी आदत
सारा आलम जब सस्ता हो जाता है
ठीक कहा था इक दिन पीरो-मुर्शिद ने
धीरे-धीरे सब अच्छा हो जाता है
ग़ज़ल-3
अगर वो हादिसा फिर से हुआ तो
मैं तेरे इश्क में फिर पड़ गया तो
कि उसका रूठना भी लाज़मी है
मना लूँगा अगर होगा ख़फ़ा तो
मिरी उलझन सुलझती जा रही है
दिखाया है तुम्ही ने रास्ता तो
यकीनन राजे-दिल मैं खोल दूंगा
दिया अपना जो उसने वास्ता तो
रुका बिलकुल नहीं वो पास आकर
मैं खुश हूँ कम-से-कम मुझसे मिला तो
चलो कुछ देर रो लें साथ मिलकर
कोई लम्हा ख़ुशी का मिल गया तो
तुझे महफूज़ कर लूँ ज़हनो-दिल में
मिला है तू कहीं फिर खो गया तो
नया रिश्ता निभाने की तलब में
अगर टूटा पुराना राबता तो
कलेजे से लगाकर रखते हम भी
हमें वो राज़ अपने सौपता तो
“नज़र” तुम ज़िन्दगी समझे हो जिसको
फ़क़त पानी का हो वो बुलबुला तो
ग़ज़ल-4
जीत कर भी फिर से हारी ज़िंदगी
पूछिए मत क्यूँ गुजारी ज़िंदगी
इक महाजन सबके ऊपर है खड़ा
जिसने हमको दी उधारी ज़िंदगी
चुना-कत्था लग रहा है आये दिन
पान बीड़ी और सुपारी ज़िंदगी
इक तरफ महमूद सा अंदाज़ है
इक तरफ मीना कुमारी ज़िंदगी
हो गई है इस ‘हनी’ से बोर जब
फिर तो बस ‘राहत’ पुकारी ज़िंदगी
चैन की फिर नींद आई क़ब्र में
अपने तन से जब उतारी ज़िंदगी
ग़ज़ल-5
किया तुमने भी है कल रतजगा क्या
तुम्हें भी इश्क़ हमसे हो गया क्या
मिरा तू मुद्द’आ तू मस’अला थी
बिछाता गर तुझे तो ओढ़ता क्या
यहाँ जिसको भी देखो ज़ोम में है
हमारे शहर को आख़िर हुआ क्या
मिरे अत’राफ़ में तेरी सदा थी
तुझे दैरो-हरम में ढूंढता क्या
ज़माने भर को मुझमें खोजती है
मैं उसके वास्ते गूगल हुआ क्या
है तेरे ज़हन में तर्के-त’अल्लुक़
तुझे फिर हमसा कोई मिल गया क्या
भटकना जब मेरी क़िस्मत में शामिल
पता सहराओं का फिर पूछना क्या
मैं उसके साथ उड़ता जा रहा था
मिरे पीछे थी वो बहकी हवा क्या
ज़माने पर भरोसा कर लिया है
‘नज़र’ तू हो गया है बावला क्या
ऐ ज़िन्दगी मुझ पर अहसान करती है .
हमारे कारनामों का सदा मीज़ान करती है .
वफ़ा के नाम पर सौदा किये जाते रहे .
के ऐसे ज़िन्दगी के मरहले जाते रहे .