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गंगूबाई हंगल को सुनना आत्मा के बतियाने को सुनना है


 
अनिरुद्ध उमट समर्थ कवि, कथाकार के रूप में जाने जाते हैं. संगीत, कलाओं में गहरी रूचि रखते हैं. यह लेख उन्होंने गंगूबाई हंगल के संगीत का आनंद उठाते हुए लिखा है. आप भी पढ़िए, कुछ आनंद ही आएगा- मॉडरेटर. 
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रात के घने अँधेरे में या दिन की नीली दोपहर में एक विशाल पक्षी उड़ता है, जिसके पंखों के मध्य से हवा, रात, दिन, अंधियारा, उजाला सरसराता गुजरता है. वह पक्षी कहीं नही जाता, कहीं नही से आता, केवल हवा, रात, दिन को पंखों से गूंथता, उलीचता, मरोड़ता, भींचता, उड़ता रहता  है.
उस अखिल असीम अनन्त में जो ध्वनि गूँजती, व्यापती है उसे एक जनम में ठीक से किसी क्षण सुन पाना भी बहुत मुश्किल होता है. वह होती है, होती रहती है,अपने होने में ही गूँजती, लाँघती, थमती, जमती। उसकी व्यापकता, गहराई का माप उसके होने मात्र में ही निहित होता है.
रेतीले धोरे जब इस छोर से उस छोर तक फैले, पसरे होते हैं तब शाम को एक ऊँट अपनी पीठ पर सूर्य को लिए.धीमेधीमे चलता दूर कहीं देखता है , इस बीच जाने कब पीठ पर टिका सूर्य अपने ठिकाने को देख उतर जाता है और ऊँट को पता भी नही चलता या पता चलता भी है तो यह उसकी किसी चिंता का कारण या चलते रहने में कोई बाधा नही बनता। उसके पसरे पंजे रेत  में धंसते – निकलते रहते हैं. उसके चलने की गति,लय,छाया में कोई आवाज उठती, फिसलती, उपजती है, जिसे केवल रेत का सन्नाटा सुनता है, और अपने भीतर एक सीढ़ी और उतर जाता है.  
जो लोग शोक में डूबे होते हैं उन्हें जीवन बहुत आहिस्ता से कंधे पर थपथपाता है, वे मुड़ कर देखते हैं तो वहाँ कोई दिखाई नही देता। केवल थपथपाहट कि नम छाया होती है।  उनका शोक किसी कपूर कि टिकिया कि तरह उड़ नही जाता, वह केवल अधिक दिखने से ज़रा-सा परे हो एक सीढ़ी और भीतर उतर जाता है.
गंगूबाई हंगल को सुनना आत्मा के बतियाने को सुनना है। 
उनके गान में जो भी अकेला है, शोकाकुल है या जो अपने अस्तित्व के प्रश्नो से नित बिंधा जा रहा है, उसका शरण स्थल है. जिसे कहीं जाना है उसके लिए मार्ग, द्वार खुला है वह जहां जाना है जा सकता है. जिसे कहीं नही जाना है, एक जगह समाधि लगा बैठने में ही जिसकी यात्रा का अर्थ है, यात्रा है, उसके लिए भी मार्ग व द्वार उपलब्ध है। 
जिसे ढेरों रंग नही चाहिए वह अपने पसंदीदा किसी एक नीले, भूरे या सलेटी किसी को भी मथता रह सकता है। 
जीवन की कोई शर्त नही वह हर हाल में घटित होता रहता है, गंगूबाई का गान भी ऐसी ही प्रकृति रखता है.
उनकी आवाज, दूसरी आवाज के साथ भी गाती है, जुगलबंदी करती है उसी क्षण निरंतर वह अकेली भी गूंजती, उठती, मौन रह सकती है. उनके मौन से किसी का मौन खडित नही होता। न उनके उल्लास से किसी का उल्लास, रंग फीका पड़ता है.
वहाँ केवल जीवन का नैसर्गिक गान है।  इस नैसर्गिकता की दिव्यता का अन्य किसी से कोई दुराव, छिपाव नहीं।  इसकी पारदर्शिता इसकी निर्मल स्फटिक उपस्थिति मानव जीवन की ऐसी घटना है जिसे ईश्वरत्व ही छू   सकता है।  
अवसाद के क्षणो में, अवसान के क्षणो में यह गान अविश्वसनीय लगता है और जीवन से पुनः पुनः बहसने का संबल देता  है। यह मनुष्य योनि में किसी साक्षात चमत्कार से रूबरू होने जैसा है. जो नही है उसे, और सर्वाधिक उपस्थित दीखता है उसके मध्य यह गान विकसित होता, बहता एक ऐसा वातावरण निर्मित करता है जो कला क्षणो में अकथनीय, अनिर्वचनीयता कि पराकाष्ठा को छूता , भिगोता है.
गंगूबाई को सुनना, बार बार, अलग अलग रागों में , अंततः एक दिन एक राग, एक गान भी हो जाना है. यहाँ घराना, परंपरा, राग -भेद एक क्षण बाद अपने को स्वंय ही भार समझ त्यागने लगते हैं.खुद भी हल्के होते है और दूसरे को भी हल्का, स्वायत्त करते, मुक्त करते रहते है.
जो लोग संगीत में सूक्ष्मता, व्याकरण के ज्ञानी  और कायल है उनकी निश्चिंतता का तो ठौर यहाँ  है ही साथ ही इस सब गणित से परे के वाशिंदे हैं, उनके लिए भी यहाँ भरपूर आश्वासन, अपनापन, आवास है, हवा-पानी और छाया है.
लगता है जैसे उनका गान ज्ञानियों के ज्ञान का अतिक्रमण करता भावुक भावकों के सूखे तटों को भिगोने, गुंजाने, तोड़ने, बहाने के लिए अधिक है. और वे भावक अपने को बहाने, टूटने से क्षण भर को भी नही रोकते।वे तो इसी प्रतीक्षा में सांस थामे बैठे होते हैं, जन्मो से। 
अपने विलंबन में गंगूबाई जिस तरह अपने श्रोता को अपने भीतर स्थान देती, भिगोती है वह इस कदर दीर्घ, सघन होता है कि वहाँ द्रुत की आकांक्षा अधिकांशतः दूर ठेली जाती रहती है।  मगर जब द्रुत का झूलना-पालना आता है तो भावक पाता है कि गंगूबाई के चेहरे पर कैसा ममत्व, कैसा राग, कैसा ओज, कैसी दिव्यता, जीवन कि अर्थमयता दिपदिपाने लगती है। 
वे जब अपनी सहगायिका पुत्री कृष्णा के साथ गाती हैं तो लगता है जैसे वे कोई टेक ले नही रही बल्कि दे रही हैं. दोनों संपूर्ण गायिकाएं हैं, सहगायिका कोई नही. यह कला-जीवन के पवित्र क्षणो में ही संभव होता है. यहाँ उनकी व कृष्णा की आवाज, लयकारी, रंग, उठत, चलत  ……. सब कुछ अपने-अपने साथ होता है, फिर किसी एक क्षण दोनों लहरें एक दूजे में घुल-मिल जाती है.
दशकों पहले के उनके गान को सुनने से लगता है जैसे वह बरसों बाद के गान को आज ही संभव कर रही है, गा रही है. कहीं किसी दूरी की छाया नहीं।काल उनके गान में एकाकार होता है. सघन  से सघनतर। कोई उछाल या अचानक की चमक नहीं केवल व्यापक का व्यापकतर होते जाना।
जीवन में जिन संघर्षों का उन्होंने सामना किया,
 
      

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4 comments

  1. yah lekh apne aap me ek geet hai.

  2. लगा जैसे पढ़ नहीं रहे… सुन रहे है. इस लेख तक बार-बार लौटना होगा

  3. आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (21.03.2014) को "उपवन लगे रिझाने" (चर्चा अंक-1558-)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें, वहाँ आपका स्वागत है, धन्यबाद।

  4. 'गंगूबाई हंगल को सुनना आत्मा के बतियाने को सुनना है।' अनिरुद्ध उमट को पढना शब्दातीत अनुभव है. गंगूबाई के गायन पर बहुत महत्वपूर्ण लेख.

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